इस युग में चतुर्थ काल प्रारंभ होने के पहले ही भगवान ऋषभदेव को केवलज्ञान होने के बाद ही उनके ही पुत्र वृषभसेन, जो कि पुरिमताल नगर के राजा थे, वे प्रभु से मुनि दीक्षा लेकर भगवान के प्रथम गणधर हो गये तथा भगवान की ही पुत्री ब्राह्मी, जो कि भरत चक्री की छोटी बहन थी, वह भी विरक्त होकर गुरुदेव की कृपा से दीक्षित होकर आर्यिका हो गई और बाहुबली की छोटी बहन सुन्दरी भी आर्यिका हो गई। ये ब्राह्मी समस्त आर्याओं में गणिनी-स्वामिनी थीं। अन्यत्र भी कहा है-धैर्य से युक्त ब्राह्मी और सुन्दरी नामक दोनों कुमारियाँ अनेक स्त्रियों के साथ दीक्षा ले आर्यिकाओं की स्वामिनी बन गईं।
भरत के सेनापति जयकुमार की दीक्षा के बाद सुलोचना ने भी ब्राह्मी आर्यिका के पास दीक्षा धारण कर ली। अन्यत्र भी कहा है-
दुष्ट संसार के स्वभाव को जानने वाली सुलोचना ने अपनी सपत्नियों के साथ श्वेत साड़ी धारणकर ब्राह्मी तथा सुन्दरी के पास दीक्षा धारण कर ली। मेघेश्वर जयकुमार शीघ्र ही द्वादशांग के पाठी होकर भगवान के गणधर हो गये और सुलोचना आर्यिका भी ग्यारह अंगोें की धारक हो गई।
आर्यिकाओं या गणिनी से दीक्षा लेने के विषय में और भी अनेकों प्रमाण हैं-
कुवेरमित्र की स्त्री धनवती ने स्वामिनी अमितमती के पास दीक्षा धारण कर ली और उन यशस्वती और गुणवती आर्यिकाओं की माता कुबेरसेना ने भी अपनी पुत्री के समीप दीक्षा ले ली।’’
वनवास के प्रसंग में जब मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र ने यह सुना कि कलिंगाधिपति अतिवीर्य राजा भरत के राज्य पर चढ़ाई करने वाला है, तब अतिवीर्य को पराजित करने का उपाय सोचा-
दूसरे दिन डेरे से निकलकर राम ने आर्यिकाओं से सहित जिनमंदिर देखा, सो हाथ जोड़कर बड़ी भक्ति से उसमें प्रवेश किया। वहाँ जिनेन्द्र भगवान को तथा आर्यिकाओं को नमस्कार किया, वहाँ आर्यिकाओं की जो वरधर्मा नाम की गणिनी थीं उनके पास सीता को रखा तथा सीता के पास ही अपने सब शस्त्र छोड़े।
वेष बदलकर श्रीराम और लक्ष्मण दोनों ही अतिवीर्य की सभा में पहुँचकर उसे पकड़कर हाथी पर सवार हो अपने परिजन के साथ वापस जिनमंदिर में आ गये। वहाँ हाथी से उतरकर मंदिर में प्रवेश कर जिनेन्द्र भगवान की बड़ी भारी पूजा की। मंदिर में सर्वसंघ के साथ जो वरधर्मा नाम की गणिनी ठहरी हुई थीं, रामचन्द्र ने सीता के साथ संतुष्ट होकर उनकी भी भक्तिपूर्वक पूजा की।
इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि पूर्व काल में भी आर्यिकाएँ जिनमंदिर में रहती थीं और बलभद्र, नारायण आदि महापुरुष भी उनकी वंदना-पूजा किया करते थे।
‘‘रावण के मरण के बाद मन्दोदरी शशिकान्ता आर्यिका के मनोहारी वचनों से प्रबोध को प्राप्त हो उत्कृष्ट संवेग और उत्तम गुणों को प्राप्त हुई गृहस्थ वेष-भूषा को छोड़कर श्वेत साड़ी से आवृत्त हुई आर्यिका हो गई। उस समय अड़तालीस हजार स्त्रियों ने संयम धारण किया था। इन्हीं में रावण की बहन, जो कि खरदूषण की पत्नी थी, उस चन्द्रनखा ने भी दीक्षा ले ली थी।
माता वैâकेयी भरत की दीक्षा के बाद विरक्त हो एक सफेद साड़ी से युक्त होकर तीन सौ स्त्रियों के साथ ‘‘पृथिवीमती’’ आर्यिका के पास दीक्षित हो गई थीं।’’
अग्निपरीक्षा के बाद श्री रामचन्द्र ने सीता को घर चलने के लिए कहा तब सीता ने कहा कि अब मैं जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूँगी’’ वहीं केशलोच करके पुन: शीघ्र ही पृथिवीमती आर्यिका के पास दीक्षित हो गईं।’’
उनके बारे में लिखा है कि वह वस्त्रमात्र परिग्रहधारिणी, महाव्रतों से पवित्र अंग वाली महासंवेग को प्राप्त थीं।
हनुमान विरक्त होकर धर्मरत्न मुनिराज के समीप मुनि हो गये, तब उनके साथ सात सौ पचास विद्याधर राजाओं ने भी दीक्षा ले ली।
उसी समय शीलरूपी आभूषणों को धारण करने वाली राजस्त्रियों ने बंधुमती आर्यिका के पास दीक्षा ले ली।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र ने श्रीसुव्रत मुनिराज से दीक्षा धारण की थी, उस समय कुछ अधिक सोलह हजार साधु हुए और सत्ताईस हजार स्त्रियाँ ‘‘श्रीमती’’ नामक आर्यिका के पास आर्यिका हुईं।
सीता के आर्यिका जीवन का वर्णन करते हुए जैन रामायण में बताया है कि धूलि से मलिन वस्त्र से जिनका वक्षस्थल तथा शिर के बाल सदा आच्छादित रहते थे, जो स्नान के अभाव में पसीना से उत्पन्न मैलरूपी कंचुक को धारण कर रही थी, जो चार दिन, पक्ष आदि के उपवास करती थी, शीलव्रत और मूलगुणों के पालन में तत्पर-अध्यात्म के चिंतन में लीन रहती थी, विहार के समय उसे अपने और पराये लोग भी नहीं पहचान पाते थे, इस प्रकार बासठ वर्ष तक उत्कृष्ट तप करके तथा पैंतीस दिन की उत्तम सल्लेखना धारण करके वह आर्यिका सीता इस शरीर को छोड़कर आरण-अच्युत युगल के प्रतीन्द्र पद को प्राप्त हो गई अर्थात् स्त्रीलिंग को छोड़कर प्रतीन्द्र हो गई।
किसी समय कनकोदरी महादेवी पट्टरानी ने अभिमानवश सौत के प्रति क्रोध करने से गृहचैत्यालय की जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा को कुछ क्षणों के लिए बावड़ी में डाल दिया था, इसी बीच में संयमश्री नामक आर्यिका ने आहार के लिए उसके घर में प्रवेश किया। संसार में प्रसिद्ध महातपस्विनी संयमश्री ने जिनेन्द्र की प्रतिमा का अनादर देखकर दु:खी होकर आहार का त्याग कर दिया और कनकोदरी को उपदेश देना शुरू किया तथा कहा कि यदि मैं तुझे न सम्बोधन करूँ तो मुझे भी प्रमाद का बहुत बड़ा दोष होगा। तूने नरक-निगोदों में निवास कराने वाला ऐसा महापाप किया, अब उससे विरत हो।’ इत्यादि उपदेश सुनकर कनकोदरी संसार के दु:खों से डर गयी और आर्यिकाश्री से सम्यक्त्व और श्रावक के व्रत ले लिये। प्रतिमाजी को पूर्व स्थान में विराजमान करके नाना प्रकार से उसकी पूजा करके प्रायश्चित्त आदि किया। कालांतर में वही अंजना हुई, तब उसी पाप के फल से उसे बाईस वर्ष तक पति का वियोग सहना पड़ा था।’’
भगवान नेमिनाथ को केवलज्ञान होने के बाद समवसरण रचना हो गई। उस समय राजा वरदत्त ने प्रभु से दीक्षा लेकर गणधर पद प्राप्त किया और राजीमती भी छह हजार रानियों के साथ दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी हो गईं।
राजा चेटक की पुत्री चन्दना कुमारी एक स्वच्छ वस्त्र धारणकर (भगवान महावीर के समवसरण में) आर्यिकाओं में प्रमुख हो गईं।
रानी चेलना राजा श्रेणिक की मृत्यु के बाद भगवान के समवसरण में चन्दना गणिनी के पास जाकर दीक्षित हो गईं, जो कि चन्दना की बड़ी बहन थीं।
जीवन्धर कुमार ने अपने मामा और नन्दाढ्य आदि जनों के साथ भगवान के समवसरण में दीक्षा ले ली और उनकी आठों रानियों ने भी महादेवी विजया के साथ चन्दना आर्यिका के पास उत्तम संयम धारण कर लिया।
आर्यिकाओं के संघ की एक नवदीक्षित आर्यिका ने पाँच यारों के साथ लताकुंज में एक वेश्या को प्रवेश करते हुए देखा, एक क्षण के लिए मन में यह भाव आ गया कि ऐसा सुुख हमें भी प्राप्त हो, तत्पश्चात् गणिनी के पास जाकर आलोचना करके प्रायश्चित्त ग्रहण कर लिया और सल्लेखना से मरण किया फिर भी जन्मान्तर में द्रौपदी की अवस्था में स्वयंवर मंडप में उसने मात्र अर्जुन के गले में माला डाली थी किन्तु हवा से माला का धागा टूट जाने से पाँचों पांडवों पर फूल गिर गये, उस समय लोगों ने चर्चा कर दी कि द्रौपदी ने पाँच पति चुने हैं। ऐसा झूठा अपवाद उसे उतने मात्र भावों से हुआ।’’
गुणरूपी आभूषण को धारण करने वाली कुन्ती, सुभद्रा तथा द्रौपदी ने भी राजीमती गणिनी के पास उत्कृष्ट दीक्षा ले ली। अन्त में तीनों के जीव सोलहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुए हैं। आगे वहाँ से च्युत होकर नि:संदेह मोक्ष को प्राप्त करेंगे।
कुन्ती, द्रौपदी तथा सुभद्रा आदि जो स्त्रियाँ थीं, सब राजीमती आर्यिका के समीप तप में लीन हो गईं।
इन सब उदाहरणों से यह देखना है कि पूर्व में आर्यिकाएँ ही आर्यिका दीक्षा देती थीं। सबसे प्रथम तीर्थंकर देव के समवसरण में जो आर्यिका दीक्षित होती थीं, वे ही गणिनी के भार को संभालती थीं। तीर्थंकर देव के अतिरिक्त किन्हीं आचार्य द्वारा आर्यिका दीक्षा के उदाहरण आगम में प्राय: कम मिलते हैं तथा इन आर्यिकाओं की दीक्षा के लिए जैनेश्वरी दीक्षा शब्द भी आया है। इन्हें ‘‘महाव्रतपवित्रांगा’’ भी कहा है और इन्हें ‘‘संयमिनी’’ संज्ञा भी दी है। श्रमणी, साध्वी आदि भी नाम कहे हैं। ये आर्यिकाएँ इन्द्र, चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण आदि महापुरुषों द्वारा भी वंदनीय रही हैं।
जब आर्यिकाओं के व्रत को उपचार से महाव्रत कहा है और सल्लेखना काल में उपचार से निर्ग्रन्थता का आरोपण किया है, तब वे मुनियों के समान भी वंदनीय क्यों नहीं होंगी ? अवश्य होंगी। ऐसा समझकर आगम की मर्यादा को पालते हुए आर्यिकाओं की नवधाभक्ति करके उन्हें आहारदान देना चाहिए और समयानुसार यथोचित भक्ति करना, उन्हें पिच्छी, कमण्डलु, शास्त्र, वस्त्र (सफेद साड़ी) आदि दान भी देना चाहिए।
आजकल कुछ लोग कहते हैं कि आर्यिकाओं की ‘नवधाभक्ति-पूजा आदि नहीं करना चाहिए, उन्हें सोचना चाहिए कि जब स्वयं श्री कुन्दकुन्द देव ने कह दिया कि इनकी सब चर्या मुनि के समान है केवल वृक्षमूलयोग आदि को छोड़कर तथा रामचन्द्र जैसे महापुरुषों ने भी आर्यिकाओं की पूजा की, पुन: शंका ही क्या रहती है ? अत: आर्यिकाओं को अट्ठाईस मूलगुणधारिणी, उपचार-महाव्रतसहित मानकर उनकी नवधाभक्ति आदि में प्रमाद नहीं करना चाहिए।
गणिनी आर्यिका ब्राह्मी-सुन्दरी-
आदि ब्रह्मा तीर्थंकर ऋषभदेव के दो रानियाँ थीं-यशस्वती और सुनन्दा। बड़ी रानी यशस्वती ने भरत, वृषभसेन आदि सौ पुत्रों को जन्म दिया, पश्चात् एक कन्या को जन्म दिया जिसका नाम ब्राह्मी रक्खा गया। सुनन्दा के कामदेव बाहुबली पुत्र हुए और एक कन्या हुई जिसका नाम सुन्दरी रक्खा गया। ये दोनों कन्यायें अपनी बालक्रीड़ा से सभी के मन को हरण करती रहती थीं। क्रम-क्रम से इन कन्याओं ने किशोरावस्था को प्राप्त कर लिया।
एक समय तीर्थंकर ऋषभदेव सिंहासन पर सुख से बैठे हुए थे। ये दोनोें पुत्रियाँ मांगलिक वेषभूषा में पिता के निकट पहुँचीं। विनय के साथ उन्हें प्रणाम किया। तब तीर्थंकर ऋषभदेव ने शुभ आशीर्वाद देकर उन दोनों पुत्रियों को उठाकर प्रेम से अपनी गोद में बिठा लिया। उनके मस्तक पर हाथ फेरा, हँसकर बोले—
