(आचार्य श्री वादिराज वि. की ११वीं शताब्दी के महान विद्वान् थे। वादिराज यह उनकी पदवी थी, नाम नहीं। जगत्प्रसिद्ध वादियों में उनकी गणना होने से वे वादिराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनकी गणना जैन साहित्य के प्रमुख आचार्यों में की जाती है।) उन वादिराज मुनिराज का चौलुक्य नरेश जयिंसह प्रथम की सभा में बड़ा सम्मान था। एक बार पूर्वकृत पापोदय से आचार्यश्री के शरीर में कुष्टरोग हो गया। नि:स्पृही वीतराग संत अपने आत्मध्यान में ही लीन रहते थे। शरीर की वेदना से उन्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं थी किन्तु जिनधर्मद्वेषी एक दुष्ट स्वभावी विद्वान ने राजसभा में मुनिश्री का घोर उपहास कर दिया।
—प्रथम दृश्य—
(राजदरबार का दृश्य है। राजा, सभासद, विद्वत्गण सभी विराजमान हैं।
धर्मचर्चा चल रही है)— राजा—हे सभासदों ! हे विद्वत्वर्ग । देखो तो इस जिनधर्म की महिमा, जहाँ व्यक्ति विशेष की नहीं बल्कि उनके गुणों की पूजा की जाती है।
जिनधर्मभक्त एक श्रावक—हे राजन् ! आप बिल्कुल सत्य कहते हैं, अब देखिए ना, आज के समय में भी प्राणी इसी नश्वर तन से जिनदीक्षा लेकर घोर तपश्चरण कर रहे हैं।
राजा—हाँ ! अपने वादिराज मुनिराज को ही देख लो, सुना है वे बहुत ही तपस्वी साधु हैं। धन्य हैं वे तथा उनका जीवन। एक हम लोग हैं जो भोग विलास में ही फसे हुए हैं।
तभी—जिनधर्म द्वेषी एक दुष्ट स्वभावी विद्वान्—(उपहास करते हुए खड़े होकर) हा…… हा …….। हे कृपानिधान ! आपने भी क्या खूब बात कही ! जैनधर्म ! हा हा हा ……..। आप जैनधर्म की इतनी मान्यता करते हैं, श्रेष्ठ कहकर उनके साधुओं का सम्मान करते हैं पर यह नहीं जानते कि ‘‘जैन साधु कोढ़ी होते हैं।’’
राजश्रेष्ठी—(क्रोधित हो) क्या कहा ! मेरे गुरू और कोढ़ी। कौन कहता है ये ! विद्वान्—मैं कहता हूं, मैं ! बहुत देखे तुम्हारे गुरू !
राजश्रेष्ठी—(राजा से) हे राजन् ! यह विद्वान असत्य कहता है, जैन मुनियों की काया तपाए हुए स्वर्ण के समान सुन्दर और तेजोदीप्त होती है।
राजा—(दोनों को शान्त करते हुए)—ठीक है, ठीक है, आप दोनों लोग शान्त हो जाइए। हेराजश्रेणी ! कल प्रात: मैं आपके गुरू के दर्शनार्थ चलूंगा, तब अपने आप मालूम हो जाएगा कि कौन सत्य बोलता है और कौन झूठ ? हे विद्वत्वर्ग एवं सभासदों। आप सब भी मेरे साथ चलेंगे।
सभी—(खड़े होकर) हो आज्ञा महाराज ! (सभी चले जाते हैं। सभा स्थगित हो जाती है, उधर वह राजश्रेष्ठी बहुत परेशान है और सोचता है)
—अगला दृश्य—
राजश्रेष्ठी—(मन में) हे प्रभो ! अब क्या करना चाहिए ? मेरे गुरू को तो वास्तव में कुष्ट रोग हो गया है। ऐसा करता हूँ मुनिराज के पास ही जाता हूं, वे अवश्य ही कुछ उपाय करेंगे। (मुनिराज के पास पहुंचकर)।
राजश्रेष्ठी—(पंचांग नमस्कार कर)—हे स्वामिन् ! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु ।
वादिराज मुनि—बोधिलाभोऽस्तु ! कहो वत्स ! कुशल तो है।
राजश्रेष्ठी—गुरुवर ! आज राजसभा में दिगम्बर मुनियों की चर्चा चल रही थी, राजा आपकी प्रशंसा कर रहे थे तभी एक धर्मविद्वेषी ने आपको कुष्टी कहा जो मुझसे सहन नहीं हुआ और मैंने कह दिया कि मेरे गुरू की काया स्वर्ण के समान है।
वादिराज मुनि—तो उसमें अघटित क्या हुआ ?
