(गिरनार पर्वत का दूसरा नाम )
पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने ‘उषा वन्दना’ में सिद्ध पद प्राप्त मुनियों की वन्दना की है । ‘‘ऊर्जयन्त से नेमिप्रभु प्रद्युम्न, शंभु अनिरुद्धारिक । कोटि-बहत्तर सात शतक मुनि, सिद्ध हुए हैं वंदो नित ।’’
निर्वाणकाड में भी लिखा है –
‘‘णेमिसामि पज्जुण्णो संबुकुमारो तहेव अणिरुद्धो ।
बाहत्तरि कोडीओ उज्जंते सत्तसया सिद्धा ।।’’
अर्थात् नेमिनाथ तथा प्रद्युम्न, शंबुकुमार, अनिरुद्धकुमार आदि बहत्तर करोड़ सात सौ मुनियों ने ऊर्जयंत गिरि से सिद्धपद प्राप्त किया है ।उन सबको मेरा नमस्कार हो ।
उत्तर पुराण पूर्व ७२, पृ० ४२५ पर लिखा है- ‘‘भट्टारक नेमिनाथ ने विहार बंद कर एक माह का योग निरोध किया । आषाढ़ शुक्ला सप्तमी के दिन चित्रा नक्षत्र में रात्रि के प्रारम्भ में ही चार अघातिया कर्मों का नाशकर मोक्ष धाम को प्राप्त हो गए । भगवान के साथ पाँच सौ तैंतीस मुनियों ने भी निर्वाण प्राप्त किया है ।’’
हरिवंश पुराण सर्ग ६ पृ०८९९ पर लिखा है- उसी समय इन्द्रों ने देवों ने आकर भगवान का निर्वाण कल्याणक महोत्सव मनाया । पुन: इन्द्र ने गिरनार पर्वत पर वङ्का से उकेर कर इस लोक में पवित्र सिद्ध शिला का निर्माण किया और उसे जिनेंद्र भगवान के लक्षणों के समूह से युक्त किया । अनंतर श्रीवरदत्त आदि गणधर देव और मुनियों के संघ की वंदना कर इंद्रादि देव और राजा लोग सब अपने-अपने स्थान पर चले गये ।
समुद्र विजय आदि नौ भाई देवकी के युगलिया छह पुत्र तथा शंबु और प्रद्युम्न आदि बहुत से मुनि भी इस गिरनार पर्वत से मोक्ष को प्राप्त हुए है । इसलिए उस समय से गिरनार पर्वत आदि निर्वाण क्षेत्र संसार में प्रसिद्ध हुए हैं ।
गिरनार पर्वत पर इंद्र ने वङ्का से भगवान के लक्षण / चरण चिन्ह बनाए यह बात अन्यत्र भी प्रसिद्ध है- यथा- स्वयंभू स्तोत्र में लिखा है-
‘हे ऊर्जयंत! तू इस पृथ्वीतल के मध्य में ककुद के समान ऊँचा है, विद्याधर दंपती तेरे ऊपर विचरण करते रहते हैं तू शिखरों से सुशोभित है, मेघ पटल तेरे तर भाग को ही छू पाते हैं । तथा स्वयं इंद्र ने तेरे पवित्र अंग पर वङ्का से नेमिनाथ भगवान के चिन्ह अंकित किये थे ।’’
इसी बात का समर्थन करते हुए पुराणसार संग्रह में श्री दामनंदी आचार्य ने भी लिखा है-
‘‘कुलिशेन सहसाक्षो लक्षण पंक्ति लिलेख तत्रेश: । भव्य हिताय शिलायामद्यापि च शोयते पूना ।’’ अर्थात् इन्द्र ने अपने वङ्का से वहाँ गिरनार पर्वत पर सिद्धशिला बनाकर उस पर भगवान् के लक्षण लिखे ( या चरण चिन्ह बनाये ) वह सिद्ध शिला आज भी पवित्र शोभित हो रही है ।
गिरनार क्षेत्र पर इंद्र ने मूर्ति स्थापित की थी-
‘‘ सौराष्ट्रे यदुवंश भूषणमणे: श्री नेमिनाथस्य या, मुर्तिर्मुक्ति यथोपदेशनपरा शांतामुधापोहनात् वस्त्रैराभरणौर्विना गिरिवरे देवेंद्र संस्थापिता, चित्तंभ्रांतिमपाकरोतुजगतोदिग्वासानां शासनम् ।।’’ सौराष्ट्र में गिरनार पर्वत पर यदुवंश भूषण श्री नेमिनाथ तीर्थंकर की आयुध, वस्त्र और आभरण रहित, भव्य, शांत और मोक्षमार्ग का मौन उपदेश करने वाली जो मूर्ति स्थित है, वह इंद्र द्वारा स्थापित की गई है । वह संसार के चित्त की भ्रांति को दूर करे और इस संसार में दिगंबर शासन को वृद्धिंगल करे ।
उत्तरपुराण पर्व ८२ में लिखा है-‘‘जांबवली के पुत्र शंबुकुमार और प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध कुमार ने श्री प्रद्युम्न मुनि के साथ ऊर्जयंत गिरि के तीन कूटों पर आरूढ़ हो घातिया कर्मों का नाश कर तब केवललब्धि प्राप्त की पुन: वहीं से मोक्ष को प्राप्त किया है ।’’
आज भी गिरनार पर द्वितीय, तृतीय और चतुर्थकूट पर मुनिराज अनिरूद्ध के शंबु के और प्रद्युम्न के चरण बने हुए हैं । ऊपर के प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि पाँचवी टोंक पर भगवान् नेमिनाथ के चरणों को इंद्र ने अपने वङ्का से उकेरा था ।
जिस समय भगवान नेमिनाथ का समवसरण ऊर्जयंत पर्वत पर आया उस समय इंद्रादिक देवो, कृष्ण आदि यादवों और द्वारिकावासी नागरिक जनों से सेवित भगवान की सभा में चर्तुिवध संघ इस प्रकार था । वरदत्त आदि ग्यारह गणधर थे । चार सौ पूर्वधारी, एक हजार आङ्ग सौ शिक्षक, पंद्रह सौ अवधिज्ञानी, पंद्रह सौ केवलज्ञानी, नौ सौ विपुलमति मन: पर्ययज्ञानी, आङ्ग सौ वादी और ग्यारह सौ विक्रिया ऋद्धि के धारक मुनिराज थे । अर्थात् कुल ये आङ्ग हजार मुनि थे । चालीस हजार र्आियकाएं थी तथा तीन लाख छत्तीस हजार श्राविकायें थी ।