ऋजु का अर्थ निष्पन्न और प्रगुण (सीधा) है अर्थात् दूसरे के मन को प्राप्त वचन, काय और मनकृत अर्थ के विज्ञान से निर्र्वितत या ऋजु जिसकी मति है वह ऋजुमति कहलाता है।
मति, श्रुतादि आठ ज्ञानो में मन:पर्ययज्ञान के दो भेद ऋजुमति व विपुलमति में से यह एक है। ऋजुमति केवल चिन्तित पदार्थ को ही जानता है। जो ऋजुमति ज्ञान है वह मन,वचन,काय के विषय भेद से तीन प्रकार का है- ऋजुमनस्कृतार्थज्ञ, ऋजुवाक कृतार्थज्ञ और ऋजुकायकृतार्थज्ञ । जैसे किसी ने किसी समय सरल मन से किसी पदार्थ का स्पष्ट विचार किया, स्पष्ट वाणी से कोई विचार व्यक्त किया और काय से भी उभयफल निष्पादनार्थ आंगोपांग आदि का सिकोड़ना, फैलाना आदि रूप स्पष्ट क्रिया की । कालान्तर में उन्हें भूल जाने के कारण पुन: उन्हीं का चिन्तवन व उच्चारण आदि करने को समर्थ न रहा। इस प्रकार के अर्थ को पूछने पर या बिना पूछे भी ऋजुमति मन:पर्य ज्ञान जान लेता है कि इसने इस प्रकार सोचा था या बोला था या किया था और यह अर्थ आगम से सिद्ध है। ऋजुगति व्यक्त या स्पष्ट व सरल रूप से अर्थ की चिन्ता करने वाले जीवों के व्यक्त (वर्तमान) मन में जो अर्थ चिन्तित रूप से स्थित है उसको जानता है अव्यक्त या अचिन्तित को नहीं । द्रव्य की अपेक्षा ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान जघन्य से एक समय सम्बन्धी औदारिक शरीर की तद्व्यतिरिक्त निर्जरा को जानता है । क्षेत्र की अपेक्षा वह जघन्य से गव्यूतिपृथक्तव प्रमाण क्षेत्र को और उत्कर्ष से योजन पृथक्तव के भीतर की बात जानता है, बाहर की नहीं । काल की अपेक्षा वह जघन्य से दो तीन भवोंं को जानता है और उत्कर्ष से सात आठ भवों को जानता है । भाव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यों में उसके योग्य असंख्यात पर्यायों को जघन्य व उत्कृष्ट ऋजुमति जानता है । ऋजुमति मनपर्ययज्ञानी के विशिष्ट क्षयोपशम का अभाव होने से ही वह केवल चिन्तित पदार्थ को जानता है।