-गाथा-
जय उसह णाहिणंदण तिहुवणणिलयेकदीव तित्थयर।
जय सयलजीववच्छल णिम्मलगुणरयणणिहि णाह।।१।।
जय ऋषभ नाभिनंदन त्रिभुवन निलयैकदीप तीर्थंकर।
जय सकलजीववत्सल निर्मलगुणरत्ननिधे नाथ।
अर्थ —श्रीमान नाभिराजा के पुत्र तथा ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोकरूपी जो घर उसके लिये दीपक, तथा धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करने वाले , हे ऋषभदेव भगवान् ! तुम सदा इस लोक में जयवंत रहो तथा समस्त जीवों पर वात्सल्य को धारण करने वाले और निर्मल जो गुण वे ही हुए रत्न, उनके आकर (खजाना) ऐसे हे नाथ! तुम सदा इस लोक में जयवंत रहो।।१।।
सयलसुरासुरमणिमउडकिरणकब्बुरियपायपीठ तुमं।
धण्णा पेच्छंति थुणंति जवंति झायंति जिणणाह।।२।।
सकल सुरासुरमणिमुकुटकिरणै: कर्वुतिपादपीठ।
त्वां धन्या: प्रेक्षंते स्तुवंति जपंति ध्यायति जिननाथ।।
अर्थ —समस्त जो सुर तथा असुर उनके जो चित्रविचित्र मणियों कर सहित मुकुट, उनकी जो किरणें उनसे कर्वुरित अर्थात् विचित्र है सिंहासन जिनका, ऐसा हे जिननाथ! जो मनुष्य आपको देखते हैं और आपकी स्तुति करते हैं तथा आपका जप और ध्यान करते हैं वे मनुष्य धन्य हैं।
भावार्थ —हे जिनेन्द्र! आपको बड़े—बड़े सुर—असुर भी आकर नमस्कार करते हैं इसलिये हर एक मनुष्य को आपके दर्शन का तथा आपकी स्तुति का और आपके जप तथा ध्यान का सुलभरीति से अवसर नहीं मिल सकता किंतु जो मनुष्य ऐसे पुण्यवान हैं जिनको आपका दर्शन मिलता है और आपकी स्तुति तथा जप और ध्यान का भी अवसर मिलता है वे मनुष्य संसार में धन्य हैं अर्थात् उन मनुष्यों को धन्यवाद है।।२।।
इस श्लोक के तात्पर्य को लेकर कहीं पर कहा भी है—
य: पुष्पैर्जिनमर्चति स्मितसुरस्त्रीलोचनै: सोर्च्यते यस्तं वंदति एकशस्त्रिजगता सोऽहर्निशं वन्द्यते।
यस्तं स्तौति परत्र वृत्तदमस्तोमेन संस्तूयते पस्तं ध्यायति वऌप्तकर्मनिधन: स ध्यायते योगिभि:।।१।।
अर्थ — जो मनुष्य जिनेंन्द्र भगवान की फूलों से पूजा करता है, वह मनुष्य परभव में मंदहास्यसहित ऐसी जो देवांगना उनके नेत्रों से पूजित होता है और जो मनुष्य एक बार भी जिनेन्द्र को वंदता है वह मनुष्य रात-दिन तीनों लोक में वंदनीय होता है अर्थात् तीनों लोक आकर उनकी वंदना करता है तथा जो मनुष्य एक बार भी जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करता है, परलोक में बड़े—बड़े इंद्र उसकी स्तुति करते हैं और जो मनुष्य एक बार भी जिनेंन्द्र भगवान का ध्यान करता है, वह समस्त कर्मों से रहित हो जाता है तथा बड़े—बड़े योगीश्वर भी उस मनुष्य का ध्यान करते हैं इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे भगवान की पूजा-वंदना-स्तुति तथा ध्यान सर्वदा किया करें।
चम्माच्छिणावि देहे तइतइलोयेण माइ महहरिसो।
णाणाच्छिणा उणोजिण ण याणिमो किं परिप्फुरइ।।३।।
चर्माक्ष्णामि दृष्टे त्वयि त्रैलोक्ये न भाति महाहर्ष:
ज्ञानाक्ष्णा पुनर्स जिन न जानीम: किं परिस्फुरति।
अर्थ —हे जिनेन्द्र ! हे भगवन् ! यदि हम आपको चाम की आँख से भी देख लें तो भी हमें इतना भारी हर्ष होता है कि वह हर्ष तीनों लोकों में नहीं समाता, फिर यदि आपको हम ज्ञानरूपी नेत्र से देखें, तब तो हम कह ही नहीं सकते कि हमको कितना आनंद न होगा ?
भावार्थ —चर्म के नेत्र का विषय परिमित तथा बहुत थोड़ा है इसलिये उस चर्म नेत्र से आपका समस्त स्वरूप हमको नहीं दीख सकता किंतु हे प्रभो! उस चर्म नेत्र से जो कुछ आपका स्वरूप दृष्टिगोचर होता है, उससे ही हमको इतना भारी हर्ष होता है फिर और की तो क्या बात ? वह तीनों लोक में भी नहीं समाता किंतु यदि हम ज्ञानरूपी नेत्र से आपके समस्त स्वरूप को देखें, तब हम नहीं जान सकते हमको कितना आनन्द न होगा ?।।३।।
तं जिण णाणमणंतं विसईकयसयलवत्थुवित्थारं।
जो थुणइ सो पयासइ समुद्दकहमवटसालूरो।।४।।
त्वां जिन ज्ञानमनंतं विषयीकृतसकलवस्तुविस्तारं
य: स्तौति स प्रकाशयति समुद्रकथामवटसालूर:।
अर्थ —हे जिनेंद्र! जो पुरुष, नहीं है अंत जिसका तथा जिसने समस्त वस्तुओं के विस्तार को विषयकर लिया है ऐसे ज्ञानस्वरूप आपकी स्तुति करता है वह कुएँ का मेंढक समुद्र की कथा का वर्णन करता है।
अर्थ —जिस प्रकार कुएँ का मेंढक समुद्र की कथा नहीं कर सकता, उसी प्रकार हे जिनेन्द्र! जो पुरुष ज्ञानस्वरूप आपका स्तवन तथा आपको नमस्कार नहीं करता, उसका ज्ञान समस्त पदार्थों का विषय करने वाला नहीं होता किंतु जो मनुष्य आपकी भक्तिपूर्वक स्तुति करता है उसको विस्तृत ज्ञान की प्राप्ति होती है।।४।।
अह्मारिसाण तुह गोत्तकित्तणेणवि जिणेस संचरई।
आयेसम्मग्गंती पुरडहियेइच्छिया लच्छी।।५।।
अस्मादृशां तब गोत्रकीर्तनेनापि जिनेश संचरति।
आदेशं मार्गयंती पुरतोहृदयेप्सिता लक्ष्मी:।।
अर्थ —हे जिनेंद्र! हे प्रभो! आपके नाम के कीर्तन मात्र से ही हम सरीखे मनुष्यों के आगे आज्ञा को माँगती हुई मनोवांछित लक्ष्मी गमन करती है।
भावार्थ —हे जिनेन्द्र! आपके नाम में ही इतनी शक्ति है कि आपके नाम के कीर्तन मात्र से ही हम सरीखे मनुष्यों के सामने हमारी आज्ञा को माँगती हुई लक्ष्मी दौड़ती-फिरती है तब जो मनुष्य साक्षात् आपको प्राप्त कर लेगा, उसकी तो फिर बात ही क्या है? अर्थात् उसको तो अवश्य ही अंतरंग तथा बहिरंग लक्ष्मी की प्राप्ति होगी।।५।।
जासिसिरी तइ संते तुव अवयणमित्तियेणठ्ठा।
संके जणियाणठ्ठा दिठ्ठा सव्वठ्ठसिद्धावि।।६।।
आसीत् श्री: त्वयि सति त्वयि अवतीर्णे नष्टा
शंके जनितानष्टा दृष्टा सर्वार्थसिद्धावपि।
अर्थ —हे सर्वज्ञ! हे जिनेश! जिस समय आप सर्वार्थसिद्धि विमान में थे उस समय जैसी उस विमान की शोभा थी, वह शोभा आपके इस पृथ्वी तल पर उतरने पर आपके वियोग से उत्पन्न हुवे दु:ख से नष्ट हो गई, ऐसा मैं (ग्रंथकार) शंका (अनुमान) करता हूँ।
भावार्थ —हे भगवन! आपमें यह बड़ी भारी एक प्रकार की खूबी मौजूद है कि जहाँ पर आप निवास करते हैं, वहीं पर उत्तम शोभा भी रहती है क्योंकि जिस समय आप सर्वार्थसिद्धि नाम के विमान में विराजमान थे, उस समय उस विमान की बड़ी भारी शोभा थी किंतु जिस समय आप इस पृथ्वीतल में उतरकर आये, उस समय उस विमान की उतनी शोभा नहीं रही किंतु इस पृथ्वीतल की शोभा अधिक बढ़ गई।।६।।
णाहिघरे वसुहारा बडणंजं सुइर महितहो अरणी।
आसि णहाहि जिणेसर तेण धरा वसुमयी जाया।।७।।
नाभिगृहे वसुधारापतनं यत् सुचिरं महीमवतरणात्।
आसीत् नभसोजिनेश्वर तेनधरावसुमती जाता।।
अर्थ —हे जिनेश्वर! जिस समय आप इस पृथ्वीतल पर उतरे थे, उस समय जो नाभिराजा के घर में बहुत काल तक धन की वर्षा आकाश से हुई थी, उसी से हे प्रभो! यह पृथ्वी वसुमती हुई है।
भावार्थ —पृथ्वी का नाम वसुमती है और जो धन को धारण करने वाली होवे, उसी को वसुमती कहते हैं इसलिये ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि इस पृथ्वी का नाम वसुमती जो पड़ा है, सो हे भगवन्! आपकी कृपा से ही पड़ा है क्योंकि जिस समय आप सर्वार्थसिद्धिविमान से पृथ्वीमंडल पर उतरे थे, उस समय बराबर १५ मास तक रत्नों की वृष्टि इस पृथ्वीमंडल में नाभिराजा के घर में हुई थी इसलिये पृथ्वी के समस्त दारिद्र्य दूर हो गये थे किंतु पहले इसका नाम वसुमती नहीं था।।७।।
