तपश्चर्या को करने वाले मुनि अनेक प्रकार की ऋद्धियों के स्वामी हो जाते हैं।
ऋद्धियों के आठ भेद हैं-बुद्धिऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, क्रियाऋद्धि, तपऋद्धि, बलऋद्धि, औषधिऋद्धि, रसऋद्धि और क्षेत्रऋद्धि।
बुद्धिऋद्धि के १८, विक्रिया के ११, क्रिया के २, तप के ७, बल के ३, औषधि के ८, रस के ६ और क्षेत्र ऋद्धि के २ ऐसे अवान्तर भेद ५७ होते हैं।
बुद्धिऋद्धि के १८ भेद – अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, बीजबुद्धि, कोष्ठबुद्धि, पदानुसारिबुद्धि, संभिन्नश्रोतृत्व, दूरास्वादनत्व, दूरस्पर्श, दूरघ्राण, दूरश्रवण, दूरदर्शन, दशपूर्वित्व, चौदहपूर्वित्व, निमित्तऋद्धि, प्रज्ञाश्रमण, प्रत्येकबुद्धित्व और वादित्व।
१. अवधिज्ञान – यह प्रत्यक्षज्ञान अन्तिमस्वंधपर्यन्त परमाणु आदि मूर्त द्रव्यों को जानता है।
२. मन:पर्ययज्ञान – यह ज्ञान चिन्तित, अचिन्तित या अर्धचिन्तित के विषयभूत अनेक भेदरूप पदार्थों को नरलोक के भीतर जानता है।
३. केवलज्ञान – यह ज्ञान सम्पूर्ण पदार्थों को, लोक और अलोक को विषय कर लेता है तथा इन्द्रियादि की सहायता से रहित अखण्ड है।
४. बीजबुद्धि – नोइन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय इन प्रकृतियों के उत्कृष्ट क्षयोपशम से विशुद्ध हुए किसी महर्षि की बुद्धि, संख्यातस्वरूप शब्दों के बीच में से लिंग सहित एक ही बीजभूत पद को पर के उपदेश से प्राप्त करके उस पद के आश्रय से सम्पूर्ण श्रुत को विचार कर ग्रहण करती है, यह बीजबुद्धि है।
५. कोष्ठबुद्धि – उत्कृष्ट धारणा से युक्त कोई मुनि अनेक ग्रंथों के शब्दरूप बीजों को बुद्धि से ग्रहण करके मिश्रण रहित बुद्धिरूपी कोठे में धारण करता है।
६. पदानुसारी – यह बुद्धि आदि, मध्य अथवा अंत में गुरु के उपदेश से एक पद को ग्रहण करके सारे ग्रंथ को ग्रहण कर लेती है। इनके अनुसारिणी, प्रतिसारिणी और उभयसारिणी ऐसे तीन भेद होते हैं।
७. संभिन्नश्रोतृत्व – इस ऋद्धि वाला मुनि श्रोत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर दशों दिशाओं में संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित मनुष्य-तिर्यंचों के अक्षरानक्षरात्मक बहुत प्रकार के होने वाले शब्दों को सुनकर प्रत्युत्तर दे सकता है।
८. दूरास्वादित्व – जिह्वा इन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र से बाहर संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित विविध रसों के स्वाद को जान लेना।
९. दूरस्पर्शत्व – स्पर्शनेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र से बाहर संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित आठ प्रकार के स्पर्शों को जान लेना।
१०. दूरघ्राणत्व – घ्राण इन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजनों तक बहुत प्रकार के गंधों को ग्रहण कर लेना।
११. दूरश्रवणत्व – श्रोत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजनोंपर्यन्त में स्थिर रहने वाले बहुत प्रकार के मनुष्य और तिर्यंचों के अक्षरानक्षरात्मक शब्दों को श्रवण कर लेना।
१२. दूरदर्शित्व – चक्षु इन्द्रिय के उत्कृष्ट विषय क्षेत्र के बाहर संख्यात योजनों में स्थित बहुत प्रकार के द्रव्यों को देखना यह दूरदर्शित्व है।
१३. दशपूर्वित्व – मुनियों के दशपूर्व के पढ़ने में पाँच सौ महाविद्या और सात सौ लघु विद्याओं के देवता आकर मुनि से आज्ञा मांगते हैं। उस समय जो महर्षि जितेन्द्रिय होने के कारण उन विद्याओं की इच्छा नहीं करते, वे दशपूर्वी हैं।
१४. चौदहपूर्वित्व – जो महर्षि सम्पूर्ण श्रुत के पारंगत श्रुतकेवली होते हैं, वे चौदह पूर्वी हैं।
