अंतरंग कारण को उपादान कहते हैं । अथवा जो स्वयं कार्यरूप परिणत हो जावे उसे उपादान कहते हैं । सहकारी कारण को निमित्त कहते है । जैसे सम्यक्तव की उत्पत्ति में बाह्य कारण जिनबिंब दर्शन हुआ और अन्तरंग कारण दर्शनमोह का उपशम, क्षय या क्षयोपशम हुआ एवं सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, ये आत्मा गुण है अत: आत्मा सम्यक्तव रूप से परिणत हुआ है । यहाँ पर आत्मा उपादान है तथा बाह्य और अभ्यंतर दोनों निमित्त कारण है ।
परन्तु कही कही पर अंतरंग हेतु को ही ‘उपादान’ नाम दे देते है जैसे पुरूषार्थ को निमित्त कहकर दैव को उपादान समझ लेना इत्यादि ।
बाह्य और अंतरंग कारण अथवा निमित्त उपादान कारण से ही समस्त कार्यों की सिद्धि होती है । जैसे निसर्गज सम्यक्त्व में बाह्य गुरूपदेश रूप कारणों की अपेक्षा नहीं है फिर भी जातिस्मरण और जिनबिंबदर्शन ये दो कारण माने है । वीरसेन स्वामी ने तो ‘इन दो कारणों के बिना असंभव है ’ऐसा पद दे दिया है तथा क्षायिक सम्यक्तव के लिए केवली या श्रुतकेवली का पादमूल आवश्यक है उसके बिना सात प्रकृतियों का क्षय असंभव है ।
जिन कारणों के होने पर कार्य हो अथवा न भी हो, किंतु जिन कारणों के बिना कार्य न हो वे समर्थ कारण माने जाते है । जैसे सम्यक्त्व के होने पर तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो न भी हो, किंतु सम्यकत्व के बिना तीर्थंकर प्रकृति का बंध असंभव ही है ।