सच्चियसुरणवियपया मरुएवी पहु ठिऊसि जं गव्भे।
पुरऊपट्टो वज्झइ मज्झे से पुत्तवत्तीणं।।८।।
शचीसुरनमितपदा मरूदेवी प्रभो स्थितोऽसि यद्गर्भे।
पुरत: पट्टो बध्यते मध्ये तस्या: पुत्रवतीनाम्।।८।।
अर्थ —हे प्रभो! हे जिनेंद्र! आप मरू देवी माता के गर्भ में स्थित होते हुए, इसीलिये मरुदेवीमाता इन्द्राणी तथा देवों से नमस्कार किये गये हैं चरण जिसके, ऐसी होती हुई और जितनी भर पुत्रवती स्त्रियां थीं, उन सब में मरुदेवी का ही पद सबसे प्रथम रहा।
भावार्थ —संसार में बहुत सी स्त्रियाँ पुत्रों को पैदा करने वाली हैं, उनमें मरुदेवी के ही चरणों को क्यों इन्द्राणी तथा देवों ने नमस्कार किया ? और उनके चरणों की ही क्यों सेवा की ? इसका कारण केवल यही है कि हे प्रभो! मरुदेवीमाता के गर्भ में आप आकर विराजमान हुए थे इसलिये उनकी इतनी प्रतिष्ठा हुई और वे जितनी भर पुत्रों को पैदा करने वाली स्त्रियाँ और हैं, उनमें सबमें उत्तम समझी गईं और कोई कारण नहीं।।८।।
अंकत्थे तइ दिठ्ठे जं तेणा सुरालयं सुरिंदेण।
अणिमेसत्तवहुत्तं सहलं णयणाणपडिवट्ठं।।९।।
अंकस्थे त्वयि दृष्टे गच्छता सुरालयं सुरेन्द्रेण।
अनिमेषत्वबहुत्वं सफलं नयनानां प्रतिपन्नम्।
अर्थ —हे जिनेन्द्र! हे प्रभो! जिस समय आपको लेकर इंद्र मेरूपर्वत को चला तथा आपको गोद में बैठे हुए उसने देखा, उस समय उसके नेत्रों का निमेष (पलक) कर रहितपना तथा बहुतपना सफल हुवा।
भावार्थ —हे प्रभो! इन्द्र के नेत्रों की अनिमेषता और अधिकता आपके देखने से ही सफल हुई थी यदि इन्द्र आपके स्वरूप को न देखता, तो उसके नेत्रों का पलक रहितपना और हजार नेत्रों का धारण करना सर्वथा निष्फल ही समझा जाता।
सारार्थ —आपके समान रूपवान संसार में दूसरा कोई भी मनुष्य नहीं था।।९।।
तित्थत्तणमावट्ठो मेरु तुह जम्मण्हाणजलजोए।
तत्तस्स सूरपमुहा पयाहिणं जिण कुणंति सया।।१०।।
तीर्त्थत्वमापन्नो मेरुस्तव जन्मस्त्रानजलयोगेन।
तत् तस्य सूरप्रमुखा: प्रदक्षिणां जिन कुर्वंति।
अर्थ —हे प्रभो! हे जिनेंद्र ! जिस समय आपका जन्मस्नान मेरू के ऊपर हुआ था, उस समय उस स्नान के जल के संबंध में मेरू तीर्थपने को प्राप्त हुआ था अर्थात् तीर्थ बना था और इसीलिये हे जिनेंद्र ! उस मेरूपर्वत की सूर्य-चंद्रमा आदिक सदा प्रदक्षिणा करते रहते हैं।
भावार्थ —आचार्य उत्प्रेक्षा करते हैं कि हे प्रभो ! जब तक मेरू पर्वत के ऊपर आपका जन्म स्नान नहीं हुआ था, तब तक वह मेरूपर्वत सामान्य पर्वतों के समान था और तीर्थ भी नहीं था किंतु जिस समय से आपका जन्म स्नान मेरू के ऊपर हुआ है, उस समय से उस आपके जन्मस्नान के जल के संबंध से मेरूपर्वत तीर्थ अर्थात् पवित्र स्थान हो गया है और यह बात संसार में प्रत्यक्षगोचर है कि जो वस्तु पवित्र हुआ करती है उसकी लोग भक्ति तथा परिक्रमा आदि करते हैं इसीलिये उस मेरू को पवित्र मानकर सूर्य-चन्द्रमा आदि रात-दिन उस मेरू की प्रदक्षिणा (परिक्रमा) करते रहते हैं, ऐसा मालूम होता है।।१०।।
मेरुसिरे पडणुच्छलि यणीरताण्डणपणट्ठदेवाणं।
तं वित्तं तुह ण्हाणं तह जह णहमासियं किण्णं।।११।।
मेरुशिरसि पतनोच्छलननीरताडनप्रनष्ट देवानाम्
तद्वृत्तं तव स्नानं तथा यथा नभ आश्रितं कीर्णम्।
अर्थ —हे जिनेंद्र! हे प्रभो! मेरूपर्वत के मस्तक पर आपके स्नान के होने पर पतन से उछलता हुआ जो जल उसके ताड़न से अत्यंत नष्ट जो देव, उन देवों की ऐसी दशा होती हुई मानों चारों ओर से आकाश ही व्याप्त हो गया हो।।११।।
णाह तुह जम्म हरिणो मेरुस्सि पणच्चमाणस्म।
वेल्लिरभुवाहिभग्गा तह अज्जवि भंगुरा मेहा।।१२।।
नाथ तव जन्मस्नाने हरे र्मेरौ प्रनृत्यमानस्य
प्रलंबभुजाभ्यां भग्ना: तथा अद्यापि भंगुरा मेघा:।
अर्थ —हे प्रभो! आपके जन्मस्नान के समय जिस समय अपनी लंबी भुजाओं को पैâलाकर इंद्र ने नृत्य किया था, उन लंबी भुजाओं से जो मेघ भग्न हुए थे, वे मेघ इस समय भी क्षणभंगुर ही हैं।
भावार्थ —ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि जो मेघ क्षणभंगुर मालूम पड़ते हैं उनकी क्षणभंगुरता का यही कारण है कि जिस समय भगवान का जन्मस्नान मेरूपर्वत के ऊपर हुआ था, उस समय उस मेरूपर्वत के ऊपर आनंद में आकर अपनी भुजाओं को पैâलाकर इंद्र ने भगवान के सामने नृत्य किया था और उस समय पैâली हुई भुजाओं से मेंघ भग्न हुए थे इसी कारण अब भी मेघों में भंगुरता है किंतु भंगुरता दूसरा कोई भी कारण नहीं है।।१२।।
जाण वहुएहि वित्ती जाया कप्पदुमेहि तेहि विणा।
एक्केणवि ताण तए पयाण परिकप्पिया णाह।।१३।।
यासां बहुभिर्वृत्तिर्जाता कल्पद्रुमै: तैर्विना
एकेनापि तासां त्वया प्रजानां परिकल्पिता नाथ।
अर्थ — हे नाथ! हे प्रभो! जिन प्रजाओं की आजीविका बहुत से कल्पवृक्षों से होती हुई उन कल्पवृक्षों के अभाव में उन प्रजाओं की आजीविका आप अकेले ने ही की।
भावार्थ —जब तक ऋषभदेव भगवान की उत्पत्ति पृथ्वीतल पर नहीं हुई थी उस समय तक इस जम्बूद्वीप में भोगभूमि की रचना थी और उस भोगभूमि की स्थिति में समस्त जीव भोगविलासी ही थे क्योंकि युगलिया उत्पन्न होते थे और जिस समय उनको जिस बात की आवश्यकता होती थी उस समय उस वस्तु की प्राप्ति के लिये उनको प्रयत्न नहीं करना पड़ता था किंतु वे सीधे कल्पवृक्षों के पास चले जाते थे तथा जिस बात की उनको अभिलाषा होती थी उस अभिलाषा की पूर्ति उन कल्पवृक्षों के समाने कहने पर ही हो जाती थी क्योंकि उस समय दस प्रकार के कल्पवृक्ष मौजूद थे तथा जुदी—जुदी सामग्री देकर जीवों को आनंद देते थे। किंतु जिस समय भगवान आदिनाथ का जन्म हुआ, उस समय जम्बूद्वीप में कर्मभूमि की रचना हो गई, भोगभूमि की रचना न रही तथा कल्पवृक्ष भी नष्ट हो गये, उस समय जीव भूंखे मरने लगे और उनको अपनी आजीविका की चिन्ता हुई, तब उस समय भगवान आदीश्वर ने असि, मषि, वाणिज्य आदि का उपदेश दिया तथा और भी नाना प्रकार के लौकिक उपदेश दिये जिससे उनको फिर भी वैसा ही सुख मालूूम होने लगा इसलिये कर्मभूमि की आदि में भगवान आदिनाथ ने ही कल्पवृक्षों का काम किया था इसलिये इसी बात को ध्यान में रखकर ग्रंथकार भगवान की स्तुति करते हैं कि हे प्रभो! जिन प्रजाओं की आजीविका भोगभूमि की रचना के समय बहुत से कल्पवृक्षों से हुई थी, वही आजीविका कर्मभूमि के समय बिना कल्पवृक्षों के आपने अकेले ही की, इसलिये हे जिनेंद्र ! आप कल्पवृक्षों में भी उत्तमकल्पवृक्ष हैं।।१३।।
पहुणा तए सणाहा धरा सती एकहन्नहो वूढो।
णवघणसमयमसमुल्लसि यसासछम्मेण रोमंचो।।१४।।
प्रभुणा त्वया सनाथा धरा आसीत् तस्या: कथमहोवृद्ध:
नवधनसमयमुल्लासीतश्वासच्छद्मना रोमांच:।
अर्थ —हे जिनेश! हे प्रभो! आपने ही यह पृथ्वी सनाथ की क्योंकि यदि ऐसा न होता तो नवीन मेघ के समय में होने वाला जो श्वासोच्छ्वास उसके बहाने से इसमें रोमांच वैâसे हुवे होते ?
