ऐतिहासिक कार्यकलाप एवं प्राचीन तीर्थ प्रयाग का उद्भव
इतिहास बनाने वाले, होते हैं विरले प्राणी।
इतिहास को पढ़कर फिर तो, बन जाते कितने ज्ञानी।।
अर्थात् संसार में कुछ विरली महान आत्माएँ ही अपने आदर्शों के द्वारा इतिहास का निर्माण करती हैं पुन: उनके द्वारा निर्मित इतिहास को पढ़कर न जाने कितनी भव्यात्माएँ अपना कल्याणमार्ग प्रशस्त करती हैं।
पूज्य ज्ञानमती माताजी एक ऐसी ही ऐतिहासिक नारी हैं, जिन्होंने अपने प्रत्येक कार्यकलाप के द्वारा जन-जन को प्रेरणाएँ प्रदान करके नए-नए इतिहासों का निर्माण किया है। इनके जीवन की ऐतिहासिक घटनाएँ यद्यपि अनेकानेक हैं, फिर भी यहाँ प्रसंगोपात्त मैं कतिपय प्रमुख सृजनात्मक कार्यकलापों से पाठकों को अवगत कराती हूँ।
प्रीतविहार (दिल्ली) में कमल मंदिर का निर्माण
दिल्ली के एक श्रावक श्री अनिल कुमार जैन ने पूज्य माताजी से मांगीतुंगी जाते समय अपने मकान के लॉन में एक गृह चैत्यालय बनाने की भावनानुसार जमीन में यंत्र स्थापित कराया था।
यंत्र के चमत्कार स्वरूप वहाँ उन्होंने माताजी की प्रेरणा से कमल मंदिर बनवा लिया और वापस संघ के दिल्ली आने तक उस मंदिर का निर्माण पूरा हो गया। अत: जून १९९७ में अत्यन्त प्रभावनापूर्वक भगवान ऋषभदेव की सवा दो फुट पद्मासन धातु प्रतिमा का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव संघ सानिध्य में सम्पन्न हुआ।
आज वह कमल मंदिर दिल्ली का एक चमत्कारिक ‘‘भगवान ऋषभदेव कमल मंदिर’’ के नाम से प्रसिद्ध हो चुका है। उसके निर्माता पुण्यशाली श्रावक अनिल जी माताजी के अनन्य भक्त हैं।
एक साथ चौबीस कल्पद्रुम विधानों ने विहंगम दृश्य उपस्थित कर दिया
अक्सर यह देखा जाता है कि किसी को अगर एक मण्डल विधान करना है तो उसे बड़ी चिंता हो जाती है कि कैसे यह विधान प्रभावनापूर्वक सम्पन्न होगा? कितने लोग करेंगे?
लेकिन ज्ञानमती माताजी ने कभी नकारात्मक ढंग से सोचना सीखा ही नहीं है। मैंने और माताजी ने मिलकर दिल्ली में एक भक्ति महाकुंभ का विराट आयोजन कराने की दृष्टि से चौबीस भगवन्तों के समवसरण एक साथ बनाकर कल्पद्रुम विधान की योजना बनाई, पुन: उन्होंने एक साथ एक-दो नहीं अपितु चौबीस कल्पद्रुम विधान कराने की घोषणा कर दी।
जिन-जिन महानुभावों ने वह दृश्य देखा है, वे आज भी आकर यही कहते हैं कि माताजी! उस समय तो ऐसा लगता ही नहीं था कि इस समय पंचमकाल चल रहा है, बिल्कुल चतुर्थकाल जैसा दृश्य सर्वत्र दृष्टिगोचर होता था। एक साथ हजारों लोग केशरिया परिधान में पूजन करते थे ।
जबकि दिल्ली जैसी आधुनिक नगरी के वासियों में इतनी भक्तिभावना की उम्मीद नहीं थी परन्तु उस विधान को देखकर तो विश्वास हो गया कि आज भी समाजों में देव-शास्त्र-गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा-भक्ति की भावना भरी हुई है। इस प्रकार भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती महोत्सव वर्ष में यह एक अभूतपूर्व भक्ति आयोजन सम्पन्न हुआ।
समवसरण प्रवर्तन के साथ जन्मजयंती वर्ष का समापन हुआ
‘‘भगवान ऋषभदेव जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर हैं अत: भगवान महावीर जैनधर्म के संस्थापक नहीं हैं’’ इस बात से जन-जन को परिचित कराने हेतु पूज्य माताजी के मन में सन् १९९२ से लगन लगी थी अत: अयोध्या तीर्थ का विकास, १०८ फुट मूर्ति निर्माण प्रेरणा, २४ कल्पद्रुम विधान आदि कुछ न कुछ प्रभावनात्मक कार्य समय-समय पर हुए, उसी शृंखला में पूज्य माताजी ने दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान के कार्यकर्ताओं को ‘‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’’ के नाम से पूरे भारत में एक रथ घुमाने की प्रेरणा दी।
उस रथ के साथ-साथ जन्मकल्याणक के प्रतीक में एक विशाल ऐरावत हाथी से समन्वित दूसरा रथ भी बनाया गया। इन दोनों रथों का उद्घाटन २२ मार्च १९९८ को ऋषभजयंती के दिन जन्मजयंती महोत्सव वर्ष के समापन अवसर पर राजधानी दिल्ली के लालकिला मैदान से केन्द्रीय वित्तराज्यमंत्री श्री वी.धनंजय कुमार जैन की अध्यक्षता में हुआ
पुन: ९ अप्रैल १९९८ को भगवान महावीर जन्मजयंती के दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भारतभ्रमण हेतु इन रथों का प्रवर्तन किया। निरन्तर तीन वर्षों तक सम्पूर्ण भारत में इस समवसरण श्रीविहार के द्वारा भगवान ऋषभदेव के सिद्धान्तों का एवं व्यसनमुक्ति, सदाचार, शाकाहार का जो व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ है, वह अविस्मरणीय है।
हर दिन नया तेरे जीवन का होता है
वास्तव में ज्ञानमती माताजी के जीवन का अगर सूक्ष्मता से अवलोकन किया जाये, तो उनके जीवन का हर क्षण, हर पल, उनकी हर सोच, उनका हर कदम, उनका हर दिन किसी न किसी नई उपलब्धि को प्राप्त कराने वाला होता है, इन्हीं उपलब्धियों के क्रम में ज्ञानमती माताजी ने विचार किया कि जहाँ से शिक्षा का प्रचार-प्रसार होता है।
उनके कुलाधिपतियों को भगवान ऋषभदेव के जीवन से परिचित कराना परम आवश्यक है अत: उन्होंने हम लोगों के साथ विचार-विमर्श करके ‘‘भगवान ऋषभदेव राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन’’ आयोजित करने की प्रेरणा प्रदान की।
दिल्ली से विहार करके हस्तिनापुर आने के पश्चात् पूज्य माताजी के सानिध्य में ४ से ६ अक्टूबर १९९८ तक यह आयोजन रखा गया, जिसमें पूरे देश के विश्वविद्यालयों से लगभग ३० कुलपति, कुछ पूर्व कुलपति एवं शताधिक प्रोपेसर विद्वानों ने भाग लिया।
सभी ने इस बात को स्वीकार किया कि अभी तक हम लोग भगवान महावीर को जैनधर्म का संस्थापक मानते थे परन्तु आज यह बात ज्ञात हुई है कि ‘‘जैनधर्म प्राकृतिक शाश्वत धर्म है और भगवान ऋषभदेव से महावीर तक इस युग के २४ तीर्थंकर हुए हैं।’’
भगवान ऋषभदेव का निर्वाण महोत्सव अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया गया
जब से दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की स्थापना हुई है, तब से ही इसके कार्यकलाप सर्वतोमुखी, सर्वोदयी एवं राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के रहे हैं, इसीलिए विविध संस्थाओं के कार्यकर्ता भी इसे जैनधर्म का पावर हाउस, कार्यकर्ताओं का ट्रेनिंग सेंटर आदि कहते हैं।
भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती, भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार के पश्चात् पूज्य माताजी की इच्छा हुई कि भगवान ऋषभदेव का निर्वाण महोत्सव अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाये अत: ४ फरवरी २००० को (माघ कृ. १४, भगवान ऋषभदेव निर्वाण कल्याणक दिवस) निर्वाण महोत्सव का उद्घाटन राजधानी दिल्ली के लालकिला मैदान में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने किया।
जिसमें कृत्रिम-विशाल वैलाश पर्वत के समक्ष सर्वप्रथम प्रधानमंत्री जी ने निर्वाणलाडू समर्पित किया पुन: सभाध्यक्ष तत्कालीन केन्द्रीय वित्त राज्यमंत्री श्री वी.धनन्जय कुमार जैन ने द्वितीय लाडू चढ़ाया, उसके बाद तो हजारों नर-नारियों ने पंक्तिबद्ध होकर भक्तिभावपूर्वक १००८ निर्वाणलाडू चढ़ाकर अपने जीवन को धन्य किया।
इसी अवसर पर लालकिला मैदान-दिल्ली में कैलाशपर्वत पर विराजमान होने वाली ७२ रत्नप्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई एवं ४ से १० फरवरी तक ‘‘विशाल ऋषभदेव मेला‘‘ भी आयोजित हुआ, जिसे देश-विदेश के लाखों नर-नारियों ने देखा।
जम्बूद्वीप का तृतीय महामहोत्सव सन् २००० में मनाया गया
जम्बूद्वीप रचना का निर्माण पूर्ण होने के बाद सन् १९८५ में पूज्य माताजी ने संस्थान के कार्यकर्ताओं को प्रेरणा प्रदान की थी कि प्रत्येक पाँच वर्षों में ‘‘जम्बूद्वीप महामहोत्सव’’ का आयोजन करना है। उनकी प्रेरणानुसार सन् १९९० और १९९५ में दो महोत्सव सम्पन्न हो चुवे थे पुन: सन् २००० में भगवान ऋषभदेव निर्वाण महोत्सव की सम्पन्नता के पश्चात् पूज्य माताजी दिल्ली से विहार करके हस्तिनापुर पहुँचीं।
वहाँ उनके सानिध्य में चैत्र शुक्ला १३ से वैशाख कृष्णा ५ (१६ से २३ अप्रैल २०००) तक पंचकल्याणक प्रतिष्ठापूर्वक जम्बूद्वीप-महामहोत्सव का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। यह पूरा पंचकल्याणक प्रथम बार विमलेश एवं दीपक जैन-गुलमोहर पार्व, दिल्ली के अर्थ सौजन्य से सम्पन्न किया गया।
इतिहासकार सम्मेलन ने नया इतिहास कायम किया
जम्बूद्वीप महोत्सव की सम्पन्नता के पश्चात् ११ जून २००० को हस्तिनापुर में त्रिलोक शोध संस्थान द्वारा ‘‘जैनधर्म की प्राचीनता’’ विषय पर एक दिवसीय संगोष्ठी आयोजित हुई, जिसमें अनेक उच्चकोटि के इतिहासकार एवं विद्वान् पधारे तथा दिल्ली से एन.सी.ई.आर.टी. की ओर से पधारे इतिहास के रीडर श्री प्रीतीश आचार्य ने सभी विद्वानों के आलेख सुनकर संगोष्ठी की रिपोर्ट शिक्षा विभाग तक पहुँचाने का आश्वासन दिया।
पुन: जब पूज्य माताजी हस्तिनापुर से विहार करके दिल्ली (प्रीतविहार-कमल मंदिर) पहुँचीं, तब वहाँ एन.सी.ई.आर.टी. के डायरेक्टर प्रो. जे.एस. राजपूत पूज्य माताजी के दर्शन हेतु पधारे तथा अनेक चर्चाओं के दौरान उन्होंने इतिहास की नई पाठ्यपुस्तकों में संशोधन करने का विश्वास दिलाते हुए पूज्य माताजी से जैनधर्म का एक अधिकृत पाठ लिखकर देने को कहा जो कि कुछ ही दिन पश्चात् उनके पास भिजवा दिया गया।
इस बीच तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी भी दो बार पूज्य माताजी के दर्शनार्थ आए और पाठ्यपुस्तकों में यथायोग्य संशोधन की बात पर उन्होंने कहा कि ‘‘हर धर्म के अधिकृत साधु-संतों एवं विशिष्ट विद्वानों से लेख को प्रमाणित करवाकर ही पाठ्यपुस्तकों में प्रकाशित हो, ऐसा मेरा प्रयास है।’’
इस प्रकार पूज्य माताजी द्वारा पुरुषार्थ करते-करते आखिर एक दिन सफलता मिली, जब संसद भवन के सत्रों में भी पाठ्यपुस्तकों के संशोधन की विस्तृत चर्चा चली और जैनधर्म के साथ-साथ अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति लिखी गई असत्य बातों का कुछ अंशों में संशोधन (सन् २००३ के संस्करणों में) हुआ था। आगे भी पुरुषार्थ करते रहने से अन्य विवादास्पद विषयों का परिवर्तन भी संभव है।
द्वितीय सहस्राब्दि का अन्तिम चातुुर्मास स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा
जब सारी दुनिया सन् २००० में द्वितीय सहस्राब्दि की विदाई और तृतीय सहस्राब्दि के आगमन का जश्न मना रही थी, ऐसे समय में ज्ञानमती माताजी का अन्तर्मन एक नवीन तीर्थ के निर्माण की योजना बना रहा था।
उन्होंने अनिल कुमार जैन, प्रीतविहार-दिल्ली की तीव्र भावनानुसार सन् २००० का चातुर्मास स्वप्रेरणा से निर्मित भगवान ऋषभदेव कमल मंदिर में किया।
उस चातुर्मास के मध्य दिल्ली में कैलाश मानसरोवर यात्रा, ४८ भक्तामर मण्डल विधान आदि कई भव्य कार्यक्रम सम्पन्न हुए तथा भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं ज्ञानकल्याणक भूमि प्रयाग-इलाहाबाद में नवीन तीर्थ निर्माण की रूपरेखा तैयार हुई। इसे कमल मंदिर में विराजमान भगवान ऋषभदेव की मनोहारी प्रतिमा का अतिशय चमत्कार ही समझना चाहिए।
मैं तो सोने का मंदिर बनवाऊँगा
एक बालक की भावना तो देखिए! जब से अनिल जी ने कमल मंदिर का निर्माण कराया, उनके पुत्र अतिशय जैन ने कई बार ये भावना प्रगट की कि मैं भी बड़ा होकर पापा की तरह एक बड़ा सा मंदिर बनवाऊँगा।
पूछने पर कि किस प्रकार का मंदिर बनवाने की आपकी भावना है, उस बालक ने तुरंत उत्तर दिया कि ‘‘पापा ने तो संगमरमर का मंदिर बनवाया है, मैं सोने का मंदिर बनवाऊँगा।’’ वास्तव में सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वारा देखे गए स्वप्न साकार होते दिखाई दे रहे हैं।
श्री ज्ञानमती माताजी को हमने तीर्थ बनाते देखा
