-गीता छंद-
जो अंग ग्यारह पूर्व चैदह, धरते निज बु(ि में।
पढ़ते पढ़ाते या उन्हें, जो शास्त्रा हैं तत्काल में।।
वे गुरू पाठक मोक्षपथ, दर्शक उन्हीं की वंदना।
मन वचन तन से भावपूर्वक नित करूं आराध्ना।।1।।
-शंभु छंद-
ग्यारह अंगों में प्रथम कहा है, ‘‘आचारांग’’ साध्ुओं का।
कैसे आचरण करे कैसे, बैठें इत्यादिक प्रश्नों का।।
तुम यत्नाचार प्रवृत्ति करो, इस विध् िमुनिचर्या जो वर्णे।
इस अंगज्ञान युत उपाध्याय को शीश झुकाऊँ नत चर्णे।।2।।
व्यवहार ध्र्म को क्रिया कहे, स्वसमय परसमय निरूपे हैं।
वह ‘‘अंग सूत्राकृत’’ नाम ध्रे, उसको जो पढ़े प्ररूपें हैं।।
उन उपाध्याय को नित्य नमूं, वे भ्रमतम हरने वाले हैं।
शु(ात्मरूप आतम अनुभव, को प्रगटित करने वाले हैं।।3।।
एक जीव एक चैतन्यरूप, दो रूप ज्ञान दर्शन युत है।
एकेक अध्कि स्थानों से, ‘‘स्थान अंग’’ नित वर्णत है।।
इस अंग ज्ञान को उपदेशें, वे उपाध्याय शिव पथ दाता।
मैं उनको वंदूं भक्ती से, वे होवें भव दुख से त्राता।।4।।
जो द्रव्य क्षेत्रा औ काल भाव, इनकी सदृशता कहता है।
वह ‘‘समवायांग’’ कहा निजका, अज्ञान मोह सब हरता है।।
जो पढ़ें इसे पिफर निज आतम, अनुभव अमृत रस पीते हैं।
उन उपाध्याय को नित्य नमूं, वे कर्म अरी को जीते हैं।।5।।
है जीव नहीं या इत्यादिक, सो साठ हजार सुप्रश्नों का।
उत्तर देता है वह ‘‘व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग’’ पंचम रहता।।
इस अंगज्ञान को जो धरें, वे उपाध्याय गुरु होते हैं।
मैं वंदूं शीश नमा करके, वे कर्म कालिमा धेते हैं।।6।।
ध्र्मोपदेश तीर्थंकर का,जिसमें हैं बहुत कथायें भी।
गणध्र देवों के संशय को, जो दूर करें मनभायें भी।।
वह ‘‘ज्ञातृध्र्मकथनांग’’ श्रेष्ठ, उसको जो पढ़ें पढ़ावें भी।
उन गुरु को शीश नमा करके, हम नितप्रति धेक लगावें भी।।7।।
है ‘‘उपासकाध्ययनांग’’ कहा, जिसमें दर्शन आदिक प्रतिमा।
वरणी है ग्यारह भेदरूप, वह कहता श्रावक गुण गरिमा।।
इसके ज्ञाता मुनिवर नित ही, श्रावक का ध्र्म बताते हैं।
उनको हम शीश नमा करके, भव भव दुख दूर भगाते हैं।।8।।
एकेक तीर्थंकर के तीरथ में, नानाविध् उपसर्गों को।
सहकर करते निर्वाण प्राप्त, दश दश मुनि मैं वंदूँ उनको।।
उन ‘‘अंतकृती केवलियांे’’ का, जो विस्तृत वर्णन करता है।
उस अंगज्ञान धरी गुरु का, वंदन ही सब दुख हरता है।।9।।
प्रत्येक तीर्थंकर के तीरथ में, दारुण उपसर्गों को सहकर।
जन्में हैं पांच अनुत्तर में, दश दश मुनि अतिशय पा पाकर।।
वह ‘‘अनुत्तरोपपादिक दशांग’’, जिनमें इन सबका वर्णन है।
इस अंगज्ञानधरी )षि को, मेरा भी शत शत वंदन है।।10।।
आक्षेपिणि विक्षेपिणी कथा, संवेदिनि औ निर्वेदिनि का।
जिसमें वर्णन है किया गया, इन चार प्रकार कथाओं का।।
वह ‘‘अंग प्रश्न व्याकरण’’ नाम, उसका जो नित अभ्यास करें।
उन मुनि को शीश नमा करके, हम क्रम से यम का त्रास हरें।।11।।
जो कर्म प्रकृतियाँ पुण्य पाप,उनका पफल कैसे क्या मिलता?