भावार्थ —जो स्त्री विवाह की अत्यंत अभिलाषिणी है यदि उसका विवाह हो जावे अर्थात् वह सनाथा हो जाय तो जिस प्रकार उसके शरीर में रोमांच उद्गम हो जाते हैं और उस रोमांच के उद्गम से उसकी सनाथता का अनुमान कर लिया जाता है उसी प्रकार हे प्रभो! जिस समय आप इस पृथ्वी पर अवतीर्ण हुवे थे, उस समय पृथ्वी में रोमांच हुवे इसलिये उन रोमांचों से यह बात जान ली थी कि आपने इस पृथ्वी को सनाथा अर्थात् नाथ सहित किया।।१४।।
विज्जुव्व घणे रंगे दिठ्ठपणिठ्ठा पणच्चिरी अमरी।
जइया तइयावि तये रायसिरी तारिसी दिठ्ठा।।१५।।
विद्युदिव घने रंगे दृष्टप्रणष्टा प्रनत्यती अमरी
यदा तदापि त्वया राज्यश्री: तादृशी दृष्टा।
अर्थ —हे वीतराग! जिस प्रकार मेघ में बिजली दिखकर नष्ट हो जाती है उसी प्रकार आपने जिस समय नृत्य करती हुई नीलांजना नाम की देवांगना को पहिले देखकर पीछे नष्ट हुई देखी, उसी समय आपने राज्यलक्ष्मी को भी वैसा ही देखा अर्थात् उसको भी आपने चंचल समझ लिया।
भावार्थ —किसी समय भगवान सिंहासन पर आंनद से विराजमान थे और नीलांजना नाम की अप्सरा का नाच देख रहे थे उसी समय अकस्मात् वह अप्सरा लीन हो पुन: प्रकट हुई, इस दृश्य को देखकर भगवान को शीघ्र ही इस बात का विचार हुआ कि जिस प्रकार यह अप्सरा लीन होकर तत्काल में प्रकट हुई है उसी प्रकार इस लक्ष्मी का भी स्वभाव है अर्थात् यह भी चंचल है अतएव उस समय शीघ्र ही भगवान को वैराग्य हो गया, उसी अवस्था को ध्यान में रखकर ग्रंथकार ने इस श्लोक से भगवान की स्तुति की है।।१५।।
वरेग्गदिणे सहसा वसुहा जुण्णंतिणव्व जं मुक्का।
देव तएसा अज्जवि विलवह सरिजलरवा वरई।।१६।।
अर्थ —हे जिनेश ! हे प्रभो ! जिस दिन आपको वैराग्य हुआ था, उस दिन आपने यह पृथ्वी पुराने तृण के समान छोड़ दी थी वह दीन पृथ्वी इस समय भी नदी के ब्याज से विलाप कर रही है।
भावार्थ —जिस समय नदी में जल का प्रवाह आता है, उस समय नदी कल-कल शब्द करती है उसको अनुभव कर ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि हे प्रभो ! यह नदी जो कल-कल शब्द कर रही है, यह इसका कल-कल शब्द नहीं है किन्तु यह कल-कल शब्द इस पृथ्वी के विलाप का शब्द है क्योंकि जिस दिन आपको वैराग्य हुवा था, उस समय आपने इस बिचारी पृथ्वी को सड़े तृण के समान छोड़ दिया था और आप इसके नाथ थे, इसलिये आपके द्वारा ऐसा अपमान पाकर यह विलाप कर रही है और कोई भी कारण नहीं।।१६।।
अइ सोइओसि तइया काउस्सग्गठ्ठिओ तुमं णाह।
धम्मिक्कघरारंभे उज्झीकय मूलखंभोव्व।।१७।।
अतिशोभितऽसि तदा कायोत्यर्गास्थितस्त्वं नाथ।
धर्मैकगृहारंभे उर्ध्वीकृत मूलस्तंभ इव।
अर्थ —हे भगवान् ! हे प्रभो ! जिस समय आप कायोत्सर्ग सहित विराजमान थे, उस समय धर्मरूपी घर के निर्माण में उन्नत मूलखंभ के समान आप अत्यंत शोभित होते थे।
भावार्थ —हे भगवन् ! जिस समय आप कायोत्सर्ग मुद्रा को धारण कर वन में खड़े थे, उस समय ऐसा मालूम होता था कि आप इस धर्मरूपी घर के स्थित रहने में प्रधान खंभ ही हैं अर्थात् जिस प्रकार मूलखंभ के आधार से घर टिका रहता है उसी प्रकार आपके द्वारा ही यह धर्म विद्यमान था।।१७।।
हिययत्थझाणसिहिआोज्झमाणसहसासरीरधूमोव्व।
सोहइ जिण तुह सीसे महुपरकुलसणिहकेसभरो।।१८।।
हृदयस्थध्यानशिखिदह्ममानशीघ्रशरीरधूम्रवत्।
शोभते जिन तव शिरसि मधुकरकुलसन्निभ: केशसमूह:।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र ! भौंरों के समूह के समान काला जो आपके मस्तक पर बालों का समूह है, वह हृदय में स्थित जो ध्यानरूपी अग्नि, उससे शीघ्र जलाया हुआ जो शरीर, उसके धुआं के समान शोभित होता है, ऐसा मालूम पड़ता है।
भावार्थ —धुआं भी काला है और भगवान के मस्तक पर विराजमान केशों का समूह भी काला है इसलिये ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि हे प्रभो! यह जो आपके मस्तक पर बालों का समूह है, वह बालों का समूह नहीं है किंतु वैराग्य संयुक्त आपके हृदय में जलती हुई जो ध्यानरूपी अग्नि, उससे जलाया हुआ जो आपका शरीर है, उसका धुआं है।।१८।।
कम्मकलंकचउक्के णठ्ठेणिम्मसमाहि भूईए।
तुहणाणदप्पणेच्चिय लोयालोयं पणिप्फलियं।।१९।।
कर्मकलंकचतुष्के नष्ट निर्मसमाधिभूत्या तव।
ज्ञानदर्पणेऽत्र लोकालोकं प्रतिबिम्बितम्।
अर्थ —हे जिनेश! हे प्रभो! निर्मल समाधि के प्रभाव से चार घातिया कर्मों के नाश होने पर आपके सम्यग्ज्ञानरूपी दर्पण में यह लोक तथा अलोक प्रतिबिम्बित होता हुआ।
भावार्थ —जब तक इस आत्मा में अखंडज्ञान (केवलज्ञान) की प्रकटता नहीं होती, तब तक यह आत्मा लोक तथा अलोक के पदार्थों को नहीं जान सकता किंतु जिस समय उस केवलज्ञान की प्रकटता हो जाती है, उस समय यह लोकालोक के पदार्थों को जानने लग जाता है तथा उस सम्यग्ज्ञान की प्रकटता तेरहवें गुणस्थान में, जबकि प्रकृष्ट ध्यान से चार घातिया कर्मों का नाश हो जाता है, तब होती है उसी आशय को लेकर ग्रंथकार स्तुति करते हैं कि हे प्रभो ! प्रकृष्ट ध्यान से चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया है इसीलिये आप समस्त लोकालोक के भलीभांति जानने वाले हुए हैं।।१९।।
आवरणाईण तए समूलमुम्मूलियाइ दंठूण।
कम्मचउक्केणमुअंव णाह भीऐण सेसेण।।२०।।
आवरणादीनि त्वया खमूलमुन्मूलितानि दृष्द्वा।
कर्मचतुष्केण मृतवंत् नाथ भीतेन शेषेण।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र ! जिस समय आपने जड़ सहित ज्ञानावरणादि घातिया कर्मों का सर्वथा नाश कर दिया था उस समय उन सर्वथा नष्ट ज्ञानावरणादि कर्मों को देखकर शेष के जो चार अघातिया कर्म रहे, वे भय से आपकी आत्मा में मरे हुए के समान रह गये।
भावार्थ —जिस समय ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय, इन चार कर्मों का सर्वथा नाश हो जाता है, उस समय शेष जो वेदनीय, आयु, नाम तथा गोत्र ये चार अघातिया कर्म हैं, वे बलहीन रह जाते हैं इसी आशय को मन में रखकर ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि हे भगवन्! जो अघातिया कर्म आपकी आत्मा में मृत के समान अशक्त होकर पड़े रहे, उनकी अशक्तता का कारण यह है कि जब आपने अत्यंत प्रबल चार घातिया कर्मों को नाश कर दिया, उस समय उनको बड़ा भारी भय हुआ कि हम भी अब निर्मूल किये जायेंगे इसीलिये वे मरे हुए के समान अशक्त ही आपकी आत्मा में स्थित रहे।।२०।।
णाणामणिणिम्माणे देव ट्ठिउ सहसि समवसरणम्मि।
उवरिव्व सण्णिविट्ठो जियाण जोईण सव्वाणं।।२१।।
नानामणिनिर्माणे देव स्थित: शोभते समवशरणे।
उपरि इव सन्निविष्ट: यावतां योगिनां सर्वेषाम्।
अर्थ —हे जिनेश! हे प्रभो! जिस समवशरण की रचना चित्र-विचित्र मणियों से की गई थी, ऐसे समवशरण में जितने भर मुनि थे, उन समस्त मुनियों के ऊपर विराजमान आप अत्यंत शोभा को प्राप्त होते थे।।२१।।
लोउत्तरावि सा समवसरणसोहा जिणेस तुह पाये।
लहिऊण लहइमहिमं रविणो णलिणिव्व कुसुमठ्ठा।।२२।।
लोकोत्तरापि सा समवशरणशोभा जिनेश तव पादौ।
लब्ध्वा लभते महिमानं रवे: नलिनीव कुसुमस्था।।
अर्थ —हे भगवन् ! हे प्रभो ! जिस प्रकार पुष्प में स्थित कमलिनी सूर्य की किरणों को पाकर और भी अधिक महिमा को प्राप्त होती है उसी प्रकार यद्यपि समवशरण की शोभा स्वभाव से ही लोकोत्तर होती है तो भी हे जिनेन्द्र! आपके चरण कमलों को पाकर वह और भी अत्यंत महिमा को धारण करती है।
भावार्थ —एक तो कमलिनी स्वभाव से ही अत्यंत मनोहर होती है किंतु यदि वही कमलिनी सूर्य की किरणों को प्राप्त हो जावे तो और भी महिमा को प्राप्त होती है उसी प्रकार समवशरण की शोभा एक तो स्वभाव से ही लोकोत्तर अर्थात् सबसे उत्तम होती है और आपके चरणों के आश्रय को प्राप्त होकर और भी वह अत्यंत महिमा को धारण करती है।।२२।।
णिद्दोसो अकलंको अजडो चंदोव्व सहासितं तहवि।
सींहासणायलत्थो जिणंदकयकुवलयाणंदो।।२३।।
निर्दोष: अकलंक: अजड: चंद्रवत् शोभते तथापि।
सिंहासनाचलस्थ: जिनेंद्र कृतकुवलयानंद:।।
अर्थ —हे जिनेन्द्र ! हे प्रभो ! आप यद्यपि निर्दोष तथा अकलंक और अजड़ हैं तो भी अचल सिंहासन में स्थित तथा किया है कुवलय को आनंद जिन्होंने, ऐसे आप चंद्रमा के समान शोभित होते हैं।
भावार्थ —आप तो निर्दोष हैं और चंद्रमा दोषा (रात्रि) कर सहित है अर्थात् सदोष है और आप तो कर्मकलंककर रहित हैं किंतु चंद्रमा में भेद है परंतु जिस प्रकार चंद्रमा पर्वत के शिखर पर स्थित रहता है और रात्रिविलासी कमलों को आनंद का देने वाला होता है इसलिये शोभा को प्राप्त होता है उसी प्रकार पर्वत के समान आप भी सिंहासन पर स्थित थे तथा आपने समस्त पृथ्वीमंडल को आनंद दिया था इसलिये आप भी चंद्रमा के समान ही शोभित होते थे।।२३।।
अच्छंतु ताव इयरा फुरियविवेया णमंतसिरसिहरा।
होइ असोहो रुक्खोवि णाह तुह संणिहाणत्थो।।२४।।
आस्तां तावत् इतरा स्फुरितविवेका नम्रशिर: शिखरा:।
भवति अशोक वृक्ष: अपि नाथ तब सन्निधानस्थ:।।
अर्थ —आचार्य कहते हैं कि हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र ! जिन भव्य जीवों के ज्ञान की ज्योति स्फुरायमान है और जो आपको मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं वे तो दूर ही रहे किंतु हे भगवन् ! आपके समीप रहा हुआ जड़ भी वृक्ष, अशोक हो जाता है।
भावार्थ —हे जिनेश ! जिनको ज्ञान मौजूद है अर्थात् जो ज्ञानी हैं तथा आपको मस्तक झुकाकर नमस्कार करने वाले हैं ऐसे भव्यजीव आपके पास में रहकर तथा आपका उपदेश सुनकर शोकरहित हो जाते हैं इसमें तो कोई आश्चर्य नहीं किन्तु जो वृक्ष जड़ है, वह भी आपके केवल समीप में रहा हुआ ही अशोक हो जाता है, इसमें बड़ा भारी आश्चर्य है।।२४।।
छत्तत्तयमालंवियणिम्मलमुत्ताहलच्छलात्तुज्झ ।
जणलोयणेसु वरिसइ अमयंपिव णाह विंदूहिं।।२५।।
छत्रत्रयमालंवितनिर्मलमुक्ताफलच्छलात्तव।
जनलोचनेषु वर्षति अमृतमिव नाथ विंदुभि:।।
अर्थ —हे भगवन्! हे नाथ! आपके जो ये तीनों छत्र हैं, वे लटकते हुए जो निर्मल मुक्ताफल, उनके ब्याज से मनुष्यों की आँखों में बिंदुओं से अमृत की वर्षा करते हैं, ऐसा मालूम होता है।
भावार्थ —हे भगवन् ! जिस समय भव्यजीव आपके छत्र को देखते हैं, उस समय उनको इतना आनंद होता है कि आनंद के मारे उनकी आँखों से अश्रुपात होने लगता है।।२५।।
कयलोयलोयणुप्पलहिरसाह सुरेसहच्छचलियाह।
तुह देव सरहससहरकिरणकयाइव्व चमराइ।।२६।।
कृतलोकलोचनोत्पलहर्षाणि सुरेशहस्तचालितानि।
तव देव शरच्छशधरकिरणकृतानि इव चमराणि।
अर्थ —जिन चमरों के देखने से समस्त लोक के नेत्ररूपी कमलों को हर्ष होता है और जिनको बड़े-बड़े इन्द्र ढोरते हैं ऐसे हे जिनेन्द्र! आपके चमर शरदऋतु के चंद्रमा की किरणों से बनाये गये हैं, ऐसा मालूम होता है।
अर्थ —और ऋतु की अपेक्षा शरदऋतु के चंद्रमा की किरण बहुत स्वच्छ तथा सफेद होती है इसलिये ग्रंथकार कहते हैं कि हे भगवन् ! आपके चमर इतने स्वच्छ तथा सफेद हैं जो कि ऐसे मालूम होते हैं मानो शरदकालीन चंद्रमा की किरणों से ही बनाये हुए हैं और जिनको देखने मात्र से समस्त लोक के नेत्रों को आनंद होता है तथा जिनको बड़े-बड़े इंद्र आकर ढोरते हैं।।२६।।
विहलीकयपंचसरो पंचसरो जिण तुमस्मि काऊण।
अमरकयपुप्पविठ्ठिछलइव वहु मुअइ कुसुमसरो।।२७।।
विफलीकृतपंचशर: पंचशरो जिन त्वयि कृत्वा।
अमरकृतपुष्पवृष्टिच्छलाद् इव बहून् मुंचति कुसुमशरान्।
अर्थ —हे भगवन्! हे जिनेन्द्र! जिस कामदेव के आपके सामने पाँचों बाण विफल हो गये हैं ऐसा वह कामदेव, देवोेंकर की हुई जो आपके ऊपर पुष्पों की वर्षा उसके ब्याज से पुष्पों के बाणों का त्याग कर रहा है, ऐसा मालूम होता है।
भावार्थ —आपके अतिरिक्त जितने भी देव हैं, उनको बाण मार-मारकर कामदेव ने वश में कर लिया किंतु हे प्रभो! जब वही कामदेव अपने बाणों से आपको भी वश में करने आया, तब आपके सामने तो उसके बाण कुछ कर ही नहीं सकते थे, इसलिए उस कामदेव के समस्त बाण आपके सामने विफल हो गये इसलिये ऐसा मालूम होता है कि जिस समय देवों ने आपके ऊपर फूलों की वर्षा की, उस समय वह फूलों की वर्षा नहीं थी किंतु अपने बाणों को योग्य न समझकर कामदेव अपने फूलों के बाणों को फेंक रहा है, क्योंकि संसार में यह बात देखने में भी आती है कि समय पर जो चीज काम नहीं देती है उसको मनुष्य फिर छोड़ ही देता है।।२७।।
एस जिणो परमप्पा णाणोण्णाणं सुणेह मावयणं।
तुह दुंदुही रसंतो कहइव तिजयस्स मिलियस्स।।२८।।
एष: जिन: परमात्मा नान्योऽन्येषां शृणुत मावचनम्।
तव दुंदुभि:रसन् कथयमि इव त्रिजगत: मिलितस्य।
अर्थ —हे भगवन् ! बजती हुई जो आपकी दुंदुभि (नगाड़ा) वह तीनों लोक को इकट्ठाकर यह बात कहती है कि हे लोगों! यदि वास्तविक परमात्मा हैं तो भगवान आदिनाथ ही हैं किंतु इनसे भिन्न परमात्मा कोई भी नहीं, इसलिये तुम इनसे अतिरिक्त दूसरे का उपदेश मत सुनो, इन्हीं भगवान के उपदेश को सुनो।
भावार्थ —मंगलकाल में जिस समय आपकी दुंदुभि आकाश में शब्द करती है अर्थात् बजती है, उस समय उसके बजने का शब्द निष्फल नहीं है किंतु वह इस बात को पुकार-पुकार कर कहती है कि हे भव्यजीवों! यदि तुम परमात्मा का उपदेश सुनना चाहते हो तो भगवान श्री आदिनाथ का दिया हुआ ही उपदेश सुनो किंतु इनसे भिन्न जो दूसरे-दूसरे देव हैं, उनके उपदेश को अंशमात्र भी मत सुनो क्योंकि यदि परमात्मा हैं तो श्री आदीश्वर भगवान ही हैं किंतु इनसे भिन्न लोक में दूसरा परमात्मा नहीं।।२८।।
रविणो संतावयरं ससिणो उण जड्डयाअरं देव।
संतावजडत्तहरं तुम्हच्चिय पहु पहावलयं।।२९।।
रवे: संतापकरं शशिन:पुन: जडताकरं देव।
संतापजडत्वहरं तवार्चित प्रभो प्रभावलयम्।
अर्थ —हे जिनेश ! हे प्रभो ! सूर्य का प्रभासमूह तो मुनष्यों को संताप का करने वाला है तथा चंद्रमा का प्रभासमूह जड़ता का करने वाला है किंतु हे पूज्यवर ! आपका प्रभासमूह तो संताप तथा जड़ता दोनों को नाश करने वाला है।
भावार्थ —यद्यपि संसार में बहुत से तेजस्वी पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु हे पूज्यवर प्रभो ! आपके समान कोई भी तेजस्वी पदार्थ उत्तम नहीं क्योंकि हम यदि सूर्य को उत्तम तेजस्वी पदार्थ कहें सो हम कह नहीं सकते क्योंकि उसका जो प्रभा का समूह है वह मनुष्यों को अत्यंत संताप का करने वाला है और यदि चंद्रमा को हम उत्तम तथा तेजस्वी पदार्थ कहें तो यह भी बात नहीं बन सकती क्योंकि चंद्रमा की प्रभा का समूह जड़ता का करने वाला है किन्तु हे जिनवर! आपकी प्रभा का समूह संताप तथा जड़ता दोनों का सर्वथा नाश करने वाला है इसलिये आपकी प्रभा का समूह ही उत्तम तथा सुखदायक है।।२९।।
मंदरमहिज्जमाणांवुरासिणिघ्घोससण्णिहा तुज्झ।
वाणीसुहा ण अण्णा संसारविसस्सणासयरी।।३०।।
मंदरमथ्यमानाम्बुराशिनिर्घोषसन्निभा तव।
वाणी शुभा संसारविषस्य नाशकरी।
अर्थ —हे भगवन् ! हे जिनेश ! मंदराचल से मंथन दिया गया जो समुद्र, उसका जो निर्घोषि (बड़ा भारी शब्द) उसके समान जो आपकी वाणी है, वह शुभ है व्िाâंतु अन्यवाणी शुभ नहीं तथा आप की वाणी ही संसाररूपी विष को नाश करने वाली है किंतु और दूसरी वाणी संसाररूपी विष को नाश करने वाली नहीं है।
भावार्थ —हे भगवन् ! यद्यपि संसार में बहुत से बुद्ध प्रभृति देव मौजूद हैं और वाणी उनकी भी मौजूद है किंतु हे प्रभो! जैसी आपकी वाणी (दिव्य ध्वनि) शुभ तथा उत्तम है, वैसी बुद्ध आदि की वाणी नहीं क्योंकि आपकी वाणी अनेकांतस्वरूप पदार्थ का वर्णन करने वाली है और उनकी वाणी एकांतस्वरूप पदार्थ का वर्णन करने वाली है तथा वस्तु अनेकांतात्मक ही है एकान्तात्मक नहीं और आपकी वाणी समस्त संसाररूपी विष को नाश करने वाली है किन्तु बुद्ध आदि की वाणी संसाररूपी विष को नाश करने वाली नहीं अपितु संसाररूपी विष को उत्कट करने वाली ही है तथा आपकी वाणी मंदराचल से जिस समय समुद्र को मंथन हुवा था और जैसा उस समय में शब्द हुवा था, उसी शब्द के समान उन्नत तथा गंभीर है।।३०।।
पत्ताण सारणिंपिव तुज्झगिरं सा गई जडाणंपि।
जो मोक्खतरुठ्ठाणे असरिसफलकारणं होई।।३१।।
प्राप्तानां सारिणीमिव तव गिरं सा गति: जडानामपि।
या मोक्षतरुस्थाने असदृशफलकारणं भवति।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेश ! जो अज्ञानी जीव आपकी वाणी को प्राप्त कर लेते हैं उन अज्ञानी भी जीवों की वह गति होती है जो गति मोक्षरूपी वृक्ष के स्थान में अत्युत्तम फल की कारण होती है।
भावार्थ —जो जीव ज्ञानी हैं वे आपकी वाणी को पाकर मोक्षस्थान में जाकर उत्तम फल को प्राप्त होते हैं इसमें तो किसी प्रकार का आश्चर्य नहीं किंतु हे भगवन्! अज्ञानी भी पुरुष आपकी वाणी का आश्रयकर मोक्ष स्थान में उत्तम फल को प्राप्त करते हैं और जिस प्रकार नदी वृक्ष के पास में जाकर उत्तम फलों की उत्पत्ति में कारण होती है उसी प्रकार आपकी वाणी भी उत्तम फलों की उत्पत्ति में कारण है इसलिये आपकी वाणी उत्तम नदी के समान है।।३१।।
पोयंपिव तुह पवयणम्मि सल्लीणफुडमहो कयजडोहं।
हेलाणच्चिय जीवा तरंति भवसायरमणंतं।।३२।।
पोत इव तव प्रवचने सल्लीना स्फुटमहो कृतजलौघम्।
हेलयार्चित जीवा: तरंति भवसागरमनंतं।।
