तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के रचयिता आचार्य श्री उमास्वामी हैं । इनको उमास्वाति भी कहते हैं । इनका अपरनाम गृद्धपिच्छाचार्य है । धवलाकार ने इनका नामोल्लेख करते हुए कहा है कि-
तह गिद्धपिंछाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्तेवि ।
उसी प्रकार से गृद्धपिच्छाचार्य के द्वारा प्रकाशित तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा है ।
इनके इस नाम का समर्थन श्री विद्यानन्द आचार्य ने भी किया है । यथा-
इस कथन से गृद्धपिच्छाचार्य पर्यंत मुनियों के सूत्रों से व्यभिचार दोष का निराकरण हो जाता है।
तत्त्वार्थसूत्र के किसी टीकाकार ने भी निम्न पद्य मे तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता का नाम गृद्धपिच्छाचार्य दिया है-
गृद्धपिच्छ इस नाम से उपलक्षित, तत्त्वार्थसूत्र के कर्तागण के नाथ उमास्वामी मुनीश्वर की मैं वन्दना करता हूँ ।
श्री वादिराज ने भी इनके गृद्धपिच्छ नाम का उल्लेख किया है-
आकाश में उड़ने की इच्छा करने वाले पक्षी जिस प्रकार अपने पंखों का सहारा लेते हैं, उसी प्रकार मोक्षनगर को जाने के लिए भव्य लोग जिस मुनीश्वर का सहारा लेते हैं, उस महामना, अगणित गुणों के भण्डार स्वरूप गृद्धपिच्छ नामक मुनि महाराज के लिए मेरा सविनय नमस्कार हो ।
श्रवणबेलगोला के एक अभिलेख में गृद्धपिच्छ नाम की सार्थकता और कुन्दकुन्द के वंश में उनकी उत्पत्ति बतलाते हुए उनका उमास्वाति नाम भी दिया है । यथा-
आचार्य कुन्दकुन्द के पवित्र वंश में सकलार्थ के ज्ञाता उमास्वाति मुनीश्वर हुए, जिन्होंने जिनप्रणीत द्वादशांगवाणी को सूत्रों में निबद्ध किया। इन आचार्य ने प्राणिरक्षा के हेतु गृद्धपिच्छों को धारण किया, इसी कारण वे गृद्धपिच्छाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए । इस प्रमाण में गृद्धपिच्छाचार्य को सकलार्थवेदी कहकर श्रुतकेवली सदृश भी कहा है। इससे उनका आगम सम्बन्धी सातिशय ज्ञान प्रकट होता है।
इस प्रकार दिगम्बर साहित्य और अभिलेखों का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता गृद्धपिच्छाचार्य, अपरनाम उमास्वामि या उमास्वाति हैं ।
समय निर्धारण और गुरु शिष्य परम्परा-नन्दि संघ की पट्टावली और श्रवणबेलगोला के अभिलेखों से यह प्रमाणित होता है कि ये गृद्धपिच्छाचार्य कुन्दकुन्द के अन्वय में हुए हैं। नन्दिसंघ की पट्टावली विक्रम के राज्याभिषेक से प्रारम्भ होती है । वह निम्न प्रकार है- # भद्रबाहु द्वितीय (४) # गुप्तिगुप्त (२६) # माघनन्दि (३६) # जिनचन्द्र (४०) # कुन्दकुन्दाचार्य (४९) # उमास्वामि (१०१) # लोहाचार्य (१४२) अर्थात नन्दिसंघ की पट्टावली में बताया है कि उमास्वामी वि. सं. १०१ में आचार्यपद पर आसीन हुए, वे ४० वर्ष आठ महीने आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे। उनकी आयु ८४ वर्ष की थी और विक्रम सं. १४२ में उनके पट्ट पर लोहाचार्य द्वितीय प्रतिष्ठित हुए । प्रो. हार्नले, डॉ. पिटर्सन और डॉ. सतीशचन्द्र ने इस पट्टावली के आधार पर उमास्वाति को ईसा की प्रथम शताब्दी का विद्वान माना है ।
‘‘किन्तु स्वयं नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ने इन्हें ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी का अनुमानित किया है ।’’
कुछ भी हो ये आचार्य श्री कुन्दकुन्द के शिष्य थे । यह बात अनेक प्रशस्तियों से स्पष्ट है । यथा-
तस्मादभूद्योगिकुलप्रदीपो, बलाकपिच्छ: स तपोमहद्र्धि:।
यदंगसंस्पर्शनमात्रतोऽपि, वायुव्र्विषादोनमृतीचकार ।।१३।।
इन योगी महाराज की परम्परा में प्रदीपस्वरूप महद्र्धिशाली तपस्वी बलाकपिच्छ हुए। इनके शरीर के स्पर्शमात्र से पवित्र हुई वायु भी उस समय लोगों के विष आदि को अमृत कर देती थी ।
विरुदावलि में भी कुन्दकुन्द के पट्ट पर उमास्वाति को माना है ।
इन सभी उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्री कुन्दकुन्द के पट्ट पर ही ये उमास्वामि आचार्य हुए हैं और इन्होंने अपना आचार्य पद बलाकपिच्छ या लोहाचार्य को सौंपा है ।
तत्त्वार्थसूत्र रचना
इन आचार्य महोदय की तत्त्वार्थसूत्र रचना एक अपूर्व रचना है। यह ग्रन्थ जैनधर्म का सार ग्रन्थ होने से इसके मात्र पाठ करने या सुनने का फल एक उपवास बतलाया गया है ।
यथा-