राजश्रेष्ठी—प्रभो ! राजा प्रात:काल सही गलत का निर्णय करने हेतु आपके दर्शनाथ आ रहे हैं। अगर आपकी काया रोगरहित नहीं हुई तो मेरा जीना कठिन ही है। अब तो जिनधर्म की रक्षा का प्रश्न है। आप जो उचित समझें, करें।
आचार्यश्री—ठीक है वत्स ! आप घबराएं नहीं, आराम से जाकर अपनी नित्य क्रियाएं करें और प्रात:काल राजा आदि के साथ पधारें।
राजश्रेष्ठी—जैसी आपकी आज्ञा प्रभो ! नमोऽस्तु गुरुवर नमोऽस्तु। (आचार्यश्री उन्हें आशीर्वाद देते हैं और उसी रात्रि आदिनाथ भगवान की भक्ति में लीन हो एकीभाव स्तोत्र की रचना कर देते हैं। जिनभक्ति में लीन मुनिश्री जिनेन्द्रभक्ति का वर्णन करते हुए लिखते हैं)—
मुनिराज—(स्तोत्र की रचना करते हुए)—हे भगवन् ! भव्य जीवों के पुण्योदय से स्वर्ग से माता के गर्भ में आने वाले आपके द्वारा छ: माह पूर्व ही यह पृथ्वी कनकमयता को प्राप्त करा दी गई थी। हे जिनेन्द्र ! ध्यानरूपी द्वार से मेरे मन रूपी मंदिर में प्रविष्ट हुए आप कुष्ट रोग से पीड़ित मेरे इस शरीर को सुवर्णमय कर रहे हो तो इसमें क्या आश्चर्य है ? (इस श्लोक के बोलते ही आचार्य वादिराज का कोढ़ क्षण भर में दूर हो गया। काया स्वर्ण के समान पवित्र, सुन्दर बन गई। उधर मुनिराज भगवान की भक्ति में तल्लीन हैं)—
मुनिराज—हे मित्र ! जो कोई आपके दर्शन करता है, वचनरूपी अमृत का भक्तिरूपी पात्र से पान करता है तथा कर्मरूपी मन से आप जैसे असाधारण आनन्द के धाम दुर्वार काम के मद को हरने वाले व प्रसाद की अद्वितीय भूमिरूप पुरुष में ध्यान द्वारा प्रवेश करता है उसे व्रूर रोग और कंटक कैसे सता सकते हैं ? (प्रात: हो जाती है। जिनभक्ति के प्रसाद से रात भर में ही अतिशय चमत्कार हो जाता है। प्रात: राजा, राजश्रेष्ठी, सभासद और वह जिनधर्मद्वेषी विद्वान् सभी आचार्यश्री के दर्शनार्थ चल दिए। उसी जंगल में आ पहुंचे जहां मुनिश्री ध्यान में लीन थे)
—अगला दृश्य—
(सभी आकर मुनिराज को पंचांग नमस्कार करते हैं। वह जिनधर्म विद्वेषी विद्वान् चुपचाप खड़ा है।)
राजा, राजश्रेष्ठी आदि—(चरणों में झुककर) नमोऽस्तु भगवन् ! नमोऽस्तु !
पुन: राजा—(मुनि के दर्शन कर) ओह ! इन मुनिराज की काया तो सचमुच कंचन के समान है। इनका तेज कितनी दूर-दूर तक फैल रहा है। मात्र दर्शन से ही मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा है। (श्रेष्ठी से) श्रेष्ठिवर ! क्या यह ही आपके गुरू हैं ?
सेठ जी—जी हाँ, राजन् ! (राजा उनके पावन चरणों में नतमस्तक होता हुआ प्रसन्न होता है पुन: द्वेषियों की ओर क्रोध भरी दृष्टि से देखता है। सबके सब थर-थर कांपने लगते हैं)
विद्वान (मन में)—हे प्रभो ! इन मुनिराज की काया तो सचमुच कंचन के समान है, इनका तो कुष्ट रोग ही गायब हो गया। अब राजा पता नहीं हमें क्या दण्ड देंगे। (इधर वह इतना सोच ही रहा था उधर मुनिराज ध्यान को भंगकर सभी को सम्बोधित करते हैं) (सभी पुन: नमोऽस्तु करते हैं)
मुनिराज—बोधिलाभोऽस्तु ! कहिए ! आप सब कुशल तो हैं।
राजा—हे मुनिश्रेष्ठ ! हम सब आपकी कृपा से कुशल हैं। कहिए, आपका रत्नत्रय कुशल तो है।
मुनिराज—हां राजन् ! आपके आने का कोई विशेष प्रयोजन है ?
