गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रन्थ में उपशम सम्यक्त्व का स्वरूप बताया है –
‘‘दंसण मोहुवसमदो, उप्पज्जइ जं पयत्थ सदृहणं । उवसमसमत्त्मिणं, पसण्ण मलपंकतोय समं । सम्यक्तव विरोधनी पाँच अथवा सात प्रकृतियों के उपशम से जो पदार्थों का श्रद्धान होता है उसको उपशमसम्यक्त्व कहते है ।
उपशम सम्यक्त्व के दो भेद है – प्रथमोपशम सम्यक्त्व और द्वितीयोपशम सम्यक्त्व | पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से छूटने पर जो उपशम सम्यक्त्व होता है उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते है और उपशम श्रेणी चढ़ते समय क्षयोपशम सम्यक्त्व से जो उपशम सम्यक्त्व होता है उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहते है प्रथमोपशम सम्यक्त्व होने से पहले मिथ्यात्व
गुणस्थान में ५ लब्धियां होती है ।- क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रयोग्य लब्धि और करण लब्धि । इनमें प्रारम्भ की ४ लब्धियां तो भव्य और अभव्य दोनों के हो जाती है किन्तु करणलब्धि भव्य के ही होती है तथा जब सम्यक्त्व होना होता है तभी होती है । जब अशुभ कर्म प्रति समय अनन्तगुनी कम – कम शक्ति को लिए हुए उदय में आते है तब क्षयोपशम लब्धि होती है इस लब्धि के प्रभाव से धर्मानुराग रूप शुभ परिणामों का होना विशुद्धि लब्धि है । आचार्य वगैरह के द्वारा उपदेश का लाभ होना देशना लब्धि है किन्तु जहां उपदेश होने वाला न हो जैसे चौथे आदि नरकों में वहाँ पूर्वभव में सुने हुए उपदेश की धारणा के बल पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है इन तीनों लब्धि वाला जीव प्रति समय अधिक – २ विशुद्ध होता हुआ आयु कर्म से सिवा शेष कर्मों की स्थिती जब अन्त: कोटा – कोटि सागर प्रमाण बांधता है और विशुद्ध परिणामों के कारण पूर्व बन्धी हुई स्थिति संख्यात हजार सागर कम हो जाती है उसे प्रायोग्य लब्धि कहते है । ५ वीं करण लब्धि में अध: करण, अपूर्वकरण और अनिवृतिकरण ये ३ तरह के परिणाम कषायों की मन्दता को लिए हुए क्रम वार होते है इनमे से अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व सम्यक्त्व और अनंतानुबंधी क्रोधादि ४ इन ७ प्रकृतियों का उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है । इसकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त है ।