-अनुष्टुप्-
स्वानुभूत्यैव यद्गम्यं रम्यं यच्चात्मवेदिनाम्।
जल्पे तत्परमज्योतिरवाङ्मानसगोचरम्।।१।।
अर्थ —जो परम तेज स्वानुभव से ही जाना जाता है और जो पुरुष आत्मस्वरूप के जानने वाले हैं, उनको मनोहर मालूम पड़ता है और जो तेज न वचन के गोचर है और न मन का विषयभूत है, उस परमतेज का मैं वर्णन करता हूँ।
भावार्थ —परमज्योति से यहाँ पर आत्मरूपी तेज लिया गया है, वह आत्मरूपी तेज अमूर्त है (चैतन्यस्वरूप है) इसलिये न तो मूर्तवाणी के गोचर है और न मन के गोचर है और जो आत्मस्वरूप के जानने वालों को अत्यंत मनोहर मालूम पड़ता है तथा जो स्वानुभव से ही गम्य है, ऐसे उस तेज को मैं वर्णन करता हूँ।।१।।
एकत्वैकपदप्राप्तमात्मतत्त्वमवैति य:।
आराध्यते स एवान्यैस्तस्याराध्यो न विद्यते।।२।।
अर्थ —जो भव्यजीव एकत्व स्वरूप को प्राप्त ऐसे आत्मतत्त्व को जानता है, उस पुरुष की अन्य लोग पूजा-आराधना करते हैं किन्तु उसका आराध्य कोई नहीं अर्थात् वह किसी को नहीं पूजता।।२।।
एकत्वज्ञो बहुभ्योऽपि कर्मभ्यो न विभेति स:।
योगी सुनौगतोऽम्भोधिजलेभ्य इव धीरधी:।।३।।
अर्थ —जिस प्रकार धीमान् अर्थात् बुद्धिमान पुरुष उत्तम नाव में बैठा हुवा समुद्र के जल से भय नहीं करता है, उसी प्रकार जो योगी एकत्वस्वरूप का जानने वाला है, वह बहुत भी कर्मों से अंशमात्र भी भय नहीं करता है।।३।।
चैतन्यैकत्वसंवित्तिदुर्लभो सैव मोक्षदा।
लब्धा कथं कथञ्चिच्चेच्चिंतनीया मुहुर्मुहु:।।४।।
अर्थ —चैतन्य के एकत्व का जो ज्ञान है, वह अत्यंत दुर्लभ है और वह ज्ञान ही मोक्ष का देने वाला है इसलिये यदि किसी रीति से उस चैतन्य का ज्ञान हो जावे, तो बारम्बार उस ज्ञान का चिंतवन करना चाहिये।
भावार्थ —जिस समय आत्मा समस्त कर्मों के संबंध से रहित एक है, इस प्रकार आत्मा में एकत्व का ज्ञान होता है, उसी समय मोक्ष की प्राप्ति होती है क्योंकि मोक्ष का कारण चैतन्य के एकत्व का ज्ञान ही है किंतु इस चैतन्य के एकत्व का ज्ञान होता बड़ी कठिनता से है। यदि भाग्यवश चैतन्य के एकत्व का ज्ञान हो भी जाय, तो विद्वानों को (मोक्ष की प्राप्ति के अभिलाषियों को) चाहिये कि वे बारम्बार इसका चिंतवन करें किंतु उसके चिंतवन करने में प्रमाद न करें।।४।।
इसी आशय को लेकर समयसार में भी कहा है।
सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्सवि कामभोगबंधकहा।
एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विभत्तस्स।।५।।
अर्थ —जितने भव जीव संसार में मौजूद हैं, उन सबने प्राय: काम-भोगसंबंधी कथा तो सुनी हैं तथा उसका परिचय और अनुभव भी किया है इसलिये काम भोग संबंधी कथा उनके लिये सुलभ है किंतु एकत्व और विभक्त आत्मा का उनको कभी भी ज्ञान नहीं हुआ है इसलिये केवल उसकी प्राप्ति सुलभ नहीं है इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे एकत्व और विभक्त आत्मा की प्राप्ति के लिये उद्योग करें।।५।।
मोक्षएव सुखं साक्षात्तच्च साध्यं मुमुक्षुभि:।
संसारेऽत्र तु तन्नास्ति यदस्ति खलु तन्न तत्।।६।।
अर्थ —साक्षात् यदि सुख है तो मोक्ष में ही है और उस सुख को मोक्षाभिलाषी ही सिद्ध कर सकते हैं, इस संसार में साक्षात् सुख नहीं है और जो है भी, वह निश्चय से सुख नहीं, दु:ख ही है।
भावार्थ —बहुत से मूर्ख मनुष्य इन्द्रियों से जायमान सुख को ही साक्षात् सुख समझते हैं किन्तु वह साक्षात् सुख नहीं क्योंकि वह अनित्य है तथा परिणाम में दु:ख का देने वाला है किन्तु वास्तविक सुख मोक्ष में ही है क्योंकि वह नित्य है और निविर्किल्प है और उस सुख को, जो मनुष्य मोक्ष के अभिलाषी हैं, वे ही सिद्ध कर सकते हैं इसलिये मोक्षाभिलाषियों को चाहिये कि वे उस सुख के लिये पूरा-पूरा प्रयत्न करें।।६।।
किञ्चित्संसारसंबंधि वंधुरं नेति निश्चयात्।
गुरूपदेशतोऽस्माकं नि:श्रेयसपदं प्रियम्।।७।।
अर्थ —संसारसंबंधी भी कोई वस्तु निश्चय से हमको प्रिय नहीं है किन्तु श्रीगुरु के उपदेश से हमको मोक्षपद ही प्रिय है।
