रचयित्री-गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
उठो भव्य! खिल रही है उषा, तीर्थ वंदना स्तवन करो।
आर्तरौद्र दुर्ध्यान छोड़कर, श्री जिनवर का ध्यान करो।।१।।
अष्टापद से ऋषभदेव जिन, वासुपूज्य चम्पापुर से।
ऊर्जयन्त से श्री नेमीश्वर, मुक्ति गये वंदों रुचि से।।२।।
पावापुरी सरोवर से इस, उषा काल में श्री महावीर।
विधुत क्लेश निर्वाण गये हैं, नमो उन्हें झट हो भवतीर।।३।।
बीस जिनेश्वर मोक्ष गये हैं, श्री सम्मेद शिखर गिरि से।
और असंख्य साधुगण भी, शिव गये उन्हें वंदों रुचि से।।४।।
जिनवर गणधर मुनिगण की, निर्वाण भूमियाँ सदा नमो।
पंचकल्याणक भूमि तथा, अतिशययुत क्षेत्र सभी प्रणमो।।५।।
शालिपिष्ट भी शर्करयुत, माधुर्य स्वादकारी जैसे।
पुण्य पुरुष के पद रज से ही, धरा पवित्र हुई वैसे।।६।।
त्रिभुवन के मस्तक पर सिद्ध-शिला पर सिद्ध अनंतानंत।
नमो नमो त्रिभुवन के सभी, तीर्थ को जिससे हो भव अंत।।७।।
तीर्थक्षेत्र वंदन से नंतानंत, जन्म कृत पाप हरो।
सम्यक् ‘‘ज्ञानमती’’ श्रद्धा से, शीघ्र सिद्ध सुख प्राप्त करो।।८।।