तिर्यंच व मुनष्य के इस इन्द्रियगोचर स्थूल शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं इसके निमित्त से होने वाला आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन औदारिक कामयोग कहलाता है । शरीर धारण के प्रथम तीन समयों में जब तक इस शरीर की पर्याप्ति पूर्ण नही हो जाती तब तक इसके साथ कार्माण शरीर की प्रधानता रहने के कारण शरीर व योग दोनों मिश्र कहलाते है । षटखण्डागम ग्रन्थानुसार नाम निरूक्ति की अपेक्षा उराल है इसलिए औदारिक है । सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ के अनुसार उदार और स्थूल ये एकार्थवाची शब्द है । उदार शब्द से होने रूप अर्थ में या प्रयोजन रूप अर्थ में ढक प्रत्यय होकर औदारिक शब्द बनता है ।
औदारिक शरीर दो प्रकार का है –
१ अविक्रियात्मक
२ अविक्रियात्मक
औदारिक शरीर का स्वामित्व – जो शरीर गर्भजन्म से और सम्मूर्छन जन्म से उत्पन्न होता है वह सब औदारिक शरीर है । मूलाराधना ग्रन्थ में षटकायिक जीवों के शरीरों का आकार बताते हुए कहा है कि पृथ्वीकायिक के शरीर का आकार मसूर के आकारवत् अपकायिक का डाभ के अग्रभाग में स्थित जलबिन्दुवत् तेजकायिक का सूचीसमुदायवत अर्थात् ऊध्र्व बहुमुखाकार, वायुकायिक का ध्वजवत् चौकोर आकार है । सब वनस्पति और दो इन्द्रिय आदि त्रस जीवों का शरीर भेद रूप अनेक आकार वाला है ।
औदारिक शरीर में धातु उपधातु के उत्पत्ति क्रम में रस से रक्त बनता है, रक्त से मांस उत्पन्न होता है, मांस से मेदा पैदा होती है, मेदा से हड्डी बनती है हड्डी से मज्जा पैदा होती है, मज्जा से शुक्र उत्पन्न होता है और शुक्र से प्रजा उत्पन्न होती है । २५८४ कला ८ ४/७ काष्ठाकाल तक रस रसस्वरूप से रहकर रूधिररूप परिणत होता है । वह रूधिर भी उतने ही काल तक रूधिर रूप से रहकर मांसस्वरूप से परिणत होता है । इसी प्रकार शेष धातुओं का भी परिणाम काल कहना चाहिए । वात, पित्त, श्लेष्म, सिरा, स्नायु, चर्म, उदराग्नि ये सात उपधातु है । इस मनुष्य देह में ३०० अस्थि है , वे दुर्गन्ध मज्जा नामक धातुओं से भरी हुई है और ३०० ही संधि है । ९०० स्नायु है , ७०० सिरा है, ५०० मांसपेशियाँ है ४ जाल है, १६ कडरा है, ६ सिराओं के मूल है और २ मांसरज्जू है । ७ त्वचा है, ७ कालेयक है और ८०००००० कोटि रोम है । पक्वाशय और आमाशय में १६ आंते रहती है, दुर्गन्ध मल के ७ आशय है । ३ स्पूणा हैं , १०७ मर्मस्थान है , ९ व्रण मुख है जिससे नित्य दुर्गन्ध स्रवता है । मस्तिष्क , मेद, ओज, शुक्र ये चारों एक – २ अंजलि प्रमाण है । वसा नामक धातु ३ अंजलिप्रमाण , पित्त और श्लेष्म अर्थात् कफ छह –छह अंजलि प्रमाण और रूधिर आङ्गक है । मूत्र एक आढक , उच्चार अर्थात् विष्ठा ६ प्रस्थ , नख २० और दांत ३२ है । स्वभावत: शरीर में इन अवयवों का प्रमाण कहा है ।
औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव के प्रदेशों में परिस्पन्दन का कारण भूत जो प्रयत्न होता है उसे औदारिक मिश्र जानना चाहिए उसके द्वारा होने वाला जो संप्रयोग है वह औदारिक मिश्रकाय योग कहलाता है अर्थात् शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने से पूर्व कार्माण शरीर की सहायता से उत्पन्न होने वाले औदारिक काय योग को औदारिक मिश्रकाययोग कहते हैं ।
तिर्यंचो और मनुष्यो के औदारिक काययोग और मिश्रकाययोग होता है । औदारिक काययोग पर्याप्तकों के और औदारिक मिश्रकाययोग अपर्याप्तकों के होता है ।