चतुर्विध संघ में जो मुनि पढ़ाने में कुशल हैं। चारों अनुयोगों में कुशल-निष्णात हैं। अनेक मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि को पढ़ाते हैं, प्रौढ़ हैं। वय में भी बड़ी उम्र के हैं। ऐसे मुनि को आचार्यदेव उपाध्याय पद प्रदान करते हैं। उसी की विधि यहाँ आगम के अनुसार दी जा रही है।
सुमुहूर्ते दाता गणधरवलयार्चनं द्वादशाङ्गश्रुतार्चनं च कारयेत्। तत: श्रीखंडादिना छटान् दत्वा तन्दुलै: स्वस्तिकं कृत्वा तदुपरि पट्टकं संस्थाप्य तत्र पूर्वाभिमुखं तमुपाध्यायपदयोग्यं मुनिमासयेत्। अथोपाध्यायपदस्थापन-क्रियायां पूर्वाचार्येत्याद्युच्चार्य सिद्धश्रुतभक्ती पठेत्। तत आवाहनादिमंत्रानुच्चार्य शिरसि लवंगपुष्पाक्षतं क्षिपेत्। तद्यथा-ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं उपाध्याय-परमेष्ठिन्! अत्र एहि एहि संवौषट्, आह्वाननं स्थापनं सन्निधीकरणं। ततश्च ‘‘ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं उपाध्यायपरमेष्ठिने नम:’’ इमं मंत्रं सहेन्दुना चन्दनेन शिरसि न्यसेत्। ततश्च शान्तिसमाधिभक्ती पठेत्। तत: स उपाध्यायो गुरुभत्तिं दत्वा प्रणम्य दात्रे आशिषं दद्यादिति।
शुभ मुहूर्त में जो यजमान या दाता गणधरवलय विधान पूजा और द्वादशांग श्रुत पूजा-श्रुतस्वंâध विधान या आयोजन अच्छे रूप में करें। पुन: दीक्षा के पांडाल में चौक बनवावें। सौभाग्यवती महिलाएँ श्रीखंड आदि केशर से वहाँ छींटे देकर तंदुल से स्वस्तिक बनावें। उस पर पाटा-नया पाटा स्थापित करें। उस पर उपाध्याय पद के योग्य ऐसे मुनि को पूर्व की ओर मुख करके बिठावें। पुन: उपाध्याय पद की स्थापना की क्रिया में आचार्यदेव भक्तिपाठ करें।
अथ उपाध्यायपदस्थापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्ववत् सामायिक दण्डक, नव जाप्य एवं थोस्सामिस्तव पढ़कर पृ. २८ से सिद्धभक्ति पढ़ें)
अथ उपाध्यायपदस्थापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं श्रुतभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
-आर्या छंद-
स्तोष्ये संज्ञानानि, परोक्षप्रत्यक्षभेदभिन्नानि। लोकालोकविलोकनलोलितसल्लोकलोचनानि सदा।।१।।
-श्रुतभक्ति चौबोल छंद-
लोकालोक विलोकन लोकित, सल्लोचन है सम्यग्ज्ञान। भेद कहे प्रत्यक्ष परोक्ष, द्वय हैं सदा नमूं सुखदान।।१।।
अभिमुखनियमितबोधनमाभिनिबोधिकमिंनद्रियेंद्रियजं। बह्वाद्यवग्र्हादिककृतषट्त्रिंशत्त्रिशतभेदम् ।।२।।
मतिज्ञान अभिमुख नियमित बोधन इन्द्रिय मन से उपजे। अवग्रहादिक बहुआदिकयुत, तीन सौ छत्तीस भेद लसें।।२।।
विविधद्र्धिबुद्धिकोष्ठस्टफुबीजपदानुसारिबुद्ध्यधिकं। संभिन्नश्रोतृतया सार्धं श्रुतभाजनं वंदे।।३।।
विविध ऋद्धि बुद्धि कोष्ठ स्फुट बीज सुपदानुसारी हैं। ऋद्धि कही संभिन्नश्रोतृता, इन युत श्रुत को वंदू मैं।।३।।
श्रुतमपि जिनवरविहितं, गणधररचितं द्व्यनेकभेदस्थम्। अंगांगबाह्यभावितमनंतविषयं नमस्यामि ।।४।।