जब से पूज्य माताजी के मन में प्रयाग तीर्थ बनाने की योजना आई थी, तब से ही वे वहाँ वैâसा मंदिर बनाना है, वैâसे क्या करना है, कौन सी आकर्षक रचना बननी चाहिए? आदि-आदि बातें ही सोचती रहती थीं।
उठते-बैठते, चलते-फिरते बस उन्हें यही एक धुन थी कि ‘इलाहाबाद-प्रयाग’ में ‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली’ नाम से तीर्थ का निर्माण करना है। आखिरकार प्रीतविहार-दिल्ली में चातुर्मास सम्पन्न करने के पश्चात् उन्होंने संघ सहित इलाहाबाद के लिए मंगलविहार कर ही दिया। वहाँ भूमि क्रय करके भाई रवीन्द्र जी वहाँ पर पूज्य माताजी की प्रेरणानुसार निर्माणकार्य तो प्रारंभ करा ही चुके थे। वहाँ पहुँचकर पूज्य माताजी बहुत ही प्रसन्न हुर्इं।
उसके बाद तो निर्माणकार्य में न जाने कहाँ से गति आ गई, देखते ही देखते भगवान ऋषभदेव की १४ फुट पद्मासन प्रतिमा का ५१ पुâट ऊँचे स्तम्भ के ऊपर विराजमान होना, ७२ जिनप्रतिमाओं से समन्वित विशाल वैलाशपर्वत की रचना बनना, वटवृक्ष मंदिर का निर्माण, समवसरण मंदिर का निर्माण आदि इतनी शीघ्रता से सम्पन्न होते चले गए।
ऐसा लग रहा था कि मानो कोई दैवी शक्ति ही आ गई हो। अपनी आँखों के सामने इतना बड़ा तीर्थ निर्मित होते देखकर ही मैंने कुछ पंक्तियाँ संजोई थीं- श्री ज्ञानमती माताजी को हमने तीर्थ बनाते देखा,ये हैं इतिहास प्रणेता।
प्रयाग तीर्थ की यात्रा ने असली महाकुंभ का रूपक प्रस्तुत किया
विश्व के क्षितिज पर महाकुंभ नगरी के रूप में विख्यात प्रयाग-इलाहाबाद नगरी को कौन नहीं जानता? आध्यात्मिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक वैभव को स्वयं में समेटे यह नगरी गंगा,यमुना एवं सरस्वती नदियों की त्रिवेणी का संगम स्थल है। कहा जाता है कि यहाँ गंगा और यमुना नदियाँ तो बहती हुई आकर मिलती हैं और सरस्वती अदृश्य रूप से इसमें प्रवाहमान हैं।
करोड़ों-करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के केन्द्र बिन्दु इस संगम स्थल पर आकर अनेकों हिन्दू श्रद्धालु भक्त इसमें स्नान करके अपने मानव जीवन को धन्य समझते हैं तथा स्वयं को पुण्यशाली मानते हैं। किन्तु वास्तव में हम प्राचीन इतिहास पर दृष्टिपात करें तो हमें ज्ञात होता है।
कि आज से कोड़ाकोड़ी वर्ष पूर्व जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने अयोध्या नगरी में जन्म लेकर जहाँ कर्मभूमि की आदि में प्रजा को जीवन जीने की कला सिखाई, राजनीति, न्यायनीति, वर्णव्यवस्था आदि का सूत्रपात किया, वहीं नीलांजना के नृत्य से वैराग्य को प्राप्त कर इसी प्रयाग की पवित्र धरती पर वटवृक्ष के नीचे प्रथम जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मुनि परम्परा को प्रादुर्भूत किया था और वह वटवृक्ष आज करोड़ों वर्ष बाद भी प्रयाग की भूमि पर अवस्थित रहकर भगवान ऋषभदेव एवं मुनि परम्परा के प्रारंभीकरण की गौरव गाथा का दिग्दर्शन करा रहा है।
महानुभावों! चूँकि उस वटवृक्ष के नीचे घोरातिघोर तपश्चरण कर उन आदिब्रह्मा आदि १००८ नामों से समलंकृत भगवान ऋषभदेव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रयी त्रिवेणी में अवगाहन कर अपनी आत्मा की विशुद्धि कर परमात्म स्वरूप की प्राप्ति की थी और वास्तविक रूप में वही त्रिवेणी संगम के रूप में जाना गया था।
जिसमें अवगाहन करके कोई भी प्राणी अपनी आत्मा को परमात्मा बना सकता है परन्तु युग बदला और इतिहास भी बदल गया, सतयुग कलियुग में परिवर्तित हो गया, जिस प्रयाग नगरी के बारे में जैन रामायण-पद्मपुराण में वर्णन आता है-
प्रजाग इति देशोसौ, प्रजाभ्योस्मिन् गतो यत:।
प्रकृष्टो वा कृतस्त्याग:, प्रयागस्तेन कीर्तित:।।२८१।।
अर्थात् भगवान ऋषभदेव अयोध्या की प्रजा समूह से दूर हो जिस स्थान पर पहुँचे थे, उस स्थान का नाम ‘प्रयाग’ प्रसिद्ध हो गया अथवा भगवान ने उस स्थान पर बहुत भारी याग अर्थात् त्याग किया था, इसीलिए उसका नाम ‘‘प्रयाग’’ प्रसिद्ध हो गया। उस प्रयाग तीर्थ को लोग कालदोषवश विस्मृत कर बैठे और चूँकि वहाँ प्रति १२ वर्षों में संगम के तट पर महावुंâभ मेला लगता है।
अत: उस तीर्थ को विश्व महाकुंभ नगरी के रूप में जानने लगा किन्तु युग परिवर्तन के बाद भी धरती की पावनता ने भारत देश को अनेक इतिहासपुरुष प्रदान किए हैं। दक्षिण भारत में जहाँ एक चारित्रचक्रवर्ती ने जन्म लेकर मुनि परम्परा का पुनरुद्धार किया, वहींr उत्तर भारत ने एक चारित्रचन्द्रिका को जन्म देकर संसार की कन्याओं के लिए माता ब्राह्मी का पथ प्रदर्शित किया है। दक्षिण भारत के उस रत्न का नाम था।
‘चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शांतिसागर जी महाराज’ और उत्तर भारत की इस निधि का नाम है-‘‘चारित्र चन्द्रिका गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी’’ उन चारित्र चक्रवर्ती गुरुवर को तो मैं अपने चर्मचक्षुओं से देख नहीं पाई किन्तु उनका प्रतिनिधित्व कर रहीं उन चारित्रचन्द्रिका को देखने का हमें पुण्य अवसर प्राप्त हुआ है।
उन्होंने अपने ५३ वर्षीय तपस्वी जीवन में जो सोचा, वह करके दिखलाया। उनके कार्यकलाप देखने से ज्ञात होता है कि उन्हें तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियों एवं पंचकल्याणक भूमियों से अत्यधिक लगाव है और वह निरन्तर सभी को यही प्रेरणा देती हैं कि हमें अपना सर्वस्व न्योछावर करके भी इन तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमि एवं पंचकल्याणक भूमियों के संरक्षण-संवर्धन, विकास एवं जीर्णोद्धार में लगना चाहिए।
प्रत्येक धरती के गर्भ में उसका भविष्य लिखा हुआ एक अज्ञात कोने में छिपा रहता है और समय आने पर वही जन्मकुंडली बनकर प्रकट होता है, यही घटना प्रयाग तीर्थ के साथ घटी, जब इस पावन तीर्थ को लेकर करोड़ों हिन्दू इक्कीसवीं सदी का प्रथम महावुंâभ मना रहे थे, उस समय पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने नई सदी को नव उपहार के रूप में ‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली-प्रयाग तीर्थ’ के रूप में एक अनुपम सौगात भेंट की, जो युगों-युगों तक जैनधर्म की प्राचीनता एवं उसकी यशपताका को जीवन्त रखेगा।
तीर्थ ही तीर्थ का निर्माण करते हैं
‘जो संसार सागर से तिरावे, वही तीर्थ है’ हमारे पूर्वाचार्यों का यह कथन सदाकाल से प्रसिद्ध है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र रूप आत्मस्वरूप में निर्विकल्प समाधि की स्थिति को ‘भावतीर्थ’ कहा जाता है और इस भावतीर्थ की उपलब्धि कराने वाले महान पुरुषों के चरण जिस भी धरा को स्पर्श करते हैं।
वह स्वयमेव ही तीर्थ स्वरूप हो जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान व निर्वाण रूप पंचकल्याणकों से समन्वित भूमि की भावपूर्ण वंदना-पूजन आदि क्रियाएं भी साधुओं व श्रावकों के लिए संसार सागर से पार कराने वाली होती हैं। जैसा कि कहा है भी
शालिपिष्ट भी शर्वरयुत, माधुर्य स्वादकारी जैसे।
पुण्य पुरुष के पदरज से ही, धरा पवित्र हुई वैसे।।
जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को विश्व के क्षितिज पर प्रतिष्ठित करने के लक्ष्य को पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने जब आत्मसात किया, तो न जाने किन-किन विचार शृंखलाओं ने उनके हृदय में जन्म लेकर मूर्तरूप धारण करना प्रारंभ कर दिया और शायद यही कारण है ।
कि जैनधर्म की प्राचीनता पर उठे प्रश्नचिन्ह का पूर्ण निराकरण करने हेतु जहाँ उन्होंने भगवान ऋषभदेव के गर्भ एवं जन्मकल्याणक से पावन शाश्वत जन्मभूमि अयोध्या तीर्थ के पुनरुद्धार का शंखनाद किया, वहीं भगवान की तप एवं केवलज्ञान कल्याणक भूमि ‘प्रयाग’ को भी अछूता न रखा और उसे ग्रंथों से निकालकर जनमानस का तीर्थ बनाने हेतु उत्कट संकल्प कर लिया।
भूमि भी नहीं थी और पंचकल्याणक की घोषणा कर दी
जिनके जीवन का प्रत्येक क्षण स्वर्णिम इतिहास का एक नवीन पृष्ठ है, जिनका प्रत्येक कदम एक नये तीर्थ के निर्माण का प्रारंभ है, जिनकी विचार परम्परा का प्रत्येक बिन्दु अपने में सागर की गहराइयों को समाहित किए हुए है, जिनकी लेखनी से निकला प्रत्येक शब्द जिनागम का सार है।
ऐसी पूज्य माताजी की सर्वतोन्मुखी प्रेरणाएँ सदैव ही हम सभी के लिए आदर्श रही हैं। अगर यह कहा जाए कि ज्ञानमती माताजी की डिक्शनरी में असंभव नाम का कोई शब्द नहीं है, तो कोई अतिशयोक्ति वाली बात नहीं है। जनसाधारण के लिए जहाँ यह बात बहुत विशेषता रखती है कि अगर हमें एक छोटा सा घर भी बनाना है, तो हमें भूखण्ड की आवश्यकता होगी किन्तु सरस्वतीस्वरूपा ज्ञानमती माताजी तो योजना के प्रारंभ होते ही उसे मूर्तरूप दे देती हैं।
फिर चाहे वह किसी तीर्थ का निर्माण हो अथवा कोई महोत्सव इत्यादि, यही बात प्रयाग तीर्थ के लिए भी लागू हुई कि पूज्य माताजी ने पंचकल्याणक, महाकुंभ मस्तकाभिषेक इत्यादि कार्यक्रमों की तिथियाँ घोषित कर दीं, प्रयाग के लिए विहार का समय निश्चित कर लिया पर आश्चर्य यह कि अभी तीर्थ निर्माण के लिए भूमि ही नहीं क्रय की गई थी!
अन्ततोगत्वा समिति के सदस्यों को साथ लेकर भाई रवीन्द्र जी दो-तीन बार इलाहाबाद गए और यह भी पूज्य माताजी का आशीर्वाद और जिनेन्द्र भक्ति की महिमा ही थी कि २-३ बार के प्रयास में ही इलाहाबाद शहर से १२ किमी. दूर बनारस हाइवे पर दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान हस्तिनापुर की ओर से भूमि का क्रय किया गया। ३ जुलाई २००० का शुभ दिवस इतिहास के पन्नों में अंकित हो गया, जब एक प्राचीन तीर्थ के प्रकटीकरण का शुभ योग आया।
तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली तीर्थ का शिलान्यास
माताजी की प्रेरणा से राजधानी दिल्ली में भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव वर्ष के अन्तर्गत ‘‘वैलाश पर्वत मानसरोवर यात्रा’’ का आयोजन चल रहा था। पूज्य माताजी एवं हम सभी उस कृत्रिम पर्वत की वंदना कर जहाँ उन आदिप्रभु को स्मरण कर रहे थे, वहीं भाई जी एवं समिति के कार्यकर्तागण ‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली-प्रयाग’ के शिलान्यास हेतु माताजी का आशीर्वाद प्राप्त कर प्रयाग की ओर रवाना हो गए।
४ अक्टूबर २०००, प्रात: ९ बजे की मंगलबेला में शिलान्यास का कार्यक्रम अत्यन्त सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। इलाहाबाद मण्डल के मण्डलायुक्त श्री सदाकांत जी का उद्बोधन अत्यन्त उत्साहपूर्वक हुआ। आज माताजी बहुत प्रसन्न थीं, कहने लगीं-‘‘चन्दनामती! जैसे नेताजी सुभाषचंद बोस ने नारा दिया था कि ‘‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’’ उसी प्रकार वर्तमान में मेरा नारा है कि ‘‘तुम हमें सहयोग दो, हम तुम्हें तीर्थ देंगे।’’
उस समय माताजी की उत्कट प्रभुभक्ति देखकर मन में रोमांच हो आया कि जिन चारित्रचक्री गुरु की यह शिष्या हैं, उनकी छाया तो इनमें पड़ना स्वाभाविक ही है। वैसे कई बार अर्थव्यवस्था के कारण कार्यों में रुकावट आ जाती है अन्यथा माताजी की भावनाएँ तो ना जाने कितनी ऊँची हैं, जिससे जैनधर्म आकाश की ऊँचाइयों तक पहुँच सकता है।
एक नहीं तीन-तीन संघपति तैयार हो गए
दिगम्बर जैन साधुओं के पदविहार की परम्परा अनादिकालीन है। पदविहार की महत्ता एवं आनन्द कुछ अलग है। साधु के पदविहार से समाज में नूतन जागृति आती है।
नगर-नगर, डगर-डगर के जनमानस को साधु दर्शन के साथ-साथ जीवन निर्माण की प्रेरणा प्राप्त होती है। जैन ही नहीं, जैनेतर नागरिक को भी साधु की मंगल वाणी सुनने का अवसर सहज ही प्राप्त हो जाता है। वाणी तो मानव दिन भर सुनता है किन्तु बोलने से पहले जिस महापुरुष के जीवन में वाणी का सार अवतरित हो चुका है, उनकी वाणी का प्रभाव अचूक होता है और फिर जिनसंस्कृति की संरक्षिका और संवाहिका पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के मंगल विहार की बात हो, तो फिर कहना ही क्या!