‘‘आओ बेटी! तुम समझती होंगी कि हम आज देवों के साथ अमरवन को जायेंगे परन्तु अब तुम नहीं जा सकती क्योंकि देवलोग पहले ही चले गये।’’ इत्यादि प्रकार से कुछ क्षण हास्य-विनोद के बाद प्रभु ने कहा—
‘‘पुत्रियों! तुम दोनों शील और विनय आदि गुणों के कारण इस किशाेरावस्था में भी वद्धा के समान हो। तुम दोनों का यह शरीर, यह अवस्था और यह अनुपम शील यदि विद्या से विभूषित कर दिया जाए तो तुम दोनों का यह जन्म सफल हो सकता है। इसलिए हे पुत्रियों! तुम विद्या ग्रहण करने में प्रयत्न करो क्योंकि तुम्हारे विद्या ग्रहण करने की यही उम्र है।’’
तीर्थंकर ऋषभदेव ने ऐसा कहकर तथा बार-बार आशीर्वाद देकर अपने चित्त में स्थित श्रुतदेवता को आदरपूर्वक सुवर्ण के विस्तृत पट्टे पर स्थापित किया पुन: ‘सिद्धं नम:’ मंगलाचरण करके अपनी दाहिनी तरफ बैठी हुई ब्राह्मी को दाहिने हाथ से ‘‘अ आ इ ई’’ आदि वर्णमाला लिखकर लिपि लिखने का उपदेश दिया और बाईं तरफ बैठी सुन्दरी पुत्री को बायें हाथ से १, २ ,३ आदि अंक लिखकर गणित विद्या को सिखाया। इस प्रकार ब्राह्मी पुत्री ने आदिब्रह्मा पिता के मुख से स्वर-व्यंजन युक्त विद्या सीखी, इसी कारण आज वर्णमालालिपि की ब्राह्मीलिपि कहते हैं तथा सुन्दरी ने गणित शास्त्र को अच्छी तरह से सीखा था। वाङ्मय के बिना न तो कोई शास्त्र है और न कोई कला है। व्याकरण शास्त्र, छन्द शास्त्र और अलंकार शास्त्र इन तीनों के समूह को वाङ्मय कहते हैं।
उन दोनों पुत्रियों ने सरस्वती देवी के समान अपने पिता के मुख से संशय, विपर्यय आदि दोषों से रहित शब्द तथा अर्थपूर्ण समस्त वाङ्मय का अध्ययन किया था। उस समय स्वयंभू ऋषभदेव का बनाया हुआ एक बड़ा भारी व्याकरण शास्त्र प्रसिद्ध हुआ था। उसमें सौ से भी अधिक अध्याय थे और वह समुद्र के समान अत्यन्त गम्भीर था। प्रभु ने अनेक अध्यायों में छन्दशास्त्र का उपदेश दिया था और उसके उक्ता, अत्युक्ता आदि छब्बीस भेद भी दिखलाये थे। अनेक विद्याओं के अधिपति भगवान ने प्रस्तार, नष्ट, उद्दिष्ट, एकद्वित्रिलघुक्रिया, संख्या और अध्वयोग, छन्दशास्त्र ने इन छह प्रत्ययों का भी निरूपण किया था। प्रभु ने अलंकार संग्रह गं्रथ में उपमा, रूपक, यमक आदि अलंकारों का कथन किया था। उनके शब्दालंकार और अर्थालंकार रूप दो भागों का विस्तार के साथ वर्णन और माधुर्य, ओज आदि दश प्राण (गुणों) का भी निरूपण किया था।
अनंतर ब्राह्मी और सुन्दरी दोनों पुत्रियों की पदज्ञान-व्याकरणज्ञानरूपी दीपिका से प्रकाशित हुई समस्त विद्यायें और कलायें अपने आप ही परिपक्व अवस्था को प्राप्त हो गई थीं। इस प्रकार गुरु अथवा पिता के अनुग्रह से समस्त विद्याओं को प्राप्त कर वे दोनों इतनी अधिक ज्ञानवती हो गई थीं कि साक्षात् सरस्वती भी उनमें अवतार ले सकती थी।
जगद्गुरु ऋषभदेव ने इसी प्रकार अपने एक सौ पुत्रों को भी सर्वविद्या और कलाओं में पारंगत कर दिया था। इसके बाद आदिप्रभु ऋषभदेव असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन ६ कर्मों द्वारा प्रजा को आजीविका के उपाय बतलाकर प्रजापति, ब्रह्मा, विधाता, स्रष्टा आदि नामों से पुकारे गये थे।
एक समय नीलांजना के नृत्य को देखते हुए प्रभु को वैराग्य प्राप्त हो गया और स्वयंबुद्ध हुए प्रभु लौकांतिक देवों के द्वारा स्तुति को प्राप्त करके स्वयं ‘‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’’ मंत्रोच्चारण- पूर्वक मुनि बन गये। छह महीने का योग धारण कर लिया। उसके बाद जब चर्या के लिए निकले, तब किसी को भी आहार विधि का ज्ञान न होने से प्रभु को छह महीने तक आहार नहीं मिला। अनंतर हस्तिनापुर में राजा श्रेयांसकुमार को जातिस्मरण द्वारा आहार विधि का ज्ञान हो जाने से यहाँ उन्होंने वैशाख सुदी तीज के दिन प्रभु को इक्षुरस का आहार दिया था। दीक्षा के अनंतर एक हजार वर्ष तक तपश्चरण करने के बाद तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव को पुरिमतालपुर के बाहर उद्यान में केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। उसी समय देवों ने समवसरण की रचना कर दी।
पुरिमताल नगर के स्वामी वृषभसेन समवसरण के प्रभु का दर्शन करके दैगम्बरी दीक्षा लेकर भगवान के प्रथम गणधर हो गये। उसी क्षण सात ऋद्धियों से विभूषित और मन:पर्ययज्ञान से सहित हो गये। उसी समय सोमप्रभ, श्रेयांस आदि राजा भी दीक्षा लेकर भगवान के गणधर हुए थे।
ब्राह्मी की दीक्षा—भरत की छोटी बहन ब्राह्मी गुरुदेव की कृपा आर्यिका दीक्षा लेकर वहाँ समवसरण में सभी आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी स्वामिनी हो गईं। बाहुबली की बहन सुन्दरी ने भी उसी समय आर्यिका दीक्षा धारण कर ली। हरिवंशपुराण में सुन्दरी आर्यिका को भी ब्राह्मी के साथ गणिनीरूप में माना है। उस काल में अनेक राजाओं ने तथा राजकन्याओं ने दीक्षा ली थी। भगवान के साथ जो चार हजार राजा दीक्षित हो भ्रष्ट हो गये थे उनमें मरीचिकुमार को छोड़कर शेष सभी ने समवसरण में दीक्षा ले ली थी।
उसी काल में भरत को एक साथ तीन समाचार मिले—पिता को केवलज्ञान की प्राप्ति, आयुधशाला में चक्ररत्न की उत्पत्ति और महल में पुत्ररत्न की प्राप्ति। भरत ने पहले समवसरण में पहुँचकर भगवान ऋषभदेव की पूजा की, अनंतर चक्ररत्न की पूजा कर पुत्र का जन्मोत्सव मनाया। बाद में दिग्विजय के लिए प्रस्थान कर दिया।
भगवान ऋषभदेव के समवसरण में चौरासी गणधर थे। चौरासी हजार मुनि, ब्राह्मी आदि तीन लाख, पचास हजार आर्यिकायें थीं। दृढ़व्रत आदि तीन लाख श्रावक और सुव्रता आदि पाँच लाख श्राविकायें थीं।
इस प्रकार भगवान के समवसरण में जितनी भी आर्यिकायें थीं, सबने गणिनी ब्राह्मी आर्यिका से ही दीक्षा ली थी। जैसा कि सुलोचना के बारे में भी आया है। जयकुमार के दीक्षा लेने के बाद सुलोचना ने भी ब्राह्मी आर्यिका से दीक्षा ले ली।
आज जो किंवदन्ती चली आ रही है कि ब्राह्मी-सुंदरी ने पिता से पूछा— ‘‘पिताजी! इस जगत में आपसे बड़ा भी कोई है क्या?’’ तब पिता ऋषभदेव ने कहा—हाँ बेटी, जिसके साथ हम तुम्हारा विवाह करेंगे उसे हमें नमस्कार करना पड़ेगा, उसके पैर छूना पड़ेगा। इतना सुनकर दोनों पुत्रियों ने यह निर्णय किया कि हमें ब्याह नहीं करना है, हम ब्रह्मचर्यव्रत ले लेंगे।
यह किंवदन्ती बिल्कुल गलत है। किसी भी दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थ में यह बात नहीं आई है। तीर्थंकरों का स्वयं का विवाह होता है तो भी वे अपने स्वसुर को नमस्कार नहीं करते यहाँ तक कि वे अपने माता-पिता को भी नमस्कार नहीं करते थे। तीर्थंकर शांतिनाथ चक्रवर्ती थे। उनके ९६००० रानियों की पुत्रियाँ भी होंगी, सभी कुमारिकायें ही नहीं रहीं होंगी। विवाह के बाद जमाई के चरण छूना जरूरी नहीं है। भरत चक्रवर्ती आदि सम्राट भी अपनी कन्या को विवाहते थे किन्तु वे जमाई आदि किसी के पैर नहीं छूते थे प्रत्युत सब लोग उन्हीं के चरण छूते थे। अत: यह िंकवदन्ती गलत है। ब्राह्मी-सुन्दरी ने स्वयं के वैराग्य से विवाह नहीं किया था।
दूसरी किंवदन्ती यह है कि जब बाहुबली ध्यान में खड़े थे, उन्हें केवलज्ञान नहीं हुआ, तब ब्राह्मी सुन्दरी ने जाकर सम्बोधन किया—भैया! गज से उतरो। यह भी गलत है क्योंकि भगवान को केवलज्ञान होते ही ब्राह्मी सुन्दरी ने दीक्षा ले ली थी। तभी भरत को चक्ररत्न की प्राप्ति हुई थी। बाद में भरत ने ६० हजार वर्ष तक दिग्विजय किया है। इसके बाद भरत-बाहुबली का युद्ध होकर बाहुबली ने दीक्षा ली है। वहाँ भी भरत के नमस्कार करते ही बाहुबली को केवलज्ञान प्रगट हुआ, ऐसी बात है, न कि ब्राह्मी-सुन्दरी के सम्बोधन की। अत: प्रत्येक व्यक्ति को भगवान ऋषभदेव, भरत-बाहुबली एवं ब्राह्मी-सुन्दरी से संबंधित जानकारियों के लिए आदिपुराण का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।
आर्यिका सुलोचना-
इसी भरत क्षेत्र में काशी नाम का देश है। उसमें एक वाराणसी नाम की नगरी है। तीर्थंकर ऋषभदेव के द्वारा राज्य को प्राप्त राजा अकम्पन उस नगरी के स्वामी थे। इनके सुप्रभा नाम की देवी थी। नाथवंश के अग्रणी राजा और रानी सुप्रभा ने हेमांगद आदि हजार पुत्रों को जन्म दिया तथा सुलोचना और लक्ष्मीमती इन दो पुत्रियों को जन्म दिया। इन पुत्र-पुत्रियों से घिरे हुए राजा अकम्पन गृहस्थाश्रम के सर्वोत्तम सुखोें का अनुभव कर रहे थे। धीरे-धीरे पुत्री सुलोचना ने किशोरावस्था को प्राप्त कर सर्व विद्या और कलाओं में निपुणता प्राप्त कर ली।
उस सुलोचना ने जिनेन्द्रदेव की अनेक प्रकार की रत्नमयी बहुत सी प्रतिमाएँ बनवाई थीं और उनके सब उपकरण भी सुवर्ण के बनवाये थे। उनकी प्रतिष्ठा कराके महाभिषेक किया था। अनंतर वह प्रतिदिन उन प्रतिमाओं की महापूजा करती। अर्थपूर्ण स्तुतियों से अर्हंतदेव की भक्तिपूर्वक स्तुति करती, पात्रदान देती, महामुनियों का बार-बार चिंतवन करते हुए सम्यग्दर्शन की शुद्धता प्राप्त कर ली थी। एक बार फाल्गुन की आष्टान्हिका में उसने विधिवत् प्रतिमाओं का अभिषेक, पूजन करके अष्टान्हिक की महापूजा की और उपवास किया था। पूजा के बाद पूजा के शेषाक्षत देने के लिए वह सिंहासन पर स्थित पिता अकम्पन के पास गई। राजा ने भी उठकर और हाथ जोड़कर उसके दिये हुए शेषाक्षत लेकर अपने मस्तक पर रखे तथा कन्या से बोले-
‘‘हे पुत्रि! तू उपवास से खिन्न हो रही है, अब घर जा! यह तेरे पारणा का समय है।’’
स्वयंवर विधि-पुन: उस पुत्री को युवावस्था में देखकर राजा ने अपने मंत्रियों को बुुलाकर उसके विवाह के लिए मंत्रणा की। अनेक परामर्श के बाद उसमें से एक सुमति नाम के मंत्री ने कहा-
‘‘राजन्! प्राचीन पुराणों में स्वयंवर की उत्तम विधि सुनी जाती है। यदि इस समय सर्वप्रथम अकम्पन महाराज के द्वारा उस विधि को प्रारंभ किया जाए तो भगवान ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत के समान इनकी प्रसिद्धि भी युग के अंत तक हो जाये। उस स्वयंवर में यह कन्या जिसे भी स्वीकार करेगी, वही इसका स्वामी होगा। ऐसा करने से किसी भी राजा से अपने विरोध की बात नहीं होगी।’’
यह बात राजा को अच्छी लगी। तब उन्होंने घर आकर यह बात रानी सुप्रभा से, बड़े पुत्र हेमांगद से, कुल परम्परा से आगत वृद्ध पुरुषों से तथा अपने सगोत्री बंधुओं से भी कही। सबसे पूर्वापर विचार किया। जब सभी ने इसकी सराहना की, तब राजा ने सुलोचना के स्वयंवर की घोषणा कर दी। एक विचित्रांगद नाम का देव, जो कि पूर्वभव में राजा अकंपन का भाई था, वह सुलोचना के प्रेम से वहाँ आ गया और राजा से स्वीकृति लेकर उसने बहुत ही सुन्दर स्वयंवर मण्डप तैयार किया। उस समय सभी ने यह कहा था कि-
‘‘इस संसार में कन्यारत्न के सिवाय और कोई उत्तम रत्न नहीं है। समुद्र अपने रत्नाकरपने का खोटा अहंकार व्यर्थ ही धारण करता है क्योंकि जिनके यह कन्यारूपी रत्न है, उन्हीं राजा अकंपन और रानी सुप्रभा के यह रत्नाकरपना सुशोभित होता है।’’
राजा अकंपन ने स्वयं जिनेन्द्रदेव की महापूजा की और दीन, अनाथजनों को दान दिया। रानी सुप्रभा ने सुलोचना को मंगलस्नान कराकर नित्य मनोहर चैत्यालय में ले जाकर अर्हन्तदेव की महापूजा कराई। अनंतर देवनिर्मित रथ में बैठकर कन्या स्वयंवर मण्डप में आ गई। उसे कंचुकी ने सभी राजाओं का परिचय कराया। अंत में सुलोचना ने हस्तिनापुर के राजा जयकुमार के गले में वरमाला पहना दी।
इसी भरत क्षेत्र के कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगरी है। ऋषभदेव को आहार देने वाले राजा सोमप्रभ और उनके भाई श्रेयांसकुमार इसी पृथ्वी तल पर प्रसिद्ध ही हैं। सोमप्रभ की रानी लक्ष्मीमती के बड़े पुत्र का नाम जयकुमार था। इनका परिचय इतने से ही समझ लीजिए कि ये जयकुमार चक्रवर्ती भरत के सेनापति थे। चक्रवर्ती के दिग्विजय की सफलता में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। ये सेनापति रत्न नाम से चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक रत्न थे।
सम्राट् भरत के बड़े पुत्र अर्ककीर्ति भी स्वयंवर मण्डप में थे। उनके दुर्मषण नाम के एक सेवक ने आकर अर्ककीर्ति को यद्वा-तद्वा समझाकर युद्ध के लिए भड़का दिया। राजा अकंपन ने बहुत कुछ उपाय से शांति चाही किन्तु वहाँ घोर युद्ध छिड़ गया। तब सुलोचना ने मंदिर में शांतिपूजा का अनुष्ठान कर कायोत्सर्ग धारण कर लिया था, भयंकर युद्ध में जयकुमार ने अर्ककीर्ति को पकड़ लिया और महाराज को अर्ककीर्ति को समझाने में नियुक्त कर उन्हें उनके स्थान पर भेज दिया और स्वयं अपने परिकर सहित भगवान के मंदिर में जाकर बहुत बड़ी शांतिपूजा की। सुलोचना ने युद्ध की समाप्ति तक चतुराहार त्याग कर कायोत्सर्ग धारण कर लिया था। पिता ने उसकी प्रशंसा कर उसका कायोत्सर्ग समाप्त कराया। अनन्तर बड़े ही उत्सव के साथ इनका विवाह सम्पन्न हुआ।
पुन: राजा अकंपन ने अर्ककीर्ति से क्षमायाचना कर अपनी छोटी पुत्री लक्ष्मीमती उसके लिए समर्पित कर दी। बाद में जयकुमार और अर्ककीर्ति का भी आपस में प्रेम करा दिया।
उपसर्ग से रक्षा-कुछ दिनों बाद जयकुमार सुलोचना के साथ हस्तिनापुर आ रहे थे। मार्ग में गंगा नदी के किनारे डेरे में हेमांगद और सुलोचना आदि को ठहराकर स्वयं अयोध्या जाकर भरत को प्रणाम किया। भरत ने भी समयोचित वार्तालाप से जयकुमार को प्रसन्न कर अनेक वस्त्र, आभूषणों से उसका सम्मान कर विदा किया। जयकुमार हाथी पर बैठकर गंगा नदी में तैरते हुए वापस अपने डेरे में आ रहे थे कि जहाँ पर सरयू नदी गंगा से मिलती है, वहाँ पर एक मगर ने जयकुमार के हाथी का पैर पकड़ लिया और उसे डुबोने लगा। इधर तट पर खड़े हुए हेमांगद आदि भाइयों ने तथा सुलोचना ने जयकुमार पर संकट आया देखकर णमोकार मंत्र का स्मरण किया।
सुलोचना उपसर्ग समाप्ति तक चतुराहार त्याग कर अपनी सखियों के साथ णमोकारमंत्र का जप करते हुए गंगा नदी में घुसने लगी। इतने में ही गंगा देवी का आसन कंपायमान होते ही वह वहाँ आ गई और उपसर्ग दूरकर जयकुमार के हाथी को किनारे तट पर ले आई। वह नदी के तट पर उसी क्षण एक भवन बनाकर सुलोचना को िंसहासन पर बैठाकर उसकी पूजा करके बोली-
‘‘हे सति! सुलोचने! आपके नमस्कार मंत्र के प्रसाद से ही मैं गंगा की अधिष्ठात्री देवी हुई हूँ। मुझे आप विंध्यश्री जानो…..।’’
इस बात को सुनकर जयकुमार ने इसका रहस्य पूछा। तब सुलोचना ने बताया-
‘‘विंध्यपुरी नगरी में विंध्यकेतु राजा की प्रियंगुश्री रानी से विंध्यश्री नाम की एक पुत्री हुई थी। उस राजा का मुझ पर प्रेम विशेष होने से उसने अपनी पुत्री मेरे पास छोड़ दी। यह मेरे पास सर्व गुणों को सीखते हुए मेरी सहेली थी। यह एक दिन उपवन में क्रीड़ा कर रही थी कि उसे एक सर्प ने काट खाया। तब मैंने इसे णमोकार मंत्र सुनाते हुए सल्लेखना ग्रहण करा दी। जिसके प्रभाव से यह गंगादेवी हो गई है और मेरा प्रत्युपकार करने के लिए आई है।’’
अनंतर गंगादेवी इन दोनों का सम्मान कर अपने स्थान पर चली गई। जयकुमार, रानी सुलोचना और उनके परिकर सहित अपनी हस्तिनापुर नगरी में आ गये। माता-पिता, पुत्र-पुत्रवधू से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। जयकुमार ने अनेक रानियों के मध्य सुलोचना को पट्ट बांधकर पट्टरानी बनाया। बहुत काल तक सुखपूर्वक राज्य सुखों का अनुभव करते हुए जयकुमार और सुलोचना का काल क्षण के समान व्यतीत हो गया।
एक समय जयकुमार सुलोचना के साथ वैâलाशपर्वत पर घूम रहे थे। उस समय स्वर्ग में इन्द्र अपनी सभा में इन दोनों के शील की प्रशंसा कर रहा था। यह सुनकर ईर्ष्यावश एक रविप्रभ देव ने जयकुमार के शील की परीक्षा के लिए एक कांचना नाम की देवी को भेज दिया। इधर सुलोचना जयकुमार से कुछ दूर हटकर फूल तोड़ रही थी। कांचना देवी ने विद्याधरी का रूप रखकर अनेक प्रकार से जयकुमार को रिझाना चाहा किन्तु जयकुमार ने कहा-मुझे परस्त्री का त्याग है इसलिए तू मेरी बहन के समान है। तब देवी राक्षसी वेष बनाकर जयकुमार को उठाकर भागने लगी। उधर सुलोचना ने दूर से देखते ही उस राक्षसी को जोरों से फटकारा जिससे वह देवी उसके शील के प्रभाव से डरकर अदृश्य हो गई। अहो! शीलव्रती स्त्री से जब देवता भी डर जाते हैं तब औरों की तो बात ही क्या है! कांचना देवी ने उन दोनों के शील को स्वयं देखकर जाकर अपने स्वामी से बताया और बहुत प्रशंसा की।
जयकुमार, सुलोचना की दीक्षा-एक बार जयकुमार अपने अनेक भाइयों और रानियों के साथ भगवान ऋषभदेव के समवसरण में पहुँचे। वहाँ दर्शन, पूजन के बाद उपदेश सुना। अनन्तर विरक्त होकर अपने अनेक भाइयों और चक्रवर्ती के अनेक पुत्रों के साथ जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। तत्क्षण ही जयकुमार को मन:पर्ययज्ञान और ऋद्धियाँ प्रगट हो गईं और वे भगवान के इकहत्तरवें (७१वें) गणधर हो गये।
पति के वियोग से दु:ख को प्राप्त हुई सुलोचना को चक्रवर्ती की पट्टरानी सुभद्रा ने समझाया तब उसने भी विरक्त हो ब्राह्मी आर्यिका के पास आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षा लेकर सुलोचना ने तपश्चरण के साथ ही ज्ञान की भी विशेष आराधना की जिससे उन्हें ग्यारह अंगों का ज्ञान हो गया।
हरिवंशपुराण में कहा है-
‘‘दुष्ट संसार के स्वभाव को जानने वाली सुलोचना ने अपनी सपत्नियों के साथ सफेद साड़ी पहनकर ब्राह्मी और सुन्दरी के पास जाकर आर्यिका दीक्षा ले ली। मेघेश्वर जयकुमार शीघ्र ही द्वादशांग के पाठी होकर भगवान के गणधर हो गये और आर्यिका सुलोचना भी ग्यारह अंगों की धारक हो गईं।
इस उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्यिकाएँ भी ग्यारह अंग तक पढ़ सकती हैं तथा भगवान के समवसरण में ब्राह्मी गणिनी के समान ही सुन्दरी भी अपनी बहन के साथ गणिनी स्थान को प्राप्त थीं।
इस प्रकार सुलोचना ने जिनेन्द्रदेव की भक्ति और शील में अपना नाम अमर किया वैसे ही आर्यिका बनकर ग्यारह अंगों को पढ़कर आर्यिकाओं में भी अपना नाम उज्ज्वल किया है। संकटहरण विनती में भक्त लोग पढ़ा करते हैं-
हाथी पे चढ़ी जाती थी सुलोचना सती।
गंगा में ग्राह ने गही गजराज की गती।
उस वक्त में पुकार किया था तुम्हें सती।
भय टार के उबार लिया हे कृपापती।।
शीलशिरोमणि आर्यिका सीता-
सीता का जन्म—मिथिलापुरी में राजा जनक राज्य करते थे। उनकी रानी विदेहा पातिव्रत्य आदि गुणों से परिपूर्ण परमसुन्दरी थी। एक समय वह गर्भवती हुई। पुन: नव महीने बाद उसने पुत्र और पुत्री ऐसे युगल संतान को जन्म दिया। पुत्र के जन्म लेते ही उसके पूर्वभव के वैरी महाकाल नामक असुरकुमार देव ने उस बालक का अपहरण कर लिया। वह उसे मारना चाहता था किन्तु उसके हृदय में कुछ दया आ गई जिससे उसने उस बालक के कान में कुण्डल पहनाकर उसे पर्णलघ्वी विद्या के बल से आकाश से नीचे छोड़ दिया। इधर चन्द्रगति विद्याधर रात्रि के समय अपने उद्यान में स्थित था सो उसने आकाश से गिरते हुए एक बालक को देखा और बीच में अधर ही झेल लिया। उस बालक को ले जाकर अपनी रानी पुष्पवती को दे दिया। रानी के कोई पुत्र नहीं था अत: वह इस पुत्र को पाकर बहुत ही प्रसन्न हुई। वहाँ पर उसका जन्म महोत्सव मनाया गया।
इधर रानी विदेहा पुत्र के अपहरण से बहुत ही दु:खी हुई किन्तु राजा जनक आदि परिजनों के समझाने पर शांत हो पुत्री का लालन-पालन करने लगी। इस कन्या का नाम सीता रक्खा गया। धीरे-धीरे वह किशोरावस्था को प्राप्त हुई। सीता जनक के अंत:पुर में सात सौ कन्याओं के मध्य में स्थित हो अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं से सबके मन को प्रसन्न करती थी। क्रम से वृद्धि को प्राप्त होते-होते यह सीता विवाह के योग्य हो गई।
सीता स्वयंवर—एक समय राजा जनक की राजधानी पर म्लेच्छों ने हमला कर दिया। सहायता के लिये राजा ने अपने मित्र अयोध्या के राजा दशरथ को सूचना भेजी। राजा दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण मिथिलापुरी आ गये और शत्रुसेना को नष्ट कर राजा जनक और उनके भाई कनक दोनों का राज्य निष्कंटक कर दिया। इस उपकार से प्रसन्न होकर राजा जनक ने मंत्रियों से परामर्श कर राम को सीता देने का निश्चय किया। राम-लक्ष्मण विजय दुन्दुभि के साथ अपने अयोध्या नगर को वापस आ गये।
जब नारद ने सुना कि राजा जनक ने अपनी परमसुन्दरी सीता पुत्री राम के लिए देना निश्चिय किया है तब वह सीता के सौन्दर्य को देखने के लिए उसके महल में आ गये। सीता अकस्मात् नारद के प्रतिबिम्ब को दर्पण में देखकर एकदम व्याकुल हो गई और हाय मात:! यह कौन है? ऐसा कहकर वह वहाँ से अन्दर भागी। तब द्वार की रक्षक स्त्रियों ने नारद को रोक दिया। नारद अपमानित होकर वहाँ से चला आया और सीता से बदला चुकाने को सोचने लगा। उसने उसका एक सुन्दर चित्र बनाकर विजयार्ध पर्वत पर रथनूपुर के उद्यान में रख दिया। उसे देखकर भामण्डल मोहित हो गया। तब नारद ने उसे सीता का पूरा पता बता दिया। राजा चंद्रगति को जब मालूम हुआ कि भामण्डल जनक की पुत्री सीता को चाहता है तब उसने युक्ति से जनक को वहीं बुला लिया और अपने पुत्र के लिए सीता की याचना की।
जनक ने सारी बात बताते हुए स्पष्ट कह दिया कि मैंने सीता कन्या को राम के लिये देना निश्चित कर लिया है और राम की बहुत प्रशंसा की। तब राजा चन्द्रगति ने कहा—
‘‘हे राजन्! सुनो, हमारे यहाँ एक वङ्काावर्त नाम का धनुष है और दूसरा सागरावर्त। देवगण इन दोनों की रक्षा करते हैं। यदि राम वङ्काावर्त धनुष को चढ़ाने में समर्थ हैं तब तो वे अधिक शक्तिमान हैं ऐसा मैं समझूँगा और तभी वे सीता को प्राप्त कर सकेंगे अन्यथा हम लोग सीता को जबरदस्ती लाकर भामण्डल के लिए दे देंगे।’’
राजा जनक ने विद्याधरों की यह शर्त स्वीकार कर ली। ये लोग दोनों धनुष लेकर यहाँ मिथिला नगरी आ गये। सीता के स्वयंवर की घोषणा हुई। राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न भी वहाँ आ गये। उस स्वयंवर में कोई भी राजपुत्र उस धनुष के निकट भी आने में समर्थ नहीं हो सका, किन्तु महापुरुष राम ने उस वङ्काावर्त धनुष को चढ़ाकर सीता की वरमाला प्राप्त कर ली। लक्ष्मण ने सागरावर्त धनुष चढ़ाकर चन्द्रवर्धन विद्याधर की अठारह कन्यायें प्राप्त कर लीं तथा जनक के भाई राजा कनक ने अपनी पुत्री लोकसुन्दरी दशरथ के पुत्र भरत के लिये समर्पित की। वहाँ मिथिलानगरी में इन दशरथ के पुत्रों के विवाह सम्पन्न हुए। अनंतर राम, लक्ष्मण, भरत आदि अपनी-अपनी रानियों के साथ अयोध्या नगरी वापस आ गये।
कुछ दिनों बाद भामण्डल को जातिस्मरण होने से यह मालूम हो गया कि सीता मेरी सगी बहन है तब उसे पश्चात्ताप हुआ पुन: वह अयोध्या में आकर बहन से मिलकर बहुत ही प्रसन्न हुआ।
राम का वनवास—एक समय राजा दशरथ विरक्त हो दीक्षा लेना चाहते थे। तब अपने बड़े पुत्र रामचन्द्र के राज्याभिषेक की तैयारी कराने लगे। इसी बीच रानी वैâकेयी ने आकर अपना धरोहर ‘वर’ माँगा। राजा ने देने की स्वीकृति दे दी। तब वैâकेयी ने कहा—
‘‘हे नाथ! मेरे पुत्र भरत के लिये राज्य प्रदान कीजिये।’’
राजा दशरथ ने उसकी बात मान ली और राम को बुलाकर सारी स्थिति से अवगत करा दिया। राम ने पिता को सान्त्वना देकर भरत को भी समझाया तथा सोचने लगे—
‘‘सूर्य के समान जब तक मैंं इस अयोध्या के समीप भी रहूँगा, तब तक भरत की आज्ञा नहीं चल सकेगी।’’
यद्यपि भरत पिता के साथ दीक्षा लेना चाहता था किन्तु लाचारी में उसे राज्य सँभालना पड़ा। पिता दशरथ दिगम्बर दीक्षा लेकर आत्म-साधना में निरत हो गए। श्री रामचन्द्र, लक्ष्मण और सीता के साथ अयोध्या से निकल पड़े। भरत, माता वैâकेयी और सारी प्रजा के अनुनय, विनय को न गिनकर श्रीराम आगे चले गये। ये तीनों बहुत काल तक पैदल ही पृथ्वी पर वन-वन में विचरण करते हुए अनेक सुख-दु:ख मिश्रित प्रसंगों में भी सदा प्रसन्न रहते थे। इस वनवास के प्रसंग में रामचंद्र ने पता नहीं कितनों का उपकार किया था।
एक समय रामचन्द्र ने वन में चारणऋद्धि मुनियों को आहारदान दिया था। उस समय एक गृद्ध (गीध) पक्षी वहाँ मुनियों को देखकर जातिस्मरण को प्राप्त हो गया। अत: वह मुनियों के चरणोदक में गिर पड़ा और उसे पीने लगा। तब उसका सारा शरीर सुन्दर वर्ण का हो गया। आहार के बाद मुनि ने उसे उपदेश देकर सम्यक्त्व और अणुव्रत ग्रहण करा दिये तब सीता ने उसे अपने पास ही रख लिया और उसको ‘जटायु’ इस नाम से पुकारने लगीं।
सीता हरण—रावण की बहन चन्द्रनखा का पुत्र शंबूक वंशस्थल पर्वत पर बाँस की झाड़ी में बैठकर सूर्यखड्ग सिद्ध कर रहा था। उसकी माता प्रतिदिन विद्या के बल से वहाँ आकर उसे भोजन दे जाया करती थी। बारह वर्ष के बाद वह खड्ग सिद्ध हो गया और वह बाँस के ऊपर लटक रहा था। शंबूक ने उसे लेने में प्रमाद किया। सोचा, अभी ले लूँगा। इधर राम, लक्ष्मण, सीता उसी वन में जाकर ठहर गये। लक्ष्मण अकेले घूमते हुए वहाँ पहुँचे। उन्होंने वह खड्ग हाथ में ले लिया। तभी विद्या देवता ने आकर उन्हें प्रमाण किया। लक्ष्मण ने खड्ग की तीक्ष्णता परखने के लिए उसी बाँस के बीड़े को काट डाला। उसमें शंबूक बैठा था। उसका शिर धड़ से अलग हो गया। इधर लक्ष्मण को यह पता नहीं चला। वे अपने स्थान पर आकर भाई के पास बैठ गए।
चन्द्रनखा ने आकर जब पुत्र का सिर देखा, वह मूर्च्छित हो गई। सचेत होकर विलाप करते हुए खूब रोई। अनंतर उसी वन में शत्रु को खोजते हुए घूमने लगी। उसने राम, लक्ष्मण को देखा तो इनके सौन्दर्य पर मोहित हो कन्या का रूप लेकर वहाँ आकर राम से अपने वरण के लिए प्रार्थना करने लगी। राम, लक्ष्मण ने उसकी ऐसी चेष्टा से उसके प्रति उपेक्षा कर दी। तब वह क्रोध से पागल जैसी हुई आकाशमार्ग से अपने स्थान पर जाकर अपने पति खरदूषण से बोली—
हे नाथ! उस वन में मेरे पुत्र को मारकर खड्ग लेकर दो पुरुष बैठे हुए हैं जो कि मेरा शील भंग करना चाहते थे।’’
इत्यादि बात सुनकर खरदूषण अपनी सेना के साथ आकाशमार्ग से आकर युद्ध के लिये तैयार हो गया।
इस युद्ध के प्रसंग में लक्ष्मण खरदूषण की सेना के साथ युद्ध कर रहे थे। रामचंद्र, सीता सहित अपने स्थान पर बैठे थे। बहनोई की सहायता के लिए रावण अपने पुष्पक विमान में बैठकर वहाँ आ गया। दूर से उसने राम के साथ सीता को देखा। उसके ऊपर मोहित हुआ उसे हरण करने का उपाय सोचने लगा। उसने अवलोकिनी विद्या के द्वारा सीता का परिचय प्राप्त कर लिया। मायाचारी से सिंहनाद करके ‘‘राम!!राम!!’’ ऐसा उच्चारण किया। राम ने समझा, लक्ष्मण संकट में हैं, सीता को पुष्पमालाओं से ढककर जटायु पक्षी को उसकी रक्षा में नियुक्त कर लक्ष्मण के पास पहुँचे। इसी बीच रावण ने सीता का हरण कर लिया। जब जटायु ने रावण का सामना किया तब रावण ने उस बेचारे पक्षी को घायल कर वहीं डाल दिया और स्वयं सीता को पुष्पक विमान में बिठाकर आकाशमार्ग से लंका आ गया। मार्ग में सीता ने बहुत ही विलाप किया, तब एक विद्याधर ने उसको छुड़ाना चाहा। रावण ने उसकी भी विद्यायें नष्ट कर उसे भूमि पर गिरा दिया।
इधर लक्ष्मण ने राम को देखते ही कहा—
‘‘भाई! आप यहाँ कैसे! जल्दी वापस जाइये।’’
रामचंद्र ने वापस आकर देखा, जटायु पड़ा सिसक रहा है। उसे महामंत्र सुनाया। वह मरकर स्वर्ग चला गया। पुन: वे सीता को न पाकर बहुत ही दु:खी हुए। खरदूषण के युद्ध में लक्ष्मण विजयी हुए। तब आवâर राम से मिले और सीता को ढूँढ़ने लगे। सीता का अपहरण हुआ जानकर श्रीराम शोक में विह्वल हो गये।
पुन: विद्याधरों की सहायता से रावण द्वारा सीता का अपहरण जानकर श्रीरामचंद्र ने हनुमान को सीता के पास भेजा। हनुमान ने वहाँ जाकर सीता को रामचंद्र का समाचार दिया। तब सीता ने ग्यारह उपवास के बाद पारणा की। अनंतर सुग्रीव आदि विद्याधरों की सहायता से राम, लक्ष्मण ने लंका को घेर लिया।भयंकर युद्ध हुआ। अंत में रावण ने अपना चक्र लक्ष्मण पर चला दिया। वह चक्ररत्न लक्ष्मण की प्रदक्षिणा देकर उसके पास ठहर गया और लक्ष्मण ने उसी चक्र से रावण का वध कर दिया। इसके बाद राम सीता से मिले। तब देवों ने सीता के शील की प्रशंसा करते हुए उस पर पुष्पवृष्टि की। वहाँ का राज्य विभीषण को सौंपकर त्रिखण्ड के अधिपति राम-लक्ष्मण छह वर्ष तक वहीं रहे पुन: माता की याद कर अयोध्या आ गये। तब भरत ने दैगम्बरी दीक्षा ले ली।
सीता की अग्नि परीक्षा—रामचन्द्र आठवें बलभद्र और लक्ष्मण आठवें नारायण प्रसिद्ध हुए। श्रीराम ने अपनी आठ हजार रानियों में सीता को पट्टरानी बनाया।
एक बार सीता ने स्वप्न में देखा ‘‘मेरे मुख में दो अष्टापद प्रविष्ट हुए हैं और मैं पुष्पक विमान से गिर गई हूँ।’’ उसने इसका फल श्रीराम से पूछा। रामचंद्र ने कहा-‘‘तुम युगल पुत्रों को जन्म दोगी।’’ तथा दूसरे स्वप्न का फल अनिष्ट जानकर उसकी शांति के लिए जिनमंदिर में पूजन, अनुष्ठान कराया गया। एक समय राम की सभा में कुछ प्रमुख पुरुषों ने कहा कि—
‘‘प्रभो! इस समय प्रजा मर्यादा रहित होती जा रही है। दुष्ट लोग बलात् दूसरे की स्त्री का हरण कर लेते हैं। प्राय: लोग कह रहे हैं कि राजा दशरथ के पुत्र राम ज्ञानी होकर भी रावण के द्वारा हृत सीता को वापस ले आये हैं।’’
इस बात को सुनकर रामचंद्र एक क्षण विषाद को प्राप्त हुए पुन: प्रजा को आश्वासन देकर भेज दिया और स्वयं यह निर्णय लिया कि सीता को वन में भेज दिया जाए। लक्ष्मण के बहुत कुछ अनुनय-विनय करने पर भी रामचंद्र नहीं माने और कृतांतवक्त्र सेनापति को बुलाकर समझाकर उसके साथ सीता को तीर्थवंदना के बहाने घोर जंगल में छुड़वा दिया। वहाँ सेनापति से वन में छोड़ आने का समाचार सुनकर सीता बहुत ही दु:खी हुई फिर भी उसने कहा–
‘‘सेनापति! तुम जाकर श्री रामचंद्र से कहना कि जैसे लोकापवाद के डर से मुझे छोड़ दिया है ऐसे ही जिनधर्म को नहीं छोड़ देना।’’
और सेनापति को विदा कर दिया। उस समय सीता गर्भवती थीं और वन में घोर विलाप कर रही थीं। वहाँ जंगल में रुदन सुनकर पुण्डरीकपुर का राजा वङ्काजंघ उनके पास आया और सीता को अपनी बहन के समान समझकर बहुत सान्त्वना देकर पुण्डरीकपुर लिवा ले गया। वहाँ सीता ने युगल पुत्रों को जन्म दिया। जिनका नाम अनंगलवण और मदनांकुश रखा गया। इन पुत्रों को सिद्धार्थ नाम के क्षुल्लक ने पढ़ाया। एक बार नारद ने आकर इन दोनों के सामने राम का वैभव बताया तथा सीता के वन में छोड़ने की बात कही। तब ये दोनों बालक सीता के बहुत कुछ मना करने पर भी राम से युद्ध करने के लिए चल पड़े। वहाँ पर दोनों पक्ष में किसी की हार- जीत न देखकर नारद ने रामचंद्र से कहा कि—
‘‘ ये दोनों आपके पुत्र हैं, सीता से जन्मे हैं।’’
अनंतर पिता-पुत्र मिलन के बाद सुग्रीव, हनुमान आदि राम की आज्ञा लेकर सीता को अयोध्या ले आये। राम ने सीता की शुद्धि के लिए अग्नि परीक्षा लेना चाहा। तब विशाल अग्निकुण्ड निर्मित हुआ। सीता ने कहा—
‘‘हे अग्निदेवता! यदि मैंने स्वप्न में भी परपुरुष को नहीं चाहा हो तो तू जल हो जा अन्यथा मुझे जला दे।’’
इतना कहकर वह अग्नि में कूद पड़ी। शील के प्रभाव से तत्क्षण ही अग्नि जल हो गई और देवों ने सीता को कमलासन पर बैठा दिया। तब रामचंद्र ने सीता से क्षमायाचना की और घर चलने के लिए कहा—सीता उस क्षण विरक्त हो बोलीं—
‘‘हे बलदेव! मैंने आपके प्रसाद से बहुत कुछ सुख भोगे हैं। फिर भी अब मैं सर्व दु:खों का क्षय करने की इच्छा से जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूँगी।’’
ऐसा कहकर उसने अपने केश उखाड़कर रामचंद्र को दे दिये। रामचंद्र उसी क्षण मूर्च्छित हो गये।
सीता की दीक्षा—इधर जब तक रामचंद्र सचेत हों तब तक सीता ने जाकर ‘पृथ्वीमती’ आर्यिका के पास आर्यिका दीक्षा ले ली। जब रामचंद्र होश में आये, सीता के वियोग से विक्षिप्त हो उन्हें लिवाने के लिए उद्यान में आये, वहाँ सर्वभूषण केवली के समवसरण में पहुँचकर दर्शन करके धर्मोपदेश सुना। अनंतर श्रीरामचंद्र, लक्ष्मण के साथ यथाक्रम से साधुओं को नमस्कार कर विनीतभाव से आर्यिका सीता के पास पहुँचे। भक्ति से युक्त हो नमस्कार कर बोले—
‘‘ हे भगवति! तुम धन्य हो, उत्तम शीलरूपी सुमेरु को धारण कर रही हो।’’
इत्यादि प्रशंसा कर पुन: कहने लगे—
‘‘हे सुनये! मेरे द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कार्य हुआ है, वह सब आप क्षमा कीजिये।’’
इस प्रकार क्षमायाचना कर पुन: पुन: उनकी प्रशंसा करते हुए राम तथा लक्ष्मण लवण और अंकुश को साथ लेकर अपने स्थान पर वापस आ गये।
सीता की कठोर तपश्चर्या—जिस सीता का सौन्दर्य देवांगनाओं से भी बढ़कर था, वह तपश्चर्या से सूखकर ऐसी हो गई जैसे जली हुई माधवी की लता ही हो। जिसकी साड़ी पृथ्वी की धूलि से मलिन थी तथा स्नान के अभाव से पसीना से उत्पन्न मल में जिसका शरीर भी धूसरित हो रहा था, जो चार दिन, एक पक्ष तथा ऋतुकाल आदि के शास्त्रोक्त विधि से पारणा करती थी, शीलव्रत और मूलगुणों के पालन में तत्पर, रागद्वेष से रहित और अध्यात्म के चिन्तन में निरत रहती थी, अत्यन्त शांत थी। अपने मन को अपने अधीन कर रखा था, अन्य मनुष्यों के लिए दु:सह, अत्यन्त कठिन तप किया करती थी, उसके शरीर का माँस सूख गया था मात्र हाड़ और आँतों का पंजर ही दिख रहा था, उस समय वह आर्यिका लकड़ी आदि से बनी प्रतिमा के समान जान पड़ती थी, उसके कपोल भीतर घुस गये थे, ऐसी सीता आर्यिका चार हाथ आगे जमीन देखकर ईर्यापथ से चलती थी। शरीर की रक्षा के लिए कभी-कभी आगम के अनुसार निर्दोष आहार ग्रहण करती थी। तपश्चर्या से उसका रूप ऐसा बदल गया था कि विहार के समय उसे अपने और पराये लोग भी नहीं पहचान पाते थे। ऐसी उस सीता को देखकर लोग सदा उसी की कथा करते रहते थे। जो लोग उसे एक बार देखकर पुन: देखते थे वे उसे ‘‘यह वही है’’ इस प्रकार नहीं पहचान पाते थे। इस महासती आर्यिका सीता ने अपने शरीर को तपरूपी अग्नि से सुखा डाला था। इस प्रकार महाश्रमणी पद पर अधिष्ठित सीता ने बासठ वर्ष तक उत्कृष्ट तप किया, अनंतर सल्लेखना धारण कर ली। तेंतीस दिन के बाद इस उत्तम सल्लेखना से शरीर को छोड़कर अच्युत (१६वें) स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद को प्राप्त कर लिया। सम्यग्दर्शन और संयम के माहात्म्य से स्त्रीलिंग से छूटकर देवेन्द्र की विभूति का वरण कर लिया। यह सीता का जीव अच्युत स्वर्ग के सुखों का अनुभव कर भविष्य में इसी भरतक्षेत्र में चक्ररथ नाम का चक्रवर्ती होगा। अनंतर तपोबल से अहमिन्द्र पद को प्राप्त करेगा। पुन: जब रावण तीर्थंकर होगा तब यह अहमिन्द्र उनका प्रथम गणधर होकर उसी भव से निर्वाण प्राप्त कर लेगा। ऐसी शील शिरोमणि महासती आर्यिका सीता को नमस्कार होवे।
२२वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के गर्भ में आने के छह माह पूर्व ही कुबेर ने शौरीपुर के राजा समुद्रविजय की रानी शिवादेवी के आँगन में रत्नों की वर्षा करना शुरू कर दिया। कार्तिक शुक्ला षष्ठी के दिन अहमिन्द्र का जीव जयन्त विमान से च्युत होकर शिवादेवी के गर्भ में आ गया। उसी समय इंद्रों ने यहाँ आकर भगवान का गर्भ महोत्सव मनाया। नव महीने बाद श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन पुत्र का जन्म होते ही देवों ने आकर उसे सुमेरु पर ले जाकर १००८ कलशों से जन्म अभिषेक करके जन्म कल्याणक महोत्सव मनाया। पुन: सौधर्म इन्द्र ने नेमिनाथ यह नामकरण करके जिनशिशु को लाकर माता-पिता को सौंप दिया। नेमिनाथ की आयु एक हजार वर्ष की थी और शरीर की ऊँचाई दश धनुष (१०²४·४० हाथ) थी। क्रम से ये तीर्थंकर युवावस्था को प्राप्त हो गये।
एक बार श्रीकृष्ण, नेमिकुमार आदि वन में क्रीड़ा को गये थे। साथ में श्रीकृष्ण की रानियाँ भी थीं। वहाँ जल क्रीड़ा में नेमिकुमार ने अपने गीले वस्त्र निचोड़ने के लिए सत्यभामा को कह दिया। तब उसने चिढ़कर कहा-क्या आप श्रीकृष्ण हैं कि जिन्होेंने नागशय्या पर चढ़कर शांर्ग नाम का दिव्य धनुष चढ़ा दिया और दिगदिगंत व्यापी शंख पूँâका था। क्या आपमें वह साहस है कि जिससे आप मुझे अपना वस्त्र धोने की बात कहते हैं। नेमिकुमार ने कहा-‘‘मैं यह कार्य अच्छी तरह कर दूँगा।’’ वे तत्क्षण ही आयुधशाला में गये। वहाँ नागराज के महामणियों से सुशोभित नागशय्या पर अपनी ही शय्या के समान चढ़ गये और शांर्ग-धनुष को चढ़ा दिया तथा योजन व्यापी महाशब्द करने वाला शंख फूँक दिया।
श्रीकृष्ण को इस बात का पता चलते ही आश्चर्यचकित हुए। पुन: उन्होंने विचार किया कि ‘‘श्री नेमिकुमार का चित्त बहुत समय बाद राग से युक्त हुआ अत: इनका विवाह करना चाहिये।’’ इसके बाद विमर्श कर वे स्वयं राजा उग्रसेन के घर पहुँचे और बोले-‘‘आपकी पुत्री राजीमती तीन लोक के नाथ तीर्थंकर नेमिकुमार की प्रिया हो।’’ उग्रसेन ने कहा-‘‘हे देव! तीन खंडों में उत्पन्न हुए रत्नों के आप ही स्वामी हैं। आपकी आज्ञा मुझे सहर्ष स्वीकार है।’’
राजा समुद्रविजय श्रीकृष्ण आदि बारात लेकर (जूनागढ़) आ गये। इसी मध्य ‘‘ये नेमिकुमार कुछ ही वैराग्य का कारण पाकर दीक्षा ले सकते हैं।’’ ऐसा सोचकर उनके साथ एक षड्यंत्र किया गया और बहुत से मृग आदि पशु इकट्ठे कराकर, एक बाड़े में बंद करा कर द्वारपाल को समझा दिया गया।
जब नेमिकुमार उधर से निकले, तब बाड़े में बंद चिल्लाते हुए पशुओं को देखकर पूछा-‘‘इन्हें क्यों बंद किया गया है ?’’
द्वारपाल ने कहा-‘‘प्रभो! आपके विवाहोत्सव में इनका व्यय (वध) करने के लिए इन्हें इकट्ठा किया गया है।’’ उसी क्षण अपने अवधिज्ञान से षड्यंत्र की सारी चेष्टा जानकर तथा पूर्वभवों का भी स्मरण कर नेमिनाथ विरक्त हो गये। तत्काल ही लौकांतिक देव आकर स्तुति करने लगे। पुन: इंद्रों ने आकर भगवान की पालकी उठायी और प्रभु दीक्षा के लिये वन में पहुँच गये। वह वन सहस्राम्र नाम से प्रसिद्ध था जो कि आज सिरसा वन कहलाता है। वहाँ पर श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन दीक्षा ले ली। तेला के बाद उनका प्रथम आहार राजा वरदत्त के यहाँ हुआ था। उस समय राजा के घर में साढ़े बारह करोड़ रत्नों की वर्षा हुई थी। अनंतर छप्पन दिन बाद भगवान को आसोज वदी एकम् के दिन केवलज्ञान प्रगट हो गया।
हरिवंशपुराण में लिखा है कि-नेमिनाथ के दीक्षा लेने के बाद राजीमती बहुत ही दु:खी हुई और वियोग के शोक से रोती रहती थी। भगवान को केवलज्ञान होने के बाद समवसरण में राजा वरदत्त ने दीक्षा ले ली और भगवान के प्रथम गणधर हो गये। उसी समय छह हजार महिलाओं के साथ दीक्षा लेकर राजीमती आर्यिकाओं के समूह की गणिनी बन गई।’’
आज जो किंवदन्ती है कि राजीमती ने गिरनार पर्वत पर आकर नेमिनाथ से वार्तालाप किया। अनेक बारहमासा और भजन गाये जाते हैं। वे सब कल्पित हैं क्योंकि जब तीर्थंकर दीक्षा ले लेते हैं। वे केवलज्ञान होने तक मौन ही रहते हैं पुन: वार्तालाप व संबोधन का सवाल ही नहीं उठता है। भगवान को केवलज्ञान होने के बाद ही राजमती ने आर्यिका दीक्षा लेकर गणिनी पद प्राप्त किया था। ‘‘राजीमती का नव भव से नेमिनाथ के साथ संबंध चला आ रहा था।’’ यह प्रकरण भी हरिवंश पुराण, उत्तर पुराण में नहीं है अन्यत्र कहीं गं्रथों में हो सकता है। ‘नेमिनिर्वाण’ काव्य में नेमिनाथ के पूर्वभवों का वर्णन इस प्रकार है-
‘‘इस भरतक्षेत्र में विन्ध्याचल पर्वत पर एक भील रहता था। एक दिन वह शिकार के लिए निकला। कुछ दूर पर दो मुनिराज थे। उनके ऊपर बाण चलाने को तैयार हुआ। उसी क्षण उसकी भार्या ने आगे आकर कहा-हे प्रियतम! आप मेरे ऊपर बाण छोड़ो किन्तु इन्हें न मारो। ये दो मुनिराज मान्य हैं, मारने योग्य नहीं हैं। मैं एक बार नगर में सामान खरीदने गई थी वहाँ मैंने देखा कि राजा भी इन्हें प्रणाम कर रहा था। इतना सुनकर भील ने धनुष बाण एक तरफ रख दिया। पत्नी के साथ गुरु के दर्शन करके उनका उपदेश सुना। पुन: उसने शिकार खेलना और माँस खाना छोड़ दिया। इस व्रत के प्रभाव से वह वृषदत्त की पत्नी से इभ्यकेतु नाम का पुत्र हुआ। उसे स्वयंवर में राजा जितशत्रु की पुत्री कमलप्रभा ने वरण किया था। इस कमलप्रभा के एक सुकेतु नाम का पुत्र हुआ। उसे राज्य देकर इभ्यकेतु दीक्षा लेकर अंत में मरणकर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हो गया। पुन: जम्बूद्वीप के सिंहपुर नगर में राजा जिनदास के यहाँ वह देव अपराजित नाम का पुत्र हो गया। इसने भी कालान्तर में तपश्चरण कर अच्युत स्वर्ग में इंद्रपद को प्राप्त कर लिया। पुन: कुरुजांगल देश की हस्तिनापुर नगरी के श्रीचंद राजा का सुप्रतिष्ठ नाम का पुत्र हो गया। इस सुप्रतिष्ठ ने भी दीक्षा लेकर तीर्थंकर प्रकृति का बँध कर लिया तथा अनेक व्रतों का अनुष्ठान कर जयंत विमान में अहमिन्द्र हो गया। वहाँ से आकर ये अहमिन्द्र का जीव यदुवंशी राजा समुद्रविजय की रानी शिवादेवी के पुत्र नेमिनाथ हुए हैं।
जिस भीलनी ने इन्हें मुनिवध से रोका था वह ही राजीमती हुई हैं ऐसी प्रसिद्धि है। जो भी हो यह कथन इस काव्य में नहीं है।
पांडव पुराण में भी श्री नेमिनाथ के दशभव के नाम आए हैं-१. विन्ध्य पर्वत पर भिल्ल, २. इभ्यकेतु सेठ, ३. देव, ४. चिंतागति-विद्याधर, ५. देव, ६. अपराजित राजा, ७. अच्युत स्वर्ग के इंद्र, ८. सुप्रतिष्ठ राजा, ९. जयन्त अनुत्तर में अहमिन्द्र, १०.तीर्थंकर नेमिनाथ। इस पुराण में भी राजीमती के भवों का वर्णन नहीं है।
भगवान नेमिनाथ के समवसरण में अट्ठारह हजार मुनि, चालीस हजार आर्यिकायें, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकायें थीं। उस काल में कुन्ती, सुभद्रा, द्रौपदी आदि ने गणिनी राजीमती से ही दीक्षा ली थी।
अंत में नेमिनाथ ने आषाढ़ शुक्ला सप्तमी के दिन गिरनार पर्वत से निर्वाण को प्राप्त किया है। राजीमती, कुन्ती, सुभद्रा, द्रौपदी ये चारों आर्यिकाओं ने धर्मध्यान से सल्लेखना करके स्त्रीवेद का नाश कर सोलहवें स्वर्ग में देवपद प्राप्त कर लिया। वहाँ की २२ सागरोपम आयु को पूर्ण कर पुरुष होकर तपश्चरण करके निर्वाण प्राप्त करेंगी।
सती द्रौपदी-
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र सम्बन्धी अङ्गदेश में एक चम्पापुरी नाम की नगरी है। उसी नगरी में एक सोमदेव ब्राह्मण रहता था, उसकी भार्या का नाम सोमिला था। उन दोनों के सोमदत्त, सोमिल और सोमभूति ये तीन पुत्र थे जो कि वेदवेदांगों में पारगामी थे। सोमिला के भ्राता अग्निभूति की अग्निला स्त्री से तीन कन्यायें हुई थीं जिनका नाम धनश्री, मित्रश्री और नागश्री था। अग्निभूति ने अपनी तीनों कन्याओं का क्रम से तीनों भानजों के साथ विवाह कर दिया।
किसी एक समय सोमदेव ब्राह्मण ने विरक्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। अनंतर एक दिन आहार के समय धर्मरुचि नाम के महातपस्वी मुनिराज को अपने घर की तरफ आते देखकर सोमदत्त ने अपने छोटे भाई की पत्नी से कहा कि हे नाग श्री! तू इन मुनिराज का पड़गाहन कर इन्हें विधिवत् आहार करा दे। नागश्री ने मन में सोचा कि ‘‘यह सदा सभी कार्य के लिये मुझे ही भेजा करता है। यह सोचकर वह बहुत ही क्रुद्ध हुई और उसी क्रुद्धावस्था में उन तपस्वी मुनिराज को विष मिला हुआ आहार दे दिया। मुनिराज ने संन्यास धारण कर आराधना पूर्वक मरण किया। जिससे वे सर्वार्थसिद्धि नामक अनुत्तर विमान में उत्पन्न हो गये। जब सोमदत्त आदि तीनों भाइयों को नागश्री के द्वारा किये हुए इस अकृत्य का पता चला तब उन्होंने वरुणार्य नाम के महामुनि के पास जाकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। इस प्रकार ये पाँचों ही जीव आराधनाओं की आराधना करते हुए अंत में मरण कर आरण और अच्युत स्वर्ग में सामानिक देव हो गये। इधर नागश्री भी पाप के फल से कुत्सित परिणामों से मरण कर पाँचवें नरक में चली गई। वहाँ पर असंख्य दु:खों को भोगकर निकली तो स्वयंप्रभ द्वीप में दृष्टिविष नाम का सर्प हो गई। फिर मर कर दूसरे नरक में गई वहाँ पर तीन सागर तक दु:ख भोगती रही। वहाँ से निकलकर दो सागर तक त्रस-स्थावर योनियों में परिभ्रमण करती रही।
इस प्रकार संसार सागर में भ्रमण करते-करते जब उसके पाप का उदय कुछ मंद हुआ तब चंपापुर नगर में चाँडाली हो गई। किसी एक दिन इसने समाधिगुप्त मुनिराज को देखकर उन्हें नमस्कार किया। मुनिराज ने करुणा से उसे उपदेश दिया जिससे उसने मधु और माँस का त्याग कर दिया। इस त्याग के निमित्त से वह उस पर्याय से छूटकर वहीं के सुबन्धु सेठ की धनदेवी स्त्री से पुत्री हुई। उसका नाम सुकुमारी रक्खा गया। यहाँ पर भी उसके पाप का उदय शेष रहने से उसके शरीर से बहुत दुर्गन्ध आती थी। जब वह युवावस्था में आई तब माता-पिता को उसके विवाह की चिंता हो गई। इसी नगर में एक धनदत्त सेठ रहता था उसकी अशोकदत्ता स्त्री से दो पुत्र हुए थे। बड़े का नाम जिनदेव और छोटे का नाम जिनदत्त था। सुबन्धु के आग्रह से धनदत्त अपने पुत्र जिनदेव के साथ सुकुमारी का विवाह करना चाहता था किन्तु जिनदेव को इस बात का पता चलते ही वह वहाँ से चला गया और सुव्रतमुनि के पास उसने मुनि दीक्षा ले ली। माता-पिता के आग्रह से जिनदत्त ने उस दुर्गंधित सुकुमारी के साथ विवाह तो कर लिया किन्तु उसकी दुर्गंधि से घृणा करता हुआ वह स्वप्न में भी उसके निकट नहीं गया। इस प्रकार पति के विरक्त होने से सुकुमारी सदा ही अपने पूर्वकर्मों की निन्दा किया करती थी।
एक दिन इस सुकुमारी ने उपवास किया था। उसी दिन उसके यहाँ आहार के लिए आर्यिकाओं के साथ सुव्रता नाम की आर्यिका आई थीं। सुकुमारी ने उनकी वंदना कर प्रधान आर्यिका से पूछा कि हे माताजी! इन दो आर्यिकाओं ने किस प्रकार से दीक्षा ली है। तब प्रधान आर्यिका ने कहा कि-‘‘ये दोनों पूर्वजन्म में सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र की विमला और सुप्रभा नाम की प्रिय देवियाँ थीं। किसी दिन ये दोनों सौधर्म इन्द्र के साथ नंदीश्वर-द्वीप में जिनेन्द्र देव की पूजा करने गई हुई थीं। वहाँ इनका चित्त विरक्त हो गया तब इन दोनों ने आपस में यह संकल्प किया कि ‘‘हम दोनों इस पर्याय के बाद मनुष्य पर्याय पाकर तप करेंगी।’’ आयु के अंत में वहाँ से च्युत होकर ये दोनों साकेत नगर के स्वामी श्रीषेण राजा की श्रीकान्ता रानी से हरिषेणा और श्रीषेणा नाम की पुत्रियाँ हो गईं।
यौवन अवस्था में इन्हें देखकर राजा श्रीषेण ने इन दोनों के लिए स्वयंवर मण्डप बनवाया और उसमें अनेक राजपुत्र आकर बैठे गये। ये दोनों कन्यायें अपने हाथ में माला लेकर स्वयंवर मण्डप में आई ही थीं कि इन्हें अपने पूर्वभव की प्रतिज्ञा का स्मरण हो आया। उसी समय इन दोनों ने अपने पिता को पूर्व भव की बात बताकर तथा समस्त सुख वैभव का त्याग कर, आकर आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली है।
यह कारण सुनकर सुकुमारी बहुत ही विरक्त हुई। उसने सोचा-देखो, इन दोनों सुकोमलगात्री राजपुत्रियों ने तो सब सुख छोड़कर दीक्षा ले ली है और मुझे तो यहाँ सुख उपलब्ध भी नहीं है। शरीर में दुर्गंधि आने से कोई पास भी नहीं बैठता। इत्यादि प्रकार से चिन्तन करके उसने अपने कुटुम्बी जनों से आज्ञा लेकर उन्हीं आर्यिका के पास दीक्षा ले ली। किसी एक दिन वन में वसंतसेना नाम की वेश्या आई हुई थी। बहुत से व्यभिचारी मनुष्य उस वेश्या को घेरकर उससे प्रार्थना कर रहे थे। सुकुमारी आर्यिका ने यह देखा तो उसके मन में ऐसा भाव आया कि मुझे भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो। पश्चात् अपनी गणिनी के पास जाकर आलोचना करके प्रायश्चित ग्रहण कर लिया। कालांतर में आयु पूरी कर अच्युत स्वर्ग में जो इसके नागश्री भव के पति ब्राह्मण सोमभूति देव हुए थे उनकी देवी हो गई।
उन तीनों ब्राह्मणों के जीव स्वर्ग से चयकर क्रम से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन हो गये। तथा धनश्री, मित्रश्री के जीव नकुल और सहदेव हो गये। सुकुमारी का जीव देवी पर्याय से च्युत होकर कांपिल्य नगर के राजा दु्रपद की रानी दृढ़रथा के द्रौपदी नाम की पुत्री हुई। यही द्रौपदी अर्जुन की रानी हुई है। पूर्व जन्म में जो इसने वसंतसेना वैश्या जैसा सौभाग्य प्राप्त करने का भाव कर लिया था उसी से द्रौपदी पर्याय में पंचभर्तारी का असत्य आरोप लगा है। वास्तव में द्रौपदी सती थी। युधिष्ठिर और भीम उसके जेठ थे और नकुल, सहदेव देवर थे। फिर भी पूर्वकृत कर्म के उदय से उसे अकारण ही अवर्णवाद-निन्दा को सहना पड़ा है। अंत में द्रौपदी ने भगवान नेमिनाथ के समवसरण में गणिनी राजीमती आर्यिका से दीक्षा लेकर स्त्री पर्याय छेदकर अच्युत स्वर्ग में देवपद को प्राप्त कर लिया है।
महासती मैना सुन्दरी-
इसी भरतक्षेत्र के आर्यखंड में उज्जयिनी नाम की नगरी है। उसमें राजा पुहुपाल शासन करते थे। उनकी रानी निपुणसुन्दरी के सुरसुन्दरी और मैनासुन्दरी दो कन्यायें थीं। बड़ी पुत्री शैवगुरु के पास पढ़ी तथा मैनासुन्दरी ने आर्यिका के पास सभी विद्याओं और शास्त्रों का अच्छा अध्ययन कर लिया था। एक दिन पिता ने कहा-बेटी! तू अपनी इच्छा से अपने लिए वर का निर्णय बता दे। मैना ने इस पर मना कर दिया और कहा मेरे भाग्य से जैसा होगा ठीक है। पिता ने भाग्य के नाम से चिढ़कर म्ौना का कोढ़ी पति के साथ विवाह कर दिया। यद्यपि रानी और मंत्रियों ने अत्यधिक मना किया था फिर भी राजा ने नहीं सुना।
चम्पापुर के राजा अरिदमन की रानी कुंदप्रभा के एक पुत्र हुआ। जिसका नाम श्रीपाल था। पिता के दीक्षित होने के बाद ये राज्य संचालन कर रहे थे। अकस्मात् भयंकर कुष्ठ रोग से ग्रसित होने से प्रजा को उनकी बदबू सहन नहीं हुई तब श्रीपाल ने अपने चाचा वीरदमन को राज्य सम्भलाकर आप अपने ७०० योद्धाओं के साथ देश से निकलकर वनों में विचरने लगे।
राजा पुुहुपाल ने इनके साथ ही पुत्री का विवाह कर दिया। मैनासुन्दरी पतिव्रत आदि गुणों से युक्त पतिसेवा करने लगी। एक दिन उसने मंदिर में जाकर निर्ग्रंथ मुनि से पति के रोग निवारण के लिए पूछा। मुनिराज ने कहा-
‘‘हे भद्रे! तुम कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ की आष्टान्हिका में आठ-आठ दिन व्रत करके सिद्धचक्र की आराधना करो। मैनासुन्दरी ने गुरु से व्रत लेकर प्रथम ही कार्तिक के महीने में व्रत किया। मंदिर में जाकर जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा का अभिषेक करके विधिवत् सिद्धचक्र पूजा की, अनंतर गंधोदक लाकर अपने पति के सर्वांग में लगाया। साथ में रहने वाले ७०० योद्धाओं के ऊपर भी छिड़का। केवल आठ ही दिनों में श्रीपाल का कुष्ठरोग नष्ट हो गया और साथ ही ७०० योद्धा भी रोगमुक्त हो गये। मैनासुन्दरी की जिनभक्ति के प्रभाव को देखकर सभी बहुत ही प्रभावित हुए।
श्रीपाल की माता कुंदप्रभा को जब दिव्यज्ञानी मुनिराज से पता चला कि श्रीपाल मैनासुन्दरी पत्नी के प्रभाव से स्वस्थ होकर उज्जयिनी नगरी के बगीचे में महल में रह रहे हैं, तब माता वहाँ आ गईं और पुत्र को स्वस्थ देखकर प्रसन्न हुईं।
आकस्मिक एक दिन मैनासुन्दरी की माता निपुणसुंदरी मंदिर में अपनी पुत्री को अत्यन्त सुन्दर पुरुष के साथ बैठे देखकर रोने लगी। उसने सोचा-‘‘ओह! मेरी पुत्री ने रुग्णपति को छोड़कर किसी अन्य ही राजकुमार के साथ सम्बन्ध कर लिया है।’’ मैना माता के भावों को समझ गई तब उसने सारी बातें माता को बता दीं। माता सुनकर प्रसन्न हुईं और पुत्री की बहुत ही सराहना की।
कुछ दिनों बाद श्रीपाल मैनासुन्दरी को अपनी माँ के पास छोड़कर विदेश चले गये। वहाँ अनेक सुख-दु:खों का अनुभव किया। १२ वर्ष बाद आठ हजार रानियों को तथा बहुत बड़ी सेना को लेकर वापस आ गये।
अनंतर अपने चम्पापुर जाकर चाचा वीरदमन से युद्ध कर अपना राज्य वापस ले लिया और आठ हजार रानियों के मध्य में मैनासुन्दरी को पट्टरानी बना दिया और कुछ दिनों बाद मैनासुन्दरी के क्रम से तीन पुत्र हुए जिनके नाम महापाल, देवरथ और महारथ रक्खे गये। अन्य तीन रयनमंजूषा, गुणमाला आदि रानियों के भी पुत्र हुए। राजा श्रीपाल के सभी १२ हजार पुत्र थे और वे सभी धर्मकार्यों में दत्तचित्त रहते थे।