जिनवर कथित रचित गणधर से, युत अंगांग बाह्य संयुत। द्वादश भेद अनेक अनंत, विषययुत वंदूं मैं जिनश्रुत।।४।।
पर्यायाक्षरपदसंघातप्रतिपत्तिकानुयोगविधीन् । प्राभृतकप्राभृतकं,प्राभृतकं वस्तु पूर्वं च।।५।।
पर्याय अक्षर पद संघात, प्रतिपत्तिक अनुयोग सहित। प्राभृत-प्राभृत कहे तथा, प्राभृतक वस्तु अरु पूर्व दशक।।५।।
तेषां समासतोऽपि च, विंशतिभेदान् समश्नुवानं तत्। वंदे द्वादशधोत्तं, गभीरवर – शास्त्रपद्धत्या।।६।।
प्रत्येकों दस में समासयुत, बीस भेद होते उनको। वर गंभीर शास्त्र पद्धति से, द्वादश अंग नमूं सबको।।६।।
आचारं सूत्रकृतं, स्थानं समवायनामधेयं । व्याख्याप्रज्ञिंप्त च, ज्ञातृकथोपासकाध्ययने।।७।।
आचारांग सूत्रकृत स्थानांग तथा समवाय महान। व्याख्याप्रज्ञप्ति अरु ज्ञातृकथा उपासक अध्ययनांग।।७।।
वंदेंऽतकृद्दशमनुत्तरोपपादिकदशं दशावस्थम् । प्रश्नव्याकरणं हि, विपाकसूत्रं च विनमामि।।८।।
अंतकृत दश अनुत्तरोपपादिक दश युत अंग कहे। अंग प्रश्नव्याकरण विपाक, सूत्र अंग प्रणमूं नित मैं।।८।।
परिकर्म च सूत्रं च, स्तौमि प्रथमानुयोगपूर्वगते। साद्र्धं चूलिकयापि च, पंचविधं दृष्टिवादं च।।९।।
दृष्टिवाद युत द्वादशांग हैं, दृष्टिवाद के पांच प्रकार। परीकर्म अरु सूत्र प्रथम, अनुयोग पूर्व चूलिका सुसार।।९।।
पूर्वगतं तु चतुर्दश-धोदितमुत्पादपूर्वमाद्यमहम् । आग्रायणीयमीडे, पुरुवीर्यानुप्रवादं च ।।१०।।
कहे पूर्वगत चौदह उनमें, है उत्पाद पूर्व पहला। अग्रायणि अरु पुरुवीर्यानुप्रवाद पूर्व हैं नमूं सदा।।१०।।
संततमहमभिवंदे,तथास्तिनास्तिप्रवादपूर्वं च। ज्ञानप्रवादसत्यप्रवादमात्मप्रवादं च ।।११।।
अस्तिनास्ति सुप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवाद पूर्व शुभ हैं। सत्यप्रवाद पूर्व अरु आत्मप्रवाद पूर्व प्रणमूँ नित मैं।।११।।
कर्मप्रवादमीडेऽथ, प्रत्याख्याननामधेयं च। दशमं विद्याधारं पृथुविद्यानुप्रवादं च ।।१२।।
कर्म प्रवादपूर्व अरु प्रत्याख्यानपूर्व है उत्तम श्रुत। वंदूं विद्यानुप्रवाद को , क्षुद्रमहाविद्या संयुत ।।१२।।
कल्याणनामधेयं, प्राणावायं क्रियाविशालं च। अथ लोकविंदुसारं, वंदे लोकाग्रसारपदं।।१३।।
कल्याणानुप्रवाद प्राणावाय सुक्रियाविशालं श्रुत। पूर्व लोकविंदूसारं ये, चौदह पूर्व नमूं संतत।।१३।।
दश च चतुर्दश चाष्टा-वष्टादश च द्वर्योिद्वषट्कं च। षोडश च विंशतिं च, त्रिंशतमपि पंचदश च तथा।।१४।।
दस चौदह अठ अठरह बारह, बारह सोलह बीस अरु तीस। पंद्रह दस-दस-दस-दस क्रम से, चौदह पूर्व की वस्तु कथित।।१४।।
वस्तूनि दश दशान्येष्वनुपूर्वं भाषितानि पूर्वाणाम्। प्रतिवस्तु प्राभृतकानि, विंशतिं विंशतिं नौमि।।१५।।
एक-एक वस्तू में होते, बीस-बीस प्राभृतक नमूं। चौदह पूर्व सुप्राभृतयुत, इक सौ पंचानवे वस्तु नमूं।।१५।।
पूर्वांतं ह्यपरातं धु्रवमधु्रवच्यवनलब्धिनामानि। अधु्रवसंप्रणिधिं चाप्यर्थं भौमावयाद्यं च।।१६।।
