हड़प्पा से कायोत्सर्ग मुद्रा में एक मूर्ति प्राप्त है। विद्वानों की मान्यता है कि यह प्रतिमा जिन की रही होगी। इसी प्रकार एक धड़ लुहानीपुर से प्राप्त हुआ है जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है जिसे तीर्थंकर प्रतिमा माना गया है। यह प्रतिमा कदाचित् इष्टिका से बने किसी उपासना स्थल में रही होगी। मथुरा में जैन धर्म प्राचीन समय से ही विद्यमान था। दुर्भाग्य से आज एक भी प्राचीन स्मारक मथुरा में नहीं हैं। ग्राउज तथा फूहरर के अनुसार कंकाली टीला उत्तर भारत में जैनियों का प्रमुख केन्द्र था। जैनों की प्रारम्भिक पूजा पद्धति में निम्नलिखित प्रतीकों का स्थान महत्वपूर्ण था—धर्मचक्र, स्तूप, त्रिरत्न, चैत्यवृक्ष, पूर्णघट, श्रीवत्स, शराव—सम्पुट, पुष्पपात्र, पुष्पपडलग, स्वस्तिक, मत्स्ययुग्म व भद्रासन। इनके यहाँ अर्चा का एक दूसरा प्रतीक था आयागपट्ट। आयागपट्ट एक चौकोर शिलापट्ट होता था जिस पर या तो एकाधिक प्रतीक बने होते थे या प्रतीकों के साथ तीर्थंकर की छोटी—सी प्रतिमा बनी रहती थी। यह पूजन के उद्देश्य से स्थापित किया जाता था। मथुरा में इस तरह के कई सुन्दर आयागपट्ट मिले हैं। मथुरा में कंकाली टीला, जयिंसहपुरा, जैन चौरासी मन्दिर, चौबियापाडा आदि से अनेक तीर्थंकर प्रतिमाएँ समय—समय पर प्राप्त होती रही हैं। मथुरा में दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में प्रतीकोपासना जैन धर्म में आरम्भ हो चुकी थी। सुपाश्र्वनाथ की स्मृति में देवी कुबेरा ने एक रत्न जड़ित स्तूप का निर्माण कराया था। अनुश्रुतियों के अनुसार छठवीं शताब्दी ईसा पूर्व में वंâकाली टीला पर स्तूप का निर्माण हो चुका था। जिनप्रभसूरि ने चौदहवीं शताब्दी ई. में उक्त स्तूप का उल्लेख अपने ग्रंथ में किया। माथुरक लवदास की भार्या तथा फलगुयस नर्तक की पत्नी शिवयशा ने एक—एक आयागपट्ट का निर्माण कराया। एक आयागपट्ट (क्यू.—२) का निर्माण लवश शोभिका की पुत्री वसु नाम की वैश्या ने कराया था। इस तरह के अनेक आयागपट्टों का निर्माण मथुरा कला में हुआ और प्रथम बार आयागपट्टों के माध्यम से ही जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं, प्रकाश में आयीं। मथुरा की गुप्तकालीन अधिकांश जैन प्रतिमाएं लखनऊ व मथुरा संग्रहालय में हैं। आजादी के पहले वंâकाली टीले का एक महत्वपूर्ण अंश भारतीय संग्रहालय, कोलकाता भी चला गया। कुछ संकलन राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में है। वंâकाली टीले से २५ ध्यानमुद्रा में प्रतिमाएं, ६ कायोत्सर्गमुद्रा में २३ तीर्थंकर मस्तक तथा कुछ अन्य कलाकृतियों के खण्डित अंश प्राप्त हुए हैं। गुप्तकाल में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन जैन मूर्तिकला में देखने को मिलता है। नेमिनाथ (एस. एम. एल. जे. ८९) के पाश्र्व में चौरी लिए बलराम को अंकित किया गया है एवं कुछ अन्य मूर्तियों में नेमिनाथ के साथ बलराम एवं कृष्ण को भी चौरी लिए हुए दर्शाया गया है। मथुरा संग्रहालय की मूर्ति संख्या बी. ४४ में तीर्थंकर के मस्तक पर तिलकमणि का अंकन भी हुआ है जो स्वाभाविक प्रतीत नहीं होता। इसी प्रकार वाराणसी से प्राप्त एक अन्य मस्तक (एस. एम. एल. ४९.