दश अध्याय से परिमित इस तत्त्वार्थसूत्र शास्त्र के पढ़ने से एक उपवास का फल होता है ऐसा मुनिपुंगवों ने कहा है। वर्तमान में इस ग्रन्थ को जैनपरम्परा में वही स्थान प्राप्त है जो कि हिन्दूधर्म में भगवद्गीता को, इस्लाम में कुरान को और ईसाईधर्म में बाइबिल को प्राप्त है। इससे पूर्व प्राकृत में ही जैन ग्रन्थों की रचना की जाती थी ।
इस ग्रन्थ को दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में समानरूप से ही महानता प्राप्त है । अनेक आचार्यों ने इस पर टीका ग्रन्थ रचे हैं। श्री देवनन्दि अपरनाम पूज्यपाद आचार्य ने इस पर सर्वार्थसिद्धि नाम से टीका रची है जिसका अपर नाम तत्त्वार्थवृत्ति भी है । श्री भट्टाकलंक देव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक नाम से तथा विद्यानन्द महोदय ने तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक नाम से दार्शनिक शैली में टीका ग्रन्थों का निर्माण करके इस ग्रन्थ के अतिशय महत्व को सूचित किया है ।
श्री श्रुतसागर सूरि ने तत्त्वार्थ वृत्ति नाम से टीका रची है और अन्य-अन्य कई टीकायें उपलब्ध हैं। श्री समन्तभद्र स्वामी ने इसी ग्रन्थ पर गन्धहस्ति महाभाष्य नाम से महाभाष्य रचा है जो कि आज उपलब्ध नहीं हो रहा है । दशाध्यायपूर्ण इस ग्रन्थ का एक मंगलाचरण ही इतना महत्त्वशाली है कि आचार्य श्री समंतभद्र ने उस पर आप्तमीमांसा नाम से आप्त की मीमांसा-विचारणा करते हुए एक स्तोत्र रचा है, उस पर श्री भट्टाकलंकदेव ने अष्टशती एवं श्री विद्यानन्द आचार्य ने अष्टसहस्री नाम से महान उच्चकोटि का दार्शनिक ग्रन्थ रचा है। श्री विद्यानन्द आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र पर ही श्लोकवार्तिक नाम से जो महान टीका ग्रन्थ की रचना की है उसमें सबसे प्रथम मंगलाचरण की टीका में उन्होंने १२४ कारिकाओं में आप्तपरीक्षा ग्रन्थ की रचना की एवं उसी पर स्वयं ने ही स्वोपज्ञ टीका रची है ।
कुछ विद्वान मोक्षमार्गस्य नेतारं इत्यादि मंगलाचरण को श्री उमास्वामी आचार्य द्वारा रचित न मानकर किन्हीं टीकाकारों का कह रहे थे परन्तु श्लोकवार्तिक और अष्टसहस्री ग्रन्थ में उपलब्ध हुए अनेक प्रमाणों से अब यह अच्छी तरह निर्णीत किया जा चुका है कि यह मंगल श्लोक श्री सूत्रकार आचार्य द्वारा ही विरचित है ।
श्रावकाचार
इन महान आचार्य के द्वारा रचा हुआ एक श्रावकाचार भी है जो कि उमास्वामी श्रावकाचार नाम से प्रकाशित हो चुका है। कुछ विद्वान इस श्रावकाचार को इन्हीं सूत्रकर्ता उमास्वामी का नहीं मानते हैं किन्तु ऐसी बात नहीं है, वास्तव में वह इन्हीं आचार्यदेव की रचना है यह बात उसी श्रावकाचार के निम्न पद्य में स्पष्ट है। यथा-
अर्थात् इस श्रावकाचार में श्रावकों की षट्आवश्यक क्रियाओं का वर्णन करते हुए उनके अणुव्रत आदिकों का भी वर्णन किया है पुन: यह संकेत दिया है कि मैंने तत्त्वार्थसूत्र के सप्तम अध्याय में श्रावक के १२ व्रतों का और उनके अतिचारों का विस्तार से कथन किया है अत: यहां उनका कथन नहीं किया है। बाकी जो आवश्यक क्रियायें देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान का वर्णन वहां नहीं किया है, उन्हीं को यहां पर कहा गया है।
पुनरपि अन्तिम श्लोक में कहते हैं कि-
इस प्रकार से मैंने इस श्रावकाचार की छठी अध्याय में श्रावक के लिए इष्ट चारित्र का वर्णन किया है। अन्य जो कुछ भी श्रावकाचार है, वह सब मेरे द्वारा रचित अन्य ग्रन्थ (तत्त्वार्थसूत्र) से देख लेना चाहिए।
इस प्रकार के उद्धरणों से यह निश्चित हो जाता है कि यह श्रावकाचार भी पूज्य उमास्वामी आचार्य की ही रचना है।
यद्यपि इस श्रावकाचार में भाषा शैली की अतीव सरलता है फिर भी उससे यह नहीं कहा जा सकता है कि यह रचना उनकी नहीं है क्योंकि सूत्रग्रन्थ में सूत्रों की रचना सूत्ररूप ही रहेगी और श्लोक ग्रन्थों में श्लोकरूप।
जिस प्रकार से श्री कुन्दकुन्ददेव द्वारा रचित समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों की रचना अतीव प्रौढ़ है तथा अष्टपाहुड़ गाथासूत्रों की रचना उतनी प्रौढ़ न होकर सरल है फिर भी एक ही आचार्य कुन्दकुन्द इन ग्रन्थों के रचयिता मान्य हैं वैसे ही यहां भी समझना चाहिए और उमास्वामी आचार्य की प्रमाणता के अनुरूप ही उनके इस श्रावकाचार को भी प्रमाण मानकर उसका भी स्वाध्याय करना चाहिए।