पूर्वांतरु अपरांत धु्रवं, अधु्रव अरु च्यवन लब्धि नामक। अधु्रव संप्रणिधि अरू अर्थ, अरु भौमावयादि संयुत।।१६।।
सर्वार्थकल्पनीयं, ज्ञानमतीतं त्वनागतं कालं। सिद्धिमुपाध्यं च तथा, चतुर्दशवस्तूनि द्वितीयस्य।।१७।।
श्रुत सर्वारथकल्पनीय है, ज्ञान अतीत भाविकालिक। सिद्धि उपाध्यं ये चौदह, वस्तु अग्रायणि पूर्वकथित।।१७।।
पंचमवस्तुचतुर्थ – प्राभृतकस्यानुयोगनामानि। कृतिवेदने तथैव, स्पर्शनकर्मप्रकृतिमेव।।१८।।
इनमें पंचम वस्तु का, चौथा प्राभृत जो कहा जिनेश। उसके हैं अनुयोग द्वार, चौबीस वरणे मैं नमूं हमेश।।१८।।
बंधननिबंधनप्रक्रमानुपक्रममथाभ्युदयमोक्षौ । संक्रमलेश्ये च तथा, लेश्यायाः कर्मपरिणामौ।।१९।।
कृतिवेदन स्पर्शन कर्म अरु, प्रकृति कहें ये पांच तथा। बंधन और निबंधन प्रक्रम, अनुपक्रम अभ्युदय कहा।।१९।।
सातमसातं दीर्घं, ह्रस्वं भवधारणीयसंज्ञं च। पुरुपुद्गलात्मनाम च, निधत्तमनिधत्तमभिनौमि।।२०।।
मोक्ष तथा संक्रम लेश्या, लेश्या के कर्म अरू परिणाम। सातासात दीर्घ अरु ह्रस्वं, अरु भवधारणीय शुभ नाम।।२०।।
सनिकाचितमनिकाचितमथ कर्मस्थितिकपश्चिमश्वंधौ। अल्पबहुत्वं च यजे, तद्द्वाराणां चतुर्विंशम् ।।२१।।
पुरु पुद्गलात्मक है तथा निधत्त, अनिधत्त निकाचित अनिकाचित। कर्म स्थिति पश्चिमी स्कंध अरु, अल्पबहुत्व नमूं चौबीस।।२१।।
कोटीनां द्वादशशत-मष्टापंचाशतं सहस्राणाम् । लक्षत्र्यशीतिमेव च, पंच च वंदे श्रुतपदानि।।२२।।
एक सौ बारह कोटि तिरासी, लाख अठावन सहस रु पांच। द्वादशांग श्रुत के पद इतने, वंदन करूं, नमाकर माथ।।२२।।
षोडशशतं चतुिंस्त्रशत्कोटीनां त्र्यशीतिलक्षाणि। शतसंख्याष्टासप्तति-मष्टाशीतिं च पदवर्णान् ।।२३।।
सोलह सौ चौतीस करोड़, तेरासी लाख अरु सात सहस। अठ सौ अठ्यासी इतने ये, पद के वर्ण कहे शाश्वत।।२३।।
सामायिकं चतुर्विंशति-स्तवं वंदना प्रतिक्रमणं। वैनयिकं कृतिकर्म च, पृथुदशवैकालिकं च तथा।।२४।।
सामायिक चउबिस तीर्थंकर, स्तुति वंदन औ प्रतीक्रमण। वैनयिक कृतिकर्म तथा दश, वैकालिक का करूं नमन।।२४।।
वरमुत्तराध्ययनमपि, कल्पव्यवहारमेवमभिवन्दे। कल्पाकल्पं स्तौमि, महाकल्पं पुण्डरीकं च ।।२५।।
श्रेष्ठ उत्तराध्ययन कल्प, व्यवहार कहा वंदूं उनको। कल्पाकल्प महाकल्पं अरु, पुंडरीक वंदूं सबको।।२५।।
परिपाट्या प्रणिपतितोऽस्म्यहं महापुण्डरीकनामैव। निपुणान्यशीतिकं च, प्रकीर्णकान्यङ्गबाह्यानि।।२६।।
परिपाटी से नमूं महायुत, पुंडरीक श्रुत को नित ही। अंग बाह्य ये कहे प्रकीर्णक, निपुण महाश्रुत पूज्य सही।।२६।
। पुद्गलमर्यादोत्तं, प्रत्यक्षं सप्रभेदमवधिं च। देशावधिपरमावधि – सर्वावधिभेदमभिवन्दे ।।२७।।
अवधिज्ञान मर्यादायुत, पुद्गल प्रत्यक्ष करे बहुविध। देशावधि परमावधि सर्वावधि को वंदूं भेद सहित।।२७।।
परमनसि स्थितमर्थं, मनसा परिविद्य मंत्रिमहितगुणम्। ऋजुविपुलमतिविकल्पं, स्तौमि मनःपर्ययज्ञानम् ।।२८।।