१९९) पर भी तिलकमणि का अंकन हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह जानबूझकर किसी ने बाद में अंकित कर दिया है। मथुरा से प्राप्त प्रतिमाओं में आँखों के ऊपर भौहें मथुरा से प्राप्त अन्य प्रतिमाओं के सदृश बनी हैं एवं नाक लम्बी, होठ पतले, कान लम्बे व चेहरे पर कभी—कभी मुस्कान दिखाई देती है। पूर्व गुप्तकाल में छोटी मंची एवं सादा पीठ मिलता है, परन्तु गुप्तकाल में मंची को एक छोटे गलीचा से ढाका गया है। मथुरा संग्रहालय की एक र्मूित में (बी—७) गलीचा के ऊपर कलात्मक भारी गद्दा एवं इसके ऊपर ध्यानमुद्रा में आसनस्थ तीर्थंकर प्रतिमा को बनाया गया है। आसन के नीचे पीठिका पर धर्मचक्र को बीच में उकेरा गया है तथा चक्र के दोनों तरफ उपासकों एवं पीठिका के दोनों सिरों पर सिंहों का अंकन है। ऐसा अंकन गुप्तकाल में मथुरा कला में प्रचुर मात्रा में मिलता है। महापुरुषों के बोधक चिन्हों में हथेलियों पर धर्मचक्र, पैरों के तलवों पर त्रिरत्न और धर्मचक्र दोनों बने रहते हैं। वक्षस्थल पर बीचोबीच धार्मिक चिन्ह श्रीवत्स बना मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्त काल में बौद्ध एवं जैन धर्मावलम्बियों में आपसी मतभेद हुआ और इसमें बौद्ध धर्म प्रभावी रहा। किसी अपवाद को छोड़कर मथुरा में गुप्तकाल के बाद बुद्ध प्रतिमाएं नहीं मिलती। परन्तु जैन तीर्थंकर प्रतिमाओं का निर्माण होता रहा। मथुरा से प्राप्त आसनस्थ जैन प्रतिमाओं में ल. सं. जे. १०४, जे. ११८, ओ. १८१ तथा मथुरा म. सं. बी—७ तथा खड़ी तीर्थंकर प्रतिमाओं में ल. सं. जे. १२१ म. सं. १२.२६८ मुख्य हैं। सर्वतोभद्रिकाओं का अंकन मथुरा कला में कुषाणकाल से ही प्राप्त होने लगता है। इसमें एक शिलापट्ट पर कायोत्सर्ग मुद्रा में चारों ओर चार तीर्थकरों का अंकन मिलता है। इसमें म. सं. बी. ७५ एक मात्र मथुरा से प्रापत गुप्तकाल का प्रतिनिधित्व करती है। गुप्तकाल में कुछ नए प्रकार की सिंह आकृति का समावेश तीर्थंकर प्रतिमाओं में देखने को मिलता है—म. सं. १८-३३८, बी—६, ५७.४३३८। इनमें पीठ से पीठ मिलाए हुए सिंहों की बैठी हुई प्रतिमाएँ बनी हैं तथा ल. सं. जे—११९ में पीठ से पीठ मिलाए बैठी हुई िंसत आकृतियाँ बनी हैं, परन्तु मुख सामने की तरफ थोड़ा—सा मुड़ा हुआ है एवं पंजा थोड़ा—सा उठा दिखाया गया है। गुप्तकाल में माला लिए गन्धर्वों का अंकन म. सं. १२-२६८, ल. सं. जे-११८ तथा गन्धर्व दम्पत्ति माला लिए हुए ल. सं. जे—११९, कहीं—कहीं पर गन्धर्व कुछ भेंट करते हुए ल. सं. जे—१०४ तथा कहीं—कहीं पर चौरी लिए हुए जिन तीर्थंकर के दोनों तरफ गन्धर्व का अंकन म. सं. बी—६, बी—७, ५७. ४३४८ आदि में किया गया है एवं नेमिनाथ प्रतिमा लं. सं. जे—१२१ में बलराम एवं कृष्ण का अंकन हुआ है। गुप्तकालीन जैन प्रतिमाओं में कुषाणकाल की भाँति श्रीवत्स र्धािमक चिन्ह बीचो बीच वक्षस्थल पर बना है, धर्मचक्र खुली हथेली पर एवं कहीं—कहीं पर अंगुलियों पर छोटे प्रतीक चिन्ह बने हैं एवं कलात्मक प्रभामण्डल का अंकन भी मथुरा की प्रतिमाओं में मिलता है। १.