अर्थ —जिन मनुष्यों के पास जहाज मौजूद है वे मनुष्य जिस प्रकार उस जहाज में बैठकर जिसमें बहुत सा जल का समूह विद्यमान है ऐसे समुद्र को बात की बात में तर जाते हैं उसी प्रकार हे पूज्य! हे जिनेश! जो मनुष्य आपके वचन में लीन हैं अर्थात् जिन मनुष्यों को आपके वचन के ऊपर श्रद्धान है बड़े आश्चर्य की बात है कि वे मनुष्य भी पलमात्र में जिसका अंत नहीं है, ऐसे संसाररूपी सागर को तर जाते हैं।
भावार्थ —हे प्रभो ! इस समय जितने भर जीव हैं, सब अज्ञानी हैं, उनको स्वयं वास्तविक मार्ग का ज्ञान नहीं हो सकता यदि हो सकता है तो आपके वचन में श्रद्धान रखने पर ही हो सकता है। इसलिये हे प्रभो ! जिन मनुष्यों को आपके वचनों पर श्रद्धान है, वे मनुष्य अनंत भी इस संसार-समुद्र से पार नहीं हो सकते, जिस प्रकार जहाज वाला ही समुद्र को पार कर सकता है और जिसके पास जहाज नहीं, वह नहीं कर सकता।।३२।।
तुह वयणं चिय साहइ णूणमणेयंतवायवियडपहं।
तह हिययपईपअरं सव्वत्तणमप्पणो णाह।।३३।।
तव वचनमेव साधयति नूनमनेकांतवादविकटपथम्।
तथा हृदयप्रदीपकरं सर्वज्ञत्वमात्मनो नाथ।
अर्थ —हे जिनेन्द्र ! हे प्रभो ! आपके वचन ही निश्चय से अनेकांतवादरूपी जो विकट मार्ग है, उसको सिद्ध करते हैं तथा हे नाथ ! यह जो आपका सर्वज्ञपना है, वह समस्त मनुष्यों के हृदयों को प्रकाश करने वाला है।
भावार्थ —जितने भर पदार्थ हैं, वे समस्त पदार्थ अनेक धर्मस्वरूप हैं, जब और जिस वाणी से उन पदार्थों के अनेक धर्मों का वर्णन किया जायगा, तभी उन पदार्थों का वास्तविक स्वरूप समझा जायगा किंतु दो एक धर्म के कथन से उन पदार्थों का वास्तविक स्वरूप नहीं समझा जा सकता और हे भगवन् ! आपसे अतिरिक्त जितने भर देव हैं, उन सबकी वाणी एकांतमार्ग को ही सिद्ध करती है इसलिये उनकी वाणी वस्तु के वास्तविक स्वरूप का वर्णन कर सकती है किंतु आपकी वाणी ही अनेकांत मार्ग को सिद्ध करने वाली है इसलिये वही पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का वर्णन कर सकती है तथा आपके सर्वज्ञपने से भी समस्त मनुष्यों के हृदय को प्रकाश होता है अर्थात् जिस समय आप उनको यथार्थ उपदेश देते हैं उस समय उनके हृदय में भी वास्तविक पदार्थों का ज्ञान हो जाता है।।३३।।
विप्पडिवज्जइ जो तुह गिराए मइसुइवलेण केवलिणो।
वरदिट्ठिदिठ्ठणहजंतपक्खगणणेवि सो अंधो।।३४।।
विप्रतिपद्यते यस्तव गिरि मतिश्रुतिवलेन केवलिन:।
वरदृष्टिदृष्टनभोयातपक्षिगणनेपि सोन्ध:।
अर्थ —हे भगवन् ! जो मनुष्य मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान के ही बल से आप केवली के वचन में विवाद करता है वह मनुष्य उस प्रकार का काम करता है कि अच्छी दृष्टिवाले मनुष्य द्वारा देखे हुए जो आकाश में जाते हुए पक्षी, उनकी गणना में जिस प्रकार अंधा संशय करता है।
भावार्थ —जिसकी दृष्टि तीक्ष्ण है, ऐसा कोई मनुष्य यदि आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की गणना करे और उस समय कोई पास में बैठा हुआ अंधा पुरुष उससे पक्षियों की गणना में विवाद करे तो जैसा उस सूझते पुरुष के सामने उस अंधे का विवाद करना निष्फल है उसी प्रकार हे प्रभो! हे जिनेश! यदि कोई केवल मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान का धारी आपके वचन में विवाद करे, तो उसका भी विवाद करना निरर्थक ही है क्योंकि आप केवली हैं तथा आपके ज्ञान में समस्त लोक तथा अलोक के पदार्थ हाथ की रेखा के समान झलक रहे हैं और प्रतिवादी मनुष्य मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान का धारी होने के कारण थोड़े ही पदार्थों का ज्ञाता है।।३४।।
भिण्णाण परणयाणं एक्क्ेक्कमसंगयाणया तुज्झ।
पावंति जयस्मि जयं मज्झम्मि रिऊण किं चित्तं।।३५।।
भिन्नानां परनयानां एकमेकमसंगतानां तव।
प्राप्नुवंति जगत्रये जयं मध्ये रिपूणां किं चित्रम्।
अर्थ —हे भगवन् ! हे प्रभो ! आपके नय, परस्पर में नहीं संबंध रखने वाले, तथा भिन्न, ऐसे परवादियों के नयरूपी बैरियों के मध्य में तीनों जगत में विजय को प्राप्त होते हैं इसमें कोई भी आश्चर्य नहीं।
भावार्थ —परस्पर में नहीं संबंध रखने वाले तथा एक दूसरे के विरोधी ऐसे शत्रु, जिनमें एकता है तथा एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं ऐसे योधाओं के द्वारा जिस प्रकार बात की बात में जीत लिये जाते हैं तो जैसा उन शत्रुओं के जीतने में कोई आश्चर्य नहीं है उसी प्रकार हे प्रभो! जो परवादियों की नय परस्पर में एक दूसरे में संबंध नहीं रखने वाली हैं तथा भिन्न हैं ऐसी उन नयों को यदि परस्पर में संबंध रखने वाली तथा अभिन्न आपकी नय जीत लेवे तो इसमें क्या आश्चर्य है ? कुछ भी आश्चर्य नहीं है।।३५।।
अण्णस्स जए जीहा कस्स सयाणस्स वण्णणे तुज्झ।
जच्छ जिण तेवि जाया सुरगुरुपमुहा कई कुंठा।।३६।।
अन्यस्य जगति जिह्ला कस्य सज्ञानस्य वर्णने तव।
यत्र जिन तेऽपि जाता: सुरगुरुप्रमुखा: कवय: कुंठा:।
अर्थ —हे जिनेश ! हे प्रभो ! ऐसा संसार में कौन सा पुरुष समर्थ है कि जिसकी जिह्वा उत्तमज्ञान के धारक आपके वर्णन करने में समर्थ हो ? क्योंकि वृहस्पति आदि जो उत्तम कवि हैं वे भी आपके वर्णन करने में मंदबुद्धि हैं।
भावार्थ —संसार में वृहस्पति के बराबर पदार्थों के वर्णन करने में दूसरा कोई उत्तम कवि नहीं है क्योंकि वे इंद्र के भी गुरु हैं किंतु हे जिनेंद्र! आपके गुणानुवाद करने में वे भी असमर्थ हैं अर्थात् उनकी बुद्धि में यह सामर्थ्य नहीं जो आपका गुणानुवाद वे कर सकें क्योंकि आपके गुण संख्यातीत तथा अगाह हैं और जब वृहस्पति की जिह्वा भी आपके गुणानुवाद करने में हार मानती है तब अन्य साधारण मनुष्यों की जिह्वा आपका गुणानुवाद कर सके, यह बात सर्वथा असंभव है।।३६।।
सो मोहत्थेण रहिओ पयासिओ पहु सुपहो तएवईया।
तेणाज्जवि रयणजुआ णिव्विघ्घं जंति णिव्बाणं।।३७।।
स मोहचौररहित: प्रकाशित: प्रभो सुपंथा तस्मिन्काले।
तेनाद्यापि रत्नत्रययुता निर्विघ्नं यांति निर्वाणम्।
अर्थ —हे प्रभुओं के प्रभु जिनेंद्र ! आपने उस समय मोहरूपी चोर कर रहित उत्तम मार्ग का प्रकाशन किया था इसलिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के धारी भव्यजीव इस समय भी उस मार्ग से बिना ही क्लेश के मोक्ष को चले जाते हैं।
भावार्थ —यदि मार्ग साफ तथा चोरों के भयकर रहित होवे तो रस्तागीर जिस प्रकार बिना विघ्न से उस मार्ग से चले जाते हैं उसी प्रकार हे भगवन् ! आपने भी जिस मार्ग का उपदेश दिया है, वह मार्ग भी साफ तथा सबसे बलवान मोहरूपी चोर कर रहित है इसलिये जो भव्यजीव सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रय के धारी हैं, वे बिना ही किसी विघ्न के सुख से उस मार्ग से मोक्ष को चले जाते हैं।
सारार्थ —यदि मोक्षमार्ग में गमन करने वाले प्राणियों को कोई रोकने वाला है तो मोहरूपी चोर ही है इसीलिये भव्यजीव सहसा मोक्ष को नहीं जाते और हे भगवन्! आपने मोहरहित मार्ग का वर्णन किया है इसलिये भव्यजीव निर्विघ्न मोक्ष को चले जाते हैं।।३७।।
उम्मुद्दियम्मि हु मोक्खणिहाणे गुणणिहाण तए।
केंहि ण जुणतिणाइव इयरणिहाणाइ भुवणम्मि।।३८।।
उन्मुद्रिते तस्मिन् खलु मोक्षनिधाने गुणनिधान त्वया।
वैâर्न जीर्णतृणानीव इतरनिधानानि भुवने।।
अर्थ —हे भगवन्! हे गुणनिधान! जिस समय आपने मोक्षरूपी खजाने को खोल दिया था उस समय ऐसे कौन से भव्यजीव नहीं हैं जिन्होंने सड़े तृण के समान दूसरे-दूसरे राज्य आदि निधानों को नहीं छोड़ दिया।
भावार्थ —हे जिनेश ! हे गुणनिधान ! जब तक भव्यजीवों ने मोक्षरूपी खजाने को नहीं समझा था तथा उसके गुणों को नहीं जाना था तभी तक वे राज्यादि को उत्तम तथा सुख का करने वाला समझते थे किंतु जिस समय आपने उनको मोक्षरूपी खजाने को खोलकर दिखा दिया, तब उन्होंने राज्यादिक निधानों को सड़े हुए तृण के समान छोड़ दिया अर्थात् वे सब मोक्षरूपी खजाने की प्राप्ति के इच्छुक हो गये।।३८।।
मोहमहाफणिडक्को जणो विरायं तुमं पमुत्तूण।
इयरणाए कह पहु विवेयणो चेयणं लहइ।।३९।।
मोहमहाफणिदष्टो जनो विरागं त्वां प्रमुच्य।
इतराज्ञया कथं प्रभो ? चेतनां लभते।।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेश ! जो पुरुष मोहरूपी प्रबल सर्प से काटा गया है अर्थात् जो अत्यंत मोही है, वह मनुष्य समस्त प्रकार के रोगों से रहित वीतराग आपको छोड़कर आपसे भिन्न जो कुदेव हैं, उनकी आज्ञा से वैâसे चेतना को प्राप्त कर सकता है ? अर्थात् वह वैâसे ज्ञानी बन सकता है ?
