रजस्वला स्त्री
प्रत्येक महीने में जो रज्र:साव होता है उस समय वो स्त्रियां रजस्वला कहलाती है। प्राय: १३-१४ वर्ष की उम्र से ही यह प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। कन्या का रजस्वला या ऋतुमती होना शुभ माना जाता है जो कन्याएं या महिलाएं रजस्वला नहीं होती है वह बन्ध्या कहलाती है उनमें सन्तान उत्पन्न करने की क्षमता नहीं होती।
रज्र:साव के उन दिनों में उन्हें किसी भी वस्तु का स्पर्श नहीं करना चाहिए। देव, शास्त्र, गुरू का दर्शन भी नहीं करना चाहिए । अर्धरात्रि के अनन्तर ऋतुमती होने पर प्रात:काल से अशौच गिनना चाहिए । शास्त्र में तीन दिन की अशुद्धि मानी गयी है रजस्वला स्त्री को तीन दिन तक स्नान, अलंकार नहीं करना चाहिए, ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। चतुर्थ दिवस स्नान कर शुद्ध होकर घर के काम, काज कर सकती है। देवपूजा, गुरूपास्ति आदि कार्यों को पांचवें दिन कर सकती है। एक बार रजस्वला होने के बाद बारह दिन के अन्दर ही यदि रजोदर्शन हो जाए तो वह स्नान से शुद्ध हो जाती है। यदि अठारह दिन के पहले रज:स्राव हो जाता है तो भी स्नान मात्र से शुद्ध हो जाती है यदि अठारहवें दिन होता है तो दो दिन का अशौच मानना चाहिए । अठारह दिन के बाद होने पर तीन दिन तक अशुद्धि मानी गई है। रजस्वला स्त्रियां यदि आपस में एक दूसरी को स्पर्श कर लेती है तो उन्हें चतुर्थ दिवस शुद्ध होकर आर्यिका माताजी या गुर्वानी के पास प्रायश्चित्त लेने का विधान है।
जो स्त्रियां रजस्वला के दिनों में अशौच का पालन नहीं करती है सभी को छूती है या भोजन बनाकर सभी को खिला देती है वे इस लोक में स्वास्थ्यहानि करती है, उनके अन्दर तरह-तरह की बीमारियां उत्पन्न हो जाती है जो जानलेवा भी हो सकती हैं अशुद्ध रज:स्राव में बना भोजन अनेक प्रकार की मानसिक विकृतियों को जन्म देता है। स्वास्थ्य हानि के साथ-२ वे महिलाएं धार्मिक परम्परा की हानि करती हैं तथा पाप का संचय कर अगले भव की भी हानि कर लेती हैं।
पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित भारतवर्श में अधिकांशत: महिलाएं अशुद्धि का पालन नहीं करती है। इसका अच्छी तरह से पालन अभी भी दक्षिण भारत के महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि देशों में तथा कुछ अंशो में पूर्वी उत्तर प्रदेश, राजस्थान तथा गुजरात मे देखा जाता है तथा दिल्ली, हरियाणा, पंजाब आदि में इसकी परम्परा प्राय: समाप्त सी हो गयी है। आज भौतिकता की चकाचौंध में धर्ममार्ग से भटकी ये महिलाएं व्यस्तता के कारण रजस्वला होने के तुरन्त बाद नहाकर स्वयं को शुद्ध मान लेती हैं और प्रत्येक वस्तु को साधारण दिनों की भांति ही प्रयोग करती है, बहुत सी महिला रसोई व पूजा घर में न जाकर शेष कार्य करती हैं और आज एकाकी परिवार होने के कारण रज:स्राव के इन तीन दिनों में भी प्रतिदिन की भांति अपनी जीवनशैली में दत्तचित्त रहती है।
वैज्ञानिकों का भी दावा है कि इन दिनों शरीर से निकलने वाले परमाणु हानिकारक होते है जो सूक्ष्म होने के कारण दृष्टिगत नहीं होते। कही-२ आज भी मान्यता है कि अशुद्धि के इन दिनों में बड़ी, पापड़, अचार आदि पर रजस्वला स्त्री की परछाई पड़ने से वह खराब हो जाता है फिर शारीरिक अस्वस्थता हो, धार्मिक हानि हो तो कोई बड़ी बात नहीं । इससे जन व धन की भी हानि होती है। आंखो पर भी इसका बहुत गलत प्रभाव पड़ता है।
प्रायश्चित्त समुच्चय ग्रन्थ मे वर्णन है कि अशुद्धि के इन तीन दिनों में जैन साध्वियां मौन रखती है नीरस आहार ग्रहण करती है अथवा उपवास करती है।
कही-२ महिलाएं अशुद्धि के इन तीन दिनों के पश्चात् चौथे दिन की अशुद्धि में देव-शास्त्र-गुरू के दर्शन करना भी गलत मानती हैं लेकिन ऐसा नहीं करना चाहिए। पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी बताती है कि तीन दिन के पश्चात् चतुर्थ दिवस स्वयं स्नान कर किसी दूसरी महिला या कन्या से अपने ऊपर पानी डलवाकर शुद्धि हो जाती है पुन: देवादि के दर्शन कर सकते है और पूर्णत: शुद्धि होने के पश्चात् चावल चढ़ाकर दर्शन, पूजन अभिषेकादि कर सकते है, आहारादि दे सकते हैं।
अत: प्रत्येक महिलाओं को इन तीन दिनों में विवेक पूर्वक अशौच का पालन करना चाहिए ।