कर्मो के उदय को कुछ समय के लिए रोक देना उपशम कहलाता है । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के निमित्त से कर्म की शक्ति प्रगट न होने को उपशम कहते हैं जैसे निर्मली के संयोग से मैले जल के मैल का एक ओर बैठ जाना । वैसे ही परिणाम विशेष के कारण विवक्षित काल के कर्म निषेको का अन्तर होकर उस कर्म का उपशम हो जाता है जिससे उस काल के भीतर आत्मा का निर्मल भाव प्रगट होता है । उपशम केवल मोहनीय कर्म ही होता है अत: मोहनीय कर्म के उपशम से आत्मा के जो भाव हो वह औपशमिक भाव है ।
औपशमिक भाव के दो भेद है –
तत्त्वार्थसूत्रग्रन्थ में लिखा है – ‘सम्यक्त्व चारित्रे’ अर्थात् औपशमिक सम्यक्त्व
औपशमिक चारित्र – अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान , माया , लोभ, मिथ्यात्व, सम्यड़्मिथ्यात्व और सम्यसम्यक्त्व इन सात कर्म प्रकृतियों के उपशम से जो सम्यसम्यक्त्व होता है उसे औपशमिक सम्यक्त्व कहते है ।
अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य तथा किसी – २ सादि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान , माया, लोभ इन ५ प्रकृतियो के उपशम से और किसी सादि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व और सम्यकप्रकृति तथा ४ अनंतानुबंधी इन ७ प्रकृतियों के उपशम से और किसी सादि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व और ४ अनंतानुबन्धी इन ६ प्रकृतियों के उपशम से जो भाव होते हैं वह औपशमिक सम्यक्त्व भाव है असंख्यात वर्ष (पल्य अथवा इससे अधिक वर्ष) की आयु वाले जीव के एक ही भव में दुबारा प्रथमोपशम सम्यक्त्व हो सकता है । किन्तु संख्यात वर्ष की आयु वाले के एक भव में केवल एक ही बार होता है ।
औपशमिक चारित्र – चारित्र मोहनीय कर्म की अप्रत्याख्यानवरणानि २९ प्रकृतियों के उपशम से जो भाव होते हे वह औपशमिक चारित्र भाव है । ११वे गुणस्थान में औपशमिक चारित्र भाव होता है