सामाजिक होने का अर्थ भीड़ का हिस्सा होना नहीं है। कोई व्यक्ति एकांत में रहना पसंद करता है, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह असामाजिक है, मिलनसार नहीं है, उसे एकांतप्रिय का विशेषण भी दिया जा सकता है। एकांत को चुन लेना कई ‘बार किसी विशेष लक्ष्य के लिए होता है। जैसे कि विज्ञानी, शोधकर्ता, साधक, कलाकार, बुद्धिजीवी, मुमुक्षु, ज्ञान-अर्जक जैसे लोगों को प्रायः देखा जाता है कि वे लोगों से घुलना-मिलना पसंद नहीं करते। इनका किसी एक कमरे में एकांत में सिमट जाना किसी अवसाद की देन नहीं है, अपितु अपनी ऊर्जा का समुचित ढंग से एक लक्ष्य को भेदने में प्रयोग करने की प्रवृत्ति है। यह दायित्व पूर्ति का उनका अपना तरीका है। अपने कर्तव्यबोध से साक्षात्कार का स्वरूप है। ईश्वर ने हम सबको भिन्न-भिन्न कार्य सौंपें हैं। उन्हें जो कार्य मिला, वह भीड़ में रहकर संभव नहीं है। अतः उन पर असामाजिक होने का दोषारोपण करना उचित नहीं। आदि गुरु शंकराचार्य जी ने यथार्थ ही कहा कि मनुष्यों से भरा हुआ स्थान ब्रह्मचिंतन में विघ्नस्वरूप है। अतः निर्जन (एकांत) स्थान पर रहना चाहिए। यह सत्य है कि सभी साधक नहीं होते हैं, परंतु सामान्यजन किसी न किसी साधना में रत अवश्य हो सकते हैं। समूह की एक ऊर्जा होती है, उसकी एक दिशा होती है, उसी का पालन हमें
करना होता है। कई बार यूं भी होता है कि समूह का
हिस्सा होते हुए हम अलग ढंग से व्यवहार करते हैं
और एकांत में हम बिल्कुल अलग होते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि समूह में किसी क्रिया की प्रतिक्रिया देनी होती है और एकांत में हम अपने स्वाभाविक स्वरूप में होते हैं। समूह कई बार अदृश्य रूप से हमारी व्यक्तिगत विशेषताओं का क्षरण कर जाता है। अतः यदि ऐसा है कि आप एकांत में रहकर ज्ञान, आत्मबल, अध्यात्म, दर्शन, कला या किसी कौशल में उन्नति कर रहे हैं, तो समूह को कम समय देना अनुचित नहीं है और जो ऐसा करता है उसे भी पूरा सम्मान देना चाहिए।