(भगवान ऋषभदेव राज्यसिंहासन पर विराजमान हैं। सभा लगी हुई है। उसी समय उनकी दोनों पुत्रियाँ सभा में प्रवेश कर गवासन से बैठकर हाथ जोड़कर पिता को नमस्कार करती हैं।)
ब्राह्मी-सुन्दरी—पिताजी प्रणाम।
भगवान ऋषभदेव—चिरंजीव रहो, बेटी! आओ। (पिता पुत्रियों के मस्तक पर हाथ फैरते हुए अपने पास बिठा लेते हैं। पुन: हंसते हुए कहते हैं।) तुम समझती होंगी कि आज हम देवों के साथ अमरवन को जायेंगी परन्तु अब नहीं जा सकोगी क्योंकि देवगण पहले ही चले गये।
पुत्रियाँ—पिताजी! हमें जो आपकी गोद में खेलने से आनन्द आता है वह अमरवन में थोड़े ही आएगा। (कन्याएं पिता की गोद में बैठ जाती हैं, एक क्षण बाद पिता कहते हैं।)
पिता—पुत्रियों! तुम अपने शील और विनय गुण के कारण इस बाल्यावस्था में भी वृद्धा के समान प्रौढ़ हो। तुम्हें यदि विद्या से विभूषित कर दिया जाए तो तुम दोनों का जन्म सफल हो सकता है।
पुत्रियाँ—(प्रसन्न होकर) ओ हो! पिताजी, आपके श्रीमुख से विद्या निधि को पाकर हम कृतार्थ हो जाएंगी।
पिता—बेटी! इस लोक में विद्यावती स्त्री सर्वश्रेष्ठ पद को प्राप्त कर लेती है। यह विद्या ही साथ-साथ जाने वाला अनुपम धन है और सर्व मनोरथों को पूर्ण करने के लिये कामधेनु है। (इतना कहकर पिता सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर सरस्वती को स्थापित कर कहते हैं)
ऋषभदेव—पुत्रियों बोलो—‘सिद्धं नम:’।
पुत्रियाँ—(दोनों हाथ जोड़कर) सिद्धं नम:। (पिताजी दाहिने हाथ से ब्राह्मी को सुवर्णपट्ट पर सुवर्ण की कलम से अ आ इ ई आदि अक्षर लिखाते हैं और बायें हाथ से बायीं तरफ बैठी हुई सुन्दरी कन्या को १, २, ३, ४ आदि अंक लिखाते हैं, पुन: पढ़ाते हैं।)
पिता—अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ¸ ऌ ल¸ ए ऐ ओ औ अं अ:।
ब्राह्मी—अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ¸ ऌ ल¸ ए ऐ ओ औ अं अ:।
पिता—(सुन्दरी से) १, २, ३, ४, ५।
सुन्दरी—१, २, ३, ४, ५।
पिता—पुत्रियों! वाङ्मय के बिना न कोई शास्त्र है और न कोई कला है। व्याकरण शास्त्र, छन्द शास्त्र और अलंकार शास्त्र इन तीनों के समूह को वाङ्मय कहते हैं। इनमें से पहले मैं तुम्हें व्याकरण पढ़ाता हूँ। ‘सिद्धो वर्णसमाम्नाय:’। वर्णों का समुदाय अनादि काल से सिद्ध है उसे किसी ने बनाया नहीं है। (इतना पढ़कर पुत्रियाँ पिता को नमस्कार कर चली जाती हैं और भरत आदि आठ पुत्र आ जाते हैं।)
सभी पुत्र—(घुटने टेककर, हाथ जोड़कर) पिताजी प्रणाम।
पिता—आयुष्मान् होवो बेटे! आओ, आओ। (हाथ पकड़कर भरत बाहुबली को गोद में ले लेते हैं, शेष सभी वहीं बैठ जाते हैं, पुन: कहते हैं) पुत्रों! तुम्हारी यह अवस्था विद्या अध्ययन के योग्य है। देखो, यह विद्या धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को सिद्ध कराने वाली है।
पुत्र—(खुश होकर) ओ हो! आज का दिवस धन्य है जो हम आपके श्रीमुख से विद्या पढ़ेंगे। (पूर्व के समान सुवर्ण पट्ट पर केशर से लिखते हुए)
पिता—सिद्धं नम:।
पुत्र—(हाथ जोड़कर) सिद्धं नम:।
पिता—(भरत को लिखाते हुए) अ, आ, इ, ई। (सभी पुत्र लिख रहे हैं और पढ़ रहे हैं।) (सभा विसर्जित होती है।)
द्वितीय दृश्य
(बगीचे का दृश्य है। भरत, बाहुबली आदि पुत्र और ब्राह्मी-सुन्दरी पुत्रियाँ क्रीड़ा करते हुए वार्तालाप कर रहे हैं। हाथ में मोटे-मोटे ग्रन्थ हैं।)
ब्राह्मी—(भरत से) भइया! पिताजी ने तुम्हें खास क्या पढ़ाया है ?