पूज्य माताजी के मस्तिष्क में जब प्रयाग की ओर मंगल विहार की बात आई और लोगों तक यह बात गई, बस माताजी का मंगल विहार कराने हेतु एक नहीं तीन-तीन संघपति तैयार हो गये। सर्वप्रथम अयोध्या तीर्थ की ओर मंगल विहार करवाने वाले संघपति लाला श्री प्रद्युम्न कुमार जैन (छोटी शाह)-टिवैतनगर वालों ने आकर माताजी से श्रीफल चढ़ाकर निवेदन किया और स्नानादि दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर पूजा-पाठ कर ही रहे थे।
कि इतने में मेरठ निवासी श्री आनन्द कुमार जैन, (जैन मार्बल होम) जो काफी दिनों से माताजी से आगामी विहार हेतु संघपति बनने का निवेदन कर रहे थे, आकर साष्टांग माताजी के चरणों में लेट गए और बार-बार निवेदन करने लगे, उधर संघपति महावीर प्रसाद जी तो मन में यही स्वप्न संजोए बैठे थे कि यह सौभाग्य मुझे ही मिलने वाला है। इधर माताजी ने सभी का आग्रह देखकर यही कहा कि जिसका पुण्य होगा, उसे यह अवसर मिल जाएगा।
और आखिर पुण्य का उदय आया मेरठ निवासी श्री आनन्द जैन (जैन मार्बल होम) का, जिन्होंने प्रयाग यात्रा करवाकर अपनी चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग करने के साथ-साथ सातिशय पुण्य का संचय कर लिया और इस ऐतिहासिक कड़ी में अपना नाम भी अंकित करा लिया। कुछ दिनों बाद महावीर प्रसाद जी की धर्मपत्नी कुसुमलता जी आकर मुझसे बताने लगीं कि माताजी! जब इन्हें पता लगा कि इस ऐतिहासिक यात्रा का सौभाग्य किसी और को प्राप्त हो गया है।
तो यह बहुत रोये। उनकी बात सुनकर यही लगा कि ऐसी विराट व्यक्तित्व की धनी ऐतिहासिक प्रतिभा के लिए अगर एक क्या सौ-सौ संघपति भी आतुर हो उठें, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। प्रभु ऋषभदेव के प्रथम मुखावलोकन पूर्वक प्रारंभ हुआ प्रयाग का मंगल विहार- श्रीभूपाल कवि विरचित ‘जिनचतुर्विंशतिका’ स्तोत्र में बड़ा ही सुन्दर एवं सजीव वर्णन आया है-
श्री लीलायतनं महीकुलगृहं कीर्तिप्रमोदास्पदं,
वाग्देवीरतिकेतनं जयरमाक्रीडानिधानं महत्।
स स्यात्सर्वमहोत्सवैकभवनं य: प्रार्थितार्थप्रदं,
प्रात: पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनाङ्घ्रिद्वयम्।।
अर्थात् जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल के समय जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करता है, वह बहुत ही सम्पत्तिशाली होता है, पृथ्वी उसके वश में रहती है, उसकी कीर्ति सब ओर फैल जाती है, वह हमेशा प्रसन्न रहता है, उसे अनेक विद्याएँ प्राप्त हो जाती हैं, युद्ध में उसकी विजय होती है।
अधिक क्या कहें, उसे सब उत्सव प्राप्त होते हैं। यह जिनेन्द्र दर्शन की महत्ता को प्रकट करने वाला श्लोक है जिसका तात्पर्य है कि जिनेन्द्र भगवान के दर्शन मात्र से ही स्वयमेव बड़े-बड़े कार्यों की सिद्धि हो जाती है। यह एक अद्भुत ऐतिहासिक संयोग ही रहा कि प्रयाग-इलाहाबाद (उ.प्र.) में नवनिर्माणाधीन ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली’’ में विराजमान होने वाली भगवान ऋषभदेव की १४ फुट उत्तुंग प्रतिमा जयपुर से प्रयाग के लिए ३० अक्टूबर २००० को रवाना हो चुकी थीं और माताजी के विहार का शुभ मुहूर्त १ नवम्बर २००० का निकला था।
१ नवम्बर को ट्राला दिल्ली से होते हुए जाना था, तो भाई जी के प्रयासों के फलस्वरूप उसे प्रीतविहार लाया गया और पूज्य माताजी ने संघ सहित प्रभु ऋषभदेव का प्रथम मुखावलोकन कर कुछ धार्मिक विधि सम्पन्न कराई। मैंने एवं क्षुल्लक मोतीसागर जी ने ट्राले के अन्दर जाकर प्रतिमा पर स्वस्तिक आदि बनाया।
बड़े उल्लासपूर्ण वातावरण में मुखावलोकन का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। तत्पश्चात् प्रात: १० बजे कमल मंदिर से संघ सहित मंगल विहार हुआ और वास्तव में प्रभु के मुखावलोकनपूर्वक प्रारंभ हुआ यह विहार स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने वाला स्वर्णिम पृष्ठ बन गया।
विदेशों में भी भगवान ऋषभदेव का नाम पहुँचाया
नई सहस्राब्दि के प्रवेश पर सम्पूर्ण विश्व में शांति एवं समरसता स्थापित करने हेतु विश्वभर के धर्माचार्यों का ‘‘विश्व शांति शिखर सम्मेलन’’ यूनाइटेड नेशन्स द्वारा न्यूयार्वâ (अमेरिका) में २८ से ३१ अगस्त २००० तक आयोजित किया गया। उस शिखर सम्मेलन में मुझे पत्र द्वारा ससम्मान आमंत्रित किया गया था परन्तु साध्वी चर्या के नियमों की आबद्धता के कारण मेरा इसमें भाग लेना संभव नहीं था।
अत: पूज्य माताजी की आज्ञानुसार कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन को भेजने का निर्णय लिया गया। सम्पूर्ण भारतवर्ष से निमंत्रित सौ से अधिक संप्रदाय के धर्माचार्यों के साथ ही दिगम्बर जैन समाज के धर्माचार्य के रूप में ब्र.रवीन्द्र जी का इस शिखर सम्मेलन में भाग लेना मात्र गौरव एवं हर्ष का ही विषय नहीं था, वरन् अनादि निधन शाश्वत जैनधर्म की प्राचीनता एवं इसके सार्वभौम सिद्धान्तों की विश्वभर के लिए उपयोगिता को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने में यह नींव का पत्थर सिद्ध हुआ।
इस शिखर सम्मेलन में इन्हीं प्रयाग के भगवान ऋषभदेव के चित्र सहित जैनधर्म एवं भगवान ऋषभदेव का संक्षिप्त जीवन परिचय एवं प्रयाग में होने वाली पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के के माध्यम से विदेशों तक भगवान ऋषभदेव की धूम मच गई और अनेकों धर्माचार्यों के साथ-साथ विश्व के कोने-कोने से सम्मेलन में पधारे अतिथियों एवं विदेशियों ने जैनधर्म का साररूप ज्ञान प्राप्त किया।
प्रीतविहार निवासी चेतनलाल जी का भी पुण्य जागृत हो उठा
आचार्य पद्मनंदि रचित ‘‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’’ नामक ग्रंथ में दान का बड़ा ही सुन्दर वर्णन आया है कि-
अर्थात् नाना प्रकार के दु:खों से जो धन पैदा किया गया है तथा जो पुत्रों से व अपने जीवन से भी अधिक प्यारा है, उस धन की यदि अच्छी गति है, तो केवल दान ही है। अर्थात् वह धन केवल दान से ही सफल होता है किन्तु दान के अतिरिक्त दिया हुआ धन विपत्ति का कारण है, ऐसा सज्जन पुरुष कहते हैं इसलिए भव्यजीवों को अपना कमाया हुआ।
धन दान में ही खर्च करना चाहिए। इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि हमें पुण्य योग से चंचला लक्ष्मी की प्राप्ति हुई है, उसका उपयोग हमें उत्तम पात्र के दान में करके आगामी पुण्य का बंध कर लेना चाहिए क्योंकि हमें ज्ञान की प्राप्ति भी पूर्वोपार्जित पुण्य के उदय से हुई है। ऐसा ही पुण्यबंध का सुअवसर दिल्ली-प्रीतविहार निवासी लाला श्री चेतनलाल जी को प्राप्त हुआ।
हुआ यूँ कि पूज्य माताजी का ससंघ कमल मंदिर से विहार होकर रात्रि विश्राम चेतनलाल जी के अतीव आग्रह पर उनकी फैक्ट्री पर हुआ पुन: अगले दिन प्रात:कालीन सभा में उन्हें मात्र थोड़ा सा सम्बोधन प्राप्त होते ही उनकी पत्नी श्रीमती सुलोचना जी ने प्रयाग तीर्थ पर निर्मित होने वाले कैलाशपर्वत एवं उसमें विराजमान होने वाली ७२ प्रतिमाओं के निर्माण की स्वीकृति प्रदान कर अपनी चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग करते हुए।
सातिशय पुण्य का बंध कर लिया क्योंकि शास्त्रों में कहा है- जो धनिया के बराबर जिनमंदिर बनाकर उसमें सरसों बराबर जिनबिंब विराजमान करते हैं, उनके अनंत पुण्य की कल्पना नहीं की जा सकती है, फिर जो उत्तुंग जिनभवन का निर्माण कराकर जिनबिंब स्थापना कर उनकी प्राणप्रतिष्ठा कराते हैं, उनके अपूर्व पुण्य का वर्णन करने में तो साक्षात् शारदा माता भी सक्षम नहीं हैं।
दादरी में विराजमान हुईं भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा
संघ का विहार प्रयाग की ओर चल रहा था। ४ नवम्बर २००० को माताजी को चिटहरा ग्राम में रुकना था, चिटहरा से २ किमी. दूर दादरी नाम के छोटे से गांव में कुछ जैन श्रावक रहते थे किन्तु वहाँ कोई मंदिर नहीं था, ‘श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर’ के नाम से मंदिर निर्माण का कार्य चल रहा था।
उन जैन श्रावकों के थोड़े से आग्रहमात्र से माताजी ने वहाँ रुककर सभी को अपना मंगल आशीर्वाद प्रदान किया तथा अपने हाथ से सरस्वती-लक्ष्मी की प्रतिमा विराजमान की पुन: अगले दिन संघस्थ ब्र. बहन को भेजकर पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा भी विराजमान करने को कहा। एक घंटे के उस अल्प प्रवास की अमिट छाप का पता उनकी बातों से चला, जब हमें कुछ दूर तक छोड़ने आए वहाँ के श्रावकों ने बताया कि माताजी! आज हमें जितनी प्रसन्नता हुई है।
उसका वर्णन हम शब्दों में नहीं कर सकते हैं। हम लोगों के मन में साधुओें के प्रति गलतफहमी बैठ गई थी, दरअसल यहाँ कुछ समय पूर्व एक साधु आए और आते ही कमरा बंद कर लिया पुन: बिना कुछ कहे ही चले गए, उसके पश्चात् एक साधु और आए, हमने उनसे प्रवचन के लिए निवेदन किया तो वे कहने लगे कि मैं १०-२० लोगों में प्रवचन नहीं करता हूूँ।
५०० लोग हों, तभी प्रवचन करता हूँ और वे बिना कुछ सम्बोधन दिए ही चले गए और आज जब हम लोगों ने ज्ञानमती माताजी से कहा तो वे तुरंत आकर प्रवचन करने लगीं, इससे हमें बेहद खुशी हुई है। तब मैंने कहा-भइया! अपन साधु काहे के लिए बने हैं? परोपकार के लिए, स्व-पर कल्याण के लिए न कि ख्याति, लाभ, पूजा के लिए और अगर हमारे प्रवचन सुनने वाले १० भी लोग हों।
तो क्या, उनमें से एक ने भी अच्छी बात ग्रहण कर ली, तो हमारा प्रवचन करना सार्थक हो गया। हम क्या, हमारी बड़ी माताजी भी छोटे-छोटे गाँव-कस्बों में अजैन श्रावकों तक को प्राय: दिन में १-२ बार प्रवचन के माध्यम से सम्बोधन प्रदान कर उन्हें अहिंसक एवं सदाचारी जीवन जीने की प्रेरणा प्रदान करती हैं। यह सुनकर वे दंग रह गए और माताजी की सरलता के आगे नतमस्तक हो उठे।
विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष माताजी के दर्शन के लिए छोटे से गाँव में आ गए
दादरी से आगे हम लोग चिटहरा के प्राइमरी स्कूल में ठहरे थे, वहाँ हमें सूचना मिली कि विश्व हिन्दू परिषद के राष्ट्रीय कार्याध्यक्ष अशोक सिंघल जी पूज्य माताजी के दर्शन करने के लिए यहाँ पधार रहे हैं, छोटे से गाँव के टूटे-फूटे स्कूल के मात्र २ कमरों में जैसे-तैसे बहनों ने व्यवस्था की थी।
करीब १० बजे सिंघल जी आए और ११ बजे तक माताजी से बहुत ही रुचिपूर्वक वार्ता की और प्रयाग के महाकुंभ मेले में नवम धर्मसंसद के मंच पर पधारकर जैनधर्म का प्रतिनिधित्व करने का आग्रह किया। उस समय उनकी मुखमुद्रा से झलकती प्रसन्नता यह स्पष्ट बता रही थी कि राजसी ठाठ से रहने वाले सिंघल जी को उस छोटे से कस्बे में गुरु दर्शन कर अपरिमित प्रसन्नता हुई।
विहार के साथ-साथ लेखनी भी चल रही थी
त्याग और वैराग्य की जीवन्त मूर्ति पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने इस नश्वर शरीर को कुछ न गिनते हुए सदैव धर्मप्रभावना, संस्कृति सुरक्षा, धर्म-धर्मायतनों की रक्षा और जिनवाणी माँ की सेवा में अहर्निश अपने जीवन को समर्पित किया है।
तभी आज इनकी सर्वदा प्रवाहमान लेखनी से २०० से अधिक ग्रंथ नि:सृत होकर जन-जन में ज्ञान, भक्ति, अध्यात्म व नूतन चेतना का संचार कर रहे हैं। इनके विराट व्यक्तित्व का मूल्यांकन चंद शब्दों में कर पाना कठिन ही नहीं, असंभव सा प्रतीत होता है,डॉ. कस्तूरचंद जैन कासलीवाल-जयपुर ने तो इनकी पहचान बताते हुए कहा है-
ज्ञानमती माताजी तेरी यही निशानी,
एक हाथ में पिच्छी, दूजे में जिनवाणी।।
चाहे तीरथ हो या मंदिर, जंगल हो या शहर, एकान्त स्थान हो या विशाल जनसभा, माताजी की लेखनी धाराप्रवाह संस्कृत भाषा में चलती रहती है। अगर आम आदमी को एक छोटा सा पत्र भी लिखना हो, तो १० बार सोचता है किन्तु माताजी के मुख में व लेखनी में तो साक्षात् सरस्वती विराजमान हैं।
आप कभी भी उनका लिखा कोई भी पेज उठाकर देख लें, कहीं कोई काट-पीट, कोई अशुद्धि नहीं मिल सकती। प्रयाग यात्रा के मध्य दोनों समय विहार चल रहा था, फिर भी माताजी को जैसे ही समय मिलता, वह अपना लेखन कार्य प्रारंभ कर देती थीं। चूँकि भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मकल्याणक महोत्सव नजदीक आ रहा था।
और माताजी की भावना इस वर्ष में प्रभु महावीर के चरणों में अपनी कोई कृति समर्पित करने की थी अत: उन्होंने भगवान महावीर के २५२६वें निर्वाण दिवस के समापन एवं २५२७वें वर्ष के प्रारंभ में कार्तिक कृष्णा एकम की तिथि में मंगलाचरणपूर्वक उसका प्रारंभीकरण कर दिया था और उसी को गति प्रदान करने हेतु वे विश्वशांति महावीर विधान के लिए २६०० मंत्र बना रही थीं।
ऐतिहासिक जैन स्वर्ण मंदिर के दर्शन किए
९ नवम्बर को हम लोग खुर्जा (बुलंदशहर) पहुँचे। यहाँ २ दिगम्बर जैन मंदिर हैं। मध्यान्ह में संघ सहित दोनों मंदिरों के दर्शन करने गए। बड़ा मंदिर २०० वर्ष पुराना है, यहाँ पूरे मंदिर में कुन्दन का काम है। यह मंदिर भारतवर्ष की एक प्राचीन बहुमूल्य धरोहर के रूप में उत्तरप्रदेश की जैन समाज का गौरव है। यहाँ सोने का काफी बड़ा रथ है, लकड़ी का ऐरावत हाथी है, विशाल शास्त्र भण्डार में हस्तलिखित ताड़पत्र के ग्रंथ हैं।
इन शास्त्रों में एक स्वर्णाक्षरों में लिखित तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ देखा तथा मणि एवं स्वर्ण के सुन्दर रंगीन चित्र देखे। उसके पश्चात् छोटे मंदिर के दर्शन किए। वहाँ भी कुन्दन का काम पूरे मंदिर में है। प्राचीन धरोहर एवं जिनसंस्कृति के वैभव का छोटा सा नमूना देखकर मन गद्गद हो उठा। उस समय ताम्रपत्रों को देखते हुए माताजी ने बताया कि
-‘‘चंदनामती! इन्हें देखकर मुझे आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की स्मृति हो आई, जिन्होंने अथक परिश्रमपूर्वक ताम्रपत्रों पर धवला ग्रंथ को उत्कीर्ण कराया था। वर्तमान में यह सब हमारे लिए प्राचीन धरोहर के रूप में हैं, जिनकी सुरक्षा करना प्रत्येक जैन श्रावक का कत्र्तव्य है। हम इसे देखकर सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि आज से कुल १०० वर्ष पूर्व हमारी जिनसंस्कृति का वैभव कितना वृहत् रहा होगा।
किन्तु कालदोषवश काफी कुछ लुप्तप्राय हो गया और अब हमारे पास जो पूर्वाचार्यों की धरोहर है, आचार्य महाराज कहते थे कि हमें अपना सर्वस्व न्योछावर कर उसे बचाना चाहिए।
’’ खुर्जा में एक दिन का प्रवास था चूँकि खुर्जा की खुरचन बड़ी मशहूर है, हमारे साथ चल रहे दिल्ली निवासी पुष्पेन्द्र जी कहने लगे कि माताजी! हमने तो यहाँ की खुरचन खाई भी, स्टॉफ वालों को खिलाया भी और घर के लिए भी बांधकर ले जा रहे हैं। सुनकर हँसी भी आई कि श्रावकों को इन सब चीजों में ही विशेष आनन्द आता है और हम लोग धर्म की खुरचन का स्वाद लेने में खुश होते हैं।
अलीगढ़ में मस्तकाभिषेक की प्रेरणा प्रदान की
माताजी की यह भावना थी कि जिन शासनपति भगवान महावीर के शासनकाल में हम लोग निराबाधरूप से अपनी चर्या का परिपालन कर रहे हैं, उनके २६००वें जन्मकल्याणक महोत्सव को राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाए और २५००वें निर्वाण महोत्सव की तरह हर गली-कूचे में भगवान महावीर की अनुगूंज पैâल जाए अत: वह स्थान-स्थान पर सभी को इस महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत अनेक कार्यक्रम आयोजित करने की प्रेरणा प्रदान कर रही थीं।
१४ नवम्बर को माताजी अलीगढ़ के छिपैटी मंदिर के दर्शनार्थ गर्इं, वहाँ मंदिर जी में भगवान महावीर की ८-९ फुट की पद्मासन प्रतिमा देखकर उन्होंने वहाँ के लोगों को महावीर जयंती पर १००८ कलशों से भगवान महावीर के महामस्तकाभिषेक का आयोजन करने की प्रेरणा प्रदान की, जिसे सभी ने सहर्ष स्वीकार किया और माताजी की दूरदृष्टि की प्रशंसा की।
एटा के इतिहास में त्रिवेणी संगम की अद्भुत कड़ी जुड़ गई
एटा शहर में पूज्य मुनि श्री अमितसागर महाराज एवं गणिनी श्री विशुद्धमती माताजी पूर्व से ही विराजमान थीं, आर्यिका श्री विशुद्धमती माताजी की संघस्थ बहनें २-३ दिन से बराबर पूज्य माताजी के दर्शन हेतु आ रही थीं चूँकि इन लोगों ने अभी तक माताजी को देखा नहीं था अत: मिलने की उत्वंâठा से ही दोनों संघ विराजमान थे।
१९ नवम्बर २००० को प्रात: पूज्य माताजी का संघ सहित मंगल पदार्पण भव्य शोभायात्रापूर्वक एटा शहर में हुआ। इन दोनों संघों के साथ पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के संघ का मिलन सचमुच वहाँ के इतिहास में त्रिवेणी संगम की कड़ी को जोड़ गया। तीनों संघों के पारस्परिक मिलन व वात्सल्य से सारा समाज भावविभोर हो गया तथा पूज्य माताजी के श्रीचरणों में एटा चातुर्मास हेतु बारम्बार निवेदन करने लगा।
प्रवेश की इस धर्मसभा में अति उत्साही मुनि श्री अमितसागर महाराज ने माताजी के प्रति बड़े ही सुन्दर शब्दों में कहा कि आज ज्ञानमती माताजी में मुझे नारी के तीन रूप (सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा) दिख रहे हैं, पुन: उन्होंने इसका रोचक विश्लेषण किया। दो दिवसीय इस प्रवास के मध्य तीनों संघों की आपस में अनेक सैद्धान्तिक चर्चाएं हुर्इं पुन: २१ नवम्बर को हम जब एटा से निकलने लगे, तो गणिनी विशुद्धमती माताजी थोड़ी दूर तक भेजने आर्इं और मुनि श्री अमितसागर महाराज के संघस्थ साधुओं ने माताजी से कहा कि-
माताजी! ऐसा आशीर्वाद रखना कि आपका भतीजा (अमितसागर जी) खूब धर्मप्रभावना करता रहे और हम लोग उनके बेटे बनकर धर्मसाधना करते रहें। सुनकर मन में बड़ा आल्हाद हुआ पुन: हम वहाँ से कुरावली की ओर विहार कर गए। दरअसल ये मुनि अमितसागर जी आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के शिष्य हैं और धर्मसागर जी एवं ज्ञानमती माताजी एक ही गुरु आचार्यश्री वीरसागर जी के शिष्य हैं।
इसीलिए अपने पिता धर्मसागर जी की गुरु बहिन के नाते अमितसागर महाराज ने इन्हें मजाक में ही बुआ कहकर अपने को इनका भतीजा कह दिया था। इसका आशय तो मात्र उनकी माताजी के प्रति गुणग्राहकता ही था।
दिगम्बर जैन चतुर्विध संघ सम्मेलन एवं भगवान ऋषभदेव संगोष्ठी का भी आयोजन हुआ
संत-साधु चलते फिरते तीर्थ माने जाते हैं। बहती धारा के समान ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर पदविहार कर भव्यों को मोक्षमार्ग का उपदेश देते रहते हैं अत: उनका आपस में मिल पाना प्राय: कम ही हो पाता है और जब कभी होता है, तो कोई न कोई विशेष उपलब्धि अवश्य हो जाती है।
यही एटा शहर में तीनों संघों के मिलन पर भी हुआ। त्रिवेणी संगम के सदृश तीन महानदियों के सम्मिलन प्रसंग पर दिगम्बर जैन मुनि-आर्यिका, श्रावक-श्राविकाओं के चतुर्विध संघ का ऐतिहासिक सम्मेलन सम्पन्न हुआ, जिसमें भगवान ऋषभदेव की संस्कृति को साक्षात् अपनी मुद्रा द्वारा प्रदर्शित करने वाले दिगम्बर मुनिराजों एवं आर्यिका माताओं के उपकारों से सम्पूर्ण समाज परिचित हुआ और पुन:-पुन: ऐसे संघों के मिलन की भावना करने लगा।
साधु-साध्वी देश और समाज के दिशा-निर्देशक होते हैं
इस सम्मेलन की प्रेरणास्रोत पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने वर्तमान युग में ऐसे सन्त सम्मेलनों की उपयोगिता बतलाते हुए कहा कि साधु-साध्वी ही चूँकि देश और समाज के दिशा-निर्देशक होते हैं अत: उन्हें स्वयं भी समय-समय पर एक-दूसरे संघ के साथ मिलकर विचारों का आदान-प्रदान करना चाहिए तथा आगम के आलोक में यतिचर्या का विश्व में विचार विनिमय करना चाहिए।
प्राचीन परम्परानुसार इतिहास साक्षी है कि पहले भी साधु-संघों के विशाल सम्मेलन हुआ करते थे। उसी सम्मेलन में आचार्य श्री धरसेन स्वामी ने दो योग्य शिष्यों को अपने पत्र द्वारा आमंत्रित करके उन्हें अपना श्रुतज्ञान प्रदान किया था, तभी आज हमारे सामने षट्खण्डागम जैसे सूत्र गंरथों की रचना दिख रही है। ऐसे सम्मेलनों की आज भी महती आवश्यकता है।
कन्नौज में दो लाभ एक साथ
इत्र के लिए देश-विदेश में मशहूर कन्नौज नगरी का भी मानो भाग्य खिल उठा कि कई-कई सौभाग्य उसे एक साथ प्राप्त हो गए। १ दिसम्बर २००० को माताजी ने कन्नौज में मंगल प्रवेश किया और अगले दिन पूज्य माताजी को केशलोंच करना था, उसी शाम वहाँ पर माताजी की प्रेरणा से प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा प्रवर्तित ‘‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार रथ’’ व विशाल ऐरावत हाथी रथ आ पहुँचा।
’ भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महोत्सव वर्ष के अन्तर्गत प्रवर्तित इस रथ का दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि स्थानों पर घूमकर धर्म की विजयपताका को फहराते हुए अब उत्तरप्रदेश में भ्रमण प्रारंभ हुआ था और २ दिसम्बर को इसका कन्नौज में कार्यक्रम था।
मध्यान्ह में पाण्डाल में ही माताजी का केशलोंच हुआ और उसी सभा में समवसरण श्रीविहार की सभा चली। जहाँ कन्नौज निवासी एक ओर केशलोंच का वैराग्यवर्धक दृश्य देखकर अभिभूत हो रहे थे, वहीं समवसरण के दर्शन कर प्रसन्न हो रहे थे।
स्वयं माताजी भी आज बहुत प्रसन्न थीं क्योंकि दिल्ली से समवसरण प्रवर्तन के बाद आज प्रथम बार पूज्य माताजी को समवसरण के दर्शन हुए थे अत: माताजी का उपवास होने के बाद भी वे जुलूस में साथ-साथ चलीं। वस्तुत: जिनेन्द्र भगवान की भक्ति पूज्य माताजी के अन्दर कूट-कूट कर भरी है। इससे उनमें आत्मशक्ति आ जाना सहज सी बात है।
तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली प्रयाग तीर्थ पर जिनमंदिरों का शिलान्यास हुआ
प्रयाग तीर्थ की ओर विहार करते हुए संघ का मंगल पदार्पण औद्योगिक नगरी (कपड़ा उद्योग) के रूप में मशहूर कानपुर शहर में हुआ। जहाँ १० दिसम्बर २००० को प्रयाग में आयोजित पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के संदर्भ में एक मीटिंग रखी गई, जिसमें स्थान-स्थान से अनेकों लोग पधारे।
इस सभा में श्रीप्रकाश जायसवाल (सांसद एवं उ.प्र. कांगे्रस अध्यक्ष) भी पधारे और अपने सुन्दर विचार व्यक्त किए। ११ दिसम्बर को प्रयाग तीर्थ पर निर्मित होने वाले जिनमंदिरों का शिलान्यास समारोह का कार्यक्रम था अत: कार्यकर्ताओं का एक समूह एवं अनेक भक्तगण सभा के पश्चात् प्रयाग की ओर रवाना हुए।
तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली प्रयाग में ११ दिसम्बर, मगशिर शुक्ला पूर्णिमा के दिन भव्य शिलान्यास समारोह सम्पन्न हुआ, जिसमें १४ फुट पद्मासन भगवान की ५१ फुट ऊँचे वैलाशपर्वत पर बनने वाली वेदी, दीक्षाकल्याणक तपोवन, समवसरण मंदिर, कीर्तिस्तंभ, गणिनी ज्ञानमती निलय एवं पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हेतु मंच निर्माण के शिलान्यास सम्पन्न हुए।
जिस-जिस ने भी इस समसामयिक कार्य के बारे में सुना, उसने खूब प्रशंसा करते हुए कहा कि शीघ्र ही यह अद्वितीय तीर्थ भारत की धरोहर बनने जा रहा है।
जिसके पास जो चीज होती है, वह वही देता है
आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी की उक्त नीति बड़ी ही सारपूर्ण एवं सत्य कथन को बताने वाली है कि जिसके पास जो चीज होती है, वह वही देता है। दिगम्बर जैन साधु दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्रतिमूर्ति होते हैं अत: भव्यजनों को उपदेश देते हुए ज्ञानदान देते हैं तथा रत्नत्रय की सतत प्रेरणा प्रदान करते हैं।
इसी प्रकार श्रावक के लिए आचार्यों ने षट्आवश्यक कत्र्तव्यों का उपदेश दिया है, उसका परिपालन करने हेतु वे अपने धन का सदुपयोग करते हुए दान, पूजा, जिनमंदिर निर्माण, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, मूर्ति निर्माण, गुरुओं के विहार आदि पुण्यकार्यों को करते हैं। वैसे तो संघपति महोदय अपने कर्तव्य का पूर्णतया निर्वहन करते हुए न सिर्पक अपने द्रव्य का सदुपयोग कर रहे थे।
अपितु विहार में पैदल चलकर यात्रा का आनंद लेते हुए संघ व्यवस्था भी देख रहे थे। लम्बे विहार और मौसम को देखते हुए उन्होंने संघ विहार हेतु नई गाड़ी (ट्रक) बनवाई तथा जब प्रयाग तीर्थ के पंचकल्याणक हेतु कानपुर में मीटिंग चल रही थी, तो उन्होंने थोड़ी सी प्रेरणा प्राप्त होते ही महोत्सव के सौधर्म इन्द्र बनने हेतु भी अपनी स्वीकृति प्रदान की और अपनी चंचला लक्ष्मी का सदुपयोग कर महान पुण्य अर्जित कर लिया।
सत्संग से जीवन की दिशा बदल जाती है
रास्ते में पदविहार करते समय स्च्ल्लो में ठहरने का अवसर ज्यादा आता है और छोटे-छोटे गाँव होने से वहाँ की जनता किसी अजूबे की भांति हम लोगों और किसी सर्वâस की भांति ब्रह्मचारिणी बहनों व उनके सामान को देखते हैं और सब कुछ जानने की जिज्ञासा भी रखते हैं।
अत: उन्हें हमें प्रवचन के माध्यम से जैन साधु-साध्वी की चर्या बतानी पड़ती है। ऐसे ही एक बार हम लोग एक स्कूल में ठहरे, पता लगा यहाँ के मुखिया का यह स्कूल है और यहीं पास में उन्होंने ‘कपिल आश्रम’ के नाम से एक आश्रम बनवा रखा है,उनको जब सूचना मिली, तो वे भी सत्संग सुनने के उद्देश्य से स्कूल में आ गए। बातों-बातों में उनसे पूछा गया कि आप शाकाहारी हैं ।
या मांसाहारी? तो उन्होंने (मेजर युधिष्ठिर सिंह) जवाब दिया कि माताजी! मैं चूँकि पहले फौज में था अत: मैं मांसाहारी हूँ। तब क्षुल्लक मोतीसागर जी ने उन्हें शाकाहार और मांसाहार के बारे में बताते हुए मांसाहार त्याग करने की प्रेरणा प्रदान की, फिर तो बिना कुछ सोचे ही उन्होंने पूर्णरूपेण मांसाहार का त्याग कर शाकाहार का नियम ले लिया।
इसी प्रकार और भी अनेक स्थानों पर गांव वालों ने हम लोगों के प्रवचन सुनकर शराब, मांसाहार, जुआ खेलना आदि अनेक व्यसनों का त्याग किया। इसीलिए सत्संगति के बारे में कही गई उक्त सूक्ति पूर्णतया चरितार्थ होती है कि- दुर्जनेऽपि हि सौजन्यं, सुजनैर्यदि सङ्गम:।। अर्थात् सज्जनों के समागम होने से दुर्जन मनुष्य में भी सज्जनता आ जाती है।