भावार्थ —जो जीव यह पुत्र मेरा है, यह स्त्री मेरी है तथा यह संपत्ति मेरी है, इस प्रकार अनादिकाल से मोहकर ग्रस्त हो रहा है अर्थात् जिसको अंशमात्र भी हिताहित का ज्ञान नहीं है, हे प्रभो ! उस मनुष्य को कभी भी आपसे भिन्न कुदेवादि की आज्ञा से चेतना की प्राप्ति नहीं हो सकती है अर्थात् वह मनुष्य्ा कदापि कुदेवादि के मार्ग में गमन करने से ज्ञान का संपादन नहीं कर सकता।।३९।।
भवसायरम्मि धम्मो धरइ पडंतं जणं तुहच्चेव।
सवरस्सव परमारणकारणमियराण जिणणाह।।४०।।
भवसागरे धर्मो धरति पतंतं जनं तवैव।
शवरस्येव परमारणकारणमितरेषां जिननाथ।।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेश ! संसाररूपी समुद्र में गिरते हुए जीवों को आपका धर्म ही धारण करता है किंतु हे जिनेंद्र! आपसे भिन्न जितने भर धर्म हैं वे भील के धनुष के समान दूसरों के मारने में ही कारण हैं।
भावार्थ —जिस प्रकार भील का धनुष जीवों को मारने वाला ही है रक्षा करने वाला नहीं उसी प्रकार, हे जिनेंद्र! यद्यपि संसार में बहुत से धर्म मौजूद हैं, परंतु वे सब धर्म प्राणियों को दु:खों के ही कारण हैं अर्थात् जो प्राणि उन धर्मों को धारण करता है उसको अनेक गतियों में भ्रमण ही करना पड़ता है तथा उन गतियों में नाना प्रकार के दु:खों को वह उठाता है क्योंकि उन धर्मों में वस्तु का वास्तविक स्वरूप, जो कि जीवों को हितकारी है, नहीं बतलाया गया है किंतु हे प्रभो ! आपके धर्म में वस्तु का यथार्थस्वरूप भलीभांति बतलाया गया है अर्थात् असली मोक्षमार्ग आदि को विस्तृत रीति से समझाया गया है इसलिये जो प्राणी आपके धर्म के धारण करने वाले हैं, वे शीघ्र ही इस भयंकर संसाररूपी समुद्र को तर जाते हैं इसलिये आपका धर्म ही उत्तम धर्म है।।४०।।
अण्णो को तुह पुरउ वग्गइ गुरुयत्तणं पयासंसो।
जम्मि तइ परमियत्तं केशणहाणंपि जिण जायं।।४१।।
अन्य: क: तव पुरतो वल्गति गुरुत्वं प्रकाशयन्।
यस्मिन् त्वयि प्रमाणत्वं केशनखानामपि जिन जातम्।।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र ! जब आपके केश तथा नख भी परिमित हैं अर्थात् बढ़ते- घटते नहीं, तब ऐसा कौन है जो आपके सामने अपनी गुरुता को प्रकाशित करता हुआ बोलने की सामर्थ्य रखता हो।
भावार्थ —जब अचेतन भी नख तथा केश आपके प्रताप से सदा परिमित ही रहते हैं अर्थात् न कभी बढ़ते हैं तथा न कभी घटते हैं, तब जो आपके प्रताप को जानता है, वह वैâसे आपके सामने अपनी महिमा को प्रकट कर सकता है तथा आपके सामने अधिक बोल सकता है?।।४१।।
सोहइ सरीरं तुह पहु तिहुयणजणणयणविंबविच्छुरियं।
पडिसमयमच्चियं चारुतरलनीनुप्पलेहिंव।।४२।।
शोभते शरीरं तब प्रभो त्रिभुवनयनबिबविच्छुरितं।
प्रतिसमयमर्चितं चारुतरलनीलोत्पलैरिव।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र ! तीनों लोक के जीवों के जो नेत्र, उनकी जो प्रतिबिंब उनसे चित्र-विचित्र आपका शरीर, ऐसा मालूम पड़ता है मानों सुंदर तथा चंचल नील कमलों से प्रति समय पूजित ही है क्या ?
भावार्थ —हे जिनेन्द्र ! आपका शरीर अत्यंत स्वच्छ सोने के रंग का है और जीवों के नेत्रों की उपमा नीलकमलों से दी गई है इसलिये जिस समय वे जीव आपके दर्शन करते हैं उस समय उनके नेत्रों के प्रतिबिम्ब आपके शरीर में पड़ते हैं उन नेत्रों के प्रतिबिम्ब को अनुभव कर ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि हे प्रभो! वे नेत्रों के प्रतिबिम्ब नहीं हैं किंतु प्रतिसमय समस्त जीव आपकी नीलकमलों से पूजा करते हैं, इसलिये वे नील कमल हैं।।४२।।
अहमहमिआये णिवडंति णाह छुहियालिणोव्व हरिचक्खू।
तुज्झच्चिय णहपहसरसज्झठ्ठियचलणकमलेसु।।४३।।
अहमहमिकया निपतंति नाथ क्षुधितालय इव हरिचक्षूंषि।
तव अर्चितनखप्रभासरोमध्यस्थितचरणकमलेषु।।
अर्थ —हे जिनेश ! हे प्रभो ! आपके पूजित जो नख उनकी जो प्रभा (कांति) वही हुआ सरोवरद्व उसके मध्य में स्थित जो चरण कमल, उनमें भूखे भ्रमरों के समान इन्द्रों के नेत्र अहम्-अहम् (मैं-मैं) इस रीति से गिरते हैं।
भावार्थ —जिस प्रकार कमलों में सुगंध के लोलुपी भ्रमर बारम्बार आकर गिरते हैं उसी प्रकार हे जिनेन्द्र ! जिस समय इन्द्र आकर आपके चरण कमलों को नमस्कार करते हैं, उस समय आपके चरण कमलों में भी उन इन्द्रों के नेत्ररूपी भ्रमर पड़ते हैं और वे नेत्र काले-काले भ्रमरों के समान मालूम पड़ते हैं।।४३।।
कणयकमलाणमुवरिं सेवातुहविवुहकप्पियाण तुह।
अहियसिरीणं तत्तो जुत्तं चरणाणसंचरणं।।४४।।
कनककमलानामुपरि सेवातुरविबुणकल्पितानां तव।
अधिकश्रीणां ततो युक्तं चरणानां संचरणम्।
अर्थ —हे जिनेन्द्र ! हे प्रभो ! आपके चरण अत्यंत उत्तम शोभाकर संयुक्त हैं इसलिये उनका, भक्तिवश देवों द्वारा रचित जो सुवर्णकमल, उनके ऊपर गमन करना युक्त ही है।
भावार्थ —जिस समय भगवान ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों को सर्वथा नष्ट क देते हैं उस समय उनको केवलज्ञान की प्राप्ति होती है और केवलज्ञान की प्राप्ति होने के पीछे वे उपदेश देने को निकलते हैं उस समय यद्यपि वे आकाश में अधर चलते हैं तो भी देव भक्ति के वश होकर उनके चलने के लिये सुवर्ण कमलों से निर्मित मार्ग की रचना करते हैं उसी आशय को मन में रखकर ग्रंथकार भगवान की स्तुति करते हैं कि हे भगवन्! आपने जो देवरचित सुवर्ण-कमलों पर गमन किया था वह सर्वथा युक्त ही था क्योंकि जैसे सुवर्ण कमल एक उत्तम पदार्थ थे, उसी प्रकार आपके चरण भी अति उत्तम शोभाकर संयुक्त थे।।४४।।
सइहरिकयकण्णसुहो गिज्जइ अमरेहि तुइ जसो सग्गो।
मण्णे तं सोउमणो हरिणो हरिणंकसल्लीणे।।४५।।
शचीन्द्रकृतकर्णसुखं गीयते अमरैस्तव यश: स्वर्गे।
मन्ये तच्छ्रोतुमना: हरिण: हरिणांकसल्लीन:।।
अर्थ —हे भगवन् ! हे जिनेन्द्र ! जिसके सुनने से इंद्र तथा इंद्राणी के कानों को सुख होता है, ऐसे आपके यश को सदा स्वर्गों में देवता लोग गाया करते हैं इसलिये ऐसा मालूम होता है कि उसी के सुनने के लिये मृग चंद्रमा में जाकर लीन हो गया।
भावार्थ —संसार में यह किंवदन्ती भलीभांति प्रसिद्ध है कि चंद्रमा में हिरण का चिह्न है इसलिये उसका नाम मृगांक है (अर्थात् चंद्रमा में हिरण रहता है) अत: आचार्यवर उत्प्रेक्षा करते हैं कि इस भूमंडल को छोड़कर जो चंद्रमा में जाकर हिरण ने स्थिति की है उसका यही कारण है कि वह पास में स्वर्ग में गाना सुनने के लिये गया है क्योंकि हे जिनेन्द्र ! इन्द्र तथा इन्द्राणी के कानों को सुख के करने वाले आपके यश को स्वर्ग में सदा देव गान किया करते हैं और हिरण गाने का अत्यंत प्रिय है, यह प्रत्यक्षगोचर है।।४५।।
अलियं कमले कमला कमकमले तुह जिणिंद सा वसई।
णहकिरणणिहेण घडंति णयजणे से कडक्खछडा।।४६।।
अलीकं कमले कमला क्रमकमले तव जिनेन्द्र सा वसति।
नखकिरणनिभेन घटते नतजने तस्या: कटाक्षच्छटा:।।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेश ! लक्ष्मी कमल में रहती है, यह बात सर्वथा असत्य है क्योंकि वह लक्ष्मी आपके चरण-कमलों में रहती है क्योंकि जो भव्यजीव आपको शिर झुकाकर नमस्कार करते हैं उन भव्यजीवों के ऊपर नखों की किरणों के बहाने से उस लक्ष्मी का कटाक्षपात प्रतीत होता है।
भावार्थ —ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि हे भगवन्! आपकी जो नखों की किरणें हैं, वे नखों की किरण नहीं किंतु आपके चरणों में विराजमान जो लक्ष्मी (शोभा) है, उसके कटाक्षपात करती है अर्थात् जो पुरुष भक्तिपूर्वक आपके चरण-कमलों को नमस्कार करते हैं उनके ऊपर मुग्ध होकर लक्ष्मी कटाक्षपात करती है अर्थात् जो पुरुष आपके चरण-कमलों को शिर झुकाकर नमस्कार करते हैं उनको लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, वे लक्ष्मीवान बन जाते हैं इसलिये हे प्रभो ! जो यह संसार में किंवदंती प्रसिद्ध है कि लक्ष्मी कमल में निवास करती है, यह बात सर्वथा असत्य है किंतु वह आपके चरण-कमलों में ही रहती है अन्यथा भव्यजीव लक्ष्मीवान वैâसे हो सकते हैं?।।४६।।
जे कयकुवलयहरिसे तुमम्मि विद्देसिणो स ताणंपि।
दोसो ससिम्मि वा आहयाण जह वाहिआवरणं।।४७।।
ये कृतकुवलयहर्षे त्वयि विद्वेषित: स तेषामपि।
दोष: शशिनि इव आहतानां यथा बाह्यावरणम्।।
अर्थ —चंद्रमा तो सदा पृथ्वी को (रात्रि विकासी कमलों को) आनंद का ही देने वाला है किंतु जो मनुष्य रोग ग्रस्त हैं वे चंद्रमा से घृणा करते हैं सो जिस प्रकार उस घृणा के करने में उनके बाह्य आवरण का (उनके रोग का) ही दोष है चंद्रमा का दोष नहीं, उसी प्रकार हे जिनेन्द्र ! आप तो समस्त भूमंडल को आनंद के करने वाले हैं यदि ऐसा होने पर भी कोई मूर्ख आपसे विद्वेष करे, तो वह उसी का दोष है, इसमें आपका कोई भी दोष नहीं।।४७।।
को इहहि उव्वरंति जिण जयसंहरणमरणवणसिहिणो।
तुह पयथुरणिज्झरणीपारणमिणमो ण जइ होंति।।४८।।
क इहहि उद्धरति जिन जगत्संहरणमरणवनशिखिन:।
तव पादस्तुतिनिर्झरिणीवारणमिदं न यदि भवति।
अर्थ —हे भगवन्। हे प्रभो ! आपके चरणों की स्तुति वही हुई नदी, उससे यदि वारण बुझाना नहीं होता तो समस्त जगत को संहार करने वाली ऐसी जो मरणरूपी वन की अग्नि, उससे वैâसे उद्धार होता ?
भावार्थ —यदि किसी कारण से वन में अग्नि लग जाये और उस अग्नि बुझाने वाला यदि नदी का जल न होवे तो उस अग्नि से जिस प्रकार कुछ भी चीज नहीं बचती, सब ही भस्म हो जाती है उसी प्रकार हे जिनेन्द्र ्! यदि आपके चरणों की स्तुति रूप जो नदी, उससे बुझाना न होता तो समस्त जगत को नष्ट करने वाली मरणरूपी वनाग्नि से किसी प्रकार से उद्धार नहीं हो सकता था।
सारार्थ —हे जिनेन्द्र ! यदि जीवों को मरने से बचाने वाली है तो आपके चरणों की स्तुति ही है।।४८।।
करजुयकमलमउले भालत्थे तुह पुरो करा वसई।
सग्गापवग्गकमला थुणंति तं तेण सप्पुरिसा।।४९।।
करयुगलकमलमुकुले भालस्थे तव पुरत: कृते वसति।
स्वर्गापवर्गकमला कुर्वन्ति तत् तेन सत्पुरुषा:।
अर्थ —हे भगवन् ! हे जिनेन्द्र ! जिस समय भव्यजीव आपके सामने दोनों हाथरूपी कमलों को मुकुलित कर अर्थात् जोड़कर मस्तक पर रखते हैं, उस समय उनको स्वर्ग तथा मोक्ष की लक्ष्मी की प्राप्ति होती है इसलिये उत्तम पुरुष हाथ जोड़कर मस्तक पर रखते हैं।
भावार्थ —ग्रंथकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि हे भगवन् ! जो सज्जनपुरुष हाथ जोड़कर मस्तक पर रखते हैं उनका उस प्रकार का कार्य निष्फल नहीं है किंतु उनको, हाथ जोड़कर मस्तक पर रखने से स्वर्ग तथा मोक्ष लक्ष्मी की प्राप्ति होती है अर्थात् हे भगवन्! जो भव्यजीव आपको हाथ जोड़कर तथा मस्तक नवाकर नमस्कार करते हैं उनको स्वर्ग तथा मोक्ष के सुखों की प्राप्ति होती है।।४९।।
वियलइ मोहणधूली तुह पुरओ मोहठगपरिट्ठविया।
पणवियसीसाउ तओ पणवियसीसा वुहा होंति।।५०।।
विगलति मोहनधूलिस्तव पुरतो मोहठकस्थापिता।
प्रणमितशीर्षान् तत: प्रणमितशीर्षा बुधा भवंति।
अर्थ —हे भगवन्! हे प्रभो! जो भव्यजीव आपको मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं, उनकी मोहरूपी ठग से स्थापित मोहनरूपी धूली, आपके सामने बात की बात में नष्ट हो जाती है इसीलिये विद्वान् पुरुष आपको नमस्कार करते हैं।
भावार्थ —जिन जीवों की आत्मा पर जब तक मोहरूपी भंयकर तथा दुर्जय ठग द्वारा रचित मोहनधूली विद्यमान रहती है तब तक उन जीवों को अंशमात्र भी हेयोपादेय का ज्ञान नहीं होता किंतु वे ाfवक्षिप्त के समान यह पुत्र मेरा है, यह स्त्री मेरी है और यह द्रव्य मेरा है, ऐसे असत्यविकल्पों को सदा किया करते हैं किंतु हे प्रभो! जिस समय वे भव्यजीव आपको मस्तक नवाकर विनय से नमस्कार करते हैं, उस समय आपके सामने प्रबल भी उस मोहरूपी ठग की कुछ भी तीन-पाँच नहीं चलती अर्थात् वह आपको नमस्कार करने वाले भव्यजीवों के ऊपर अंशमात्र भी मोहनधूली नहीं डाल सकता इसीलिये उत्तम विद्वान पुरुष आपको मस्तक झुकाकर नमस्कार करते हैं।।५०।।
वंभप्पमुहा सण्णा तुह जे भणंति अण्णस्स।
ससिजोण्णा खज्जोए जडेहि जोडिज्जये तेहिं।।५१।।
ब्रह्मप्रमुखा: संज्ञा: सर्वा: तव ये भणंति अन्यस्य।
शशिज्योत्स्त्र खद्योते जडै: युज्यते तै:।।
अर्थ —हे प्रभो! हे जिनेन्द्र! ब्रह्मा-विष्णु आदिक जो संज्ञा सुनने में आती हैं वे आपकी ही हैं अर्थात् आप ही ब्रह्मा हैं तथा आप ही विष्णु हैं तथा बुद्ध आदिक भी आप ही हैं किंतु जो मनुष्य ब्रह्मा-विष्णु आदि संज्ञा दूसरों की मानते हैं वे मूढ़मनुष्य चंद्रमा की चांदनी का खद्योत (जुगुनू) के साथ संबंध करते हैं, ऐसा मालूम होता है।
भावार्थ —खद्योत का (पटबीजना का) प्रकाश बहुत कम होता है और शीतल नहीं होता और चंदमा का प्रकाश अधिक तथा शान्ति का देने वाला होता है यह बात भलीभांति प्रतीति सिद्ध है ऐसे होने पर भी जो मनुष्य चंद्रमा की अधिक तथा शीतल चांदनी को यदि खद्योत की चांदनी कहें तो जिस प्रकार वह मूर्ख समझा जाता है उसी प्रकार हे प्रभो! वास्तविक रीति से तो ब्रह्मा आदिक संज्ञा आपकी ही है किंतु जो मनुष्य चतुर्मुख व्यक्ति को ब्रह्मा कहता है तथा गोपिकाओं के साथ रमण करने वाले को पुरुषोत्तम (विष्णु) कहता है और पार्वती नामक स्त्री के पति को महादेव कहता है वह मनुष्य मूर्ख है क्योंकि ब्रह्मा आदिक जो संज्ञा हैं, वे सार्थ हैं तथा उनका अर्थ चतुर्मुख आदि व्यक्तियों में घट नहीं सकता इसलिये वे ब्रह्मा आदिक नहीं हो सकते।।५१।।
आदिनाथ स्तोत्र में भी यही बात कही है —
-वसन्ततिलका-
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चितबुद्धिबोधात्त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात्।
धातासि धीर शिवमार्गविधेर्विधानाद्व्यक्तं त्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि।।५१।।
अर्थ —हे आदीश्वर भगवन्! आपके ज्ञान की बड़े-बड़े देव आकर पूजन करते हैं इसलिये आप ही बुद्ध हो किंतु आपसे भिन्न दूसरा कोई भी बुद्ध नहीं तथा आप ही तीनों लोक के कल्याण करने वाले हैं इसलिये आप ही शंकर हैं किंतु आपसे भिन्न कोई भी शंकर (महादेव) नहीं है और हे धीर! मोक्षमार्ग की विधि की रचना करने वाले आप ही हैं इसलिये आप ही विधाता (ब्रह्मा) हैं किंतु आपसे भिन्न कोई भी व्यक्ति ब्रह्मा नहीं है और आप प्रकट रीति से समस्त पुरुषों में उत्तम हैं इसलिये आप ही पुरुषोत्तम (विष्णु) हैं किंतु आपसे भिन्न कोई भी व्यक्ति पुरुषोत्तम नहीं है।।१।।
और भी आदिनाथ स्तोत्र में कहा है —
त्वामव्ययं विभुमचिंत्यमसंख्यमाद्यं ब्रह्माणमीश्वरमनंतमनंगकेतुम्।
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदंति सन्त:।।५२।।
अर्थ —हे भगवन् ! आप नाशकर रहित हैं तथा विभु हैं अर्थात् आपका ज्ञान सर्व जगह पर व्यापक है और आप अचिन्त्य हैं अर्थात् आपका भलीभांति कोई चिंतवन नहीं कर सकता और आप असंख्य हैं तथा आप सबके आदि में हुए हैं और आप ब्रह्मा हैं तथा ईश्वर हैं और अंतकर रहित हैं तथा आप कामदेवस्वरूप हैं और समस्त योगियों के ईश्वर हैं तथा आप प्रसिद्धध्यानी हैं और आप अपने गुणों की अपेक्षा व्यवहारनय से अनेक हैं तथा परम शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा एक हैं और आप ज्ञानस्वरूप हैं तथा निर्मल हैं, ऐसा उत्तम पुरुष कहते हैं।।५२।।
तं चेव मोक्खपयवी तं चिय सरणं जणस्स सव्वस्स।
तं णिक्कारणविद्दो जाइजरामरणवाहिहरो।।५३।।
त्वं चैव मोक्षपदवी त्वंचैव शरणं जनस्य सर्वस्य।
त्वं निष्कारणवैद्य: जातिजरामरणव्याधिहर:।
अर्थ —हे भगवन् ! हे जिनेश ! आप ही तो मोक्ष के मार्ग हैं तथा समस्त प्राणियों के आप ही शरण हैं और समस्त जन्म- जरा-मरण आदि रोगों के नाश करने वाले आप ही बिना कारण के वैद्य हैं।।५३।।
किच्छाहि समुवलद्धे कयकिच्चा जम्मि जोइणो होंति।
तं परमकारणं जिण ण तुमाहिंतो परोअत्थि।।५४।।
कृच्छात्समुपलब्धे कृतकृत्या यस्मिन् योगिनो भवंति।
तत्परमपदकारणं जिन न त्वत्त: परोऽस्ति।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र ! बड़े कष्टों से आपको प्राप्त होकर योगी लोग कृतकृत्य हो जाते हैं अर्थात् संसार में उन को दूसरा कोई भी काम नहीं बाकी रहता इसलिये आपसे भिन्न कोई भी परमपद (मोक्षपद) का कारण दूसरा नहीं है।
भावार्थ —यद्यपि संसार में बहुत से देव हैं तथा वे अपने को परमपद का कारण भी कहते हैं किंतु हे जिनेन्द्र ! उनमें अनेक दूषण मौजूद हैं इसलिये वे परमपद के कारण नहीं हो सकते किंतु यदि परमपद के कारण हो तो आप ही हो क्योंकि योगी तप आदि को करके आपके स्वरूप को प्राप्त होकर कृतकृत्य हो जाते हैं।।५४।।