भरत—बहन! मुझे अर्थशास्त्र और नृत्यशास्त्र पढ़ाये हैं।
बाहुबली—मुझे पिताजी ने स्त्री पुरुषों के लक्षण, कामशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद, रत्नपरीक्षा आदि के शास्त्र पढ़ाये हैं।
वृषभसेन—संगीतशास्त्र और गंधर्वशास्त्र मैंने पढ़ा है।
अनंतविजय—मैंने चित्रकला सीखी है।
भरत—ब्राह्मी! तुमने क्या-क्या पढ़ा बताओ ?
ब्राह्मी—भइया! मुझे तो पिताजी ने सौ से भी अधिक अध्याय वाला व्याकरण शास्त्र पढ़ाया है। छंदशास्त्र, अलंकारशास्त्र भी पढ़ाया है।
भरत—सुन्दरी! तुमने क्या पढ़ा है ?
सुन्दरी—हमने तो गणितशास्त्र अच्छी तरह समझ लिया है। (भगवान ने अपने एक सौ एक पुत्रों को और दोनों पुत्रियों को सम्पूर्ण विद्याओं में और सम्पूर्ण कलाओं में निष्णात कर दिया है। फिर भी खास-खास पुत्रों को किन्हीं खास-खास विषयों में विशेष शिक्षित किया है।)
तृतीय दृश्य
(तीर्थंकर ऋषभदेव सिंहासन पर विराजमान हैं। प्रजा के लोग आते हैं।)
प्रजा समूह—युगादिपुरुष ऋषभदेव की जय हो, महाराजाधिराज की जय हो। (घुटने टेककर) नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु। महाराज! हम लोगों की रक्षा करो, रक्षा करो, हम सभी आपकी शरण में आये हैं।
ऋषभदेव—(गम्भीर स्वर से) कहिये, क्या समस्या है ?
प्रजा—भगवन्! जो कल्पवृक्ष हमारे पिता के समान हमारी रक्षा करने वाले थे वो अब नष्ट हो गये हैं। हम लोग भूख प्यास से व्याकुल हो रहे हैं।
एक पुरुष—हे नाथ! स्वयं अनेक वृक्ष उग आये हैं और उनमें कुछ फल भी लटक रहे हैं।
दूसरा पुरुष—खेतों में धान्य पके हुए हैं। उनमें से क्या तो खाने योग्य है और क्या नहीं ? हम लोग कुछ नहीं समझ पा रहे हैं ?
तीसरा पुरुष—वे कल्पवृक्ष तो न अब मकान दे रहे हैं, न वस्त्र और न बर्तन ही दे रहे हैं। हम लोग क्या करें ?
ऋषभदेव—हे आयुष्मन्तों! तुम लोग धैर्य धारण करो। अब भोगभूमि समाप्त होकर कर्मभूमि प्रगट हो चुकी है। इसीलिए कल्पवृक्ष नष्ट हो गये हैं।
एक पुरुष—अब क्या होगा ?
ऋषभदेव—विदेह क्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान में है सो ही यहाँ हम करेंगे। तभी आप लोग सुखी रह सकते हैं। (इतना कहकर भगवान एक क्षण के लिए आँख बन्द कर इन्द्र का स्मरण करते हैं कि देवों के साथ सौधर्मेन्द्र वहाँ आ जाता है।)
ऋषभदेव—इन्द्रराज! जैसे विदेह क्षेत्र में ग्राम, नगर आदि की पृथक्-पृथक् रचना है वैसे यहाँ भी होनी चाहिये।
इन्द्र—(हाथ जोड़कर) जो आज्ञा महाराज। (सिर झुकाकर चला जाता है, पुन: आकर कहता है।) भगवन्! मैंने सर्वप्रथम शुभ मुहूर्त में इस अयोध्या के बीच में एक जिनमंदिर बनाकर चारों दिशाओं में भी एक-एक जिनमंदिर बना दिये। पुन: कैलाश, कुरुजांगल आदि महादेश, हस्तिनापुर, उज्जैन आदि नगरियाँ और बहुत से ग्राम, खेड़ों आदि का निर्माण कर दिया है। उनमें से कौशल, अवंती, पुंड्र, अंग, बंग, सुराष्ट्र, महाराष्ट्र, चोल, केरल आदि खास-खास बावन देश बसाये हैं और उनमें बहुत-सी प्रजा को यथास्थान ठहरा दिया है। प्रभो! अब जाने की आज्ञा।
ऋषभदेव—ठीक है, जाइए। (इन्द्र चला जाता है।)
ऋषभदेव—(प्रजा से) हे आर्यों! सुनो, जैसे विदेह क्षेत्र में छह प्रकार के आजीविका के साधन हैं और जैसे वहाँ वर्ण-व्यवस्था है उसी के समान मैं यहाँ तुम्हें बताता हूँ।
एक पुरुष—प्रभो! वह क्या है ?
ऋषभदेव—सुनो! असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प ये छह कार्य तुम लोगों की आजीविका के लिये उपाय हैं। तलवार आदि शस्त्र धारण करना ‘असि कर्म’ है। लिखकर कार्य करना ‘मसि कर्म’ है। जमीन को जोतकर बीज बोना, धान्य पैदा करना ‘कृषि कर्म’ है। शास्त्र पढ़ाकर, नृत्य आदि कलाएं सिखाकर आजीविका करना ‘विद्या कर्म’ है। व्यापार करना वाणिज्य है और हस्तकला करके जीवन चलाना—चित्र आदि बनाना ‘शिल्प कर्म’ है। इन छह क्रियाओं में से किसी को भी करके अपनी आजीविका चलाना चाहिये।
दूसरा पुरुष—प्रभो! (धान्य को दिखाते हुए) इनको कैसे खाना ?
ऋषभदेव—देखो! ये गेहूँ है, ये चावल हैं, ये अरहर, मूँग, मटर आदि हैं। गेहूँ को पीसकर रोटी बनेगी, चावल को पकाकर भात तैयार होगा, ये गन्ना है, इन्हें पेलकर रस निकालो। इस प्रकार भोजन पान करके सुखी होवो।
ऋषभदेव—मिट्टी के बर्तन तैयार करो। धातु पीतल, कांसे, चाँदी, सोने के बर्तन बनाओ और लकड़ियों से अग्नि तैयार करके भोजन पकाओ।
चौथा पुरुष—प्रभो! वर्ण व्यवस्था क्या है ?
ऋषभदेव—सुनो, विदेह क्षेत्र में तीन प्रकार के वर्ण हैं। उसी प्रकार से यहाँ भी तुम लोगों में विभाजन होना उचित है। हे आर्यों! तुम लोगों में ये लोग शस्त्र आदि धारण कर प्रजा की रक्षा करने के लिए योग्य हैं अत: ये ‘क्षत्रिय’ हैं। ये लोग मसि, वाणिज्य आदि क्रिया करके व्यापार करने में कुशल हैं, इन्हें ‘वैश्य’ समझो और जो लोग सेवा-सुश्रूषा करके आजीविका चलाना चाहते हैं वे ‘शूद्र’ हैं। इन तीन वर्णों में बंटकर तुम लोग अपने-अपने कार्यों में प्रवृत्ति करो।
सर्व प्रजा—हे नाथ! आप धन्य हैं। आपने आज हम लोगों की रक्षा करके महान उपकार किया है।
एक पुरुष—हे प्रभो! इस युग के आदि में आपने प्रजा के जीवन की व्यवस्था बनाई है। अत: आप प्रजापति हैं, ब्रह्मा हैं, विधाता हैं, युगस्रष्टा हैं और युगादि पुरुष हैं।
दूसरा पुरुष—भगवन्! आपने कर्मयुग को प्रारम्भ किया है इसलिये आप ही कृतयुग हैं। (सभी लोग) जय हो, आपकी जय हो। (प्रजा वहाँ से चली जाती है। अनेक प्रमुख-प्रमुख लोग आकर भगवान को नमस्कार कर बैठ जाते हैं।)
ऋषभदेव—हे आयुष्मन्तों! अब कर्मभूमि में राजाओं का होना आवश्यक है।
एक पुरुष—हे नाथ! ऐसा क्यों ?
