साम्प्रतमिन्द्राणां नगरस्थानं विस्तारं च गाथाद्वयेनाह-
सोहम्मादिचउक्के जुम्मचउक्के य सेसकप्पे य।
सगदेविजुदिंदाणं णयराणि हवंति णवयपदे१।।४८८।।
सौधर्मादिचतुष्के युग्मचतुष्के च शेषकल्पे च। स्वकदेवीयुतेन्द्राणां नगराणि भवन्ति नवकपदे।।४८८।।
सोहम्मादि। सौधर्मादिचतुष्के ब्रह्मादियुग्मचतुष्के आनतादिशेषकल्पे च आनतादीनां नगरेषु प्रत्येकं िंवशतिसहस्रयोजनव्याससाधारणात्कल्पचतुष्टयमेकं स्थलं कृतं इति नवसु स्थानेषु स्वस्वदेवीयुतेन्द्राणां नगराणि भवन्ति।।४८८।।
कथमिति चेत्-
सुरपुरवहिं असोयं सत्तच्छदचंपचूदवणखण्डा।
पउमद्दहसममाणा पत्तेयं चेत्तरुक्खजुदा।।५०२।।
सुरपुरबहि: अशोकं सप्तच्छदचम्पचूतवनखण्डा:।
पद्मह्रदसममाना: प्रत्येकं चैत्यवृक्षयुता:।।५०२।।
सुरपुर । सुरपुराद् बहि: पूर्वादिदिक्षु अशोकवनखण्डा: सप्तच्छदवनखण्डा: चम्पकवनखण्डाश्चूत-वनखण्डा:पद्मह्रदसमप्रमाणा: सहस्रयोजनायामास्तद-र्द्धव्यासा इत्यर्थ:। प्रत्येकमेवैâकचैत्यवृक्षयुता:।।५०२।।
अथ तद्वनमध्यस्थचैत्यवृक्षस्वरूपं निरूपयन् तच्चैत्यनमस्कारमाह-
चउचेत्तदुमा जंबूमाणा कप्पेसु ताण चउपासे।
पल्लंकगजिणपडिमा पत्तेयं ताणि वंदामि।।५०३।।
चतुश्चैत्यद्रुमा: जम्बूमाना: कल्पेषु तेषां चतु:पार्श्वेषु।
पल्यज्र्गजिनप्रतिमा: प्रत्येकं तानि वन्दामि।।५०३।।
चउचेत्त । चत्वारश्चैत्यद्रुमा जम्बूवृक्षप्रमाणा: सौधर्मादिषु कल्पेषु तेषां चतुर्षु पार्श्वेषु पल्यज्र्जिनप्रतिमा: प्रत्येकं ता: वन्दे।।५०३।।
दो गाथाओं द्वारा इन्द्रों के नगर स्थान और विस्तार का वर्णन करते हैं :-
गाथार्थ :- सौधर्मादि चार कल्पों के चार, ब्रह्मादि चार युगलों के चार और आनतादि अवशेष कल्पों का एक, इस प्रकार इन नौ स्थानों में अपनी-अपनी देवाङ्गनाओं से युक्त इन्द्रों के नगर हैं।।४८८।।
विशेषार्थ :- सौधर्मादि चार कल्पों के चार स्थान, ब्रह्मादि चार युगलों के चार स्थान और आनतादि कल्पों के नगरों में प्रत्येक नगर बीस हजार योजन व्यास की समानता वाला है अत: इनका एक स्थान, इस प्रकार कुल नौ स्थानों में अपनी-अपनी देवाङ्गनाओं से युक्त देवों के नगर हैं।
इन कोटों के अन्तराल में स्थित देवों के भेद दो गाथाओं में कहते हैं :-
गाथार्थ :- सेनापति और तनुरक्षक देव प्रथम अन्तराल में, तीनों परिषद देव दूसरे अन्तराल में, तीसरे अन्तराल में सामानिक देव तथा चौथे अन्तराल में आरोहक, आभियोग्य और किल्विषिकादि देव अपने-अपने योग्य प्रासादों में रहते हैं। पाँचवें अन्तराल से अर्धलाख (५० हजार) योजन आगे जाकर नन्दनवन हैं इनके विशेष नाम आगे कहेंगे ।।।५००-५०१।।
विशेषार्थ :- कोटों (प्राकारों) के प्रथम अन्तराल में सेनापति और तनुरक्षक देव रहते हैं । द्वितीय अन्तराल में तीनों पारिषद, तृतीय अन्तराल में सामानिक देव तथा चतुर्थ अन्तराल में वृषभ, तुरङ्गादि पर सवारी करने वाले आरोहक, आभियोग्य एवं किल्विषिकादि देव अपने-अपने योग्य भवनों में रहते हैं। पाँचवें कोट से ५० हजार योजन आगे जाकर नन्दनवन हैं, ये वन आनन्द देने वाले हैं इसलिये इन्हें नन्दनवन कहते हैं। इनके विशेष नाम आगे कहेंगे ।
वनों के विशेष नाम एवं प्रमाण :-
गाथार्थ :-देवों के नगर से बाहर पद्मसरोवर के प्रमाण को धारण करने वाले तथा एक-एक चैत्यवृक्ष से संयुक्त अशोक वनखण्ड, सप्तच्छद वनखण्ड, चम्पक वनखण्ड और आम्र वनखण्ड हैं।।५०२।।
विशेषार्थ :- देवों के नगरों से बाहर पूर्वादि चारों दिशाओं में क्रम से अशोक , सप्तच्छद, चम्पक और आम्र वनखण्ड हैं। प्रत्येक का प्रमाण-पद्मद्रह नामक सरोवर के सदृश एक हजार योजन लम्बे और पाँच सौ योजन चौड़े हैं तथा प्रत्येक वनखण्ड एक-एक चैत्यवृक्ष से संयुक्त हैं।
वन के बीच में स्थित चैत्यवृक्षों के स्वरूप का निरूपण करते हुए उन चैत्यवृक्षों को नमस्कार करते हैं-
गाथार्थ :- सौधर्मादि कल्पों में चारों वन सम्बन्धी चार चैत्यवृक्ष, जम्बूवृक्ष प्रमाण वाले हैं। प्रत्येक चैत्यवृक्ष के चारों पार्श्वभागों में पल्यज्रसन से एक-एक जिनप्रतिमा है, उन्हें मैं (नेमिचन्द्राचार्य ) नमस्कार करता हूूँ ।।५०३।।
विशेषार्थ :-सौधर्मादि कल्पों में अशोकादि चारों वनखण्डों में जो चार चैत्यवृक्ष हैं, उनका प्रमाण जम्बूवृक्ष के प्रमाण सदृश है। उन चारों वृक्षों में से प्रत्येक वृक्ष के चारों पार्श्व भागों में पल्यज्रसन स्थित एक-एक जिनप्रतिमा है, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ।