सकलश्रुतमत्यवधिप्रविकासिविशुद्ध विलासनिनिद्र विशिष्ट-
विलोचनदृष्टिविदृष्टसमस्तचराचरतत्त्वजगस्त्रितय।
त्रितयात्मकदर्शनबोधचरित्रविनिर्मलरत्नविराजितपूर्व-
भवोग्रतपोयुतषोडशकारणसंचिततीर्थकरप्रकृते।।१।।
प्रकृतेः स्थितितोऽनुभवाच्च विशिष्टतराद्भुतपुण्यमहोदय-
मारुतवेगविचालितदेवनिकायकुलाचलसेवितपादयुग।
युगमुख्य मुखाम्बुजदर्शनतृप्तिविवर्जितभव्यमधुव्रतधीर-
तरस्तवनध्वनिवृंहितदुन्दुभिनादनिवेदितशुद्धयशः।।२।।
यशसा धवलीकृतजन्मपवित्रितभारतवर्ष महाहरिवंश-
महोदयशैलशिखामणिबालदिवाकरदीप्तिजितार्कवपुः।
वपुषाधिककान्तिभृताजितपूर्णशशाज्र्, विभो! हरिनीलमणि-
द्युतिमण्डलमण्डितदिङ्मुखमण्डल नेमिजिनेन्द्र! नमो भवते।।३।।
भवतेह भुवां त्रितये भवता गुरुणा परमेश्वर विश्वजनीन
महेच्छधिया प्रतिपादितमप्रतिमप्रतिमारहितम्।
हितमुक्तिपथं प्रथितं विधिवत् प्रतिपद्य विधाय तपो विविधं
विधिना प्रविधूय कुकर्ममलं सकलं भुवि भव्यजनः प्रणतः।।४।।
प्रणतप्रिय! संप्रति जन्मजरामरणमयभीममहाभवदुःख-
समुद्रमपारमतीत्य समेष्यति मोक्षमशेषजगच्छिखरम्।
शिखराग्रसमग्रगुणाश्रयसिद्धमहापरमेष्ठिमहोपचयं
प्रवदन्ति च यं मुनयः परमं पदमेकमिहाक्षरमात्महितम्।।५।।
महितं महतां महदात्मगतं सततोदयमन्तविवर्जितमूर्जित-
सत्त्वसुखं प्रतिलभ्यमलभ्यमभव्यजनैः खलु यत्र सुखम्।
सुखमत्र यदीश्वरविश्वजगत्प्रभुताप्रतिवद्धमपि त्रिदशे-
न्द्रनरेन्द्रपुरस्सरदेवमनुष्यविशेषमहाभ्युदयप्रभवम्।।६।।
प्रभवप्रलयस्थितिधर्मपदार्थनिरूपणनैपुणशासन शासन
तावकशासनसेवनयैव भविष्यति नान्यमताश्रयतः।
श्रयतामिति निश्चयमेत्य भवन्ति भवत्यविभूति मतिप्रवणाः
सततं तनुभृन्निवहा भुवि येऽत्र त एव जिनेन्द्र कृतित्वमिताः।।७।।
प्रियसर्वहितार्थवचोविभवं विभवं सुरमीकृतदिग्विवरं
वरसंहतिसंस्थितिरूपयुतं युतसर्वसुलक्षणपङ्क्तिरुचिम्।
रुचिमत्पयसा समदेहरसं रसभावविदं मलमुक्ततनुं
तनुजस्विदिहीनमनन्ततया ततया संहितं भुवि वीर्यतया।।८।।
तोटकवृत्तम्
यतयात्मधिया जितनात्मभुवं भुवमव्यतरां सुखसस्यभृताम् ।
भृतविश्व! भवन्तमनन्तगुणं गुणकाङ्क्षितया वयमीश नताः।।९।।
दोधकवृत्तम्
योजनभूरिसहस्रनभोगं भोगकरत्वमिवाचलनाथम्।
नाथ! परं स्नपनासनमिद्धमिद्धमतिः कुरुते क उदारः।।१०।।
ईदृशमीश विभुत्वममानं मानधनामरमानवमान्यम्।
मान्यतमोऽन्यतमो भुवि ना को नाकभवोऽपि जिनैति यथा त्वम्।।११।।
शैशव एव जनातिगसत्त्वः सत्त्वहितो भुवनत्रयनूतः।
नूतनभक्तिभरेण नतानां तानवमानससौख्यकरस्त्वम्।।१२।।
कामकरीन्द्रमृगेन्द्र नमस्ते क्रोधमहाहिविराज नमस्ते।
मानमहीधरवङ्का नमस्ते लोभमहावनदाव नमस्ते।।१३।।
ईश्वरताधरधीर नमस्ते विष्णुतया युत देव नमस्ते।
अर्हदचिन्त्यपदेश नमस्ते ब्रह्मपदप्रतिबन्ध नमस्ते।।१४।।
सत्यवचोनिवहैः सुरसंघा इत्यमिनुत्य जिनं प्रणिपत्य।
तारकमुग्रभवाद्वरमेकं याचितवन्त इनं वरबोधिम्।।१५।।
वृत्तानुगन्धिगद्यम्
अथ मथितमहामृताम्भोधिसंशुद्धपीयूषपिण्डातिपानातिदोषाञ्चिराजीर्यमाणेष्वि-वोद्गीर्यमाणेषु तत्खण्डखण्डेषु, शंङ्खेषु खे खेदमुत्तैâः सुरैस्तोषपोषादनीषन्मनीषैर्भृशं पूर्यमाणेषु तद्यथा वाद्यमानोरुगम्भीर-भेरीमृदङ्गानकादिप्रभूताततातोद्यशब्देषु संवृत्तजैनेन्द्रजन्माभिषेकोत्सवोद्घोषणायेवं निश्शेषलोकान्तदिक्चक्र-वालान्तराक्रान्तिमभ्युत्थितेषु प्रनृत्यत्सु विद्याधरव्रातदेवाङ्गनातुसंगीनादाभिरामाति-शृङ्गारहास्याद्भुतोद्यद्रसोदारवागङ्गसत्त्वस्फुटाहार्यहार्यात्मदिव्याभिनेयप्रवृत्ताप्सरोवृन्द-बन्धेषु, सौधर्मकल्पाधिपः संभ्रमाद्विभ्रमभ्राजमानोद्यदैरावतस्कन्धमारोप्य संवृत्यधीरं जिनेन्द्रं सितच्छत्रशोभं चलच्चामरालीभिरावीज्यमानं प्रगीताप्सरोलोकसंगीयमा-नातिशुद्धात्मकीर्तिं चचालाचलेन्द्रादनीवैâरशेषैरशेषं नभोभागमापूर्य शौर्यशैलैरलं यादवेन्द्रैर्मृगेन्द्रैरिवाध्यासितं प्रथितविबुधनिकायैः पथि प्रस्थितैः सप्रमोदैः प्रणामप्रणुतिप्रगीतिप्रयोग-प्रवृत्तैर्यथायोगमभिनन्द्यमानो महानन्दमापादयन् पादपद्मोपसेवासनाथस्य नाथस्त्रिलोकामराधीशलोकस्य लोकातिवर्तिप्रवृत्तं परम्पारमैश्वर्यमत्यद्भुतं संदधानः, शिवानन्दनो, नन्द वर्धस्व जीवेति वेत्यादि पुण्याभिधानैस्तदा स्तूयमानः कुलाद्रिप्रसूतिप्रभूताच्छतोयापगावी-चिसंतानसंसर्गशीतात्मना भोगभूभूरुहाणां विचित्रप्रसूनप्रतानप्रसंगेन सौगन्ध्यमत्यद्भुतं बिभ्रता संभ्रमेणातिदूराच्च खेदापनोदार्थमभ्युत्थितेनेव मित्रेण गात्रानुकूलेन मन्दानिलेन प्रभुस्तीर्थकृत्कोमलाङ्गः समालिङ्ग्यमानो मनोहारिवाल्यानुरूपाम्बरोद्भासिभूषा-विशेषोद्धमाल्योज्ज्वलो बालकल्पद्रुमोद्दामशोभातिशायी घनश्याममूर्तिः सितोद्गन्धिसच्चन्दनेनोपदिग्धः स्फुरत्सान्द्रचन्द्रातपाश्लिष्टरुन्द्रेन्द्रनीलाद्रिलक्ष्मीधरो देवसेनावृतः शीघ्रमुल्लङ्घ्य काष्ठामुदीचीमधिष्ठानमात्मीयमुच्चैर्ध्वजव्रातवादित्रधीर-ध्वनिव्याप्तदिव्âचक्रवालाम्बरं
दिव्यगन्धाम्बुवर्षाभिषिक्तापतत्पुष्पवर्षोपरुद्धोरुरथ्यापथं श्रीनिधानं विधानेन माङ्गल्यसंसंगिना चारुसौर्यं पुरं प्रापदैश्वर्यमाश्चर्यभूतं भुवि प्रकटं विश्वलोकस्य कुर्वन्नसौ नेमिनाथः। जिनशिशुमशिशुश्रियं शौरिसौर्यप्रजाशुंभदम्भोजिनीबालमास्वन्त-मुत्तुङ्गमातङ्गराजोत्तमाङ्गस्थमादाय तं मातुरुत्संगमानीय शक्रः स्वयंविक्रियाशक्तियुक्तः सहस्रं भुजां भासुरांसस्थलश्रीपुषां स प्रकृत्य प्रसार्योरुसौन्दर्य संदर्भगर्भामरस्त्रीसहस्राणि चित्रं प्रनृत्यन्ति विभ्रद्भुजेष्वग्रतो यादवानां मुदा पश्यतां विश्वकाश्यप्यधीशत्वलाभादपि प्राज्यलाभं हृदि ध्यायतां स्फारिताक्ष्ां क्षणारब्धसत्ताण्ड-वाखण्डशोभाप्रयोगान्वितं वाद्यजातिप्रतानप्रवृद्धाभिनेयं सभ्रूक्षोमलीलं सदिव्âचक्रभेदं सभूमिप्रपातं महानन्दसन्नाटकं राज्यदक्षो ननाट स्फुटीभूतनानारसोदारभावं ततोऽर्हद्गुरुं देवराजः प्रणम्य प्रपूज्यान्यमर्त्यैरनर्घ्यैरलभ्यैर्विभूषादिभिर्भूषयित्वा जिनस्या मृताहारमुद्यत्कराङ्गुष्ठके दक्षिणे- न्यस्य रक्षानिमित्तं वयस्यान् कुमारान् सुराणां सुरेन्द्रः कुमारस्य सम्यग्निरूप्याप्रमत्तं कुबेरं वयोभेदकालर्तुयोगं विभोः क्षेमयोग्यं विधेयं समस्तं त्वयेति स्थिरं ज्ञापयित्वा समापृच्छय जैनौ गुरू तावनुज्ञां ततः प्राप्यसंप्राप्तलाभः कृतार्थ निजं मन्यमानो यथायातमन्यैरशेषैः सुरेन्द्रैश्चतुर्भेददेवानुगैर्यातवान् सिद्धयात्रस्ततो दिक्कुमार्योऽपि संवृत्तकार्याः समासाद्य तामार्यपुत्रीं सपुत्रीं शिवां संप्रणम्य प्रहृष्टाः प्रजग्मुर्निजस्थानदेशान् दिशस्ता दश द्योतयन्त्यः शरीरप्रमाभिर्जगन्नेमिचन्द्रोऽपि शुभ्रैर्गुणग्रामसान्द्रांशुजालैः समाह्लादयन् बालभावेऽप्यबालक्रियो लालितो बन्धुवर्गामरैर्वर्द्धमानो रराज श्रिया।
स्तवनमिदमरिष्टनेमीश्वरस्येष्टजन्माभिषेकाभिसंबन्धमाक्रान्तलोकत्रयातिप्रभावस्य पापापनोदस्य पुण्यैकमार्गस्य संसारसारस्य मोक्षोपकण्ठस्थ भव्यप्रजानां प्रमोदस्य कर्तुः प्रमादस्य हर्तुर्धर्मस्योपनेतुर्मुदा श्रूयमाणस्य स्मर्यमाणस्य च संकीर्त्यमानस्य संकीर्तनं पठ्यमानं समाकर्ण्यमानं सदा चिन्त्यमानं सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररत्नत्रयस्याभिसंपत्करं चैत्तशारीरसौख्यप्रदं शान्तिकं पौष्टिकं तुष्टिसंपत्तिसंपादि साक्षादिहामुत्र चानेककल्याणसंप्राप्तिहेतोः प्रपुण्यास्रवस्य स्वयं कारणं वारणं सर्वपापास्रवाणां सहस्रस्य विध्वंसकरणं दारुणस्यापि पूर्वत्र सर्वत्र चानेहसि स्नेहमोहादिभावेन संचितस्यैनसः। स्तोत्रमुख्यं जिनेन्द्रे विधेयादिदं भक्तिभारं परम् ।
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतौ जन्माभिषेके
इन्द्रस्तुतिवर्णनो नाम एकोनचत्वारिंशः सर्गः।। ३९।।
इन्द्र नेमि जिनेन्द्र की इस प्रकार स्तुति करने लगा—हे प्रभो! आपने समस्त श्रुतज्ञान, मतिज्ञान और अवधिज्ञान से विकसित, शुद्ध चेष्टाओं के धारक, जागरुक एवं विशिष्ट पदार्थों को दिखलाने वाली दृष्टि के द्वारा समस्त चराचर पदार्थों से युक्त तीनों जगत् को अच्छी तरह देख लिया है। आपने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यव्âचारित्र के भेद से त्रिविधता को प्राप्त निर्मल रत्नों से सुशोभित पूर्वभव सम्बन्धी उग्र तप से युक्त सोलहकारण भावनाओं के द्वारा तीर्थंकर नामक पुण्य प्रकृति का संचय किया है।।१।।
उसी तीर्थंकर प्रकृति को स्थिति तथा अनुभाग बन्ध के कारण अत्यन्त विशिष्ट एवं अद्भुत पुण्य के महोदयरूपी वायु के वेग से आपने देवसमूहरूपी कुलाचलों को विचलित किया है। उन्होंने आप के चरण युगल की सेवा की है। आप युग में मुख्य हैं तथा आपके मुखकमल के देखने सम्बन्धी तृप्ति से रहित भव्य जीवरूपी भ्रमरों के अत्यधिक स्तवनों की ध्वनि से वृद्धिंगत दुन्दुभियों के शब्द से आपका शुद्ध यश प्रकट हो रहा है।।२।।
हे नाथ ! आपने यश से शुक्लीकृत जन्म से समस्त भारतवर्ष को पवित्र किया है। अत्यन्त श्रेष्ठ हरिवंशरूप विशाल उदयाचल के शिखामणिस्वरूप बालदिनकर जैसी कान्ति से आपने सूर्य के शरीर को जीत लिया है। हे विभो ! आपने अधिक कान्ति को धारण करने वाले शरीर के द्वारा पूर्णचन्द्र को जीत लिया है एवं इन्द्रनीलमणि जैसी कान्ति के समूह से आपने समस्त दिशाओं के मुखमण्डल को सुशोभित कर दिया है इसलिए हे नेमि जिनेन्द्र ! आपको नमस्कार हो।।३।।
हे परमेश्वर! हे विश्वजनीन! हे अप्रतिम—हे अनुपम! आप तीनों लोकों के गुरु हैं एवं उत्कट बुद्धि के धारक हैं। यहाँ उत्पन्न होते ही आपने अनुपम, प्रसिद्ध एवं मोक्ष का जो हितकारी मार्ग बतलाया है उसे स्वीकार कर तथा नाना प्रकार का तपकर भव्य जीव समस्त पापकर्मरूपी मल को विधिपूर्वक नष्ट कर पृथ्वी में वन्दनीय होंगे।।४।।
हे प्रणतप्रिय ! हे भक्तवत्सल ! अब आप जन्म-जरा-मरणरूपी रोगों से भयंकर संसाररूपी महादुःख के अपार सागर को पार कर मोक्षस्वरूप, समस्त लोक के उस शिखर को प्राप्त होंगे जहाँ पर उत्कृष्ट सीमा को प्राप्त समस्त गुणों के आधारभूत सिद्ध भगवान् रूप महापरमेष्ठी विराजमान रहते हैं और जिसे मुनिगण उत्कृष्ट, अद्वितीय, अविनाशी एवं आत्महितकारी पद कहते हैं।।५।।
जहाँ का उत्तम, महान् , आत्मगत, निरन्तर उदय में रहने वाला, अन्तरहित और अनन्त बल सम्पन्न सुख महापुरुषों को ही प्राप्त हो सकता है अभव्य जीवों को नहीं। हे स्वामिन् ! आप उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वभाव वाले पदार्थों के निरूपण करने में निपुण शासन का उपदेश करने वाले हैं। इस संसार में समस्त जगत् की प्रभुता से सम्बद्ध एवं इन्द्र, नरेन्द्र आदि देव और मनुष्यों के विशेष महान् अभ्युदयों का कारणभूत जो सुख है वह भी आपके शासन की सेवा से ही प्राप्त होगा, अन्य मतों के आश्रय से नहीं। इसलिए सब आपका ही आश्रय लेवें, इस प्रकार आप के विषय में निश्चय—दृढ़ श्रद्धा को प्राप्त कर जो प्राणी इस पृथ्वी में निर्ग्रन्थ बुद्धि के धारण करने में प्रवीण होते हैं—निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण करते हैं। हे जिनेन्द्र ! वे ही प्राणी इस संसार में कृतकृत्यता को प्राप्त होते हैं।।६-७।।
हे भगवान् ! आप प्रिय एवं सर्वहितकारी वचनों के वैभव से सहित हैं, संसार का अन्त करने वाले हैं, आपने दिशाओं के अन्तराल को सुगन्धित कर दिया है, आप उत्कृष्ट संहनन, उत्कृष्ट संस्थान और उत्कृष्ट रूप से युक्त हैं, आप समस्त लक्षणों से सुशोभित हैं, आपके शरीर का रस रुधिर दूध के समान है, आप रस और भाव को जानने वाले हैं, आपका शरीर मल से रहित है, पसीना से रहित है, आप पृथ्वी में व्याप्त अनन्त बल से सहित हैं।।८।।
आपने संयमरूप आत्मबुद्धि से कामदेव को जीत लिया है। आप सुखरूपी सस्य से परिपूर्ण एवं अत्यन्त रक्षणीय भूमि की रक्षा करने वाले हैं। हे सबके रक्षक भगवन्! इस तरह आप अनन्त गुणों के धारक हैं। हे नाथ ! आपके गुणों की अभिलाषा से हम आपके प्रति नम्रीभूत हैं—आपको नमस्कार करते हैं।।९।।
हे नाथ ! यह अनेकों हजार योजन उँâचा पर्वतों का राजा सुमेरु पर्वत भी मानो आपके योग का साधन हो गया। सो आपके सिवाय प्रचण्ड बुद्धि को धारण करने वाला ऐसा कौन महापुरुष है जो इसे श्रेष्ठ तथा देदीप्यमान स्नानपीठ बना सकने को समर्थ है।।१०।।
हे ईश! यह आपका ऐश्वर्य अपरिमित है, मानरूपी धन के धारक बड़े-बड़े देव तथा मनुष्यों के द्वारा माननीय है। हे जिनेन्द्र! इस संसार में स्वर्ग में उत्पन्न होने वाला भी ऐसा कौन दूसरा माननीय पुरुष है जो आपके समान ऐश्वर्य को प्राप्त कर सके।।११।।
हे भगवन्! बाल्यकाल में भी आप लोकोत्तर पराक्रम के धारक हैं, प्राणियों के हितकारक हैं, तीनों लोकों के द्वारा स्तुत्य हैं तथा आप नूतन भक्ति से भार से नम्रीभूत मनुष्यों के लिए शारीरिक और मानसिक सुख के करने वाले हैं।।१२।।
हे प्रभो! आप कामरूपी गजराज को नष्ट करने के लिए िंसह के समान हैं इसलिए आपको नमस्कार हो। आप क्रोधरूपी महानाग को वश में करने के लिए पक्षिराज गरुड़ के समान हैं इसलिए आपको नमस्कार हो। आप मानरूपी पर्वत को चकनाचूर करने के लिए वङ्का के समान हैं इसलिए आपको नमस्कार हो और आप लोभरूपी महावन को भस्म करने के लिए दावानल के समान हैं इसलिए आपको नमस्कार हो।।१३।।
आप ईश्वरता के धारण करने में धीर-वीर हैं अतः आपको नमस्कार हो। हे देव! आप विष्णुता से युक्त हैं अतः आपको नमस्कार हो। आप अर्हन्तरूप अचिन्त्य पद के स्वामी हैं अतः आपको नमस्कार हो और आप ब्रह्म पद को प्राप्त करने वाले हैं अतः आपको नमस्कार हो।।१४।।
इस प्रकार सत्य वचनों के समूह से देवों ने भगवान् की स्तुति कर उन्हें प्रणाम किया तथा भयंकर संसार से पार करने वाले भगवान् से उन्होंने यही एक वर माँगा कि हे भगवन् ! हम लोगों को उत्तम बोधि की प्राप्ति हो।।१५।।
अथानन्तर खेद रहित एवं विशाल बुद्धि के धारक देव सन्तोष की अधिकता से आकाश में जिन शंखों को अधिक मात्रा में पूँâक रहे थे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो अमृत के महासागर के मथने से जो अत्यन्त शुद्ध अमृत का पिण्ड निकला था उसे अधिक मात्रा में पी जाने के दोष से देव लोग चिरकाल तक पचा नहीं सके इसलिए उन्होंने उगल दिया हो उसी पीयूष-पिण्ड के टुकड़े हों। शंखों के शब्दों के साथ-साथ बजाए जाने वाले अत्यधिक गम्भीर ध्वनि से युक्त भेरी, मृदंग तथा पटह आदि को एवं अधिक मात्रा में बजने वाली बाँसुरी और वीणा के शब्द, ‘श्री जिनेन्द्र भगवान् के जन्माभिषेक का उत्सव हो चुका है’ इसकी घोषणा करने के लिए ही मानो जब समस्त लोक के अन्त तक एवं समस्त दिशाओं के अन्तराल में व्याप्त होने के लिए उठ रहे थे और जब विद्याधरों के समूह एवं देवांगनाओं के उन्नत संगीतमय शब्दों से सुन्दर श्रेष्ठ शृंगार, हास्य और अद्भुत रस से परिपूर्ण वाचिक, आंगिक, सात्त्विक और आहार्य इन चार प्रकार के अपने सुन्दर दिव्य अभिनेयों के प्रकट करने में प्रवृत्त अप्सराओं के समूह सुन्दर नृत्य कर रहे थे। तब सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र, सम्भ्रमपूर्वक विभ्रमों से शोभायमान उठते हुए ऐरावत हाथी के कन्धे पर धीर-वीर जिनेन्द्र को विराजमान कर सुमेरु पर्वत से उस शौर्यपुर की ओर चला जो शूरवीरता के पर्वत एवं िंसहों के समान बलवान् यादववंशी राजाओं से अधिष्ठित था। उस समय जिनेन्द्र भगवान् के ऊपर सफेद छत्र सुशोभित हो रहा था, चंचल चमरों की पंक्तियाँ उन पर ढोरी जा रही थीं और प्रकृष्ट गीतों से युक्त अप्सराओं के समूह उनकी अत्यन्त विशुद्ध कीर्ति गा रहे थे। सौधर्मेन्द्र ने उस समय समस्त आकाश को सब प्रकार की सेनाओं से पूर्ण कर रखा था। मार्ग में चलते हुए, हर्ष से परिपूर्ण, प्रणाम, स्तुति तथा संगीत के प्रयोग में लीन प्रसिद्ध देवों के समूह भगवान् का यथायोग्य अभिनन्दन कर रहे थे। त्रिलोकसम्बन्धी इन्द्रों का समूह भगवान् के चरण कमलों की सेवा में तत्पर था और भगवान् उसे महान् आनन्द प्राप्त करा रहे थे। इस प्रकार जो लोकोत्तर एवं अत्यन्त आश्चर्यकारी परम ऐश्वर्य को धारण कर रहे थे, शिवादेवी के पुत्र थे, ‘समृद्धि को प्राप्त होओ’ ‘बढ़ते रहो’ ‘जीवित रहो’ इत्यादि पुण्य शब्दों से उस समय जिनकी स्तुति हो रही थी, कुलाचलों से उत्पन्न अत्यधिक स्वच्छ जल से युक्त महानदियों की तरंगों के संसर्ग से शीतल, भोगभूमि सम्बन्धी कल्पवृक्षों के रंग-बिरंगे पुष्प-समूह के संयोग से आश्चर्यकारी सुगन्धि को धारण करने वाले तथा खेद दूर करने के लिए सम्भ्रमपूर्वक बहुत दूर से सम्मुख आए हुए मित्र के समान, शरीर के अनुकूल मन्द-मन्द समीर से जिनका आलिंगन हो रहा था, जो प्रभु थे, तीर्थंकर थे, कोमल शरीर के धारक थे, जो मन को हरण करने वाले तथा बाल्य अवस्था के अनुरूप वस्त्रों से सुशोभित विशिष्ट आभूषणों से युक्त थे, देदीप्यमान मालाओं से उज्ज्वल थे, बाल कल्पवृक्ष की उत्कृष्ट शोभा को तिरस्कृत करने वाले थे, मेघ के समान श्याममूर्ति के धारक थे, सफेद एवं उत्कृष्ट गन्ध से युक्त उत्तम चन्दन से लिप्त थे और इसके कारण जो उदित होती हुई सघन चाँदनी से आिंलगित प्रगाढ़ इन्द्रनीलमणि के पर्वत की शोभा को धारण कर रहे थे और देवों की सेना से आवृत थे ऐसे नेमिजिनेन्द्र शीघ्र ही उत्तर दिशा को उल्लंघ कर अपने उस शौर्यपुर नगर में जा पहँुचे जहाँ की दिशाओं का अन्तराल और आकाश उँâची-उँâची ध्वजाओं के समूह तथा वादित्रों की गम्भीर ध्वनि से व्याप्त था, जहाँ के बड़े-बड़े मार्ग, दिव्य और सुगन्धित जल की वृष्टि से सींचे जाकर फूलों की पड़ती हुई वर्षा से रुके हुए थे, जो लक्ष्मी का भण्डार था तथा मंगलाचारमय विधि-विधान से सुन्दर था, उस समय भगवान् नेमिनाथ पृथ्वी पर समस्त लोगों को आश्चर्य में डालने वाले आश्चर्य को प्रकट कर रहे थे।
बालक होने पर भी जिनकी शोभा बालकों जैसी नहीं थी अर्थात् जो प्रकृति से वयस्क के समान सुन्दर थे। जो कृष्ण तथा सौर्यपुर की प्रजारूपी शोभायमान कमलिनी को विकसित करने के लिए बालसूर्य थे और जो अतिशय ऊँचे ऐरावत—गजराज के मस्तक पर विराजमान थे ऐसे जिनबालकों को लेकर इन्द्र ने उन्हें माता की गोद में दिया। तदनन्तर विक्रिया शक्ति से युक्त इन्द्र ने स्वयं देदीप्यमान कन्धों की शोभा को पुष्ट करने वाली हजार भुजाएँ बनाकर उन्हें पैâलाया तथा उन पर अत्यधिक सौन्दर्य से युक्त नाना प्रकार का नृत्य करने वाली हजारों देवियों को धारण किया। तत्पश्चात् इस लीला को जब सामने बैठै हुए यादव लोग बड़े हर्ष से देख रहे थे तथा अपने हृदय में जब इसे समस्त पृथ्वी के स्वामित्व के लाभ से भी अधिक समझ रहे थे तब राज्य में दक्ष इन्द्र ने महानन्द नाम का वह उत्तम नाटक किया जिसने सबके नेत्रों को विस्तृत कर दिया था अर्थात् जिसे सब टकटकी लगाकर देख रहे थे। उत्सवपूर्वक प्रारम्भ किए हुए उत्तम ताण्डव नृत्य की अखण्ड शोभा के प्रयोग से सहित था, नाना प्रकार के वादित्रों की जातियों के समूह से जिसमें अभिनेय अंश वृद्धि को प्राप्त हो रहे थ्ो, जो भौंहों के क्षोभ की लीला से सहित था, दिङ्मण्डल के भेद से सहित था, पृथ्वी के प्रताप से सहित था और नाना रसों के कारण जिसमें उदार भाव प्रकट हो रहा था।
तदनन्तर इन्द्र ने भगवान् के माता-पिता को प्रणाम किया, उनकी पूजा की, अन्य मनुष्यों के लिए दुष्प्राप्य अमूल्य आभूषण आदि से उन्हें विभूषित किया, रक्षा के निमित्त जिनेन्द्र के दाहिने हाथ के अँगूठे में अमृतमय मुख्य आहार निक्षिप्त किया। क्रीडा के लिए भगवान् की समान अवस्था को धारण करने वाले देवकुमारों को उनके पास नियुक्त किया, कुबेर को यह आज्ञा दी कि तुम भगवान की अवस्था, काल और ऋतु के अनुकूल उनके कल्याण के योग्य समस्त व्यवस्था करना। इस प्रकार इन्द्र यह आज्ञा देकर भगवान् के माता-पिता से पूछकर तथा उनकी आज्ञा प्राप्त कर अपने आपको कृतकृत्य मानता हुआ चार निकाय के देवों से अनुगत समस्त इन्द्रों के साथ जैसा आया था वैसा चला गया। इन्द्र की यात्रा सफल हुई।
तदनन्तर अपना-अपना कार्य पूरा कर दिक्कुमारी देवियों ने आर्यपुत्री, जिनबालक सहित माता शिवादेवी के पास आकर उन्हें प्रणाम किया और उसके बाद वे प्रकृष्ट हर्ष से युक्त अपने शरीर की प्रभाओं से दशों दिशाओं को देदीप्यमान करती हुई अपने-अपने स्थानों पर चली गयीं। इधर गुणसमूहरूपी किरणों के समूह से समस्त जगत् को आनन्दित करने वाले, बालक होने पर भी वृद्ध जैसी क्रिया से युक्त बन्धुवर्ग तथा देवों के द्वारा लालित नेमिजिनेन्द्ररूपी चन्द्रमा दिन-प्रतिदिन बढ़ते हुए लक्ष्मी से सुशोभित होने लगे।
गौतम स्वामी कहते हैं कि वह स्तवन उन नेमिजिनेन्द्र के जन्माभिषेक से सम्बन्ध रखने वाला है जिनके सातिशय प्रभाव ने तीनों लोकों को व्याप्त कर रखा है, जो पाप को दूर करने वाले हैं, एक पुण्य का ही मार्ग बताने वाले हैं, संसार में सारभूत हैं, मोक्ष के निकट हैं, भव्य जीवों को हर्ष उत्पन्न करने वाले हैं, प्रमाद को हरने वाले हैं, धर्म का उपहार देने वाले हैं, सब लोग बड़े हर्ष से जिनका नाम श्रवण करते हैं, जिनका स्मरण करते हैं और जिनका अच्छी तरह कीर्तन करते हैं। पढ़ा गया, सुना गया और सदा चिन्तवन किया गया वह स्तोत्र इस लोक में साक्षात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यव्âचारित्ररूपी सम्पत्ति को करता है, मानसिक और शारीरिक सुख प्रदान करता है, शान्ति करता है, पुष्टि करता है, तुष्टि और सम्पत्ति को सम्पन्न करता है तथा परलोक में अनेक कल्याणों की प्राप्ति में कारणभूत उत्कृष्ट पुण्यास्रव का स्वयं कारण है, समस्त पाप कर्मों के हजारों प्रकार के आस्रवों का निवारण करता है और पूर्वभव में सर्वदा स्नेह तथा मोह आदि भावों से संचित भयंकर से भयंकर पापों का नाश करता है। यह मुख्य स्तोत्र जिनेन्द्र भगवान् में सातिशय भक्ति उत्पन्न करे।
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश
पुराण में जन्माभिषेक के समय इन्द्र द्वारा कृत स्तुति का वर्णन करने
वाला उनतालीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ।।३९।।