उन्होंने थोड़ी कड़ी आवाज में कहा- ‘‘मैंने आपसे पूछा कि आपने पैसे दिये या नहीं दिये, मैंने तोे माँगे भी नहीं।’’ मुझे बहुत हैरानी हुई, कैसा दुकानदार है। खैर मैं चुप रही। धीरे-धीरे उनसे परिचय बढ़ता गया वो साधारण दुकानदार नहीं हैं। बहुत ज्ञान और ध्यान की बात करते हैं। धार्मिक विषयों पर चर्चा करते हैंं उनका चेहरा उनकी बातचीत और जीवनशैली राजपूतों जैसा भी नहीं है। स्वयं भी बहुत साधना करते हैं और साधना का तेज उनके चेहरे पर साफ दिखता है। आप उनकी दुकान से कितना भी सामान ले सकते हो, आपके पास पैसे हैं तो दे दो, नहीं है तो न दो। कब दोगे, वो आपसे नहीं पूछेंगे। एक बार कुछ महिलाएं आर्इं। उन्होंने कहा कि अपने मुहल्ले के मंदिर के लिए उन्हें भगवान कृष्ण के लिए पोशाक चाहिए लेकिन अभी ये तय नहीं कि क्या और कितना लेना है, क्योंकि पूरी कमेटी देखकर पास करेगी। जन्माष्टमी का मौका था। उन्होंने दस-बारह पोशाके उठा लीं और चली गई। उनके जाने के बाद मैंने पूछा, त्यौहार के मौके पर आपने इतनी पोशाके ले जाने दीं, कोई एडवांस भी नहीं लिया, सिक्योरिटी भी नहीं ली। वो धीरे से मुस्करा कर बोले- भगवान के ही तो वस्त्र हैं। यदि कमेटी चुन कर अपने मनपसंद वस्त्र उन्हें पहना देगी तो मेरा क्या जाएगा। पैसे का क्या है, कभी भी आ जाएँगे। और वो महिलाएँ पहली बार धर्मेन्द्र जी की दुकार पर आई थीं। नवरात्रों के अवसर पर एक बार मैं उनकी दुकान पर गयी। नवरात्र शुरू होने से पहले ही उनकी दुकान पर भीड़ लगनी शुरू हो जाती है। कई बार लंबा इंतजार भी करना पड़ता है। उन्हें लिस्ट थमा कर हम इंतजार कर रहे थे। इसी बीच एक व्यक्ति आया, उसने धर्मेन्द्र जी को २१ हजार रूपये दिये और कहा- ‘‘माफ करना भाई सहाब, पिछले नवरात्र में दुर्गा पूजन के लिए आपसे २१ हजार रूपये का सामान ले गया था, लेकिन आने का समय ही नहीं मिला, अब लाया हूँ।’’ धर्मेन्द्र जी ने एक भी सवाल नहीं पूछा, उल्टा कहा, ‘‘अच्छा, मुझे याद नहीं’’ रूपये लिए और रख लिए। ये मेरे लिए एक और झटका था, मुझसे रहा नहीं गया। भीड़ छँटने के बाद मैंने पूछा, लोग हजारों का सामान ले जाते हैं और आप न याद रखते हैं और न तकादा करते हैं। उन्होंने उस दिन मुझे जो उत्तर दिया, वो बहुत ही दार्शनिक था- ‘देखिए, ये भगवान के सामान की दुकान है, जो सामान लेकर पैसे दे जाता है, उसका पुण्य, जो नहीं देता, मेरा पुण्य।’ इसके आगे मैं उनसे क्या सवाल करती। उन्होंने इतनी बड़ी बात कह दी। सही मायने में वो धार्मिक सामान की दुकान चलाते हैं। पूर्ण भाव से भगवान को समर्पित। आज सुनहरी मार्केट में उनकी पाँच दुकानें हैं। अब तो उन्होंने पूजा के सामान के अलग-अलग स्टोर बना दिए हैं। हमें नोएडा से दिल्ली शिफ्ट किए हुए सात साल हो गए हैं। आज भी पूजा का सामान धर्मेन्द्र जी की दुकान से ही आता है। कई बार तो मैं फोन करके सामान लिखवा देती हूँ तो वो मेरे फिल्मसिटी स्थित १६ सेक्टर (जी-न्यूज) के ऑफिस भिजवा देते हैं। पैसे माँगने का तो सवाल ही नहीं, कभी भी दूँ या ना दूँ। आजकल ऐसे लोग बहुत कम हैं।