जिस भाव का प्रयोजन अर्थात् कारण उपशम है वह औपशमिक भाव है । इसी प्रकार औदयिक भाव की भी व्युत्पत्ति करनी चाहिए अर्थात् उदय ही है प्रयोजन जिसका वह औदयिक भाव है ।
औदयिक भाव के इक्कीस भेद है – चार गति, चार कषाय, तीन लिंग , एक मिथ्यादर्शन, एक अज्ञान, एक असंयम, एक असिद्ध भाव और छह लेश्याएं ।
मोहज औदयिक भाव ही बन्ध के कारण है अन्य नहीं वास्तब में मोहजनित भाव ही औदयिक हैं उसके बिना सब क्षायिक है । अर्हन्त भगवान पुण्यफल वाले हैं और उनकी क्रिया औदयिकी है मोहदिये ये रहित है इसलिए वह क्षायिकी मानी गयी है । अर्हन्त भगवान की विहार व उपदेश आदि सब क्रियाएं यद्यपि पुण्य के उदय से उत्पन्न होने के कारण औदयिकी ही हैं किन्तु ऐसी होने पर भी वह सदा औदयिकी क्रिया, महामोह राजा की समस्त सेना के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होती है, इसलिए मोह रागद्वेषरूपी उपरंजको का अभाव होने से चैतन्य के विकार का कारण नहीं होती इसलिए कार्यभूत बन्ध की अकारणभूतता से और कार्यभूत मोक्ष की कारणभूत से क्षायिकी ही क्यों न माननी चाहिए ।