राजा—जी मुनिवर ! मुझे कहते हुए भी लज्जा आती है कि मेरे दरबार के एक विद्वान ने जिनधर्म के द्वेषवश आपको कुष्टी कह दिया अत: मुझे आपके दर्शनार्थ सत्य-असत्य का निर्णय जानने हेतु आना पड़ा। मुझे क्षमा करें प्रभो ! मुझे क्षमा करें।
मुनिराज—राजन् ! आप सब सर्वप्रथम अपना स्थान ग्रहण करें। (सभी बैठ जाते हैं तब मुनिवर कहते हैं)
मुनिराज—राजन् ! इसमें आप सबका कोई दोष नहीं है। यह सत्य है कि मेरे शरीर में पूर्वोर्पािजत कर्म के उदय से कुष्ट रोग था इसका साक्षात् प्रमाण मेरी यही कनिष्ठा अंगुली है जिसमें इसका प्रभाव शेष है।
राजा—किन्तु भगवन् ! ये चमत्कार हुआ कैसे ?
मुनिराज—देखो ! जिनेन्द्र भगवान की भक्ति में अपूर्व शक्ति है। चूंकि इस विद्वान ने यह कहा था कि जैनधर्म के सभी साधु कोढ़ी होते हैं अत: इस आक्षेप को दूरकर जिनधर्म की प्रभावना के लिए मैंने भक्ति के प्रसाद से यह रोग एक रात में दूर कर दिया अत: इसमें इन बेचारों की कोई गलती नहीं।
राजा—हे मुनिवर ! अब आप ही इन्हें दण्ड दें, इन्होंने घोर अपराध किया है।
मुनिराज—राजन् ! साधु का किसी से न तो राग होता है न द्वेष, अगर इसने मेरी निन्दा की तो वह भी मेरे कर्मों का ही दोष है। अगर मुझे कुष्ट रोग हुआ तो यह भी मेरे पूर्व में उर्पािजत किए गए कर्मों का दोष है इसलिए आप भी इसे क्षमा करें। (इतना सुनकर वह धर्मविद्वेषी विद्वान मुनिराज के चरणों में साष्टांग लेट जाता है।
विद्वान—हे स्वामी ! मुझसे घोर अपराध हुआ, मुझे क्षमा कीजिए, मेरे पापों का प्रायश्चित्त दीजिए। मैंने अकारण ही आपकी निन्दा करके महान कर्म का बंध कर लिया।
मुनिराज—(शांत भाव से मुस्कुराते हुए) उठो भव्यात्मन् ! तुम्हारा पश्चात्ताप ही तुम्हारे पापों को दूर कर देगा किन्तु एक बात अवश्य ध्यान रखना, कभी भी देव-शास्त्र-गुरू की निन्दा मत करना। देखो ! तुम्हारी निन्दा करने से उन पर तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा किन्तु तुम्हें अकारण ही कर्मों का बन्ध हो जाएगा, जो भव-भव में तुम्हारे लिए दु:खदायी होगा।
विद्वान—हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं आज से ही यह प्रतिज्ञा करता हूं कि कभी भी देव-शास्त्र-गुरु की निन्दा नहीं करूंगा और निन्दा करने वालों को भी समझाऊंगा कि वे ऐसा करके पापबंध न करें। हे क्षमा के सागर ! आपकी कृपा से आप मुझे सच्चा मार्ग मिल गया, मैं आज से जिनधर्म को धारण करता हूं एवं सम्यग्दर्शन को ग्रहण करता हूँ।
राजा—हाँ गुरुवर ! हम सब आज से यह प्रतिज्ञा करते हैं कि सदैव जैनधर्म का पालन करेंगे। मेरे राज्य में कोई भी देव-शास्त्र-गुरु की निन्दा नहीं करेगा।
सभी सभासद—जय बोलो वादिराज मुनिराज की जय ! जैनधर्म की जय ! सच्चे गुरुओं की जय ! विश्वधर्म की जय।
(सभी पुन:—पुन: मुनिराज को नमस्कार करते हैं, मुनिराज प्रसन्न मुद्रा में सभी को आशीर्वाद देते हैं और सभी जय-जयकार करते हुए प्रस्थान करते हैं।)