जो गुणों या गुणवालों के द्वारा माने जाते हो वे आर्य कहलाते है। उसके दो भेद है ऋद्धि प्राप्त आर्य और ऋद्धि रहित आर्य । जो बुद्धि, विक्रया, क्रिया, तप, बल, औषधि, रस और क्षेत्र ऋद्धि आदि नाना प्रकार की ऋद्धियों को प्राप्त कर लेवें वे ऋद्धि प्राप्त आर्य हैं।
ऋद्धि रहित आर्यो के पांच भेद है- क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कर्मार्य, चारित्रार्य और धर्मार्य । काशी, कौशल आदि उत्तम देशों में उत्पन्न हुए को क्षेत्रार्य कहते हैं। इक्ष्वाकु, ज्ञाति, भोज आदिक उत्तम कुलों में उत्पन्न हुए को जात्यार्य कहते है। कर्मार्य तीन प्रकार के हैं- सावद्य कर्मार्य, अल्पसावद्य कर्मार्य, असावद्य कर्मार्य । अल्प सावद्य कर्मार्य असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प के भेद से छ: प्रकार के है। चारित्राय के दो भेद है अधिगत चारित्रार्य और अनधिगम चारित्रार्य । यह दोनों भेद उपदेश व अनुपदेश की अपेक्षा किये गये है। जो बाह्मोपदेश के बिना आत्मप्रसाद मात्र से चारित्र मोह के उपशम अथवा क्षय होने से चारित्र परिणाम को प्राप्त होते है ऐसे उपशान्त कषाय व क्षीणकषाय जीव अधिगत चारित्रार्य है और अन्तरंग चारित्र मोह के क्षयोपशम का सद्भाव होने पर बाह्मोपदेश के निमित्त से विरति परिणाम को प्राप्त अनधिगम चारित्रार्य है। दर्शनार्य दस प्रकार के हैं- आज्ञा, मार्ग, उपदेश सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ़, परमावगाढ़ और रूचि ।