न्यायालय की नगरी इलाहाबाद में हुआ मंगल प्रवेश
अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक कथाओं को अपने गर्भ में समेटे इलाहाबाद नगरी वर्तमान में उत्तरप्रदेश के उच्च न्यायालय के रूप में बहुत प्रसिद्ध है, जहाँ की हाईकोर्ट में आकर व्यक्ति को सर्वदा न्याय प्राप्ति की आशा रहती है। १ नवम्बर २००० को दिल्ली से पदविहार कर, प्रयाग तीर्थ को अपना लक्ष्य बनाकर हम संघ सहित अपनी मंजिल के आखिरी पड़ाव पर आ गये थे।
यूँ तो जैन साधु का कोई नियत स्थान नहीं होता, पर जिस लक्ष्य से विहार करते हैं, उसकी सिद्धि हो जाने पर निसर्गत: प्रसन्नता होती ही है। २९ तारीख को प्रात:काल इलाहाबाद की ही एक कालोनी प्रीतमनगर में श्री पी.के. जैन (वकील) के निवास पर आहार हुआ और आहार व सामायिक के पश्चात् १२.१५ बजे इलाहाबाद की जीरोरोड स्थित जैन धर्मशाला में मंगल पदार्पण हेतु वहाँ से विहार हुआ।
आज इलाहाबाद के नागरिकों का उत्साह देखते ही बनता था, ऐसा लग रहा था कि उन्हें कोई अनमोल निधि मिल गई हो। २ बजे प्रयाग होटल के पास से जुलूस प्रारंभ हुआ। जैन विद्यालय के ५०० बच्चे हाथों में सुन्दर-सुन्दर सूक्तियों के बैनर लेकर चल रहे थे, स्थान-स्थान पर लगे बैनर जन-जन की माताजी के प्रति श्रद्धा को दर्शा रहे थे।
स्वरूपरानी पार्क-जीरोरोड के पाण्डाल में हुई धर्मसभा में मुख्य अतिथि श्री के.पी. श्रीवास्तव, इलाहाबाद के मेयर तथा विधानसभा अध्यक्ष के साथ-साथ अनेक जैन-अजैन लोग एक बार माताजी के दर्शन की लालसा से अपार जनसमूह के रूप में उपस्थित हुए थे। वास्तव में पूज्य माताजी के बारे में कही हुई ये पंक्तियां कितनी सार्थक हैं-
जिनके चरणों में दो क्षण को, दु:ख को भी सुख मिल जाता है।।
प्रथम दर्शन कर अमूल्य कृति भेंट की
जैनधर्म के अनुसार वीर नि.सं. सर्वाधिक प्राचीन होने से भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति का अगला दिवस कार्तिक शुक्ला एकम् वर्ष का प्रारंभ अर्थात् नया वर्ष माना जाता है परन्तु वर्तमान में ईसवी सन् अधिक प्रचलन में है अत: १ जनवरी को सम्पूर्ण भारत में इसे ही वर्ष का प्रथम दिवस मानकर लोग नाना प्रकार से उसे मनाते हुए अपनी खुशियाँ प्रकट करते हैं।
अनेकों प्रकार से ग्रीटिंग्स, गिफ्ट आइटम का अपने प्रियजनों में आदान-प्रदान व पार्टी देना आदि एक साधारण सी बात है परन्तु दिगम्बर जैन साधु-साध्वी जो परम पिता परमेश्वर, माँ जिनवाणी तथा जिनधर्म को अपना सर्वस्व मानते हैं, उनके लिए प्रत्येक दिवस का शुभारंभ जिन मुखावलोकन से होता है और किसी विशेष दिवस में भी वह प्रभुभक्ति व जिनधर्म प्रभावना को ही मुख्यता देते हैं।
फिर चाहे वह रक्षाबंधन हो या दीपावली, वर्ष का प्रारंभ दिवस हो या अन्य कुछ। फिर भी हमारे नव वर्ष २००१ के नूतन वर्ष प्रथम दिवस का शुभारंभ निर्माणाधीन तीर्थराज प्रयाग में मंगल प्रवेश एवं तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रथम दर्शन से हुआ। हुआ यूँ कि हम लोगों ने १ नवम्बर २००० को दिल्ली से विहार करके २९ दिसम्बर को प्रयाग शहर में प्रवेश किया।
५८ दिवसीय इस विहार के पश्चात् इलाहाबादवासियों के अतीव आग्रह पर ३ दिन जैन विद्यालय में रहने के बाद १ जनवरी २००१ को प्रात: ८ बजे वहाँ से चलकर १३ किमी. दूर बनारस हाइवे रोड पर निर्माणाधीन ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली तीर्थ’’ पर ११.१५ पर मंगल प्रवेश हुआ। यहाँ आकर परम आल्हाद के कारण हर्ष के अश्रु आ गए, देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि ब्र.रवीन्द्र जी के कुशल नेतृत्व में सारा निर्माण कार्य खूब जोरों से चल रहा है।
उस समय तीर्थ क्षेत्र पर प्रवेश कर प्रतिष्ठेय जिनप्रतिमा का प्रथम दर्शन कर माताजी ने अपनी नूतन कृति के रूप में भगवान ऋषभदेव के श्रीचरणों में ‘‘विश्वशांति महावीर विधान’’ को समर्पित कर परम आल्हाद का अनुभव किया। कार्तिक कृष्णा अमावस २७-१०-२००० को मंगलाचरणपूर्वक प्रारंभ किए गए।
अतिशयकारी महाविधान का लेखन १-१-२००१, वीर नि. सं. २५२७, पौष शु. षष्ठी को पूर्ण हुआ। ६६ दिन तक लिखी गई १३५ पृष्ठों की इस कृति में अन्तज्र्ञान से निकले शब्द इनकी कार्यसिद्धि में कारण तो बने ही, निराबाध चलने वाले इस लेखन के मंत्रों ने हम सभी को शक्ति प्रदान की, तभी व्यापक प्रभावनापूर्वक यह यात्रा सम्पन्न हुई और इस धरा को दीक्षास्थली तीर्थ जैसी महान उपलब्धि हुई।
एक अजैन व्यक्ति ने वसतिका दान देकर महान पुण्य का संचय कर लिया
स्वामी समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार नामक ग्रंथ में दान का बड़ा सुन्दर महत्व बताया है-
क्षितिगतमिव-वटबीजं, पात्रगतं दानमल्पमपि काले।
फलतिच्छायाविभवं, बहुफलमिष्टं शरीरभृताम्।।
जिस प्रकार वट का बीज बहुत छोटा होता है परन्तु उस छोटे बीज से इतना विशाल वृक्ष होता है कि जिसकी छाया में हजारों पुरुष बैठ सकते हैं, उसी प्रकार पात्रों को भक्तिपूर्वक दिया हुआ थोड़ा भी दान विशिष्ट फल को देता है। दान देते समय दातार के इतने विशुद्ध परिणाम होते हैं, जिसकी तुलना नहीं की जा सकती है। उन्हीं विशुद्ध परिणामों के कारण जिस जीव के कुगति बंध होकर परभव संबंधी आयु का बंध यदि नहीं पड़ा है, तो वह कुगति बंध को छेदकर सुगतिबंध को कर लेता है।
और तो क्या? दान देने की अनुमोदना करने वाले भी भोगभूमि जैसे उत्तम क्षेत्र में जाकर जन्म धारण करते हैं, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण आहारदान देने वाले राजा वङ्काजंघ, रानी श्रीमती के साथ-साथ सिंह, सूकर, नेवला, बंदर जैसे पशु थे, जिन्होंने अनुमोदनामात्र से उत्तम भोगभूमि प्राप्त की। दीक्षास्थली तीर्थ पर यूँ तो निर्माणकार्य दु्रतगति से चल रहा था किन्तु अभी वहाँ ठहरने जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी।
दिन में माताजी और हम लोग वहाँ जाकर एक छोटे से कपड़े के टेंट में रुक जाते थे और माताजी सामायिक, ध्यान व अनेकों जाप्यादि वहाँ करती थीं, प्रतिदिन ब्रह्मचारिणी बहनें भगवान को वहाँ विराजमान करके विधानपूजा करती थीं किन्तु संगम का तट और अत्यधिक सर्दी होने से खुले में रहना वहाँ के कार्यकर्ताओं को इष्ट नहीं था ।
अत: उन्होंने माताजी से बार-बार यही आग्रह किया कि अभी आप कुछ दिन इलाहाबाद शहर में रुकिए परन्तु मेरी विशेष इच्छा थी कि हम लोग अब यहीं तीर्थ पर ही रुवें। संयोगवश शहर से नवगठित अ.भा.दि. जैन महिला संगठन- इलाहाबाद इकाई की अध्यक्षा-श्रीमती साधना जी माताजी के दर्शनार्थ वहाँ आई थीं, हम लोगों की इच्छा देखकर उन्होंने पास के ही एक अजैन गृहस्थ के पास जाकर बातचीत की।
भव्यपरिणामी उस गृहस्थ ने खुशी-खुशी अपने छोटे से घर के तीन कमरे खाली करके महान पुण्य का संचय कर लिया। शीघ्र ही संघस्थ ब्र. बहनों ने वहाँ जाकर सफाई करके रात्रि विश्राम की व्यवस्था कर दी और हमारा कई दिनों तक रात्रिकालीन प्रवास उसके घर में रहा। वहीं पास में ही एक और अजैन के काफी पुराने मकान में भूसे से भरे दो कमरे थे, जब ब्र. बहनों ने उनसे जाकर बात की, तो वह भी अपने कमरे खाली करने को तैयार हो गया और उसमें बहनों ने अपने ठहरने व चौके की व्यवस्था की।
लोक निर्माण राज्यमंत्री माताजी के दर्शनार्थ पधारे
दीक्षास्थली तीर्थ पर पदार्पण के साथ ही पूज्य माताजी के दर्शनार्थ अनेक नेतागण, प्रशासनिक अधिकारी एवं अनेकों संस्थाओं के प्रतिष्ठित पदाधिकारियों का आवागमन प्रारंभ हो गया। २ जनवरी २००१ को इलाहाबाद निवासी भाजपा नेता श्री सुनील कुमार जैन के साथ लोकनिर्माण राज्यमंत्री श्री राकेश दत्त तिवारी आये और उन्होंने लोकनिर्माण विभाग द्वारा महाकुंभ मेला परिसर में होने वाले ‘‘भगवान ऋषभदेव सनातन संस्कृति संगम’’ में अनेकों प्रवेश द्वार एवं बोर्डों पर जैन तीर्थ दीक्षास्थली का नाम लिखवाने की बात कही।
इससे पूर्व गोवंश रक्षा एवं मांस निर्यात विरोध परिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्री के.एल. गोधा जी-उदयपुर (राज.) कई बार माताजी के पास आकर कुंभ मेले में जैन शासन की प्रभावना करने हेतु बार-बार आग्रह कर रहे थे। अभी भी उनका आना बराबर चालू था और विशेष आग्रह कर आखिरकार उन्होंने मेला परिसर में जैनधर्म की प्रभावना हेतु ४ दिवसीय कार्यक्रम की स्वीकृति प्राप्त कर ली और बहुत प्रसन्न होकर इस कार्य में लग गए।
कैलाशपर्वत पर विराजमान हुईं भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा
दीक्षास्थली तीर्थ परिसर के बीचोंबीच में भगवान ऋषभदेव की निर्वाणस्थली को भारत भू पर साकार कर जन-जन को उसका सहजता-सुलभता के साथ दर्शन करवाने हेतु कैलाशपर्वत की प्रतिकृति का निर्माण कार्य भी द्रुतगति से चल रहा था, १७ जनवरी के पावन दिवस, माघ कृष्णा अष्टमी को ५१ फुट ऊँचे निर्माणाधीन कैलाशपर्वत के ऊपर निर्मित की गई वेदी पर पूज्य माताजी के संघ सानिध्य में व्रेन द्वारा मूर्ति चढ़ाने की प्रक्रिया अपरान्ह ३ बजे से प्रारंभ हुई।
सर्वप्रथम जिस कमल पर श्रीजी को विराजमान करना था, उसे चढ़ाया गया पुन: १८ जनवरी को मध्यान्ह ११.५ बजे व्रेन द्वारा ही भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा कमलासन पर विराजमान की गई, ज्यों-ज्यों प्रतिमा जी ऊपर चढ़ रही थीं, त्यों-त्यों भक्तों के जयकारों से सम्पूर्ण आकाशमंडल गुंजायमान हो रहा था।
प्रतिमा विराजमान होते ही पूज्य माताजी की आंखों से हर्षाश्रु छलकने लगे, तब मुझे लगा कि मानो आज हमारी यात्रा पूर्र्ण हुई है, जिन आदि प्रभु के सर्वोदयी-अहिंसामयी सिद्धान्तों एवं जैनधर्म की प्राचीनता के दिग्दिगन्त्व्यापी प्रचार-प्रसार के लक्ष्य को लेकर हम निकले थे, वह दिन अब दूर नहीं है।
अब यह तीर्थ जिनधर्म की सांस्कृतिक धरोहर बनकर विश्व के क्षितिज पर उदीयमान सूर्य की भांति चमकेगा और सम्पूर्ण विश्व में जैनधर्म एवं तीर्थंकरपरम्परा की कीर्तिध्वजा लहराएगी।
प्रयाग के महाकुंभ मेले में प्रथम बार जैनधर्म का प्रतिनिधित्व
यह भी स्वर्णिम इतिहास का निर्माण ही कहा जाएगा, जब प्रयाग के विश्वप्रसिद्ध १२ वर्षीय महाकुंभ मेले में प्रथम बार जैनधर्म का प्रतिनिधित्व पूज्य माताजी ने किया। कई माह पूर्व से विश्व हिन्दू परिषद की उच्च स्तरीय समिति के कार्यकर्ताओं द्वारा निवेदन किए जाने पर माताजी ने परिषद द्वारा आयोजित ‘‘धर्म संसद’’ (नवम) में संघ सहित अपना सानिध्य प्रदान करने की स्वीकृति दी।
पुन: तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली प्रयाग दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी एवं गोवंश रक्षा तथा मांस निर्यात विरोध परिषद के संयुक्त तत्वावधान में वुंâभ मेला परिसर में जैनधर्म का कार्यक्रम आयोजित किया गया। १८ जनवरी को भगवान की मूर्ति कैलाशपर्वत पर विराजमान करने के पश्चात् गाजे-बाजे एवं जयघोषों के बीच १०८ कलशों को मस्तक पर धारण किए हुए।
इन्द्राणियों तथा सैकड़ों स्कूल बच्चों (जैन विद्यालय, प्रयाग) सहित जुलूस में भगवान को पालकी में विराजमान करके माताजी एवं हम सभी ने संघ सहित महाकुंभ मेला परिसर में प्रवेश किया। जहाँ ‘‘ऋषभदेव मण्डप’’ में झण्डारोहण तथा भगवान का पंचामृत अभिषेक एवं महाशांतिधारा सम्पन्न की गई तथा प्रतिदिन मध्यान्ह में संघस्थ बहनों एवं प्रो. टीकमचंद जैन-दिल्ली द्वारा अनेकों विधानों का आयोजन किया गया, जिसमें जैनसमाज के अलावा अजैनों ने भी पधारकर जैनधर्म की महिमा को जाना।
भगवान ऋषभदेव सनातन संस्कृति संगम
१९ जनवरी २००१ को मेला परिसर में मंगल प्रवेश के साथ ही विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ता हमें अपने पाण्डाल में ले गए। उस समय मैंने सिंघल जी के आग्रह विशेष पर आज के विश्व की सबसे ज्वलंत समस्या आतंकवाद निपटने हेतु भगवान ऋषभदेव की अहिंसामयी नीति एवं आपसी बन्धुत्व तथा संगठनरूप शक्ति पर धर्मसंसद के मंच से समस्त साधु-सन्तों के बीच प्रकाश डाला, जिसे सुनकर उन्हें लगा ।
कि अहिंसा ही एक ऐसा प्रबल साधन है, जिसके द्वारा हम विश्व में शांति व मैत्रीभाव की पुनसर्थापना कर सकते हैं। वास्तव में अहिंसा धर्म का जितना सूक्ष्म विवेचन आचार्यों ने जैनधर्म में किया है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकता है। २० जनवरी को माताजी ने इसी मंच से भगवान ऋषभदेव को मानवीय संस्कृति का प्रथम प्रतिपादक सिद्ध करते हुए।
जब उनके सर्वोदयी सिद्धान्तों को विश्वशांति के लिए सर्वाधिक प्रासंगिक बताया, तो अपार जनसमूह ने भगवान के जयघोषों से समस्त परिसर को गुंजायमान कर दिया। अगर यह कहा जाए कि महाकुंभ मेले के मध्य जैनधर्म के इस जगमगाते सूर्योदय ने युगों-युगों के लिए शाश्वत इतिहास का निर्माण कर दिया, तो शायद कोई अतिशयोक्ति वाली बात नहीं होगी।
भगवान ऋषभदेव निर्वाणोत्सव पर मेला परिसर के जैन पाण्डाल में १००८ निर्वाणलाडू चढ़ाए गए
यह एक अनहोना संयोग था, जब मेला परिसर के मध्य प्रथम बार जैनमंच से भगवान ऋषभदेव का निर्वाण महोत्सव इतनी धूमधाम से मनाया जा रहा था।
निर्वाण दिवस की पूर्व संध्या पर २१ जनवरी को इसी मण्डप में विशिष्ट अतिथियों के बीच जब १००८ निर्वाण लाडू चढ़ाए गए, तो उपस्थित जनसमूह के उत्साह एवं भक्तिभाव की धारा ने करोड़ों वर्ष पूर्व का इतिहास सजीव कर दिया। भक्ति आयोजन से गद्गद हुए संघपति लाला महावीर प्रसाद जी बोले-
माताजी! मेरी सभी को १००८ थाल एवं लाडू बांटने की भावना है पुन: उन्होंने माताजी की आज्ञा पाकर जैन-अजैन सभी को थाल एवं लाडू वितरित किए तथा कलश यात्रा में १०८ महिलाओं को कलश, साड़ियाँ आदि भेंट की। विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष श्री अशोक सिंघल, भारतीय जीव जन्तु कल्याण बोर्ड के राष्ट्रीय अध्यक्ष न्यायमूर्ति श्री गुमानमल लोढ़ा, आचार्य श्री धर्मेन्द्र जी, गोवंश रक्षा एवं मांस निर्यात विरोध परिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष-
श्री के.एल. गोधा-उदयपुर, श्री हुकुमचंद साबला-इंदौर आदि महानुभावों की उपस्थिति एवं जैन संस्कृति तथा भगवान ऋषभदेव पर हुए उनके ओजपूर्ण संभाषणों से सभा अत्यन्त गरिमामयी वातावरण में सम्पन्न हुई।
इस चतुर्दिवसीय कार्यक्रम में भगवान ऋषभदेव चित्र प्रदर्शनी के सैकड़ों चित्रों के माध्यम से भारतीय संस्कृति, व्यसनमुक्ति, अहिंसा धर्म एवं भगवान ऋषभदेव-महावीर स्वामी के जीवन दर्शन से जनसाधारण को परिचित कराया गया। पुन: नवनिर्मित प्रयाग तीर्थ में भी माघ कृष्णा चतुर्दशी को ‘‘भगवान ऋषभदेव निर्वाणकल्याणक दिवस’’ पर निर्वाणलाडू चढ़ाया गया।
दीक्षास्थली तीर्थ पर प्रथम बार हुआ व्रताचार एवं बालक का मुण्डन व नामकरण संस्कार
मानव जीवन में संस्कारों का अत्यधिक महत्व है। अर्थात् बालक सच्चरित्रता का प्रथम पाठ अपने घर से ही सीखता है। यदि जीवन में सुसंस्कार हैं तो देश, धर्म, समाज व कुल को एक अच्छा नागरिक, अच्छा श्रावक, अच्छा कार्यकर्ता और अच्छा कुलदीपक मिलता है और कुसंस्कारों का प्रभाव तो सभी जानते हैं। जैनधर्म में जीव के गर्भ में आने से लेकर मृत्युपर्यन्त षोडश संस्कार माने गए हैं। अगर माताएं गुरु सानिध्य में जाकर इन सभी संस्कार विधि को क्रमश: सम्पन्न करती हैं, तो सन्तान वास्तव में बहुत ही प्रतिभासम्पन्न व तेजस्वी होती है।
महानुभावों! संस्कार ही तो पाषाण की मूर्ति पर किए जाते हैं, जब वह भगवान बनकर हमें जैनत्व का पाठ सिखाती है। पूज्य माताजी की सदैव यही प्रेरणा प्रत्येक सद्गृहस्थ के लिए रहती है कि जहाँ तक संभव हो, प्रत्येक श्रावक को इन षोडश संस्कारों को अपने घर में जन्म लेने वाले गर्भस्थ शिशु में अवश्य प्रत्यारोपित करना चाहिए।
उनकी ही प्रेरणा प्राप्त कर उनके गृहस्थावस्था के छोटे भाई श्री प्रकाशचंद जी समय-समय पर अपने घर की बहुओं व उनके नवजात शिशु को माताजी के पास लाकर उनके व्रताचार, मुण्डन, नामकरण, लेखन, प्रथम बार चलना आदि संस्कारों को करवाते रहते थे।
४० दिन के बच्चे को लेकर जब माँ पहली बार मंदिर जाती है, उसे अवध प्रान्त में व्रताचार-वर्ताचार कहते हैं। उनके लिए यह एक सुखद संयोग ही था कि जिस प्रयाग तीर्थ में भगवान ऋषभदेव ने आज से करोड़ों वर्ष पूर्व प्रथम केशलोंच कर मुनि परम्परा का इस युग में प्रारंभीकरण किया था, उसी तीर्थ की पवित्र गोद में आकर सर्वप्रथम उन्हें अपने सुपुत्र राजन जैन की पत्नी श्रीमती प्रियंका एवं उनके नवजात शिशु का व्रताचार, मुण्डन एवं नामकरण संस्कार करवाने का सुयोग प्राप्त हुआ।
२७ जनवरी को सर्वप्रथम बालक को जिनमंदिर के दर्शन करवाकर जब वे लोग उसे पूज्य माताजी के पास लाए तो माताजी ने शिशु के कान में णमोकार मंत्र सुनाकर उसे जैन बनाया पुन: उसका ‘उत्सव’ नाम रखा। यह प्रकाशचंद जी का पुण्य ही रहा है कि उनके प्रत्येक पुत्र-पुत्री, पोते-पोतियों यहाँ तक कि स्वयं उनको भी पूज्य माताजी के श्रीमुख से नाम प्राप्त हुआ।
यहाँ यह प्रसंग लेखनीबद्ध करने का तात्पर्य मात्र इतना है कि प्रत्येक जैन श्रावक को इस बात से यह शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि हमें अपने पुत्र-पुत्रियों, नाती-पोते आदि के नामकरण आदि संस्कार गुरुओं के समक्ष ही करना चाहिए ताकि गुरु द्वारा प्रदत्त उन संस्कारों के माध्यम से प्रत्येक बालक-बालिका शिक्षा प्राप्त कर अपने भावी जीवन का निर्माण कर सके।
साकार होता तीर्थ का विकसित स्वरूप
मात्र कुछ माह की ही अल्पावधि में विकसित स्वरूप प्राप्त करते दीक्षास्थली तीर्थ को जब पूज्य माताजी जैसी महान साध्वी का सानिध्य प्राप्त हुआ, तो वह उनके द्वारा प्रवाहित अजस्र ज्ञानधारा में अक्षयवट की भांति अभिसिंचित होकर देश-विदेश को अपनी ज्ञानछाया से संतृप्त करने लगा और अब तो देखते ही देखते वह समय भी आ गया।
जब सभी प्रतिमाओं की प्राणप्रतिष्ठा कर उन्हें जगत्पूज्य भगवान बनाना था। अत: पूज्य माताजी की प्रेरणा से ब्र. रवीन्द्र जी व अन्य कर्मठ कार्यकर्ताओं द्वारा ४ फरवरी से ८ फरवरी २००१ तक ‘‘भगवान ऋषभदेव पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं महाकुंभ मस्तकाभिषेक’’ का विराट आयोजन किया गया।
जिसका झण्डारोहण २९ जनवरी २००१ को माताजी के अनन्य भक्त श्री अनिल जैन (कमल मंदिर)-प्रीतविहार, दिल्ली ने किया। ४ फरवरी से ८ फरवरी तक गर्भ, जन्म, दीक्षा आदि पांचों कल्याणकों का दिग्दर्शन कराया गया तथा समस्त आगमोक्त अंतरंग क्रियाएं सम्पन्न कर पाषाण प्रतिमा को जगत्पूज्य बनाया गया।
तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली-प्रयाग तीर्थ का लोकार्पण
४ फरवरी २००१ को मध्यान्ह १ बजे केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री (भारत सरकार) श्री मुरली मनोहर जोशी एवं उ.प्र. लोक निर्माण राज्यमंत्री श्री राकेश दत्त त्रिपाठी पूज्य माताजी के दर्शन हेतु पधारे और जोशी जी ने तीर्थ का लोकार्पण कर परम प्रसन्नता व्यक्त की।
उन्हें जब हम लोगों ने अपने प्रवचन के माध्यम से इस तीर्थ की महत्ता, जैनधर्म की प्राचीनता एवं पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से लोगों को दिग्भ्रमित किए जाने वाले अंशों के बारे में बताया तो वे बोले- माताजी! मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि आपकी प्रेरणा से जिस तीर्थ का निर्माण हुआ है मुझे उसके लोकार्पण हेतु आने का सुअवसर मिला।
जरूर हमने पिछले जन्मों में कुछ अच्छे कार्य किए होंगे, जो हमें भारत के आध्यात्मिक संतों की पुण्य साधना एवं तपस्या का फल मिलता है।
जैनधर्म शाश्वत धर्म है, वह किसी जाति सम्प्रदाय का नहीं बल्कि मानवधर्म है। माताजी से चर्चा होने पर मेरे ध्यान में बात आई और मैंने पुस्तकों को देखा, सभी धर्मों के वास्तविक अंशों की सत्यता रहे, किसी धर्म के मानने वालों को चोट न पहुँचे, असंतोष व अपमान न हो, इस बात का ध्यान रखते हुए आगे आने वाले पाठ्यक्रम में निश्चित बदलाव होगा।
सगम के जल से हुआ प्रभु का जन्माभिषेक
प्रयाग में पंचकल्याणक के मध्य ५ फरवरी को सौधर्म इन्द्र श्री आनन्द कुमार जैन-मेरठ अपने इन्द्र परिवार के साथ संगम के तट से जल लाने हेतु ऐरावत हाथी पर बैठकर भव्य जुलूस के साथ वहाँ गए, उस समय संगम तट पर गीत, भजन, नृत्यपूर्वक निकली उस शोभायात्रा का दृश्य ही अलौकिक था।
वह जुलूस संगम के तट पर जाकर एक सुन्दर सी कतार में पंक्तिबद्ध हो गया, जो कि सचमुच के जन्माभिषेक जैसा आभास करवा रहा था। सभी इन्द्र-इन्द्राणी कलशों में संगम का जल भरकर पुन: भव्य जुलूसपूर्वक वापस आए और तीर्थ परिसर में नवनिर्मित पाण्डुकशिला पर जिनशिशु का १०८ कलशों से न्हवन कर शचि (श्रीमती अलका जैन-मेरठ) ने तीर्थंकर शिशु को वस्त्राभरणों से अलंकृत कर माता-पिता को सौंप दिया।
तीर्थंकर भगवान का जन्माभिषेक मुनियों द्वारा भी दर्शनीय है
प्रसंगोपात्त यहाँ एक बात अवश्य बताना चाहूँगी। चूंकि विषय चल रहा है तीर्थंकर भगवान के जन्माभिषेक का और वर्तमान में कुछ साधु यह कहकर जन्मकल्याणक महोत्सव के जुलूस एवं पाण्डुकशिला पर होने वाले जन्माभिषेक को देखने नहीं जाते हैं कि ‘‘साधुओं को मात्र दीक्षाकल्याणक आदि में जाना चाहिए, जन्मकल्याणक में वे भाग नहीं ले सकते हैं।’’
इस विषय में आगम में प्रमाण मिलता है कि चारणऋद्धिधारी मुनि भी जिनेन्द्र भगवान का जन्माभिषेक बड़े भक्ति-भाव से देखते हैं। जैसा कि महापुराण नामक आर्ष ग्रंथ में वर्णन आया है-
सानन्दं त्रिदशेश्वरै: सचकितं देवीभिरुत्पुष्करै:,
सत्रासं सुरवारणै: प्रणिहितैरात्तादरं चारणै:।
साशज्र्ं गगनेचरै: किमिदमित्यालोकितो य: स्पुरन्,
मेरोर्मूद्धनि स नोऽवताज्जिनविभोर्जन्मोत्सवाम्भ: प्लव:।।२१६।
अर्थात् मेरुपर्वत के मस्तक पर स्पुरायमान होता हुआ जिनेन्द्र भगवान के जन्माभिषेक का वह जलप्रवाह हम सबकी रक्षा करे, जिसे कि इन्द्रों ने बड़े आनन्द से, देवियों ने आश्चर्य से, देवों के हाथियों ने सूंड ऊँची करके बड़े भय से, चारण ऋद्धिधारी मुनियों ने एकाग्रचित्त होकर बड़े आदर से और विद्याधरों ने ‘‘यह क्या है’’ ऐसी शंका करते हुए देखा था।’’
इससे सिद्ध होता है कि वर्तमान के दिगम्बर मुनि, आचार्य या उपाध्याय आदि को जन्मकल्याणक जुलूस में सम्मिलित होने में रंचमात्र भी दोष नहीं है। बीसवीं सदी के प्रथम आचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा में आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज, आचार्य श्री धर्मसागर महाराज आदि चतुर्विध संघ सहित जन्माभिषेक देखते थे।
तीर्थंकर भगवान का जन्मकल्याणक दिव्य अलौकिक होता है अत: सामान्य मुनि एवं आचार्यों को उनका जन्माभिषेक देखने में कोई विकल्प नहीं करना चाहिए। तीर्थंकर की महिमा का वर्णन तो अनिर्वचनीय है।
अखिल भारतीय दि. जैन महिला संगठन का अधिवेशन
५ फरवरी को प्रयाग में पूज्य माताजी की प्रेरणा से गठित अ.भा.दि. जैन महिला संगठन का अधिवेशन हुआ, जिसमें भारत के कोने-कोने से संगठन की पदाधिकारी बहनों ने पधारकर अपने विचार एवं प्रगति रिपोर्ट प्रस्तुत की। अधिवेशन की सभाध्यक्ष श्रीमती कुसुमलता जैन-दिल्ली ध.प. महावीर प्रसाद जैन (संघपति) एवं मुख्य अतिथि श्रीमती रीता बहुगुणा जोशी (पूर्व मेयर-इलाहाबाद) थीं।
उन्होंने इस अवसर पर पधारकर अपार प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि पूज्य माताजी ज्ञान की देवी सरस्वती रूप हैं, इन्होंने अपना पूरा जीवन परोपकार हेतु समर्पित किया है, इससे ऐसा लगता है कि सन्तों और ऋषियों की इस भारत भूमि में हमारी महिलाओं ने बहुत योगदान दिया है। आपके आशीष व आपकी तपस्या से हर मानव को निश्चित ही मार्गदर्शन मिलेगा।
जैनधर्म बहुत प्राचीन धर्म है, भगवान ऋषभदेव के नाम से ही इस स्थान का नाम प्रयाग पड़ा, यह धरती उनकी चरणधूलि से पवित्र हुर्ई है। इसी धरती पर माताजी आशीर्वाद देने हेतु पधारी है। अ.भा.दि. जैन महिला संगठन की कर्मठता, कार्यकुशलता देखी, मात्र ५ वर्षों में की गई समाजसेवा हेतु आप बधाई की पात्र हैं।
हममें से शिक्षित महिलाएँ शिक्षा का प्रचार करेंगी, अहिंसा व सत्कर्म के कार्य को माताजी से सीखकर लोगों तक फैलाएंगी, इस दीक्षास्थली में माताजी का योगदान प्रयाग को समृद्ध कर रहा है, भविष्य में माताजी जो निर्देश देंगी, मैं उसका परिपालन करूँगी। इस महाकुंभ के अवसर पर आप सबका प्रयाग नगर में स्वागत है।
पुन: पूज्य माताजी ने एवं मैंने सभी महिला संगठन की बहनों एवं श्रीमती जोशी को अपना मंगल आशीर्वाद प्रदान किया तथा विदेशों तक भगवान ऋषभदेव का प्रचार करते हुए, आगे भगवान महावीर स्वामी के २६००वें जन्मोत्सव पर भी प्रचार-प्रसार करने की उन्हें प्रेरणा प्रदान की।
प्रयाग तीर्थ पर प्रथम बार पूज्य माताजी द्वारा दो कन्याओं को ब्राह्मी-सुन्दरी बनाकर विद्यादान
पंचकल्याणक में प्रथम बार दिखाया जाने वाला यह दृश्य अद्भुत ही था, जब पूज्य माताजी ने भगवान ऋषभदेव की ब्राह्मी-सुन्दरी पुत्रियों के विद्याध्ययन के दृश्य को दर्शाते हुए स्वयं अपने हाथों से रजत थाल में दो क्वांरी कन्याओं को विद्याध्ययन करवाया, जिसमें ब्राह्मी बनने का सौभाग्य-कु. मानवी जैन-मेरठ एवं सुन्दरी बनने का सौभाग्य-कु. रूबी जैन -इलाहाबाद को प्राप्त हुआ।
