गोम्मटसार जीवकाण्ड की गाथा में गुणयोनि के भेद बताए है –
‘‘जम्मं खलु सम्मुच्छण , गब्भुववादा दु होदि तज्जोणी ।
सच्चित्त सीदसउडसेदर मिस्या य पत्तेयं ।।
अर्थात् जन्म तीन प्रकार का होता है – सम्मूर्छन, गर्भ, और उपपाद तथा सचित्त , शीत, संवृत और इनमे उल्टी अचित्त, उष्ण , विवृत तथा तीनों की मिश्र सचित्ताचित्र, शीतोष्ण, संवृतविवृत ही जन्मों की आधार भूत नौ गुणयोनि है ।
इनमे से यथासम्भव प्रत्येक यानि को सम्मूर्छनादि जन्म के साथ लगा लेना चाहिए । आकृतियोनि के तीन भेद हैं –
१़ शंखावर्त
२़ कूर्मोन्नत
३़ वंशपत्र
जिसके भीतर शंख के समान चक्कर पड़े हो उसको शंखावर्त योनि कहते है । जो कछुआ की पीङ्ग की तरह उठी हुई हो उसको कूर्मोन्नत योनि कहते है । जो बांस के पत्ते के समान लम्बी हो उसको वंश पत्र योनि कहते है ।
शंखावर्त योनि में नियम से गर्भ नही रहता है । कूर्मोन्नतयोनि में तीर्थंकर, चक्रवर्ती, अर्धचक्री व बलभद्र तथा अन्य भी महान पुरूष उत्पन्न होते है । तीसरी वंशपत्र योनि में साधारण पुरूष ही उत्पन्न होते है ।
गोम्मटसार ग्रन्थ में ४८ लाख योनि के भेद बताए है –
णिच्चिदर धातुसत्त य , तरूदस विसलिंदियेसु छच्चेव । सुरणिरयतिरियचउरो, अग्नि, वायु इनमें से प्रत्येक की सात- सात लाख, तरू अर्थात् प्रत्येक वनस्पति की दशलाख, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इनमें से प्रत्येक की दो- दो लाख अर्थात् विकलेन्द्रिय की सब मिलाकर छ: लाख , देव, नारकी, तिर्यंच पंचेन्द्रिय प्रत्येक की चार – चार लाख, मनुष्य की चौदह लाख सब मिलाकर ४८ लाख योनि होती है ।
अनादिकाल से प्रत्येक प्राणी इन चौरासीलाख योनियों में परिभ्रमण कर रहा है । जब यह जीव रत्नत्रय को प्राप्त करता है तभी चौरासी लाख के चक्कर से छुटकारा पा सकता है अन्यथा नहीं ऐसा समझकर जल्दी से जल्दी सम्यग्दृष्टि बनकर सम्यक चारित्र को ग्रहण कर लेना चाहिए ।