१५. अष्टांगमहानिमित्त – यह ऋद्धि नभ, भौम, अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, चिन्ह और स्वप्न इन आठ भेदों से युक्त निमित्तज्ञान में कुशल है।
१६. प्रज्ञाश्रमणत्व – इस ऋद्धि से युक्त महामुनि अध्ययन के बिना ही चौदह पूर्वों में से अति सूक्ष्म विषय का निरूपण करने में कुशल होते हैं। इसके औत्पत्तिकी, पारिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा ऐसे चार भेद हो जाते हैं।
१७. प्रत्येकबुद्धि – जिसके द्वारा गुरु के उपदेश के बिना ही कर्मों के उपशम से सम्यग्ज्ञान और तप के विषय में प्रगति होती है,
१८. वादित्व – ऋद्धि के द्वारा शक्रादि के पक्ष को भी बहुत वाद से निरुत्तर कर दिया जाता है, वह वादित्व ऋद्धि है।
विक्रिया ऋद्धि के ग्यारह भेद-अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशत्व, वशित्व, अप्रतिघात, अन्तर्धान और कामरूप।
१. अणिमा- अणु के बराबर शरीर को करना। इसके द्वारा महर्षि अणुप्रमाण छिद्र में प्रविष्ट होकर चक्रवर्ती के कटक और निवेश की रचना कर लेते हैं।
२. महिमा – मेरु के बराबर शरीर को कर लेना।
३. लघिमा – वायु से भी लघु शरीर को करना।
४. गरिमा – वङ्का से भी अधिक गुरुतायुक्त शरीर को करना।
५. प्राप्ति – भूमि पर स्थित रहकर अंगुलि के अग्रभाग से सूर्य, चन्द्र, मेरुशिखर आदि को प्राप्त करना-छू लेना।
६. प्राकाम्य – इस ऋद्धि से जल के समान पृथ्वी पर उन्मज्जन-निमज्जन करना और पृथ्वी के समान जल में गमन करना।
७. ईशित्व – सब जगत् पर प्रभुता का होना।
८. वशित्व – सभी जीवसमूह का वश में होना।
९. अप्रतिघात – इस ऋद्धि के बल से शैल, शिला और वृक्षादि के मध्य में होकर आकाश के समान गमन करना।
१०. अंतर्धान – जिससे अदृश्यता प्राप्त होती है, वह अंतर्धान नामक ऋद्धि है।
११. कामरूपित्व – जिससे युगपत् बहुत से रूपों को रचता है, वह कामरूप ऋद्धि है।
क्रिया ऋद्धि के भेद –आकाशगामित्व और चारणत्व ये दो भेद हैं।
१. आकाशगामित्व – इनमें से जिस ऋद्धि के द्वारा कायोत्सर्ग आसन अथवा अन्य प्रकार से ऊध्र्व स्थित होकर या बैठकर जाता है, वह आकाशगामित्व ऋद्धि है।
२. चारणऋद्धि – इस ऋद्धि को जलचारण, जंघाचारण, फलचारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, अग्निशिखाचारण, धूम्रचारण, मेघचारण, धाराचारण, मर्वटतंतुचारण, ज्योतिश्चारण और मरुच्चारण ऐसे अनेकों भेद होते हैं।
चार अंगुलप्रमाण पृथ्वी को छोड़कर आकाश में घुटनों को मोड़े बिना जो बहुत योजनों तक गमन करना है, वह जंघाचारण ऋद्धि है। ऐसे ही सभी के लक्षण समझना।
तप ऋद्धि के भेद-उग्रतप, दीप्ततप, तप्ततप, महातप, घोरतप, घोरपराक्रम, अघोरब्रह्मचारित्व ये तप ऋद्धि के सात भेद हैं।
१. उग्रतप ऋद्धि के दो भेद हैं – उग्रोग्रतप, अवस्थित उग्रतप। दीक्षोपवास को आदि करके आमरणांत एक-एक अधिक उपवास को बढ़ाकर निर्वाह करना उग्रोग्रतप है। दीक्षार्थ एक उपवास करके पारणा करे और पुन: एक-एक दिन का अन्तर देकर उपवास करता जाये पुन: कुछ निमित्त पाकर वेला, तेला आदि के क्रम से नीचे न गिरकर उत्तरोत्तर आमरणांत उपवासों को बढ़ाते जाना अवस्थित उग्रतप ऋद्धि है।
२. दीप्त तप – जिसके प्रभाव से मन, वचन, काय से बलिष्ठ ऋषि की बहुत उपवासों द्वारा शरीर कान्ति सूर्यवत् दैदीप्यमान होती जाये।
३. तप्त तप – तप्त कड़ाही में गिरे हुए जलकणवत् खाया हुआ अन्न धातुओं सहित क्षीण हो जाये, मलमूत्र आदि न बने।
४. महातप – जिसके बल से मुनि चार प्रकार के सम्यग्ज्ञानों के बल से मंदरपंक्ति प्रमुख सब ही महान् उपवासों को कर लेवें।
५. घोरतप – जिसके बल से ज्वर, शूलादि रोगों से शरीर के अत्यन्त पीड़ित होने पर भी दुद्र्धर तपश्चरण हो जाये।