इसके साथ ही भगवान ऋषभदेव द्वारा दिये गये विद्यादान एवं राजनीति का वर्णन पूज्य माताजी ने अपने उपदेश में किया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में न्यायमूर्ति श्री डी.पी.एस. चौहान (चेयरमैन-म.प्र. लीगल सर्विस अथॉरिटी, जबलपुर), डॉ. अरविंद कुमार जैन-स्वास्थ्य राज्यमंत्री (उ.प्र.) तथा नार्दर्न इण्डिया पत्रिका के सम्पादक श्री प्रेमशंकर दीक्षित जी पधारे, जिनका कमेटी की ओर से स्वागत किया गया।
माननीय स्वास्थ्य राज्यमंत्री जी ने कहा कि यह सारी व्यवस्था जो वर्तमान में है, वह भगवान ऋषभदेव की देन है, भगवान ने सबको जीवन जीने की कला सिखाई, जिनका वर्णन वेदों में भी आता है। हम लोग पंचकल्याणक को जैन रामलीला कहते हैं, भगवान ऋषभदेव ने नौ निधियाँ व चौदह रत्नों को त्यागकर विभाव परिणति को मिटाया, हमारा भी आपसे निवेदन है कि सबको जैन दर्शन व भगवान का स्वरूप समझाकर संस्कारित करें।
चाहे भगवान ऋषभदेव हों, भरत हों या राम हों, इंसान में से ही भगवान बने हैं और बाकी लोग समझते हैं कि भगवान ने हमें बनाया है, जो उनकी मिथ्या भ्रांति है।
अयोध्या के महन्त नृत्यगोपालदास जी का आगमन
प्रयाग तीर्थ एवं भगवान ऋषभदेव के दर्शनार्थ पधारे हुए अयोध्या की छोटी छावनी के महन्त नृत्य गोपालदास जी ने पूज्य माताजी के गुणों एवं वात्सल्यमयी रूप की प्रशंसा करते हुए कहा कि जैनधर्म में त्याग-तपस्या की प्रधानता है।
जैन साधु-साध्वी कठोर तप करते हैं, जैनधर्म मानवों का संवर्धन एव संरक्षण कर रहा है, इसी प्रकार की समता-ममता हमें मिले, यही कामना है। इलाहाबाद विकास प्राधिकरण सचिव श्री इष्टदेव प्रसाद राय एवं मुख्य अभियंता श्री के.के. पाण्डेय जी ने भी पधारकर पूज्य माताजी के दर्शन कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस किया।
७ फरवरी को प्रयाग तीर्थ कुछ क्षण के लिए हस्तिनापुरी बन गया
भगवान ऋषभदेव प्रयाग की पावन भूमि पर दीक्षा ग्रहण कर छ: माह योग में लीन रहने के पश्चात् जब मुनिपरम्परा को जीवन्त रखने हेतु (आहारचर्या बतलाने हेतु) आहारार्थ निकले, तब किसी को भी आहार की विधि न मालूम होने से जनता भगवान को नाना प्रकार के वस्त्राभरण, मिष्ठान्न, भोजन, पुत्री आदि दिखाकर उन्हें ग्रहण करने की प्रार्थना करते थे।
छ: माह के भ्रमण के पश्चात् उन्हें हस्तिनापुर की पावन धरा पर वहाँ के युवराज श्रेयांस ने आठ भव पूर्व के जातिस्मरणपूर्वक आहार की विधि ज्ञात होने पर एक वर्ष ३९ दिन के उपवास के बाद प्रथम बार इक्षुरस का आहार दिया, वह तिथि वैशाख शु. तीज थी, जो ‘अक्षय तृतीया’ के नाम से अक्षय हो गई।
उसी आहारचर्या की याद दिलाता भगवान की आहारचर्या का दृश्य जब तीर्थ परिसर में दर्शाया गया, तो कुछ क्षण के लिए प्रयाग तीर्थ हस्तिनापुरी के रूप में परिवर्तित हो गया।
आहारचर्या के समय यत्र-तत्र जेवर, कपड़े आदि लेकर भगवान को बुलाते लोगों का अजब ही नजारा था और जब श्रेयांस राजा के महल में भगवान का पड़गाहन हुआ, तो जयजयकारों से पाण्डाल गुंजायमान हो उठा था।
दीक्षाकल्याणक तपोवन का उद्घाटन
दीक्षास्थली तीर्थ पर नवनिर्मित करोड़ों वर्ष पूर्व प्रथम दीक्षा की स्मृति को चिरस्थाई बनाने वाले ‘‘भगवान ऋषभदेव दीक्षाकल्याणक तपोवन’’ का उद्घाटन मुख्य अतिथि के रूप में पधारे महामहिम श्री विष्णुकांत शास्त्री (राज्यपाल उत्तरप्रदेश) एवं सभाध्यक्ष श्री अशोक सिंघल द्वारा ७ फरवरी को मध्यान्ह १ बजे हुआ।
इसी अवसर पर माननीय राज्यपाल जी की भतीजी ‘जया कालिया (राष्ट्रीय सदस्य-समाज कल्याण बोर्ड), न्यायमूर्ति श्री राधेश्याम गुप्ता (उ.प्र. सरकार) व अन्य प्रशासनिक अधिकारी पधारे। कार्यक्रम का शुभारंभ माननीय राज्यपाल जी द्वारा दीप प्रज्ज्वलन एवं संघस्थ बहनों के मंगलाचरण पूर्वक हुआ।
पीठाधीश क्षुल्लक मोतीसागर जी ने कहा कि नेता भाषण अधिक करते हैं किन्तु काम कम करते हैं, आज हमें प्रसन्नता है कि महामहिम जी काम करने वाले नेता हैं।
जिस दिन से मैंने सुना कि ऐसे अद्वितीय राज्यपाल, जिन्होंने भगवान ऋषभदेव की शिक्षा को स्वयं तो अपने जीवन में उतारा ही, बल्कि राज्यपाल बनते ही घोषणा कर दी कि हमारे राजभवन में मांसाहार क्या, प्याज भी इस्तेमाल नहीं होगा, सुनकर बेहद खुशी हुई। माताजी को नेताओं को बुलाने का यही उद्देश्य रहा है कि यहाँ आने पर उन्हें शाकाहारी जीवन की प्रेरणा दी जाए।
महामहिम द्वारा ‘प्रयाग तीर्थ वंदना’ पुस्तक का विमोचन
महामहिम जी ने पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा संस्कृत भाषा में लिखित ‘प्रयाग तीर्थ वंदना’ नामक नूतन कृति का विमोचन किया और स्वहस्ताक्षर युक्त एक प्रति माताजी के करकमलों में भेंट की।
पुन: मैंने महामहिम जी को बताया कि सन् १९९८ में ‘‘ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’’ का राजधानी दिल्ली से प्रवर्तन करते समय प्रधानमंत्री जी ने माताजी से प्राप्त छठे अंश आशीर्वाद से भी अधिक की कामना की थी, उस समय माताजी ने कहा था कि हम अपनी तपस्या का पुण्य देंगे और सरकार स्थिर होगी, उन्होंने अटल जी को भगवान ऋषभदेव के चरणचिन्ह दिये, पुन:४ फरवरी २००० को निर्वाणोत्सव के उद्घाटन पर आए प्रधानमंत्री जी ने फिर वही शब्द दोहराए कि तब का आशीर्वाद अभी तक मेरे काम आया, अब आज का आशीर्वाद आगे तक काम आएगा। यह सुनकर राज्यपाल जी बहुत प्रसन्न हुए।
पूज्य गणिनी माताजी ने कहा
यह वही पवित्र भूमि है, जहाँ भगवान ने दीक्षा लेकर वटवृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त किया था। महामहिम जैसे लोगों का इस धर्ममंच पर आने का यही तात्पर्य है कि वे अपने कर्मों से ढके आवरण को हटाकर वास्तविक ज्ञान प्राप्त करें।
जैनधर्म शम-दम शासनरूप है, जहाँ इन्द्रियों का दमन व कषायों का शमन किया जाता है, राज्यपाल जी उत्तरप्रदेश का गौरव हैं, अगर सारा देश ऐसा ही क्रम लागू करे, तो क्या ही अच्छा हो! आवश्यकता है भगवान ऋषभदेव-महावीर के सिद्धान्तों को विश्व में पहुँचाने की।
राज्यपाल जी भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण रखकर चरम शिखर पर पहुँचावें और सिंघल जी महापुरुष राम की जन्मभूमि की रक्षा के साथ मर्यादा की रक्षा के कार्य में सफल हों, यही आशीर्वाद है।
राज्यपाल जी भारत गौरव की उपाधि से सम्मानित- इस अवसर पर राज्यपाल जी के शुद्ध-सात्त्विक व धर्माचरण से युक्त जीवन से प्रभावित होकर दीक्षास्थली तीर्थ के कर्मठ कार्यकर्ताओं द्वारा उन्हें ‘‘भारत गौरव’’ की उपाधि से सम्मानित कर प्रशस्ति पत्र भेंट किया गया।
माताजी प्रत्येक कार्य का अथ करती हैं इति नहीं
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के जीवन की यह विशेषता है कि वह प्रत्येक कार्य का अथ करती हैं इति नहीं। अर्थात् माताजी सर्वप्रथम तो जो कार्य हाथ में लेती हैं, उसे शीघ्र ही मूर्तरूप देते हुए उसे पूर्णता प्रदान करती हैं और उसके समापन के पूर्व ही नूतन कार्य की घोषणा कर देती हैं।
चूँकि अभी भगवान ऋषभदेव अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव का समापन हो रहा था अत: माताजी ने भगवान महावीर स्वामी के २६००वें जन्मोत्सव पर समिति बनाने की घोषणा करते हुए कहा कि मैं किसी भी कार्यक्रम का समापन नहींr करना चाहती, अथ हो और समाप्ति न हो, यह निर्वाण महोत्सव का समापन भले ही हो किन्तु कार्य की इति नहीं है क्योंकि अब भगवान ऋषभदेव को आदि में लेकर भगवान महावीर स्वामी के २६००वें जन्मजयंती महोत्सव पर कौशाम्बी में महावीर स्वामी की आहार भूमि पर भगवान महावीर व चन्दनबाला की आहारमुद्रा की मूर्ति विराजमान की जाएगी।
हम भगवान ऋषभदेव का उत्सव मनाते हुए यह संकल्प करते हैं कि एक वर्ष में बहुत कुछ कार्य करते हुए महावीर जयंती वर्ष को मनाएंगे।
माननीय श्री महामहिम जी ने कहा
हमारी परम्परा में अद्भुत समदर्शिता का आभास मिलता है। प्रत्येक धर्म भगवान को किसी न किसी रूप में मानता है। नारदीय सूत्र में लिखा है-जो तीर्थ का निर्माण करे, भवसागर से पार करे, वह तीर्थंकर है।
ऐसे प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को मैं प्रणाम करता हूँ। हमारी संस्कृति बहुत समृद्ध है, अनेक परम्पराओं का इसमें समावेश है जिसमें जैनशासन का विशेष महत्व है। जिन तीर्थंकर भगवान की दीक्षाभूमि पर हम खड़े हैं, उन्होंने अहिंसा, षट्कर्म का उपदेश दिया। यह वीरों की अहिंसा है, कायरों की नहीं। इस तीर्थ की श्रद्धा शीघ्र ही मूर्तरूप लेगी।
श्री सिंघल जी ने कहा- यह बड़ा ऐतिहासिक प्रसंग है, अपने देश में महापुरुषों को उचित स्थान प्रदान करना भक्तों का कार्य है इसीलिए मैं इन्हें भामाशाह कहता हू। बड़े आनन्द का विषय है कि प्रथम बार पूज्य माताजी के प्रयत्नों से बहुत आनन्दपूर्वक महाकुंभ नगर में कार्यक्रम हुआ, निर्वाण उत्सव मनाया गया।
मैं मानता हूँ कि वास्तव में भारत ही जैन है और जैन ही भारत है। ज्ञानमती माताजी ने हमारे देश पर बड़ा उपकार किया है, हम जिसे भूल गए थे, इन्होंने उसे स्मृत करवा दिया है।
गुजरात में आए भूकंप से संत्रस्त लोगों के लिए प्रार्थना की गई- भूकंप एक प्राकृतिक आपदा है, कहा जाता है कि जब धरती पर निरीह जीवों पर अत्याचार-अनाचार बढ़ते-बढ़ते चरम सीमा पर पहुँच जाता है, तब धरती माता का हृदय भी विह्वल हो उठता है और उसके हृदय में मची उथल-पुथल भूकंप का रूप ले लेती है।
शायद यही कारण है कि आज धरती पर बढ़ते अत्याचार-अनाचार के प्रतिफल में प्रतिवर्ष कहीं न कहीं भयावह भूकंप आते हैं, कहींr बाढ़ आ जाती है, कहीं सुनामी लहरें अपना कहर बरपा देती हैं, उनके बारे में सोचने मात्र से ही सारा शरीर और हृदय कांप उठता है। उसी प्राकृतिक आपदा का एक कहर बरपा गुजरात में आये विनाशकारी भूकंप से।
२६ जनवरी २००१ को आए उस भूकंप में जनसहायतार्थ जहाँ देश का बच्चा-बच्चा उमड़ पड़ा, वहींr पंचकल्याणक में विश्वशांति महायज्ञ के माध्यम से शांति, सुरक्षा की कामना के साथ-साथ दीक्षास्थली पर पधारे हजारों श्रद्धालु भक्तों ने सभी मृतकों के, उनके परिवारों के एवं भूकंप से त्रस्त लाखों-लाख बेघर हुई जनता की शांति हेतु भगवान ऋषभदेव से मंगल प्रार्थनाएँ की तथा अनेक लोगों ने आर्थिक अनुदान भी घोषित किया।
भव्य समवसरण रथ की शोभायात्रा- ७ फरवरी २००१ को सायं ५ बजे भगवान के केवलज्ञान की सम्पूर्ण क्रियाएं सम्पन्न हुर्इं जिसमें संयोगवश भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार रथ के आगमन से उसकी शोभा द्विगुणित हो उठी और उसी में भरत चक्रवर्ती आदि को क्रम से बिठाकर १२ सभा का दृश्य उपस्थित कर शोभायात्रा निकाली गई।
मंच पर परदे के अन्दर जिनप्रतिमाओं एवं कैलाशपर्वत, तपोवन आदि में विराजमान जिनप्रतिमाओं को सूरिमंत्र प्रदान कर केवलज्ञान की घोषणा होते ही पर्दा खुल गया और क्षणमात्र में १२ सभाओं का दृश्य उपस्थित हो गया।
असली कैलाशपर्वत पर चढ़ाया गया निर्वाणलाडू- जिस कैलाशपर्वत से भगवान ऋषभदेव ने मोक्ष प्राप्त किया, उसी कैलाशपर्वत की भव्य प्रतिकृति पर विराजमान १४ पुट उत्तुुंग भगवान ऋषभदेव की मनोहारी प्रतिमा निर्वाणकल्याणक के पश्चात् परम पूज्य बन गई, पुन: श्रीजी के सम्मुख पूजनपूर्वक निर्वाणलाडू चढ़ाया गया।
इस भव्य प्रतिकृति के निर्माण का पुण्य प्राप्त करने वाली श्रीमती सुलोचना जैन ध.प.श्री चेतनलाल जैन-प्रीतविहार, दिल्ली ने सपरिवार उपस्थित होकर परम आनंद के साथ भगवान का अभिषेक किया।
समवसरण मंदिर का उद्घाटन-जिस पुरिमतालपुर के उद्यान में भगवान ऋषभदेव को दिव्य केवलज्ञान की प्राप्ति हुई थी, वर्तमान में वह उद्यान भी प्रयाग में ही माना जाता है। भगवान के केवलज्ञान होते ही धरती से ५ हजार धनुष (२० हजार हाथ) ऊपर अधर आकाश में धनकुबेर ने समवसरण की रचना की थी,
उसी समवसरण की भव्य प्रतिकृति एक रथ के रूप में पूज्य माताजी की पावन प्रेरणा से राजधानी दिल्ली के लाल किला मैदान से सन् १९९८ में उद्घाटित हुई, जिसे भारत भ्रमण हेतु तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रवर्तित किया और लगभग ३ साल तक भारत के कोने-कोने में अहिंसा, शाकाहार, विश्वमैत्री तथा तीर्थंकर भगवान के सर्वोदयी सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करने के बाद प्रयाग तीर्थ के इसी जिनमंदिर में विराजमान की गई। तीर्थ के गौरव अध्यक्ष एवं केन्द्रीय वस्त्र राज्यमंत्री (भारत सरकार) श्री वी. धनंजय कुमार जैन ने इसका उद्घाटन कर परम प्रसन्नता व्यक्त की।
इस अवसर पर अ.भा.दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष-साहू रमेश चंद जैन भी पधारे। साहू जी तीर्थ के प्रथम दर्शन कर भावविभोर हो उठे और बोले-तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षाभूमि पर आने के निमित्त से मैं ५० वर्ष बाद प्रयाग की धरती पर आया हूँ।