एक बार चम्पापुर में केवली भगवान का समवसरण आया। राजा ने सपरिवार जाकर वंदना पूजा की। अनंतर अपने पूर्वभव पूछे, केवली भगवान् ने कहा-
इसी भरत क्षेत्र के रत्नसंचयपुर में श्रीकण्ठ नाम का राजा रहता था। वह विद्याधर था। उसकी रानी श्रीमती बहुत ही धर्मात्मा थी। एक दिन दोनों ने मुनिराज के पास श्रावक के व्रत ग्रहण किये। घर आकर राजा ने व्रतों को छोड़ दिया और जैन धर्म की निंदा करने लगे। एक दिन वे ७०० वीरों के साथ वन-क्रीड़ा के लिए गये थे। वहाँ गुफा में ध्यानमग्न एक महान योगी मुनिराज को देखा।
‘‘यह कोढ़ी है, कोढ़ी है’’ ऐसा कहकर उन्होंने अपने िंककरों से उन्हें समुद्र में गिरवा दिया। समुद्र में भी मुनि को ध्यान मग्न देखकर राजा ने दया बुद्धि से बाहर निकलवा दिया और अपने स्थान वापस आ गये। किसी एक दिन पुन: अत्यन्त कृशकाय दिगम्बर मुनि को देखकर राजा ने कहा-
‘‘अरे निर्लज्ज दिगम्बर! नग्न घूमते हुए तुझे शर्म नहीं आती। …… तेरा मस्तक काट डालना चाहिए।’’
इतना कहकर मारने के लिए राजा ने तलवार उठाई कि तत्क्षण ही उनके हृदय में दया का स्रोत उमड़ आया। तब वे तलवार को म्यान में रखकर वापस घर आ गये। ऐसे परम तपस्वी मुनिराज पर उपसर्ग करने से राजा को महान पाप का बंध हो गया। एक दिन स्वयं राजा ने अपनी रानी श्रीमती से ये सारी बातें बता दीं। रानी बहुत चिंतित हुई, चिन्ता से संतप्त मन उसने भोजन भी छोड़ दिया। जब राजा को पता चला कि रानी इस कारण दु:खी हैं कि मैंने श्रावक के व्रत ग्रहण कर, छोड़ दिये और मुनि पर उपसर्ग किया है। तब राजा ने पश्चात्ताप कर रानी की तुष्टि के लिए मंदिर में जाकर मुनिराज से अपने पापों की शांति का उपाय पूछा। मुनिराज ने राजा को सम्यक्त्व का उपदेश देकर मिथ्यात्व का त्याग करा दिया। पुन: श्रावक के व्रत देकर सिद्धचक्र विधान करने को कहा। राजा ने रानी के साथ विधिवत् आठ वर्ष तक आष्टान्हिक पर्व में सिद्धचक्र की आराधना की। अनंतर उद्यापन करके संन्यास विधि से मरण कर स्वर्ग में देवपद प्राप्त किया। रानी भी स्वर्ग में देवांगना हुई।
इस भव में राजा श्रीकण्ठ का जीव ही तुम श्रीपाल हुए हो रानी श्रीमती का जीव यह मैनासुन्दरी हुआ है। तुमने जो मुनि को कोढ़ी कहा था, सो कोढ़ी हुए हो। जो मुनि को समुद्र में डलवाया था सो धवलदत्त सेठ ने तुम्हें समुद्र में गिरा दिया था। इत्यादि भवों को सुनकर धर्म के प्रति अत्यधिक श्रद्धावान हो गया।
एक दिन विद्युत्पात देखकर राजा श्रीपाल को वैराग्य हो गया। तब उसने अपने बड़े पुत्र को राज्य देकर वन में जाकर महामुनि के पास दीक्षा धारण कर ली। उस समय उसके ७०० योद्धा पुरुषों ने भी दीक्षा ले ली। माता कुंदप्रभा और मैनासुन्दरी ने भी दीक्षा ले ली। साथ ही ८००० रानियों ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली। निर्दोष चर्या का पालन करते हुए मुनि श्रीपाल ने घोर तपश्चरण करके केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त कर लिया।
आर्यिका मैनासुन्दरी ने भी घोर तपश्चरण के द्वारा कर्मों को कृश कर दिया तथा सम्यक्त्व के प्रभाव से स्त्रीलिंग को छेदकर सोलहवें स्वर्ग में देवपद प्राप्त कर लिया। आगे वह देव मनुष्यभव प्राप्त कर दीक्षा लेकर मोक्षपद प्राप्त करेगा। मैनासुन्दरी की पतिसेवा और सिद्धचक्र आराधना आज भी भारतवर्ष में सर्वत्र प्रसिद्धि को प्राप्त है।
आर्यिका अनंतमती-
भरतक्षेत्र के अंगदेश की चम्पापुरी के राजा वसुवर्धन की रानी का नाम लक्ष्मीमती था। यहीं पर एक सेठ प्रियदत्त थे। उनकी पत्नी अंगवती थी। अंगवती के सुंदर कन्या हुई। उसका नाम अनंतमती रक्खा गया। यह पुत्री सर्वगुणों की खान थी। जब वह ८-९ वर्ष की थी, आष्टान्हिक पर्व में सेठ प्रियदत्त अपनी रानी और पुत्री के साथ जिनमंदिर गये। भगवान के दर्शन करके मुनिराज के पास जाकर आठ दिन के लिए पत्नी के साथ ब्रह्मचर्यव्रत ले लिया। पुत्री ने भी व्रत लेना चाहा तब पिता ने उसे भी दिला दिया।
जब वह विवाह योग्य हुई तब पिता ने उसके विवाह की चर्चा की। तब अनंतमती ने कहा—पिताजी मैंने तो आपसे आज्ञा लेकर ब्रह्मचर्य व्रत लिया था। पिता ने कहा—बेटी! वह तो विनोद में दिलाया गया था और फिर आठ दिन की बात थी। अनंतमती ने कहा—उस समय आठ दिन की मेरे लिए बात नहीं थी। जो भी हो, अनंतमती दृढ़ थी अत: माता-पिता ने विवाह की बात खतम कर दी।
एक दिन अनंतमती अपने बगीचे में झूला झूल रही थी। उसी समय एक विद्याधर उसे हरण कर ले गया। पुन: अपनी पत्नी के डर से उसे वन में छोड़ दिया। वन में अनंतमती अकेली रो रही थी। इसी बीच वहाँ एक भीलोें का राजा आया। उसने अपने महल में ले जाकर पत्नी बनाना चाहा तब कन्या की दृढ़ता के प्रभाव से वन देवी ने उसकी रक्षा की। तब उस भील ने उस कन्या को एक पुष्पक नाम के सेठ के हाथों सौंप दी। सेठ ने भी उसे अपने अधीन करना चाहा किन्तु अनंतमती के शील की दृढ़ता से वह डर गया। अनंतर उसने एक वेश्या के पास उसे छोड़ दिया। कामसेना वेश्या ने भी अनंतमती को वेश्या बनाना चाहा किन्तु असफल रही। तब उसने उसे सिंहराज नाम के राजा को सौंप दिया। सिंहराज ने भी अनंतमती से बलात्कार करना चाहा तब वनदेवी ने आकर उसकी रक्षा की। तब सिंहराज ने उसे जंगल में छुड़वा दिया। वहाँ पर निर्जन वन में अनंतमती मंत्र का स्मरण करते हुए आगे बढ़ी और चलती ही गई। कई एक दिनों में वह अयोध्या पहुँच गई। वहाँ पद्मश्री आर्यिका के दर्शन किये और उनसे अपना सारा हाल सुना दिया।
आर्यिका पद्मश्री अनंतमती की छोटी उम्र में उसने इतने कष्ट झेले हैं देखकर बहुत ही दु:खी हुईं और करुणा से हृदय आर्द्र हो गया। उन्होंने अनंतमती को अपने पास रखा, सान्त्वना दी तथा संसार की स्थिति का उपदेश देते हुए उसके वैराग्य को और भी दृढ़ कर दिया। वह अनंतमती तब से उन आर्यिका के पास ही रहती थी और सतत धर्मध्यान में अपना समय बिता रही थी।
अनंतमती के पिता प्रियदत्त पुत्री के हरण हो जाने के बाद सर्वत्र खोज कराकर थक चुके थे और उसके वियोग के दु:ख से बहुत ही व्याकुल रहते थे। वे मन की शांति देने हेतु तीर्थयात्रा को निकले हुए थे। अयोध्या में आ गये और अपने साले जिनदत्त के यहाँ ठहर गये। उनसे अपनी पुत्री के हरे जाने का समाचार सुनाया जिससे ये लोग भी दु:खी हुए।
दूसरे दिन जिनदत्त की भार्या ने घर में चौका बनाया था। उसने आर्यिका पद्मश्री के पास में स्थित बालिका को अपने घर बुला लिया। उसे भोजन का निमंत्रण दे दिया तथा घर के आँगन में चौक पूरने को कहा। कन्या ने रत्नचूर्ण की रांगोली से बहुत ही सुंदर चौक बनाया। कुछ देर बाद सेठ प्रियदत्त उस चौक की सुंदरता को देखकर अपनी पुत्री को याद कर रो पड़ा और पूछने लगा—यह चौक किसने पूरा है उसे मुझे दिखा दो। कन्या को देखते ही उसने उसे अपने हृदय से लगा लिया। पिता पुत्री के इस मिलन को देखकर सभी को आश्चर्य हुआ और महान हर्ष भी।
अनंतर पिता ने पुत्री से घर चलने को कहा किन्तु अनंतमती पूर्ण विरक्त हो चुकी थी। अत: उसने पिता से प्रार्थना की कि आप मुझे अब दीक्षा दिला दीजिए। बहुत कुछ समझाने के पश्चात् भी अनंतमती ने घर जाने से इंकार कर दिया और वहीं आर्यिका पद्मश्री से दीक्षा लेकर आर्यिका बन गईं। इन्होंने दीक्षित अवस्था में महीने-महीने के उपवास करके बहुत ही तपश्चरण किया है। उसकी इतनी छोटी उम्र, ऐसा कोमल शरीर और ऐसा महान तप देखकर लोग आश्चर्यचकित हो जाते थे।
देखो, अनंतमती कन्या ने अबोध अवस्था में विनोद से दिलाये गये ब्रह्मचर्यव्रत को भी महान समझा, उसका संकट काल में भी निर्वाह किया और युवावस्था में ही आर्यिका बनकर घोर तपश्चरण किया है। अनंतर अंत में सल्लेखना विधि से मरणकर स्त्रीपर्याय को छेदकर बारहवें स्वर्ग में देव हो गई हैं।
गणिनी आर्यिका चन्दना-
वैशाली नगरी के राजा चेटक की रानी सुभद्रा के दश पुत्र और सात पुत्रियाँ थीं। धनदत्त, धनभद्र, उपेन्द्र, सुदत्त, सिंहभद्र, सुकुंभोज, अकंपन, पतंगक, प्रभंजन और प्रभास ये पुत्रों के नाम थे और प्रियकारिणी (त्रिशला), मृगावती, सुप्रभा, प्रभावती, चेलना, ज्येष्ठा और चंदना ये कन्याओं के नाम थे। बड़ी पुत्री प्रियकारिणी विदेह देश के कुण्डपुर नगर के राजा सिद्धार्थ की रानी हईं। इन्होंने ही भगवान महावीर को जन्म दिया था। अन्य कन्यायें भी राजपुत्रों से ब्याही गयी थीं।
चेलना का विवाह राजगृही के राजा श्रेणिक के साथ हुआ था। ज्येष्ठा ने यशस्वती आर्यिका के पास दीक्षा ले ली थी। तब चंदना ने उन्हीं यशस्वती आर्यिका से सम्यग्दर्शन और श्रावक के व्रत ले लिए थे। यह चंदना युवावस्था को प्राप्त हुई। तभी एक दिन अपने बगीचे में क्रीड़ा कर रही थी। अकस्मात् विजयार्ध पर्वत का एक मनोवेग नाम का विद्याधर राजा अपनी रानी के साथ आकाशमार्ग से जाता हुआ उधर से निकला। उसने चंदना को देखा तब उसने अपनी रानी को घर भेजकर चंदना का अपहरण कर लिया। उसी समय मनोवेगा रानी ने राजा के मनोभाव को जानकर उसका पीछा किया और तर्जना की। वह मनोवेग विद्याधर रानी से डरकर उस कन्या को पर्णलघ्वी विद्या के बल से विमान से नीचे गिरा दिया। कन्या चंदना भूतरमण वन में ऐरावती नदी के किनारे गिर गई।
पंच नमस्कार मंत्र का जाप करते हुए चंदना ने वन में रात्रि बड़े कष्ट से बिताई। प्रात:काल वहाँ एक कालक नाम का भील आया। चंदना ने उसे अपने बहुमूल्य आभूषण दे दिए और धर्मोपदेश भी दिया जिससे वह बहुत ही संतुष्ट हुआ। तब उस भील ने चंदना को ले जाकर अपने भीलों के राजा सिंह को दे दी। सिंह भील कन्या से काम संबंधी वार्तालाप करने लगा। चंदना की दृढ़ता को देख उस भील की माता ने उसे समझाकर चंदना की रक्षा की।
अनंतर भील ने चंदना को कौशाम्बी नगरी के एक मित्रवीर को सौंप दिया। इसने अपने स्वामी सेठ वृषभसेन के पास चंदना को ले जाकर दिया और बदले में बहुत सा धन ले आया। सेठ ने चंदना को उत्तम कुलीन कन्या समझकर उसे अपनी पुत्री के समान रक्खा था। एक दिन चंदना सेठ के लिए जल पिला रही थी। उस समय उसके केशों का कलाप छूट गया था और जल से भीगा हुआ पृथ्वी पर लटक रहा था। उसे वह यत्न से एक हाथ से सँभाल रही थी। सेठ की स्त्री भद्रा ने जब चंदना का वह रूप देखा तो शंका से भर गई। उसने मन में समझा कि मेरे पति का इसके साथ संपर्क है। ऐसा मानकर वह बहुत ही कुपित हुई।