ऋषभदेव—क्योंकि भोगभूमि में न तो प्रजा से अपराध होते हैं, न उनकी व्यवस्था करने की, न उन पर अनुशासन करने की या दण्ड देने की कोई आवश्यकता ही थी। अब तो राजा के अभाव में प्रजा ऐसी होगी कि अंतरंग से दुष्ट, बलवान मनुष्य निर्बल मनुष्यों को सताएंगे, किन्तु राजा के भय से वे कुमार्ग की ओर नहीं दौड़ेंगे।…
दूसरा पुरुष—भगवन्! आप ही हमारे सर्वस्व हैं। आप जो आज्ञा दें हम लोग पालन करेंगे।
ऋषभदेव—अच्छा, मंत्रिन्! हरि, अकंपन, काश्यप और सोमप्रभ इन चारों महानुभावों का तथा कच्छ और महाकच्छ का राज्याभिषेक कराओ।… (मंत्री राज्याभिषेक कराकर मुकुट बाँध देते हैं पुन: भगवान कहते हैं)
ऋषभदेव—अब तुम चारों महामण्डलीक राजा घोषित किये जाते हो। सोमप्रभ! तुम कुरुवंश शिरोमणि हो, कुरुदेश का राज्य करो, तुम्हारी राजधानी हस्तिनापुर रहेगी। हरिकान्त! तुम हरिवंश को अलंकृत करो। अकंपन! तुम नाथवंश के अधिनायक हो, तुम्हें बनारस राजधानी में रहना होगा। मघवा! तुम उग्रवंश के स्वामी हो। अच्छा, तुम चारों के आश्रित चार-चार हजार राजा रहेंगे। कच्छ! महाकच्छ! आप दोनों अधिराजा हैं।
छहों राजा—हे स्वामिन्! हमें क्या-क्या करना होगा ?
ऋषभदेव—तुम्हें अब राजनीति का पालन करना होगा। योग, क्षेम और दण्ड ये तीन राजनीतियाँ हैं।
सोमप्रभ—प्रभो! इनका खुलासा कर दीजिये।
ऋषभदेव—्नावीन वस्तु को प्राप्त करना योग है। प्राप्त हुई वस्तु की रक्षा करना क्षेम है और प्रजा से अपराध हो जाने पर ‘हा’ ‘मा’ तथा ‘धिक्’ इस प्रकार से दण्ड देना यह दण्डनीति है।
अकंपन—प्रभो! यह तीन दण्ड कैसे दिये जाएंगे ?
ऋषभदेव—सुनो, जब प्रजा कुछ अपराध करके आवे तो ‘हा’—हाय! तुमने बुरा किया इतना ही दण्ड उसे पर्याप्त है। यदि वही व्यक्ति पुन: वही अपराध कर लेवे तो ‘हा मा’—हाय बुरा किया, अब ऐसा मत करना, यही दण्ड है। इसके बाद भी यदि वह अपराध करता है तो ‘हा मा धिक्’—हाय बुरा किया, अब आगे ऐसा मत करना, तुम्हें धिक्कार हो। बस ये तीन दण्ड ही पर्याप्त हैं क्योंकि दुष्ट पुरुषों का निग्रह करना और शिष्ट सज्जन पुरुषों का पालन करना यही राजाओं का कर्तव्य है। (इसके अतिरिक्त धन का जुर्माना, कारावास आदि दण्ड आगे भरत ने चलाए हैं। इसी प्रकार आदीश्वर महाराज से सत्कार पाकर ये नवीन बने हुए राजा प्रसन्न होकर हाथ जोड़कर स्तुति करते हैं।)
राजा लोग—हे तीन लोक के स्वामी, हे सार्वभौम सम्राट! आज हम लोग आपसे राजनीति सीखकर कृतार्थ हो गये हैं। आपके आशीर्वाद से हम लोग प्रजा की रक्षा करेंगे।
कच्छ-महाकच्छ—प्रभो! आप इस युग की आदि में गृहस्थ नीति और राजनीति के कत्र्ता होने से युगसृष्टा हैं। जय हो, आपकी जय हो। (सभा विसर्जित होती है।)
चतुर्थ दृश्य
(राज्यसिंहासन पर ऋषभदेव महाराज विराजमान हैं। अनेक राजा, महाराजा भी बैठे हुए हैं। सौधर्मेन्द्र अनेक देव-देवियों के साथ आता है। सभा में संगीत और नृत्य का कार्यक्रम शुरु कर देता है। नीलांजना पुष्पांजलि बिखेर कर नृत्य करने लगती है। वह प्रभु के गुणों को गा रही है।)
भजन
धरती का तुम्हें नमन है, आकाश का तुम्हें नमन है।
इन्द्र सभी मिल करें संस्तवन छुटते जनम मरण हैं।।
सौ-सौ बार नमन है। नमन है, सौ-सौ बार नमन है।।
छह महीने पहले कुबेर ने रत्न विविध बरसाए।
माता मरुदेवी के आंगन याचकजन हरषाए।।
इक रात्री माता ने देखा सोलह सुखद स्वपन है।
कृतयुग के अवतार आपको सौ-सौ बार नमन है।।१।।
तिथि अषाढ़ वदि दूज भली थी, आप गर्भ में आए।
चैतवदी नवमी दिन जनमे, सुरनर मिल गुण गाएं।।
सुमेरु पर्वत पर प्रभु का इन्द्रों ने किया न्हवन है।
नाभिराज सुत आदीश्वर को सौ-सौ बार नमन है।।२।।
शचि ने तुमको गोद में लेकर वस्त्र मुकुट पहनाया।
सुरपति रूप निरख कर हरषा नेत्र हजार बनाया।।
नाम रखा श्री ऋषभदेव सब सुरगण हुए मगन हैं।
हे युग के अवतार आपको सौ-सौ बार नमन है।।३।।
यौवन में पितु नाभिराज ने आपका ब्याह रचाया।
यशस्वती व सुनन्दा रानी का सौभाग्य जगाया।।
इक सौ इक सुत, दो पुत्री, इन दो से लिया जनम है।
भरत बाहुबलि के पितु तुमको सौ-सौ बार नमन है।।
ब्राह्मी-सुन्दरि के पितु तुमको सौ-सौ बार नमन है।
त्रिभुवन का तुम्हें नमन है, सब जन का तुम्हें नमन है।
हे युग के अवतार ……………………..।।४।।
(इत्यादि गुणगान करते हुए सहसा नीलांजना अदृश्य हो गई। उसकी आयु समाप्त हो गई। इन्द्र ने तत्क्षण ही उसकी जगह दूसरी अप्सरा खड़ी कर दी, नृत्य चालू रहा। कोई भी कुछ नहीं जान सके, किन्तु भगवान ऋषभदेव अवधिज्ञानी थे उन्होंने यह सब जान लिया और उसी क्षण विरक्त होकर सोचने लगे।)
ऋषभदेव—अहो! नृत्य करते हुए ही देवी की आयु समाप्त हो गयी। संसार में यह यौवन, यह राज्य, यह वैभव सब कुछ इसी के सदृश क्षणभंगुर है, विनाशीक है। ओह! देखो, मैं तीर्थंकर का अवतार हूँ। गर्भ से ही मुझे मति, श्रुत, अवधि ये तीन ज्ञान हैं। फिर भी अपनी ८४ लाख वर्ष पूर्व की आयु में मैंने २० लाख वर्ष तो कुमार काल में ही बिता दिये। पुन: त्रेसठ लाख वर्ष पूर्व तक का यह काल राज्य संचालन में पूर्ण कर दिया। अब मेरा एक लाख वर्ष पूर्वकाल ही बाकी रहा है। अत: मुझे मोक्ष प्राप्ति के लिये दीक्षा लेना चाहिये। (इतना चिन्तन करते ही लौकांतिक देव आ जाते हैं। सभा में प्रवेश कर पुष्पांजलि क्षेपण करते हैं।)
सभी लौकांतिक देव—(उच्च स्वर से) आदीश्वर महाराज की जय, आदीश्वर महाराज की जय। (सब घुटने टेककर नमस्कार करते हैं, पुन: खड़े होकर स्तुति करते हैं।)
एक देव—हे युगादि पुरुष! युग के प्रथम अवतार! हे धर्म सृष्टि के विधाता! आपने जो दीक्षा का विचार किया है सो बहुत ही उत्तम है। अठारह कोड़ाकोड़ी सागर के बाद अब आप मोक्षमार्ग को खुला करेंगे। इसलिये आप ही मुक्तिपथ के विधाता हैं, निर्माता हैं।
द्वितीय देव—हे युगस्रष्टा! विश्व के सभी प्राणी मोहरूपी अन्धकार में सोए हुए हैं। उन्हें ज्ञान प्रकाश देकर मुक्तिमार्ग में ले चलने वाले उनके नेता आप ही हैं। अत: अब आप तपरूपी अलंकारों से सुसज्जित होकर मुक्तिकन्या के स्वयंवर मण्डप में प्रवेश करेंगे।
तृतीय देव—हे नाथ! आप स्वयं प्रबुद्ध होने से स्वयंबुद्ध हैं, भगवान हैं, फिर भी हम लोग जो आपके वैराग्य की अनुमोदना कर रहे हैं सो यह हम लोगों का नियोग मात्र है।
चतुर्थ देव—भगवन्! हम लोग तो केवल आपकी प्रशंसा ही कर सकते हैं। आपकी स्तुति ही कर सकते हैं न कि आपको सम्बोधन दे सकते हैं। हम लोग तो आपके सम्बोधन की प्रतीक्षा ही कर रहे हैं।
पंचम देव—हे पुरुदेव! हे तीर्थेश्वर! आज हम लोग आपके दीक्षाकल्याणक में भाग लेकर धन्य हो गये हैं। (इतने में ही सौधर्म इन्द्र पालकी को लाकर रख देते हैं।)
