-दोहा-
आगम नेत्रा तृतीय है, जिस साध्ू के पास।
वे शिव पथ परकाशते, नमूँ नमूँ सुखराशि।।1।।
-रोला छंद-
जय जय श्री गुरुदेव, उपाध्याय पदधरी।
जय जय तुम पदसेव, करते भवि नर नारी।।
जय जय मुनिगण वंद्य, ध्र्मामृत बरसाते।
जय जय तुम मुनिचंद्र, भव्य कुमुद विकसाते।।2।।
इंद्रपफणीन्द्र नरेंद्र, तुम पद भक्ति करे हैं।
सुर किन्नर गंध्र्व, तुम गुणगान करे हैं।।
तुम दर्शन से भव्य, सम्यग्दर्श लहे हैं।
पद पंकज आराध्य, सम्यग्ज्ञान लहे हैं।।3।।
मैं हूँ चिच्चैतन्य, परमानंद स्वरूपी।
शु( बु( अविरु(, अमल अकल चिद्रूपी।।
दर्श ज्ञान सुख वीर्य, सहज अनंत हमारे।
गुण अनंत चित्पिंड चिन्मय ज्योति संभारे।।4।।
रूप गंध् रस पफास, पुद्गल के गुण जानों।
पुद्गलनिर्मित देह, उसमें ही ये मानों।।
इंद्रिय मन औ वाक्, पुद्गल रूप कहे हैं।
निज आतम से भिन्न, सम्यग्ज्ञान लहे हैं।।5।।
पुण्य पाप द्वय कर्म, पुद्गल की रचना है।
इनमें हर्ष विषाद, कर भव दुख भरना है।।
निश्चय नय से शु(, ज्ञान स्वरूपी आत्मा।
परमाल्हाद अखंड सौख्य सहित परमात्मा।।6।।
पिफर भी यह व्यवहार, नय से कर्म सहित है।
चतुर्गती में नित्य, भ्रमता भ्रांति सहित है।।
अब निज को निज जान,पर को पर श्र(ाने।
तब चरित्रा को धर, सर्व कर्म मल हाने।।7।।
गुरु प्रसाद से आज, सम्यक् रत्न मिला है।
निज पर को प्रतिभास, सम्यग्ज्ञान खिला है।।
सम्यक् चारितपूर्ण, धरण शक्ति नहीं है।
जितना कुछ मुझ पास, उसमें दोष सही है।।8।।
करो कृपा गुरुदेव, शक्ती ऐसी पाऊँ।
पूर्ण चरित्रा विकास, करके कर्म नशाऊँ।।
निज को निज के हेतु, निज में ही पा जाऊँ।
फ्ज्ञानमतीय् कर पूर्ण, पेफर न भव में आऊँ।।9।।
-दोहा-
ज्ञान ध्यान तप में मगन, धरें गुण पच्चीस।
उपाध्याय गुरुवर्य को, नमू नमूँ नत शीश।।10।।