सुहमोसि तह ण दीससि जह पहु परमाणुपेत्थियेहिंपि।
गुरवो तह वोहमए जह तइ सत्वंपि सम्मायं।।५५।।
सूक्ष्मोऽसि तथा न दृश्य से परमाणुप्रेक्षिभिरपि।
गरिष्टस्तथा बोधमये यथा त्वयि सर्वमपि सम्मातम्।।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेश ! आप सूक्ष्म तो इतने हैं कि परमाणुपर्यंत पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाले भी आपको देख नहीं सकते तथा गुरु आप इतने हैं कि सम्यग्ज्ञानस्वरूप आप में यह समस्त पदार्थ समूह समाया हुआ है अर्थात् आपका ज्ञान आकाश से भी अनंतगुणा है इसलिये आकाशादि समस्त पदार्थ आपके ज्ञान में झलक रहे हैं।।५५।।
णिस्सेसवत्थुसत्थे हेयमहेयं निरूवमाणस्स।
तं परमप्पासारो सेसमसारं पलालं वा।।५६।।
निश्शेषवस्तुसार्थे हेयमहेयं विरूप्यमाणस्य।
त्वं परमात्मा सार: शेषमसारं पलालं वा।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेंद्र ! समस्त वस्तुओं के समूह में जो मनुष्य हेय तथा उपादेय को देखने वाला है उस पुरुष की दृष्टि में परमात्मा आप ही सार हैं और आपसे भिन्न जितने भर पदार्थ हैं, वे समस्त सूखे तृण के समान असार हैं।
भावार्थ —यद्यपि संसार में अनेक पदार्थ हैं किंतु हे प्रभो ! जो मनुष्य हेय तथा उपादेय का ज्ञाता है अर्थात् यह वस्तु त्यागने योग्य है तथा यह वस्तु ग्रहण करने योग्य है जिसको इस बात का भली ाांति ज्ञान है उस मनुष्य की दृष्टि में यदि सारभूत पदार्थ हो तो आप ही हो क्योंकि आप समस्त कर्मोंकर रहित परमात्मा हो परन्तु आपसे भिन्न कोई भी पदार्थ सार नहीं किंतु जिस प्रकार सूखा तृण असार है, उसी प्रकार आपसे भिन्न समस्त पदार्थ असार हैं।।५६।।
घरइ परमाणुलीलं तं गव्भे तिहुयणंपि तंपि णह।
अंतो णाणस्स तुह इयरस्स न एरिसी महिमा।।५७।।
धरति परमाणुलीलां यद्गर्भे त्रिभुवनमपि तदपि नभ:।
अंतो ज्ञानस्य तव इतरस्य न ईदृशी महिमा।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेश ! जिस आकाश के गर्भ में ये तीनों भुवन परमाणु की लीला को धारण करते हैं अर्थात् परमाणु के समान मालूम पड़ते हैं वह आकाश भी आपके ज्ञान के मध्य में परमाणु के समान मालूम पड़ता है ऐसी महिमा आपके ज्ञान में ही मौजूद
है किंतु आपसे भिन्न और किसी भी देव के ज्ञान में ऐसी महिमा नहीं है।
भावार्थ —जैन सिद्धान्त में आकाश अनंतप्रदेशी माना गया है और उस आकाश के दो भेद स्वीकार किये हैं-एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश, जिनमें जीवादि द्रव्य रहें उसको लोक कहते हैं, वह लोक इस आकाश के मध्य में सर्वथा छोटा परमाणु के समान मालूम पड़ता है क्योंकि लोक असंख्यातप्रदेशी ही है तथा आकाश अनंतप्रदेशी है परंतु हे भगवन् ! यह एक आपकी अपूर्व महिमा है कि अनंतप्रदेशी भी यह आकाश आपके ज्ञान में परमाणु के समान ही है अर्थात् आपका ज्ञान आकाश से भी हे प्रभो! अनंतगुणा है किंतु हे भगवन्! आपसे भिन्न जितने भर देव हैं, उनमें यह महिमा नहीं मौजूद है क्योंकि जब उनके केवलज्ञान ही नहीं है, तो वह अनंतगुण हो किस प्रकार सकता है ?।।५७।।
भुवणत्थुय थुणइ जइ जए सरस्सइ संतयं तुहं तहवि।
ण गुणंतं लहइ तहिं को तरइ जडो जणो अण्णो।।५८।।
भुवनस्तुत्य स्तौति यदि जगति सरस्वती संततं त्वां तथापि।
न गुणांतं लभते तर्हि कस्तरति जडो जनोऽन्य:।।
अर्थ —हे तीन भुवन के स्तुति की पात्र! संसार में सरस्वती आपकी स्तुति करती है यदि वह भी आपके गुणों के अंत को नहीं प्राप्त कर सकती है तब अन्य जो मूर्ख पुरुष है वह यदि आपके गुणों की स्तुति करे तो वह वैâसे आपके गुणों का अंत पा सकता है?
भावार्थ —सरस्वती के सामने पदार्थ के वर्णन करने में दूसरा कोई भी प्रवीण नहीं है क्योंकि वह साक्षात् सरस्वती ही है परंतु हे प्रभो ! जब वह भी आपके गुणों के अंत को नहीं प्राप्त कर सकती है अर्थात् आपके गुणों के वर्णन करने में जब वह भी हार मानती है तब हे जिनेश ! जो मनुष्य मूर्ख है अर्थात् जिसकी बुद्धि पर ज्ञानावरण कर्म का पूरा-पूरा प्रभाव पड़ा हुआ है, वह मनुष्य वैâसे आपके गुणों का वर्णन कर सकता है ?
सारार्थ —हे जिनेन्द्र ! आपमें इतने अधिक गुण विद्यमान हैं तथा वे इतने गंभीर हैं कि उनको कोई भी वर्णन नहीं कर सकता।।५८।।
खयरिव्व संचरंती तिहुयणगुरु तुह गुणोहगयणम्मि।
दूरंपि गया सुइरं कस्स गिरा पत्तयेरंता।।५९।।
खचरीव संचरंती त्रिभुवनगुरो तव गुणौघगगने।
दूरमपि गता सुचिरं कस्य गो: प्राप्तपर्यंता।।
अर्थ —हे त्रिभुवनगुरो ! हे जिनेन्द्र ! आपके गुणों के समूहरूपी आकाश में गमन करने वाली तथा दूर तक गई हुई ऐसी किसकी वाणीरूपी पक्षिणी है ? जो अंत को प्राप्त हो जावे।
भावार्थ —जिस प्रकार आकाश में गमन करने वाली पक्षिणी यदि दूर तक भी उड़ती-उड़ती चली जावे तो भी आकाश के अंत को नहीं प्राप्त कर सकती है क्योंकि आकाश अनंत है उसी प्रकार हे प्रभो! आपके गुण भी अनंत हैं इसलिये कवि अपनी वाणी से चाहे जितना आपके गुणों का वर्णन करें तो भी उनकी वाणी आपके गुणों के अंत को नहीं पा सकती।।५९।।
जच्छअसक्को सक्को अणीसरो ईसरो फणीसोवि।
तुह थोत्ते तच्छ कई अहममई तं खमिज्जासु।।६०।।
यत्राशक्त: शक्तोऽनीश्वर ईश्वर: फणीश्वरोऽपि।
तव स्तोत्रे तत्र वा कवि: अहममति: तत्क्षमस्व।
अर्थ —हे गुणागार प्रभो ! जिस आपके स्तोत्र करने में इन्द्र भी असमर्थ हैं और महादेव तथा शेषनाग भी अशक्त हैं उस आपके स्तोत्र करने में मैं अल्पबुद्धि कवि क्या चीज हूँ ? इसलिये मैंने भी जो आपका स्तोत्र किया है उसको क्षमा कीजिये।
भावार्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र ! आपके गुणों का स्तोत्र इतना कठिन है कि साधारण मनुष्यों की तो क्या बात, जो अत्यंत बुद्धिमान तथा सामर्थ्यवान हैं ऐसे इन्द्र ईश्वर (महादेव) तथा धरणीन्द्र हैं वे भी नहीं कर सकते किन्तु मुझ अल्पबुद्धि ने इस आपके स्तोत्र के करने का साहस किया है इसलिये यह मेरा एक प्रकार का बड़ा भारी अपराध है अत: विनयपूर्वक प्रार्थना है कि इस मेरे अपराध को आप क्षमा करें।।६०।।
तं भव्वपोमणंदीं तेयणिहीणो सरुव्वणिद्दोसो।
मोहंधयारहरणे तुह पाया मम पसीयंतु।।६१।।
त्वं भव्यपद्नंदी तेजोनिधि: सूर्यवन्निर्दोष:।
मोहांधकारहरणे तव पादौ मम प्रसीदेताम्।
अर्थ —हे जिनेश ! हे प्रभो ! आप भव्यरूपी कमलों को आनंद के देने वाले तथा तेज के निधान और निर्दोष सूर्य के समान हैं इसलिये मोहरूपी अंधकार के नाश करने के लिये आपके चरण सदा प्रसन्न रहें।
भावार्थ —जिस प्रकार सूर्य कमलों को आनंद का करने वाला होता है तथा तेज का भंडार होता है और निर्दोष होता है तथा उसकी किरणें समस्त अंधकार के नाश करने वाली होती हैं उसी प्रकार हे प्रभो ! आप भी भव्यरूपी कमलों को आनंद के देने वाले हैं तथा तेज के निधान हैं तथा निर्दोष हैं इसलिये आप सूर्य के समान हैं इसलिये विनयपूर्वक प्रार्थना है कि आपके चरण मोहरूपी अंधकार के नाश करने के लिये सदा मेरे ऊपर प्रसन्न रहें।।६१।।
इस प्रकार श्री पद्मनंदि आचार्य द्वारा रचित श्री पद्मनंदिपंचविंशतिका
में ऋषभ स्तोत्र समाप्त हुआ।।