जैनधर्म में ऋषिमण्डल यन्त्र का बहुत अधिक महत्त्व है यह ह्नीं बीजाक्षर से संयुक्त है जिसमें चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों को नमस्कार किया गया है। इस यन्त्र को बनाने की विधि इस प्रकार है- यन्त्र सोना, चांदी अथवा कांसे की गोल थाली के आकार में बनवाना चाहिए । उनके बीचोंबीच के वलय में सकार के अन्त का हकार लिखे । वह हकार यकार के अन्त अक्षर अर्थात् – रकार से युक्त हो और उसमें चौथा स्वर ईकार को मिलावे और उसके मस्तक पर अर्ध चन्द्र के आकार में बिन्दु अर्थात् – अनुस्वार देवे ऐसा करने पर ‘ह्नी’ यह बीजाक्षर बनेगा। उस ह्नीं वर्ण के बीच में यथास्थान चौबीस तीर्थकरो के नाम लिखने चाहिए । ह्नींकार की अर्ध चन्द्रमा की कला में ‘चन्द्रप्रभुपुष्पदताभ्यां नम:’ यह लिखे । उस कला के ऊपर बिन्दुस्थान में ‘मुनिसुव्रतनेमिभ्यां नम: लिखे । उपर्युक्त वर्ण के इकार में ‘सुपाश्र्व- पाश्र्वाभ्यां नम: ’’ यह लिखे । उपर्युक्त ह्नीं के मस्तक में ‘पद्मप्रभवासुपूज्याभ्यां नम:’’ ऐसा लिखे। बीच के भाग में बचे हुए तीर्थंकर अर्थात् ‘‘ऋषभाजितसंभवाभिनन्दनसुमतिशीतलश्रेयोविमलानन्तधर्मशांतिकुंथुअरमल्लिनमिवर्धमानेभ्यो नम:’’ यह लिखे। बीच का वलय पीतवर्ण का बनाना चाहिए । उस ह्नीं वर्ण के बाहर आठ कोठे वाले वलय का निर्माण कर उसमें स्वर एवं व्यञजन बीजाक्षर लिखें उसके बाद पुन: आठ कोठे वाले वलय को खींचकर उसमें अरहंतादि पंचपरमेष्ठी, तीनरत्नत्रय के मंत्रत्र लिखे पुन सोलह कोठे बनाकर भवनादिक चारों देव, १२ प्रकार के श्रुतावधि आदिक ऋद्धिधारी महामुनि के मंत्र लिखकर चौबीस कोङ्गे वाले वलय का निर्माण करें और उन २४ कोठो में क्रमश: चौबीस देवताओं के नाम लिखे।
यह यन्त्र सर्वप्रकार से रक्षा करने वाला, भूत व्यन्तरादि से रक्षा करने वाला है। इस ऋषिमण्डल यंत्र की स्तुति युक्त स्तोत्र में लिखा है कि इस ऋषिमण्डल की मन्त्र जाप्य करने से मनवाञिछत फल की प्राप्ति होती है धन धान्य, सुख समृद्धि ऐश्वर्य प्रदायी इसका जाप्य है और यह अतिगोपनीय है अगर इसे मिथ्यादृष्टि को दे दिया तो शिशुहत्या का पाप लगता है ।