ऋषभदेव—हे इन्द्रराज! तुम शीघ्र भरत का राज्याभिषेक कराओ। (राज्याभिषेक होते ही ऋषभदेव अपना मुकुट उतारकर भरत के सिर पर रख देते हैं और कहते हैं) हे भरत! आज से तुम इस अयोध्या के ही राजा नहीं हो प्रत्युत् सारी पृथ्वी के स्वामी हो। सम्पूर्ण प्रजा का पुत्रवत् पालन करो (बाहुबली से) बाहुबली तुम युवराज हो, हाँ तुम पोदनपुर का राज्य सम्भालो। (वृषभसेन से) वृषभसेन! बेटे! तुम पुरिमतालपुर के स्वामी हो, देखो, राजनीति का अच्छी तरह पालन करना। (इस प्रकार भगवान सभी पुत्रों को राज्य बाँटकर आप सभा में बैठे हुए नाभिराज और मरुदेवी की ओर देखकर आज्ञा माँगते हैं।)
ऋषभदेव—हे तात! हे माता! हमने इतने दिन आपकी प्रेरणा से राज्यभार सम्भाला है अब मैं जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ। आप आज्ञा प्रदान कीजिये। (इतना कहकर ऋषभदेव पालकी में बैठ जाते हैं। जय-जयकार के शब्दों से आकाश गूँज उठता है। पहले राजा लोग पालकी उठाते हैं, फिर विद्याधर लोग उठाते हैं। अनन्तर इन्द्र स्वयं अपने कन्धों पर पालकी लेकर आकाशमार्ग से चले जाते हैं। कुछ दूर तक यशस्वती-सुनन्दा, ब्राह्मी-सुन्दरी, भरत, बाहुबली आदि जाते हैं। पुन: वापस लौट आते हैं।) भगवान वन में पहुँचकर वस्त्र आभूषण उतारकर नग्न दिगम्बर दीक्षा ले लेते हैं और ध्यान में खड़े हो जाते हैं।
राजसभा का दृश्य
पंचम दृश्य
(हस्तिनापुर में राजा सोमप्रभ राजसिंहासन पर बैठे हैं। युवराज श्रेयांसकुमार प्रवेश करते हैं।)
श्रेयांस—पुरोहित जी! आज रात्रि के पिछले प्रहर में हमने सात स्वप्न देखे हैं—१. सुमेरू पर्वत, २. कल्पवृक्ष, ३. सिंह, ४. बैल, ५. सूर्य-चंद्रमा, ६. रत्नों से भरा समुद्र और अन्त में ७. व्यन्तरदेव। आप इनके फल को कहिए।
पुरोहित—राजकुमार! स्वप्न में जो आपने एक लाख योजन ऊँचा सुवर्णमय सुमेरू पर्वत देखा है उसका फल यह है कि जिनका सुमेरू पर्वत पर अभिषेक हुआ है और जो स्वयं सुमेरू के समान महान हैं, पूज्य हैं, ऐसे तीर्थंकर महायोगी आज आपका आतिथ्य स्वीकार करेंगे। आप कल्पवृक्ष के समान दाता कहलाएंगे। शेष स्वप्न भी उन्हीं की विशेषता के सूचक हैं।
श्रेयांस—(खुश होकर) बहुत हर्ष की बात है। (सोमप्रभ से) हे भ्रात:! तो अब हमें उनके स्वागत की तैयारी करनी चाहिये। (सिद्धार्थ द्वारपाल आता है।)
द्वारपाल—(हाथ जोड़कर) हे देव! अपने शहर में महायोगिराज भगवान ऋषभदेव आ गये हैं। चारों तरफ से लोग उनके दर्शन करने के लिये इकट्ठे हो रहे हैं। राजाधिराज! वे भगवान अपने महल की ओर आ रहे हैं।
सोमप्रभ-श्रेयांस—(गद्गद् वाणी से) अहो! महान् पुण्योदय का अवसर है। आओ प्रभु का दर्शन करें। (बाहर निकलते हैं, प्रभु को दूर से ही देखकर पृथ्वी पर घुटने टेककर नमस्कार करते हैं। उसी समय राजा श्रेयांस को जातिस्मरण हो जाता है। वे उसी समय आहारदान की विधि समझकर भगवान का पड़गाहन करने लगते हैं।)
सोमप्रभ-लक्ष्मीमती, श्रेयांस—हे भगवन्! नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, नमोऽस्तु, अत्र तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ, आहार जल शुद्ध है। (भगवान आकर खड़े हो जाते हैं। ये तीनों उनकी तीन प्रदक्षिणा लगाते हैं, पुन: कहते हैं।) भगवन्! आहार जल शुद्ध है, महल में प्रवेश कीजिये। (अन्दर लाकर नवधाभक्ति करके भगवान के करपात्र में इक्षुरस दे रहे हैं। उधर देवगण आकाश से रत्नों की वर्षा कर रहे हैं। नगाड़े बजा रहे हैं और जय-जयकार कर रहे हैं। भगवान आहार लेकर वन में चले जाते हैं। राजा श्रेयांस बरसे हुए रत्न लेकर याचकों को बाँट रहे हैं।)
छठा दृश्य
(सभा में राजा सोमप्रभ, श्रेयांसकुमार बैठे हुए हैं। महाराज भरत अपनी सेना सहित आए हैं। उनके आते ही दोनों राजा आगे बढ़कर उनका स्वागत करते हैं। दोनों चक्रवर्ती के गले लगते हैं, पुन: चक्रवर्ती उच्च आसन पर बैठ जाते हैं। ये दोनों भी पास के ही आसन पर बैठ जाते हैं।)
भरत—(गद्गद स्वर से) हे महादानपते! श्रेयांस! कहो-कहो, आपने भगवान का अभिप्राय कैसे जान लिया ?
श्रेयांस—हे देव! मुझे इससे आठवें भव पूर्व का जातिस्मरण हो आया। इसी से मैंने आहारदान की सारी विधि जानकर प्रभु का पड़गाहन कर लिया।
भरत—कहो तो सही, उस जातिस्मरण में क्या-क्या जाना ?
श्रेयांस—हे भरतक्षेत्र के अधिपति सम्राट् भरत! सुनो, इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। उनमें सर्वप्रथम द्वीप का नाम जम्बूद्वीप है। इसमें दक्षिण से उत्तर तक सात क्षेत्र हैं—भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत।
भरत—हाँ। भरत क्षेत्र में ही गंगा, सिन्धु नदी और मध्य के विजयार्ध से छह खण्ड हैं। इनमें से मध्य का आर्यखण्ड है। उसके ठीक बीच में अयोध्या नगरी है। जहाँ श्री ऋषभदेव ने जन्म लिया है।
श्रेयांस—हाँ, हाँ, आप इस भरतक्षेत्र की छह खण्ड पृथ्वी को जीतकर चक्रवर्ती कहलाएंगे और आपके नाम से ही इस क्षेत्र का नाम भारतवर्ष होगा। इसी जम्बूद्वीप के बीच में विदेहक्षेत्र है और इस विदेहक्षेत्र के ठीक बीच में सुमेरू पर्वत है।
भरत—इसी पर्वत की पाण्डुक शिला पर भगवान ऋषभदेव का जन्माभिषेक महोत्सव इन्द्रों ने मनाया था।
श्रेयांस—हाँ, इसी सुमेरू के पूर्व में पूर्व विदेह है और पश्चिम में पश्चिम विदेह। इन विदेह क्षेत्रों में सदा ही कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है, वहाँ पर हमेशा ही सीमंधर आदि तीर्थंकरों का समवसरण रहता है।
भरत—वहीं की सारी व्यवस्था को भगवान ऋषभदेव ने अपने अवधिज्ञान से जानकर यहाँ भरतक्षेत्र में असि, मसि आदि क्रियाओं की तथा क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तीन वर्ण की व्यवस्था बनाई थी। श्रेयांस—हाँ, सम्राट! उस पूर्व विदेहक्षेत्र में एक पुष्कलावती देश है। उसमें एक उत्पलखेट नगर है। एक समय वहाँ पर राजा वङ्काबाहु राज्य करते थे। उनकी रानी वसुन्धरा के वङ्काजंघ नाम का एक पुत्र था। वहीं विदेहक्षेत्र में पुण्डरीकिणी नाम की नगरी है वहाँ के राजा वङ्कादंत चक्रवर्ती थे। उनकी कन्या श्रीमती से वङ्काजंघ का विवाह हुआ था। एक समय राजा वङ्काजंघ ने रानी श्रीमती के साथ वन में दो चारण मुनियों को आहार दिया था। सो उस समय उनके मंत्री, सेनापति, पुरोहित और सेठ भी खड़े होकर आहारदान को देखते हुए अनुमोदना कर रहे थे और पास में ही बैठे हुए व्याघ्र, नेवला, बंदर और सूकर ये चार पशु भी आहार देखकर अनुमोदना कर रहे थे।
सोमप्रभ—उस दान के प्रभाव से ये लोग आगे कहाँ जन्मे ?
श्रेयांस—उस आहारदान के प्रभाव से राजा वङ्काजंघ और श्रीमती तो उत्तम भोगभूमि में आर्य युगल हो गये। वे मंत्री, सेनापति आदि दीक्षा लेकर अन्त में स्वर्ग में अहमिन्द्र हो गये।
सोमप्रभ—वे चारों पशु कहाँ गये ?
श्रेयांस—वे चारों पशु भी दान की अनुमोदना के पुण्य से उसी भोगभूमि में आर्य हुये थे।
भरत—फिर आगे क्या हुआ ?
श्रेयांस—कालांतर में इस आठवें भव में राजा वङ्काजंघ तो भगवान ऋषभदेव हुए हैं। रानी श्रीमती का जीव मैं श्रेयांस कुमार हुआ हूँ। मंत्री के जीव ही तुम भरत चक्रवर्ती हुये हो।
सोमप्रभ—वे सेनापति के जीव आदि कहाँ हैं ?
श्रेयांस—वे सेनापति आदि के जीव तथा व्याघ्र आदि के चारों जीव भगवान ऋषभदेव के ही बाहुबली आदि आठों पुत्र हुए हैं।
भरत—यह सब आपको कैसे याद आया ?
श्रेयांस—राजन्! भगवान को मुनिमुद्रा में देखते ही मुझे अपने श्रीमती के भव में दिए आहार के समय का सारा दृश्य स्मरण में आ गया उसी के अनुसार मैंने भगवान की नवधाभक्ति करके उन्हें आहारदान दिया है।
भरत—हे कुरुवंश शिखामणे! आप धन्य हैं। आपके मुख से भगवान के, आपके और अपने पूर्वभवों को सुनकर मेरा हृदय अत्यन्त प्रमुदित हो गया है। जैसे भगवान ऋषभदेव इस युग की आदि में धर्मतीर्थ के प्रवर्तक हैं वैसे ही आप भी इस युग की आदि में दानतीर्थ के प्रवर्तक हैं। इसलिये आपको आज मैं ‘दानतीर्थ प्रवर्तक’ इस नाम से घोषित करता हूँ।
सोमप्रभ—इस आहारदान का फल तो देखो, देवों ने रत्नवर्षा आदि पंचाश्चर्य वृष्टि की है।
श्रेयांस—महाराज! आज हमारे घर में इक्षुरस और रसोई का सभी अन्न अक्षय हो गया है। सारा हस्तिनापुर शहर जीम लेने के बाद भी वह ज्यों का त्यों अक्षीण है, जरा भी नहीं घटा है।
भरत—(गंभीर स्वर से) इसलिये आज की यह तिथि भी ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से पवित्र हो गयी है। इस वैशाख सुदी तीज से बढ़कर भला और कौन-सा उत्तम दिवस होगा ? यह हस्तिनापुर भी आज से तीर्थक्षेत्र हो गया है। हे महाभाग! महादान देना और काव्य करना ये दो वस्तुएँ बहुत बड़े पुण्य से प्राप्त होती है। सर्व प्रजा—भगवान आदिनाथ की जय हो, दानतीर्थकत्र्ता राजा श्रेयांस की जय हो, सोलहवें मनु सम्राट् भरत की जय हो, आज के अक्षय तृतीया दिवस की जय हो। हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र की जय हो।
(सब लोग प्रस्थान कर जाते हैं।) (आज से करोड़ों वर्ष पूर्व हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने स्वप्न में सुमेरू पर्वत देखा था। आज यह सुमेरू पर्वत इसी हस्तिनापुर में ८४ फुट उँचा बन गया है। यहाँ पर जम्बूद्वीप की पूरी रचना बन रही है। यह हमारा सौभाग्य है कि हम हस्तिनापुर में आज उन राजा श्रेयांस के स्वप्न को साकार देख रहे हैं।)