सम्मूर्हन, गर्भज और उपपाद के भेद से जन्म तीन प्रकार का है जिसमें उपपाद जन्म का लक्षण है – माता पिता के रज वीर्य के बिना देव और नारकियों के निश्चित स्थान विशेष पर उत्पन्न होने को उपपाद जन्म कहते है ।
तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ की द्वितीय अध्याय में आचार्य श्री उमास्वामी ने उपपाद जन्म के स्वामी का लक्षण बताते हुए कहा है –
देवनारकाणामुपपाद: ।।३४।।
देवों और नारकियों के उपपाद जन्म ही होता है । अथवा उपपाद जन्म देव और नारकियों के ही होता है ।
पुण्य के उदय से देवगति में उपपाद शयया से जन्म होता है । जन्म लेते ही आनन्द वादित्र बजने लगते हैं । अन्र्तमुहूर्त में ही देव अपनी छहों पर्याप्तियों को पूर्ण कर नवयौवन सहित हो जाते है और अवधिज्ञान से सब जान लेते हैं अनन्तर सरोवर में स्नान करके वस्त्रालंकार से भूषित होकर जिनमन्दिर में जाकर भगवान की पूजा करते है । जो देव मिथ्यादृष्टि है वे अन्य देवों की प्रेरणा से जिनदेव को कुल देवता मानकर पूजन करते है ।
जबकि इसके विपरीत नरकगति में नारकी जीव महापाप के उदय से जन्म लेता है और नरक बिल में उत्पन्न होकर एक मुहूर्त काल में छहों पर्याप्तियों को पूर्ण कर छत्तीस आयुधों के मध्य में औधें मुंह गिरकर वहाँ से गेंद के समान उछलता है । प्रथम पृथ्वी में नारकी सात योजन, छह हजार पांच सौ धनुष प्रमाण ऊपर को उछलता है । इससे आगे शेष नरकों में उछलने का प्रमाण दूना -२ है ।