जब मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्तव को प्राप्त करने के लिए तीन करण करता है उस समय उसके आयु कर्म के सिवा शेष सात कर्मों की बहुत निर्जरा होती है । जब वह सम्यग्दृष्टि हो जाता है तो उसके पहले से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है । जब वह श्रावक हो जाता है तो उसके सम्यग्दृष्टि से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है । श्रावक से जब वह सप्तम गुणस्थानवर्ती मुनि हो जाता है तो उसके श्रावक से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है ।जब वह मुनि होकर अनंतानुबंधी कषाय को शेष कषाय रूप परिणामा कर उसका विसंयोजन करता है तो उसके मुनि से भी अंसख्यात गुणी निर्जरा होती है । उसके बाद जब वह दर्शन मोहनीय कर्म का क्षय करता है तो उसके विसंयोजन काल से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है । उसके बाद जब वह समस्त मोहनीय कर्म का उपशम करके उपशान्त कषाय गुणस्थान वाला हो जाता है तो उसके उपशम अवस्था से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है । वहीं जीव जब उपशम श्रेणी से गिरने के बाद क्षपक श्रेणी पर चढ़ता है तो उसके ग्यारहवें गुणस्थान से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है ।
जब समस्त मोहनीय कर्म का क्षय करके क्षीण कषाय हो जाता है तो उसके क्षपक अवस्था से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है और जब समस्त घातियां कर्मो को नष्ट करके केवली हो जाता है तो क्षीणकषाय से भी असंख्यात गुणी निर्जरा होती है ।