पर मन में स्थित सब वस्तू, को प्रत्यक्ष करे जो ज्ञान। ऋजुमति विपुलमति मनःपर्यय, उनको वंदू भव भय हान।।२८।।
क्षायिकमनन्तमेकं, त्रिकालसर्वार्थयुगपदवभासम् । सकलसुखधाम सततं, वन्देऽहं केवलज्ञानम् ।।२९।।
केवलज्ञान त्रिकालिक सर्व, पदार्थ प्रकाशे युगपत ही। क्षायिक एक अनंत सकल, सुखधाम उसे वंदूं नित ही।।२९।।
एवमभिष्टुवतो मे, ज्ञानानि समस्तलोकचक्षूंषि। लघु भवताज्ज्ञानद्र्धि, ज्र्ञानफलं सौख्यमच्यवनम् ।।३०।।
इस विध स्तुति करते मुझको, सकल लोकचक्षू सब ज्ञान। ज्ञान ऋद्धि देवें झट ज्ञानों, का फल अच्युत सौख्य निधान।।३०।।
अंचलिका-इच्छामि भंते! सुदभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं अंगोवंगपइण्णए पाहुडयपरियम्मसुत्तपढमाणुओग-पुव्वगयचूलिया चेव सुत्तत्थयथुइधम्मकहाइयं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओअंचलिका- हे भगवन् ! श्रुतभक्ती, कायोत्सर्ग किया उसके हेतु। आलोचन करना चाहूँ जो, अंगोपांग प्रकीर्णक श्रुत।। प्राभृतकं परिकर्म सूत्र, प्रथमानुयोग पूर्वादिगत। पंच चूलिका सूत्र स्तव, स्तुति अरु धर्म कथादि सहित।। सर्वकाल मैं अर्चूं पूजूं, वदूं नमूं भक्ति युत से। ज्ञानफलं शुचि ज्ञान ऋद्धि, अव्यय सुख पाऊं झटिति से।। दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे। सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।
कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। अनंतर आगे के मंत्र स्थापना आदि को पढ़ते हुए मुनि के मस्तक पर लवंग या पीले पुष्प क्षेपण करते रहें-
ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं उपाध्यायपरमेष्ठिन्! अत्र एहि एहि संवौषट् आह्वाननं।ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं उपाध्यायपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं उपाध्यायपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
पुन: आगे लिखे मंत्र से मस्तक पर चंदन छिड़के। (इस मंत्र को ९ या २७ बार भी पढ़ सकते हैं) यहाँ नवीन पिच्छी, कमण्डलु व शास्त्र भी देना चाहिए। अनंतर-
अथ उपाध्यायपदस्थापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं शांतिभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्ववत् ‘सामायिक दण्डक, ९ जाप्य, थोस्सामि स्तव’ पढ़कर पृ. ३४ से शांतिभक्ति पढ़ें)
अथ उपाध्यायपदनिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्धभक्ति-श्रुतभक्ति-शांतिभक्ती: कृत्वा तद्हीनाधिक-दोषविशुद्ध्यर्थं समाधिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्ववत् सामायिक दण्डक, ९ जाप्य, थोस्सामिस्तव पढ़कर पृ. ३८ से समाधिभक्ति पढ़ें) अनंतर नवीन बने उपाध्यायमुनि आचार्यभक्ति पढ़कर आचार्यदेव को नमस्कार करें। पुन: दातागण-श्रावक आदि श्रीफल आदि चढ़ाकर उपाध्याय को नमस्कार करें, तब उपाध्यायगुरु भी सबको आशीर्वाद प्रदान करें।
।।यह उपाध्यायपददानविधि पूर्ण हुई।।