उस दुष्टा ने चंदना को सांकल से बाँध दिया तथा उसे खाने के लिए मिट्टी के शकोरे में काँजी से मिला हुआ कोदों का भात दिया करती थी। ताड़न, मारण आदि के द्वारा वह उसे निरंतर कष्ट पहुँचाने लगी थी। परन्तु चंदना निरंतर आत्मनिंदा करती रहती थी। उसने यह सब समाचार वहीं कौशाम्बी की महारानी अपनी बड़ी बहन मृगावती को भी नहीं कहलाया।
किसी एक दिन तीर्थंकर महावीर स्वामी मुनि अवस्था में वहाँ आहार के लिए आ गए। उसी समय चंदना भगवान के सामने जाने के लिए खड़ी हुई। तत्क्षण ही उसके सांकल के बंधन टूट गये। उसके मुँड़े हुए सिर पर बड़े-बड़े केश दिखने लगे और उसमें मालती पुष्प की मालायें लग गईं। उसके वस्त्र आभूषण सुंदर हो गये। उसके शील के माहात्म्य से मिट्टी का सकोरा सुवर्ण पात्र बन गया और कोदों का भात शाली चावलों का भात बन गया। उस समय बुद्धिमती चंदना ने बहुत ही भक्तिभाव से भगवान का पड़गाहन किया और नवधाभक्ति करके विधिवत् भगवान को खीर का आहार दिया। उसी समय देवगण आ गए, आकाश से पंचाश्चर्य वृष्टि होने लगी। जय-जयकार की ध्वनि से सारा नगर गूँज उठा। वहाँ बेशुमार भीड़ इकट्ठी हो गई। रानी मृगावती अपने पुत्र उदयन के साथ वहाँ आ गई। अपनी बहन चंदना को पहचान कर उसे अपनी छाती से चिपका लिया पुन: स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरकर सारा समाचार पूछा। चंदना ने भी अपहरण से लेकर आज तक का सब हाल सुना दिया। सुनकर मृगावती बहुत ही दु:खी हुईं पुन: चंदना को अपने घर ले आई।
यह देख भद्रा सेठानी और वृषभसेन सेठ दोनों ही भय से घबराए और मृगावती की शरण में आ गए। दयालु रानी ने उन दोनों से चंदना के चरणकमलों में प्रणाम कराया और क्षमा याचना कराई। चंदना ने भी दोनों को क्षमा कर दिया। तब वे बहुत ही प्रसन्न हुए और अनेक प्रकार से चंदना की प्रसंशा करते हुए चले गए। वैशाली में यह समाचार पहुँचते ही उसके वियोग से दु:खी माता-पिता, भाई-भावज आदि सभी लोग वहाँ आ गये और चंदना से मिलकर बहुत ही संतुष्ट हुए।
भगवान महावीर को वैशाख सुदी दशमी के दिन केवलज्ञान प्रगट हो गया। इंद्र ने समवसरण की रचना कर दी। किन्तु गणधर के अभाव में भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरी। श्रावण वदी एकम् को ६६ दिन बाद सौधर्म इंद्र गौतमगोत्रीय इंद्रभूति ब्राह्मण को वहाँ लाए। उन्होंने भगवान के दर्शन से प्रभावित हो जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और भगवान के प्रथम गणधर हो गए। चंदना ने भी तभी आकर भगवान के पास आर्यिका दीक्षा ले ली और सर्व आर्यिकाओं में गणिनी हो गई।
भगवान के समवसरण में ११ गणधर, चौदह हजार मुनि, छत्तीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकायें थीं। उस समय सभाr आर्यिकाओं ने चंदना से ही दीक्षा ली थी। यहाँ तक कि उनकी बड़ी बहन चेलना ने भी उन्हीं चंदना से ही दीक्षा ली थी। आज-कल जो चंदनबाला के नाटक में सेनापति द्वारा पिता को मारना, माता को मारना और चंदना को कष्ट देना आदि लिखा है सो गलत है और जो चंदना के बारे में लिखा है कि वह सेठ के पैर धो रही थी। सेठ जी उसके केशों को हाथ से उठा रहे थे, यह भी गलत है। चंदना का विद्याधर द्वारा अपहरण हुआ तब उसके माता-पिता आदि दु:खी हुए हैं एवं वह सेठ के यहाँ रहती हुई सेठ को जल पिला रही थी। उत्तरपुराण में यह बात स्पष्ट है अत: उत्तरपुराण का स्वाध्याय करके सही ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।
आर्यिका विजया-
इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में हेमांगद नाम का देश है। इस में राजपुरी नाम की राजधानी थी। उसमें सत्यंधर राजा राज्य करते थे। पट्टरानी का नाम विजया था। राजा सत्यंधर को विजया रानी के प्रति अत्यधिक स्नेह होने से उन्होंने अपने मंत्रियों के मना करने पर भी मंत्री काष्ठांगार को अपना राज्यभार संभला दिया और आप महल में रहने लगे। एक बार रात्रि के पिछले भाग में रानी ने तीन स्वप्न देखे, उसने पति से कहा- हे आर्यपुत्र! मैंने पहले स्वप्न में अशोक वृक्ष देखा है पुन: देखा वज्र के गिरने से वह वृक्ष गिर गया और उसी के निकट एक दूसरा अशोक वृक्ष निकल आया तथा उस वृक्ष के अग्रभाग पर स्वर्ण मुकुट है और उसमें आठ मालायें लटक रही हैं। राजा ने कहा-अशोक वृक्ष और उसमें आठ मालाओं से तुम पुत्र को प्राप्त करोगी, उसके आठ रानियां होंगी और प्रथम वृक्ष का पतन मेरे अमंगल को सूचित कर रहा है। इतना सुनकर रानी शोक से मूर्च्छित हो गई। राजा ने अनेक प्रकार से समझाकर रानी को सान्त्वना दी। कुछ दिनों बाद रानी ने गर्भ धारण किया। राजा ने एक मयूर यंत्र बनवाया और रानी को उसमें बिठाकर मनोहर वनों में क्रीड़ा किया करते थे।
इसी मध्य काष्ठांगार ने राज्य को हड़पने के भाव से राजा पर चढ़ाई कर दी। तब राजा सत्यंधर ने जैसे-तैसे विजया रानी को समझाकर मयूरयंत्र में बिठाकर उड़ा दिया और आप युद्ध के लिए निकला। युद्ध करते हुए राजा ने अपना मरण देख वहीं पर परिग्रह का त्याग कर स¼ेखना धारण कर ली जिससे स्वर्ग में देव हो गया। मयूर यंत्र ने रानी को नगर के निकट श्मशान में गिरा दिया था। राजा के मरते क्षण ही रानी ने श्मशान में ही पुत्ररत्न को जन्म दिया।
रानी पुत्र को गोद में लेकर विलाप कर रही थी कि उसी समय वहाँ एक देवी ने आकर रानी को सांत्वना देकर पुत्र को वहीं रखकर छिप जाने को कहा और समझाया-हे मात! एक वैश्यपति इसे पालन करेगा। उसी क्षण राजपुरी नगरी का ही सेठ गंधोत्कट अपने मृतक पुत्र को वहाँ छोड़कर निमित्तज्ञानी के कहे अनुसार वहाँ पुत्र को खोज रहा था। उसने इसे उठा लिया। इधर रानी ने ‘‘जीव’’ ऐसा आशीर्वाद दिया। गंधोत्कट ने घर लाकर ‘‘जीवन्धर’’ ऐसा नामकरण कर दिया और पुत्र जन्म का उत्सव मनाया। कुछ दिन बाद गंधोत्कट की पत्नी सुनंदा ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नंदाढ्य नाम रखा गया।
उधर वह देवी विजया को पास के तपोवन में ले गई, वहाँ वह अपने प्रच्छन्न वेष में रहने लगी।
एक बार एक तापसी को भस्मक व्याधि थी। जीवंधर ने उसे अपने हाथ से एक ग्रास दे दिया जिससे उसकी क्षुधाव्याधि शांत हो गई। इससे उस तापसी आर्यनन्दी ने उस बालक को ले जाकर सभी शास्त्रों में और विद्याओं में निष्णात बना दिया एवं ‘‘तुम राजा सत्यंधर के पुत्र हो’’ यह बता दिया। किसी समय जीवंधर ने कुत्ते को मरणासन्न स्थिति में णमोकार मन्त्र सुनाया था जिससे वह सुदर्शन नाम का यक्षेन्द्र हो गया था। उसने आकर जीवंधर को नमस्कार कर कृतज्ञता ज्ञापन किया और किसी भी संकट आदि के समय स्मरण करने को कहकर चला गया।
इधर जीवंधर ने सोलह वर्ष तक अनेक सुख-दु:खों का अनुभव किया और इनका आठ कन्याओं के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। अनंतर तपोवन में माता विजया से मिलकर उन्हें राजपुरी ले आये। अपने मामा गोविन्द महाराज के साथ मिलकर काष्ठांगार से युद्ध करके उसे मार कर विजयी हुए। उसी समय वहाँ घोषणा कर दी गई कि ये जीवंधर कुमार राजा सत्यंधर के पुत्र हैं। तभी वहाँ पर बड़े ही महोत्सव के साथ जीवंधर का राज्याभिषेक हुआ।
जब विजयारानी ने पुत्र को पिता के पद पर प्रतिष्ठित हुआ देख लिया तब वे बहुत ही सन्तुष्ट हुईं। लालन-पालन करने वाले पिता गंधोत्कट और माता सुनन्दा भी यहीं जीवन्धर के पास रहते थे। अब विजया को पूर्ण वैराग्य हो चुका था। उसने पुत्र जीवंधर से अनुमति लेकर सुनन्दा के साथ गणिनी आर्यिका के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। दोनों माताओं के दीक्षा ले लेने से जीवंधर बहुत दु:खी हुए। वहाँ पहुँच कर दोनों आर्यिका माताओं का दर्शन किया, पुन: विषाद करने लगे। तब गणिनी आर्यिका ने इन्हें बहुत कुछ धर्मोपदेश दिया और समझाया। जिससे कुछ-कुछ सांत्वना को प्राप्त होकर उन्होंने दोनों आर्यिकाओं के बार-बार चरण स्पर्श किए, पुन: यह प्रार्थना की कि ‘‘हे मात:, आपको इसी नगरी में रहना चाहिए अन्यत्र विहार करने का स्मरण भी नहीं करना चाहिए।’’
इस बात का अत्यधिक आग्रह करके वे वहीं पर बैठे रहे। जब दोनों आर्यिकाओं ने तथास्तु कहकर जीवंधर कुमार की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली, तभी वे वहाँ से वापस चलकर अपने घर आये।
अनंतर तीस वर्ष तक राज्य सुख का अनुभव कर जीवंधरस्वामी ने भी अपने पुत्र को राज्य देकर भगवान महावीर के समवसरण में दीक्षा ले ली। उनकी आठोें रानियों ने भी आर्यिका दीक्षा ले ली। घोर तपश्चरण के द्वारा घातिया कर्मों का नाश करके जीवंधरस्वामी ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। अन्त में सर्व कर्मों को नष्ट कर मोक्ष पद को प्राप्त हो गए। महारानी विजया, सुनन्दा आदि आर्यिकाओं ने भी स्त्रीपर्याय को छेदकर स्वर्ग में देवपद प्राप्त कर लिया है।
तीर्थंकर नाम | प्रमुख गणिनी | आर्यिकाएँ | |
1. | श्री ऋषभदेव | ब्राह्मी | ३ लाख ५० हजार |
2. | श्री अजितनाथ | प्रकुब्जा | ३ लाख २० हजार |
3. | श्री संभवनाथ | धर्मार्या | ३ लाख २० हजार |
4. | श्री अभिनंदननाथ | मेरुषेणा | ३ लाख ३० हजार |
5. | श्री सुमतिनाथ | अनन्तमती | ३ लाख ३० हजार |
6. | श्री पद्मप्रभु | रात्रिषेणा | ४ लाख २० हजार |
7. | श्री सुपार्श्वनाथ | मीनार्या | ३ लाख ३० हजार |
8. | श्री चन्द्रप्रभु | वरुणा | ३ लाख ८० हजार |
9. | श्री पुष्पदंतनाथ | घोषार्या | ३ लाख ८० हजार |
10. | श्री शीतलनाथ | धरणा | १ लाख ८० हजार |
11. | श्री श्रेयांसनाथ | धारणा | १ लाख २० हजार |
12. | श्री वासुपूज्य | सेना | १ लाख ६००० |
13. | श्री विमलनाथ | पद्मा | १ लाख ३००० |
14. | श्री अनंतनाथ | सर्वश्री | १ लाख ८००० |
15. | श्री धर्मनाथ | सुव्रता | ६२ हजार ४०० |
16. | श्री शांतिनाथ | हरिषेणा | ६० हजार ३०० |
17. | श्री कुंथुनाथ | भाविता | ६० हजार ३५० |
18. | श्री अरहनाथ | यक्षिला | ६० हजार |
19. | श्री मल्लिनाथ | बन्धुषेणा | ५५ हजार |
20. | श्री मुनिसुव्रतनाथ | पुष्पदंता | ५० हजार |
21. | श्री नमिनाथ | मंगिनी | ४५ हजार |
22. | श्री नेमिनाथ | राजीमती | ४० हजार |
23. | श्री पार्श्वनाथ | सुलोचना | ३६ हजा |
24. | महावीर स्वामी | चन्दना | ३६ हजार |