भावार्थ —अनेक मनुष्य संसार में स्त्री-पुत्र-मित्र-सुवर्ण आदि पदार्थों को प्रिय मानते हैं किन्तु वे निश्चय से हमको प्रिय नहीं हैं क्योंकि वे दु:ख के देने वाले हैं, यदि एक प्रिय है तो श्रीगुरु के उपदेश से जिसका स्वरूप जाना गया है, ऐसा मोक्ष ही प्रिय है।।७।।
मोहोदयविषाक्रान्तमपि स्वर्गसुखं चलम्।
का कथाऽपरसौख्यानामलं भवसुखेन मे।।८।।
अर्थ —मोह का जो उदय, वही हुआ विष, उससे व्याप्त यदि स्वर्गसुख भी संसार में विनाशीक है, तब स्वर्ग से भिन्न जितने भर सुख हैं, उनकी क्या कथा है ? अर्थात् वे तो अवश्य ही विनाशीक हैं इसलिये मुझे संसारसंबंधी सुख नहीं चाहिये।
भावार्थ —समस्त मनुष्यों का यह सिद्धांत है कि संसार में सबसे उत्तमसुख स्वर्गका सुख है किन्तु यह उन मनुष्यों का भ्रम है क्योंकि मोहोदयरूपविष से व्याप्त वह स्वर्ग सुख भी चलायमान है, विनाशीक है और जब स्वर्ग सुख ही चलायमान तथा विनाशीक है, तब और सुख तो अवश्य ही विनाशीक हैं, इसलिये मुझे संसार के सुख से कोई प्रयोजन नहीं।।८।।
१लक्ष्यीकृत्य सदात्मानं शुद्धबोधमयं मुनि:।
आस्ते य २सुमतिश्चात्र सोप्यमुत्र चरन्नपि।।९।।
अर्थ —श्रेष्ठबुद्धि धारक जो मुनि इस भव में निर्मल सम्यग्ज्ञानस्वरूप तथा श्रेष्ठ आत्मा को लक्ष्य कर रहता है, वह पर भव में गया हुआ भी इसी प्रकार आत्मा को लक्ष्य कर रहता है।
भावार्थ —आत्मा सम्यग्ज्ञानस्वरूप है तथा अतिश्रेष्ठ है इसलिये जो उत्तमबुद्बि का धारक मुनि इस भव में इस प्रकार के आत्मा काे लक्ष्यकर रहता है, परभव में गये हुए भी उस मुनि का लक्ष्य आत्मा में वैसा ही बना रहता है इसलिये मुनियों को चाहिये कि वे इसी प्रकार आत्मा में लक्ष्य रखें।।९।।
वीतरागपथे ३स्वस्थ: प्रस्थितो मुनिपुंगव:।
तस्य मुक्तिसुखप्राप्ते: क: प्रत्यूहो जगत्त्रये।।१०।।
अर्थ —अपने आत्मस्वरूप में तिष्ठने वाले जिस उत्तम मुनि ने वीतराग मार्ग में गमन किया है, उस मुनि की मोक्ष की प्राप्ति में तीनों लोक में कोई भी विघ्न नहीं है।
भावार्थ —जब तक मुनि वीतराग मार्ग में गमन नहीं करता, तब तक तो उसको मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती क्योंकि उसके लिये मोक्ष की प्राप्ति में बहुत से विघ्न आकर उपस्थित हो जाते हैं किंतु जो मुनि वीतराग मार्ग में गमन करने वाले हैं, उनको मोक्षसुख की प्राप्ति में तीनों लोक में किसी प्रकार का विघ्न आकर उपस्थित नहीं होता इसलिये मोक्ष सुख के अभिलाषी मुनियों को वीतराग मार्ग में ही स्थित रहना चाहिये।।१०।।
इत्येकाग्रमना नित्यं भावयन् भावनापदम्।
मोक्षलक्ष्मीकटाक्षालिमालापद्मश्च जायते।।११।।
अर्थ —जो मुनि इस प्रकार एकचित्त होकर सदा ऐसी भावना करता रहता है, वह मुनि मोक्षरूपी जो लक्ष्मी, उसके जो कटाक्ष, वे ही हुवे अलिमाला, (भ्रमर समूह) उसके लिये कमल के समान होता है।
भावार्थ —जिस प्रकार कमल पर स्वयं भौंरे आकर बैठ जाते हैं, उसी प्रकार जो मुनि उपर्युक्त भावना को करने वाले हैं, उन मुनियों के ऊपर मुग्ध होकर स्वयं मोक्षरूपी लक्ष्मी अपने कटाक्षपातों को करती है अर्थात् वे मुनि शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं इसलिये मुनियों को चाहिये कि वे सदा ऐसी ही भावना करते रहें।।११।।
एतद्धर्मफलं धर्म: स चेदस्ति ममामल:।
आपद्यपि कुतश्चिंता मृत्योरपि कुतो भयम्।।१२।।
अर्थ —इस मनुष्य भव का फल निर्मल धर्म मौजूद है तो आपत्ति के आने पर भी मुझे चिंता नहीं और न मुझे मरण से ही भय है।
भावार्थ —जब तक निर्मल धर्म की प्राप्ति नहीं होती, तब तक तो आपत्ति में चिंता रहती है तथा जन्म-मरण से भी भय रहता है किन्तु यदि इस मनुष्य भव का फल निर्मल धर्म मेरे पास मौजूद है तो न मुझे आपत्ति में किसी प्रकार की चिंता हो सकती है और न मुझको जन्म-मरण से ही भय हो सकता है।।१२।।
इस प्रकार श्री पद्मनंदि आचार्यद्वारा विरचित श्री पद्मनंदिपंचविंशतिका में
एकत्वभावना नामक अधिकार समाप्त हुआ।