( मोक्षगति )
ऊपर अर्थात् सिद्ध शिला पर जान ऊर्ध्वगति है ।
आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ की दसवीं अध्याय में मोक्षतत्त्व का वर्णन किया है । दसवीं अध्याय के सूत्र ऩ ५ में कर्म के क्षय होने के बाद होने वाला कार्य बताया है-‘‘तदनन्तर मूध्र्वं गच्छत्यालोकान्तात् ।’’ अर्थात् समस्त कर्मों का क्षम होते ही तुरन्त उसी समय वह मुक्त जीव ऊपर की ओर लोक के अंत तक जाता है ।
सर्वार्थ सिद्धि विमान से १२ योजन ऊपर, ८ योजन मोटी, १ राजू पूर्व पश्चिम और ७ राजू उत्तर दक्षिण ईषत् प्राग्भार नाम की आठवीं पृथ्वी है जिसके अंतिम ऊपरी भाग में बीचों बीच मनुष्य लोक प्रमाण ४५ लाख योजन समतल अद्र्ध गोलाकार सिद्धशिला है ।
आठवीं पृथ्वी ईषत् प्राग्भार के ऊपर २ कोस, १ कोस और १५७५ धनुष के क्रम से तीन वातवलय हैं । अंतिम वातवलय के १ कोस से कुछ कम की मोटाई और ४५ लाख योजन में अपनी-अपनी अंतिम देह से कुछ न्यून आकार के खड्गासन व पद्मासन सिद्ध विराजमान हैं जिन सबके सिर एक सम धरातल में हैं और वे सब अधर अंतरिक्ष में स्थित हैं ।
दसवीं अध्याय के सूत्र न: ६ में मुक्त जीव के ऊर्ध्व गमन में ४ कारण बताए हैं-
‘‘पूर्व प्रयोगादसंगत्वाद्बन्धच्छेदात्तथागति परिणामाच्च’’ १ पूर्व प्रयोग से २ संग रहित होने से ३ बन्ध का नाश होने से ४ गति परिणाम अर्थात् ऊगमन स्वभाव होने से मुक्त जीव ऊपर को ही जाता है ।
पूर्व प्रयोग से अर्थ पहले किया हुआ मोक्ष के लिए पुरुषार्थ, प्रयत्न, उद्यम से है ।
सूत्र न:६ में मुक्त जीव के ऊर्ध्व गमन में ४ दृष्टान्त बताए हैं-
‘‘आविद्ध कुलाल चक्रवद् व्यपगत लेपालाम्बुवदेरण्ड-बीजवदग्निशिखावच्च ।’’
मुक्तजीव १ कुम्हार द्वारा घुमाए गए चाक की तरह पूर्व प्रयोग से, २ लेप दूर हो चुका है जिसका ऐसे तूम्बे की तरह संग रहित होने से ३ एरण्ड के बीज की तरह बंधन रहित होने से और ४- अग्नि की शिखा ( लौ) की तरह ऊर्ध्वगमन स्वभाव से ऊपर को गमन करता है ।
१़ पूर्व प्रायोग का उदाहरण – पूर्व का अर्थ है पूर्व संस्कार से प्राप्त हुआ वेग । वह इस प्रकार है जैसे कुम्हार हाथ में डंडा लेकर और उसे चाक पर रखकर घुमाता है तो चाक घूमने लगता है । उसके बाद कुम्हार डंडे को हटा देता है फिर भी चाक जब तक उसमें पुराना संस्कार रहता है वह घूमता है । इसी प्रकार संसारी जीव मुक्ति की प्राप्ति के लिए बार-बार प्रयत्न करता था कि कब मुक्ति गमन हो । मुक्त हो जाने पर यह भावना और प्रयत्न नही रहा, फिर भी पुराने संस्कार वश जीव मुक्ति की ओर गमन करता है ।
२़ असंग का उदाहरण- जैसे मिट्टी के भार से लद्दी हुई तुम्बी जल में डूबी रहती है किन्तु मिट्टी का भार दूर होते ही जल के ऊपर आ जाती है वैसे ही कर्म के भार से लदा हुआ जीव कर्म के वश होकर संसार में डूबा रहता है किन्तु ज्यों ही उस भार से मुक्त होता है तो ऊपर को ही जाता है ।
३़ बंध छेद का उदाहरण- जैसे एरंड वृक्ष का सूखा फल जब चटकता है तब वह बंधन से छूट जाने से उसका बीज ऊपर जाता है वैसे ही मनुष्य आदि भवोें में ले जाने वाले गति नाम, जाति नाम आदि समस्त कर्म बंध के कट जाने पर ( मुक्त होते ही ) आत्मा ऊपर को ही जाता है ।
४़ ऊर्ध्वगमन स्वभाव का उदाहरण-जैसे वायु के न होने पर दीपक की लौ ऊपर को ही जाती है वैसे ही मुक्त जीव भी अनेक गतियों में ले जाने वाले कर्मों के अभाव में ऊपर को ही जाता है, क्योंकि जैसे अग्नि का स्वभाव ऊपर-ऊपर को जाने का है वैसे ही जीव का स्वभाव भी ऊर्ध्वगमन ही है ।
मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन करने में अपनी ऊर्ध्वगमन स्वभाव रूप स्वयं की शक्ति तो उपादान कारण और धर्मद्रव्य निमित्त कारण हैं । जहाँ तक मुक्त जीव को ऊर्ध्वगमन करने में यह दोनों प्रकार की सहकारी समस्त सामग्री मिलती है वहीं तक उसका ऊपर को जाना संभव है । धर्मद्रव्य लोक के अंत तक ही है आगे है नहीं । अत: आगे अर्थात् अलोकाकाश में धर्मद्रव्य के न होने से वहाँ पर मुक्त जीव का गमन भी नहीं होता ।