तीर्थक्षेत्र कमेटी का अध्यक्ष होने के नाते मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि एक प्राचीन तीर्थ पुनरुद्धार होकर तीर्थों की शृंखला में जुड़ गया, ऐसी पवित्र स्थली पर हम उत्सव मना रहे हैं, सभी को बधाई। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि पूर्ण मनोयोग के साथ तीर्थों की सेवा में संलग्न रहूँगा।
श्री धनंजय जी ने कहा- इस दीक्षास्थली पर आने का मुझे सौभाग्य मिला, बड़ी प्रसन्नता हुई। जिस भूमि से भगवान ने हमें जीवन जीने का पाठ दिया, वहाँ पूज्य माताजी की प्रेरणा से हुए निर्माणकार्य को देखकर प्रसन्नता हुई।
माननीय प्रधानमंत्री जी की अध्यक्षता में इस वर्ष भगवान महावीर का २६००वाँ जन्मजयंती महोत्सव हम मना रहे हैं। पूरे भारत में सन् २००२ तक यह कार्यक्रम चलेगा, जिसमें केन्द्र सरकार द्वारा १०० करोड़ रुपये का ऐलान किया गया है। ६ अप्रैल को शाकाहार दिवस की घोषणा हुई है। ६ अप्रैल २००१ से अप्रैल २००२ तक ‘‘अहिंसा वर्ष’’ घोषित हुआ है। पूज्य माताजी हमें समय-समय पर मार्गदर्शन देती रहें, जिससे तीर्थंकरों के सिद्धान्तों को समझकर हर मानव शांति से जी सके, सब एकत्रित होकर सारी दुनिया को समृद्धिशाली बना सवें।
इस भूमि पर बहुत ही गौरवशाली कार्य हो रहा है, जिससे मैं एवं सारा जैन समाज आपके साथ जुड़ा है। इसी अवसर पर पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा हस्तलिखित २६०० मंत्रों से समन्वित विश्वशांति महावीर विधान की हस्तलिखित प्रति का लोकार्पण मुख्य अतिथि श्री धनंजय जी द्वारा किया गया।
बसन्तोत्सव के बसंती माहौल में इक्कीसवीं सदी का प्रथम महाकुंभ- देखते ही देखते वह पावन घड़ी आ गई, जिसका उस दिन से इंतजार था, जिस दिन से इस तीर्थ को साकाररूप देने की घोषणा हुई थी। प्रात:काल से ही केशरिया वस्त्रों में लिपटा विशाल जनसमूह अपने पूर्वनिर्धारित कलशों को पाने हेतु आतुर हो उठा था।
ऊपर जाने के लिए दोनों ओर से मजबूत सीढ़ियाँ बनाई गई थीं, जिस पर एक ओर से चढ़ने तथा दूसरी ओर से उतरने की व्यवस्था थी। केशरिया झण्डों से सजी सीढ़ियों पर स्थान-स्थान पर खड़े सुयोग्य कार्यकर्ता कलश पास देखकर ही नर-नारियों को ऊपर चढ़ने दे रहे थे।
कैलाशपर्वत के ठीक सामने चबूतरे पर भरत सेना-टिवैतनगर के कर्मठ कार्यकर्ताओं द्वारा सजाए गए महाकुंभ की आकृति के १००८ स्वर्ण, रजत आदि महाकुंभ बसन्ती बहार बिखेरते हुए जनमानस को अपनी ओर आकृष्ट कर रहे थे।
स्वर्ण महाकुंभ से प्रथम मस्तकाभिषेक- दुल्हन के समान इस नूतन तीर्थ भूमि पर अभिषेक करने को आतुर बंधुओं का तांता लगा था।
प्रथम स्वर्ण महाकुंभ कलश लेकर लाला महावीर प्रसाद जी के साथ वस्त्र राज्यमंत्री श्री वी. धनंजय कुमार जी ने ऊपर पहुँचकर ज्यों ही मंत्रोच्चारण प्रारंभ होते ही कलश प्रारंभ किया।
उपस्थित भक्तगण भावविभोर हो उठे और हों भी क्यों न, मध्यान्ह ११.१५ मिनट पर किया गया यह प्रथम कलश वास्तव में इतिहास का अमिट पन्ना जो बनकर रह गया था। जिन-जिन कलशों से प्रभु के मस्तक पर अभिषेक हो रहा था, उस-उस वर्ण में भगवान सभी के नेत्रों को आनन्दकारी लग रहे थे।
सपेद दूध के पड़ते ही पूरी प्रतिमा श्वेतवर्णी हो उठी, दधि पड़ते ही ऐसा प्रतीत हुआ मानों घड़े भर मोती प्रभु के ऊपर बरसाए गए हों, केशर और सर्वौषधि की सुगंधि से जहाँ सारा वातावरण महक उठा, वहीं पुष्पवृष्टि में बरसाए गए पुष्प धनकुबेर के द्वारा की जाने वाली रत्नवृष्टि की याद दिला रहे थे।
इस पंचामृत अभिषेक से कैलाशपर्वत तो सुवासित हुआ ही, भक्तगणों ने अपने वस्त्रों को, शरीर को सुगंधित किया और शीशी, छन्ने एवं स्टील की डिब्बियों में भरकर अपने घर भी ले गए।
इस दृश्य को कैलाशपर्वत की प्रतिकृति के निर्माता श्री चेतनलाल जैन की धर्मपत्नी श्रीमती सुलोचना जैन सपरिवार देखकर परम हर्षित हो रही थीं, वैंसर जैसी घातक बीमारी से ग्रस्त होने के बावजूद भी उनकी तीव्र अभिलाषा ने उन्हें महाकुंभ मेले की भयंकर भीड़ में कैलाशपर्वत के दर्शन की शक्ति प्रदान कर दी।
आश्चर्य तो तब हुआ, जब वे रात में बैठकर पूरा सांस्कृतिक कार्यक्रम रुचिपूर्वक देखती रहीं। पुन: कार्यक्रम समापन के बाद सकुशल वे दिल्ली पहुँच गर्इं और इसी पुण्य के फलस्वरूप आगे वे निराकुलतापूर्वक जून २००१ में समाधिपूर्वक स्वर्गवासी हो गईं।
सम्पूर्ण व्यवस्थाओं ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया- सभी आगन्तुक अतिथिगण और इलाहाबाद जैन समाज आश्चर्यचकित था कि मात्र ३ माह के भीतर तीर्थ निर्माण के साथ इतनी सुन्दर व्यवस्था हुई है, जिसकी हमने कल्पना तक नहीं की थी।
आवास, भोजन, पानी, साजसज्जा, पाण्डाल व्यवस्था आदि जितनी भी व्यवस्थाएं की गयी थीं, सभी की पधारे हुए लाखों श्रद्धालुओं ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की।
प्र्समापन की विदाई बेला में कई हर्षपूरित नेत्र माताजी का गुणगान कर रहे थे- महाकुंभ मस्तकाभिषेक समापन की बेला में सभी को पूज्य माताजी का वात्सल्यपूर्ण आशीर्वाद प्रवचन भी प्राप्त हुआ, जिसे सुनकर सभी के नेत्रों में हर्षपूरित अश्रु भर गए और सभी बोल उठे-हे माता! तू धन्य है, तेरी महिमा अपरम्पार है।
ऋषभदेव अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव की ऐतिहासिक धरोहर है यह तीर्थ- ‘‘शास्त्रों में आचार्यों ने कहा है कि सौ नये मंदिर का निर्माण कराने से जो पुण्य अर्जित होता है, उससे कई गुना अधिक पुण्य एक पुराने जीर्ण-शीर्ण मंदिर अथवा तीर्थंकर भगवन्तों की गर्भ, जन्मादि पंचकल्याणक भूमियों के उद्धार, संरक्षण-संवर्धन करने में है।
ये पंचकल्याणक भूमियाँ एवं प्राचीन मंदिर हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं और धर्म के प्रतीक हैं, इनकी रक्षा करना हम सबका प्रथम पुण्य कत्र्तव्य है। वे तीर्थ हमारे धर्म के स्तम्भ हैं, आधारशिला हैं।
ये हमें सदैव धर्म की प्रेरणा देकर हमारा आत्मकल्याण कराने में सहायक होते हैं।’’ शास्त्र-पुराणों में इन तीर्थों को अचेतन तीर्थ एवं पंचपरमेष्ठी भगवन्तों को चेतन तीर्थ माना है।
वर्तमान में चेतन तीर्थों के द्वारा ही इन अचेतन तीर्थों का विकास, जीर्णोद्धार, संरक्षण-संवर्धन संभव है। शायद यही कारण है कि पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी सदैव तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों के विकासादि में स्वयं भी तत्पर रहती हैं और सभी को उसमें दत्तचित्त रहने की प्रेरणा प्रदान करती हैं।
वस्तुत: इसी प्रेरणा का प्रतिफल यह ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली’’ तीर्थ है, जो करोड़ों वर्ष पूर्व के इतिहास को वर्तमान में पुन: जीवन्त कर रहा है। भगवान ऋषभदेव अन्तर्राष्ट्रीय निर्वाण महोत्सव के समापन अवसर पर निर्मित यह तीर्थ समस्त जैनधर्मावलम्बियों की ऐतिहासिक धरोहर है, जो युगों-युगों तक उन स्मृतियों को तरोताजा करते हुए तीर्थंकर भगवन्तों के अहिंसा, अनेकान्तवाद, विश्वमैत्री, प्राणीमात्र के प्रति करुणा जैसे सर्वोदयी सिद्धान्तों को जन-जन में प्रतिष्ठापित करता रहेगा।
इसीलिए ऐसी इतिहास प्रणेत्री माता के बारे में मैंने लिखा-
इस तीर्थ प्रणेत्री माता का, यश युग-युग अमर रहेगा।
‘‘चन्दनामती’’ हर कवि इनका, पावन यशगान करेगा।।
पावन इस पुण्य से इनको तीर्थंकर पद, निश्चित शीघ्र मिलेगा।।
ये हैं इतिहास प्रणेता।।
तीर्थ पर प्रथम केशलोंच का सौभाग्य मुझे भी मिल गया- जिस पवित्र धरा पर आज से करोड़ों वर्ष पूर्व सिद्ध प्रभु की साक्षी लेकर भगवान ऋषभदेव ने पंचमुष्टि केशलुंचन किया था और जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मुनिपरम्परा को जीवन्त किया था, उसी पावन भूमि पर तीर्थ के नवनिर्माण के पश्चात् प्रथम बार मुझे केशलोंच करने का सौभाग्य प्राप्त हआ।
इस अवसर पर श्री विक्रमाजीत तिवारी (ए.डी.एम.एफ.) इलाहाबाद और श्री मुन्नीलाल पाण्डे (एस.डी.एम.) ने पधारकर पूज्य माताजी का आशीर्वाद प्राप्त किया।
उस समय माताजी ने उपस्थित मुख्य अतिथि, विभिन्न पत्रकारों तथा जनसमूह को केशलोंच की महिमा बताते हुए कहा कि भगवान ऋषभदेव ने प्रयाग में ही वटवृक्ष के नीचे प्रथम केशलोंच किया था पुन: जब उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया, तब उनके समवसरण में उनके पुत्र वृषभसेन एवं ब्राह्मी-सुन्दरी पुत्रियों ने केशलोंच कर मुनि और आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर प्रथम गणधर तथा प्रथम गणिनी का पद प्राप्त किया था।
तिवारी जी को १५ फरवरी को गोरखपुर विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. की उपाधि मिलने के उपलक्ष्य में कैलाशपर्वत का मोमेन्टो देकर कमेटी द्वारा सम्मानित किया गया।
तीर्थ पर अनेकों विधान सम्पन्न हुए- इस तीर्थ पर पंचकल्याणक की पूर्णता के पश्चात् से अनेकों लघु एवं वृहद् विधान प्रारंभ हो गए। सर्वप्रथम कैलाशपर्वत के गुफा मंदिर में १६ फरवरी से ‘समवसरण विधान’ प्रारंभ हुआ, जिसमें हजारीबाग की कुछ महिलाओं एवं संघस्थ ब्र.कु. इन्दु ने भाग लिया पुन: अष्टान्हिक पर्व में इलाहाबाद जैन समाज द्वारा ‘‘सिद्धचक्र पाठ’’ किया गया।
इसके अतिरिक्त १ जनवरी २००१ को पूज्य माताजी के तीर्थ पर मंगल प्रवेश से लेकर जब तक प्रवास रहा, तब तक निरन्तर संघस्थ बहनों द्वारा ऋषभदेव विधान, शांतिविधान, ऋषिमण्डल विधान आदि अनेकों विधान आयोजित होते रहे।
जिनेन्द्र भगवान की भक्ति को अपना प्रमुख ध्येय मानने वाली पूज्य माताजी का यही कहना रहता है कि भगवान की भक्ति से बड़ी-बड़ी आपदाएँ दूर होकर अलौकिक सुख के साथ-साथ आध्यात्मिक सुख भी मिलता है अत: हमें अपने जीवन में प्रतिदिन कुछ समय प्रभु भक्ति के लिए अवश्य निकालना चाहिए।
यात्रियों का भी आवागमन प्रारंभ हो गया- फाल्गुन शु. अष्टमी, ३ मार्च २००१ को संघस्थ क्षुल्लक मोतीसागर जी का १५वाँ दीक्षा दिवस था, उस दिन सुबह से लेकर शाम तक ५ बसें आ गर्इं और भले ही तीर्थ पर ठहरने की व्यवस्था अभी पूर्णरूपेण नहीं हो पाई थी, परन्तु जितनी व्यवस्था हो सकी, वह उसमें ही संतुष्ट हो बड़े प्रसन्न हुए और तीर्थ व माताजी के दर्शन कर अपना अहोभाग्य माना।
उसके बाद तो यात्रियों का जो आवागमन प्रारंभ हुआ, वह धीरे-धीरे बढ़ता चला गया, आज शिखरजी की यात्रा करने वाले प्रत्येक यात्री इस तीर्थ पर आकर तीर्थदर्शन के साथ वहाँ की सुन्दर व्यवस्था से परम प्रसन्न होते हैं।
भगवान ऋषभदेव का जन्म-तपकल्याणक एवं पूज्य माताजी का केशलोंच समारोह- चैत्र कृष्णा नवमी की तिथि भगवान ऋषभदेव के जन्म एवं तपकल्याणक से पावन है।
दीक्षास्थली तीर्थ पर भगवान के जन्म व तपकल्याणक अवसर पर पूज्य माताजी का केशलोंच हुआ। सभा के पश्चात् कैलाशपर्वत पर विराजमान बड़े भगवान का पंचामृत अभिषेक हुआ तथा वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ महामुनि का १०८ कलशों से अभिषेक हुआ।
आज के पावन दिवस मैंने दीक्षा वाले भगवान के पास एक नया कमण्डलु रखकर माताजी से शुद्ध करवाकर लिया और नई पिच्छी रखवाकर पूज्य माताजी ने ग्रहण की, सो उस दिन बड़ा सौभाग्य प्रतीत हुआ कि प्रयाग के असली दीक्षानगर में प्रभु के दीक्षाकल्याणक के दिवस दीक्षा के उपकरण हम लोगों ने प्राप्त किए।
एक ऐतिहासिक दिवस- २७ मार्च २००१ की तिथि को मैंने ऐतिहासिक इसलिए बताया क्योंकि जिस पवित्र वटवृक्ष के नीचे भगवान ऋषभदेव ने आज से करोड़ों वर्ष पूर्व दीक्षा ली थी, वह आज भी वंश परम्परा से अक्षय होकर मिलिट्री एरिये में स्थित है और उसी वटवृक्ष को देखने के लिए हम सभी पूज्य माताजी के साथ आज पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ७ बजे पहुँच गए।
चूँकि उस एरिया में सरकारी आदेशानुसार ही जाया जा सकता है अत: उन सभी औपचारिकताओं को जैन तीर्थ के कार्यकर्ताओं ने पूर्ण कर सरकारी आदेश ले लिया था।
पूज्य माताजी ने पहले से ही भगवान ऋषभदेव के चरण बनवा लिए थे अत: सभी ब्रह्मचारिणी बहनों ने चरण, पूजन सामग्री, जल एवं यंत्र साथ में ले लिए थे। वहाँ पहुँचकर उन्होंने अक्षयवट के नीचे यंत्र स्थापित कर वहीं भगवान के चरण विराजमान कर उनका अभिषेक-पूजन कराया, सामूहिक भक्तामर स्तोत्र का पाठ हुआ और माताजी का संक्षिप्त उद्बोधन हुआ।
वहाँ हमें जैन समाज के लोगों ने बताया कि अभी २-३ वर्ष पूर्व तक यहाँ भगवान के चरण विराजमान थे और हम लोग प्रतिवर्ष अक्षयतृतीया के दिन सारी जैन समाज के साथ आकर भक्तामर स्तोत्र का पाठ भी किया करते थे। अब पुन: चरण स्थापना करते देखकर उन सभी को परम आल्हाद हुआ।
इस प्रकरण को लिखने तक ज्ञात हुआ है कि भगवान ऋषभदेव के वे श्रीचरण वटवृक्ष के नीचे ज्यों की त्यों विराजमान हैं। आज भी वहाँ यह किंवदन्ति प्रसिद्ध है कि इसी वटवृक्ष के नीचे भगवान ऋषभदेव को दिव्य केवलज्ञान प्रगट हुआ था।
पूरी हिन्दू समाज के लोग इस वटवृक्ष को बहुत ही पूज्य मानते हैं और बड़ी श्रद्धा से इसे अक्षयवट मानकर दर्शन करते हैं।