संसार, शरीर और भोगो से विरक्त होने के लिए या विरक्त होने पर उस भाव की स्थिरता के लिए जो प्रणिधान होता है उसे धर्मध्यान कहते है ।
उसके चार भेद है – आज्ञा विचय, अपाय, विपाक और संस्थान । इनकी विचारणा के निमित्त मन को एकाग्र करना धम्र्यध्यान है ।
‘प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी ’ ग्रन्थ में धर्मध्यान के दश भेद भी माने है । यथा- अपाय विचय, उपाय विचय, विपाक विचय, विराग विचय, लोक विचय, भवविचय, जीवविचय, आज्ञाविचय, संस्थान विचय और संसार विचय ये धर्मध्यान के दस भेद है ।
यह धर्मध्यान अविरत, देशविरत, प्रमत्त संयत और अप्रमत्त संयत (चौथे से सातवे गुण स्थान वाले) जीवों के ही होता है । श्रेणी आरोहण के पहले -२ धर्मध्यान होता है और श्रेणी आरोहरण के समय से शुक्ल ध्यान होता है । धर्मध्यान संसार देह भोगों से विरक्त व्यक्तियों के बनता है । यह अतीन्द्रिय और आत्मिक आनन्द को देने वाला है । विषयों में इन्द्रियों की लंपटता का न होना, तथा सौम्य आकृति और उच्चारण धर्मध्यानी के चिन्ह है इसके प्रभाव से जीव स्वर्ग में सर्वार्थ सिद्धि पर्यन्त उत्पन्न होते है । धर्मध्यानी आजकल भी लौकान्तिक देव तथा आठवें स्वर्ग तक का देव हो सकता है ।