६. घोरपराक्रम – जिसके प्रभाव से तीनों लोकों के संहार करने की शक्ति से युक्त अनेकों अद्भुत कार्यों को करने की शक्ति से सहित हो जाते हैं।
७. अघोरब्रह्मचारित्व –जिसके प्रभाव से मुनि के क्षेत्र में चौरादि की बाधाएँ, कालमहामारी, महायुद्धादि नहीं होते हैं।
बलऋद्धि के भेद – मन, वचन, काय के भेद से यह ऋद्धि तीन प्रकार की है।
१. मनबल ऋद्धि – इस ऋद्धि के बल से मुनि अन्तर्मुहूर्त मात्र काल में सम्पूर्ण श्रुत का चिंतवन कर लेते हैं।
२. वचनबल – इस ऋद्धि के प्रगट होने से मुनि श्रमरहित और अहीनवंठ होते हुए मुहूर्त मात्र के भीतर सम्पूर्ण द्वादशांग श्रुत का उच्चारण कर लेते हैं।
३. कायबल – इस ऋद्धि से मुनि मास, चार मास आदि पर्यंत कायोत्सर्ग करते हुए भी श्रम से रहित रहते हैं तथा तीनों लोकों को भी कनिष्ठा अंगुली के ऊपर उठाकर अन्यत्र स्थापित करने में समर्थ हो जाते हैं।
औषधि ऋद्धि के आठ भेद- आमर्षौषधि, क्ष्वेलौषधि, जल्लौषधि, मलौषधि, विप्रुषौषधि, सर्वौषधि, मुखनिर्विष और दृष्टिनिर्विष।
१. आमर्षौषधि – जिसके प्रभाव से जीव ऋषि के हाथ, पैरादि के स्पर्शमात्र से नीरोग हो जावें।
२. क्ष्वेलौषधि – इस ऋद्धि से मुनियों के लार, कफ, अक्षिमल आदि जीवों के रोगों को नष्ट कर देते हैं।
३. जल्लौषधि – मुनि के शरीर का पसीना सर्व रोगों को नष्ट कर देता है।
४. मलौषधि – मुनि के दांत, नासिका आदि का मल भी रोगों को नाश कर देवे।
५. विप्रुषौषधि” ‘- मुनियों के मूत्र, विष्ठा भी जीवों के भयानक रोगों का नाश कर देवे।
६. सर्वौषधि – दुष्कर तप से युक्त मुनियों का स्पर्श किया हुआ जल, वायु आदि सम्पूर्ण व्याधियों का नाश कर देवे।
७. वचननिर्विष (मुखनिर्विष)- तिक्त रस व विष से युक्त विविध प्रकार का अन्न जिन-मुनि के वचन से निर्विषता को प्राप्त हो जाता है।
८. दृष्टिनिर्विष – रोग और विष से युक्त जीव जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि के द्वारा देखने मात्र से ही नीरोगता को प्राप्त कर लेते हैं ।
रस ऋद्धि के छह भेद-आशीविष, दृष्टिविष, क्षीरस्रवी (क्षीरस्रावी), मधुस्रवी (मधुस्रावी), अमृतस्रवी (अमृतस्रावी), सर्पिस्रवी (सर्पिस्रावी)।
१. आशीविष – जिस शक्ति से दुष्कर तप से युक्त मुनि के द्वारा ‘मर जावो’ इस प्रकार कहने पर जीव सहसा मर जावे।
२. दृष्टिविष – जिससे रोष युक्त मुनि द्वारा देखने मात्र से जीव सहसा मर जावे।
३. क्षीरस्रवी – मुनि के हस्ततल पर रखे हुए रूखे आहारादि तत्काल ही दुग्ध परिणाम को प्राप्त हो जाये अथवा जिनके वचन दुग्धवत् पुष्टिकारक होवें।
४. मधुस्रवी – मुनि के हाथ का आहार मधुरस युक्त हो जावे या उनके वचन मनुष्य, तिर्यंचों के दु:खनाशक होवें।
५. अमृतस्रवी – मुनियों के हाथ का रुक्ष आहार अमृतवत् हो जावे या उनके वचन अमृतवत् तुष्टि- प्रद होवें।
६. सर्पिस्रवी – मुनियों के हाथ का रुक्ष आहार क्षणमात्र में घृतरूप को प्राप्त कर ले या जिनके वचन दु:खादि को शांत कर देते हैं।
क्षेत्रऋद्धि के दो भेद –अक्षीणमहानसिक और अक्षीणमहालय।
अक्षीण महानसिक- जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि के आहार के बाद शेष भोजनशाला में रखे हुए अन्न में से जिस किसी भी प्रियवस्तु को यदि उस दिन चक्रवर्ती का सम्पूर्ण कटक भी खावे, तो भी वह लेशमात्र क्षीण नहीं होती है।
अक्षीणमहालय –जिस ऋद्धि के प्रभाव से समचतुष्कोण चार धनुषप्रमाण क्षेत्र में असंख्यात मनुष्य-तिर्यंच समा जाते हैं, वह अक्षीणमहालय ऋद्धि है। घोराघोर तपश्चरण करने वाले मुनियों के ये ऋद्धियाँ प्रगट हो जाया करती हैं। गणधर देव के ये ऋद्धियाँ तत्क्षण ही उत्पन्न हो जाया करती हैं। ये ऋद्धियाँ भावलिंगी मुनियों के ही प्रगट होती हैं, अन्यों के नहीं हो सकती हैं।