इन सबका वर्णन जिसमें हो, वह ‘‘अंग विपाक’’ सूत्रा रहता।।
इस अंग ज्ञान को जो धरें, वे ग्यारह अंग ज्ञानध्र हैं।
उन उपाध्याय को मैं वंदूं, वे तारण तरण )षीश्वर हैं।।12।।
-कुसुमलता छंद-
चैदह पूर्वों मे ंपहला है, ‘‘उत्पादपूर्व’’ जग मान्य महान।
जो उत्पाद और व्यय ध््रुव का, छहों द्रव्य में करे बखान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।13।।
जो ‘‘अग्रायणीय पूरब’’ है, नय दुर्नय का करे विचार।
तत्त्व द्रव्य के परीमाण, का वर्णन करे सकल सुखकार।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।14।।
आत्मवीर्य परवीर्य आदि का, वर्णन करे बहुत विध्सार।
‘‘वीर्यानुप्रवाद पूरव’’ सो, श्री सर्वज्ञ कथित सुखकार।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।15।।
‘‘अस्ति नास्ति’’ इत्यादि सप्त, भंगी का वर्णन करे महान।
सभी वस्तु हैं स्वपर चतुष्टय, से अस्ती नास्ती गुणवान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।16।।
जीवादिक हैं अनादि अनिध्न, द्रव्यार्थिकनय करे बखान।
‘‘ज्ञानवाद’’ में सादि सांत भी, पर्यायार्थिक कहे सुजान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।17।।
वचनगुप्ति औ द्वादशभाषा, वचन प्रयोग वचन संस्कार।
‘‘सत्य प्रवाद पूर्व’’ कहता है, सत्य असत्य वचन परकार।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।18।।
जीव विज्ञ विष्णु भोक्ता है, शु( बु( चिद्रूप महान।
कर्मों का कत्र्ता अशु( भी, ‘‘आत्मवाद’’ नित करे बखान।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।19।।
कर्मों का संबंध् जीव के, साथ अनादि से दुखखान।
बंध् उदय सत्ता आदि का, ‘‘कर्मप्रवाद’’ करे व्याख्यान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।20।।
नियत समय अनियत समयों तक, उपवासादी प्रत्याख्यान।
इनकी विध् िआदि को वरणें, ‘‘प्रत्याखान पूर्व’’ अमलान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।21।।
रोहिणि आदि विद्याओं, अष्टांग निमित्तों का व्याख्यान।
‘‘विद्यानुप्रवाद पूरव’’ में, इसको पढ़े अचल गुणवान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।22।।
तीर्थंकर के पंचकल्याणक, पुरुष शलाका चरित प्रधन।
सूर्यादिक गति ग्रह आदिक पफल, कहे ‘‘कल्याणवाद’’ सुखदान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।23।।
देह चिकित्सा आठ अंग युत, आयुर्वेद व प्राणायाम।
‘‘प्राणावाय पूर्व’’ वर्णे नित, तनु रत्नत्राय साध्न मान।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाऊँ भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।24।।
कला बहत्तर नर की चैंसठ, गुण नारी के शिल्पकलादि।
‘‘क्रिया विशाल पूर्व’’ वर्णें नित, काव्यों की निर्माणकलादि।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफं भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।25।।
आठ भेद व्यवहार चारविध्, बीज मोक्ष गमनादि क्रिया।
‘‘लोकविंदुसार’’ कहता है, शिवसुख औ उसकी चर्या।।
इस पूरव ज्ञानी पाठक को, शीश नमाउफंँ भक्ति अपार।
स्वात्म सुधरस आस्वादी वे, हमको करें भवोदध् िपार।।26।।
-शंभु छंद-
इन ग्यारह अंग पूर्व चैदह, को पढ़ें पढ़ावें शिष्यों कों।
या द्वादशांग को भी जाने या, सब तात्कालिक शास्त्रों को।।
वे उपाध्याय गुरु पथ दर्शक, उनकी भक्ती जो करते हैं।
वे स्वात्मसुधरस पीकर के, कैवल्य ‘‘ज्ञानमति’’ लभते हैं।।27।।