बी—४६ घुंघराले केश युक्त जैन मस्तक, नाक, कान व ठुड्डी आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त, चेहरा गोल तथा मुस्कराता हुआ, विशाल आँखे, भौंहे नासिका के ऊपरी भाग में लगभग मिलती हुई भूरा बलुआ पत्थर प्राप्ति स्थान—वंâकाली टीला, मथुरा माप—ऊँचाई ३३ सेमी. पूर्व गुप्तकाल २. बी—४४ विशाल जैन प्रतिमा का मस्तक। बाई ओर का कपोल व नासिका खण्डित, बाई आंख व ठुड्डी का बायां भाग आंशिक रूप से खण्डित, छोटे व घुंघराले केश, चेहरा गोल व भरा हुआ,विशाल आँखे उष्णीष व ऊर्णा का अभाव लेकिन मस्तक पर लाकिटनुमा अंकन जो प्राय: जैन प्रतिमाओं में प्राप्त नहीं होता है। इसी प्रकार का एक अन्य चित्रण वाराणसी से प्राप्त लखनऊ संग्रहालय की प्रतिमा सं. ४९.१९९, जो अजितनाथ की है, में मिलता है। इस प्रतिमा के मस्तक पर पंखुड़ीदार गोल लाकिट का अंकन किया गया है। प्राप्ति स्थान—वंâकाली टीला माप—ऊँचाई ५३ सेमी. गुप्तकाल ३. बी—६१ विशाल प्रतिमा का जैन मस्तक। चेहरे के कई स्थानों से पर्ते निकल चुकी हैं। हल्के उष्णीष युक्त, आँखे खुली हुई तथा विशाल। यह मस्तक १९०७ तक इलाहाबाद पब्लिक लाइब्रेरी में था। वर्तमान में यह राजकीय संग्रहालय, मथुरा की सम्पत्ति है। लाल बलुआ पत्थर माप—ऊँचाई ७१ सेमी. गुप्तकाल ४. बी—७ ध्यानमुद्रा में सिर विहीन ऋषभनाथ की आसनस्थ प्रतिमा जो एक गद्दी पर बनी है जिस पर गद्दा पड़ा है जो दो सिंहों द्वारा धारण की हुई है एवं पीठिका के मध्य में दो ध्यानी तीर्थंकरों तथा बीच में धर्मचक्र का अंकन है। ऋषभनाथ के केश कन्धों तक प्रसारित हैं। दाई ओर एक चौरीधारी पुरुष खड़ा है। बाई ओर का भाग खण्डित है। वक्षस्थल पर श्रीवत्स का अंकन है। लाल बलुआ पत्थर माप—ऊँचाई ७४ सेमी. गुप्तकाल ५. १२-२६८ कायोत्सर्ग मुद्रा में ऋषभनाथ की अत्यन्त सुन्दर प्रतिमा जिसके अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसे सुन्दर एवं सागर द्वारा निर्मित कराया गया था। ऊपरी भाग में मालाधारी गन्धर्वों का अंकन, कलात्मक प्रभामण्डल, केश विन्यास अन्य तीर्थंकरों से भिन्न है। केश कन्धों तक प्रसारित, बाया हाथ आंशिक रूप से खण्डित है। दोनों ओर एक—एक पुरुष प्रतिमा खड़ी है। पीठिका के मध्य चक्र बना है जिसके दोनों ओर ब्राह्मी में लेख उत्कीर्ण है। भूरा बलुआ पत्थर प्राप्ति स्थान—कटरा केशवदेव गुप्तकाल ६. एस. एम. एल. जे—१२१ जैन तीर्थंकर नेमिनाथ की कायोत्सर्ग मुद्रा में बनी प्रतिमा मथुरा से प्राप्त। वर्तमान में राज्य संग्रहालय, लखनऊ में है। प्रतिमा के ऊपरी भाग में दोनों तरफ मालाधारी गन्धर्वो का अंकन है तथा प्रभामण्डल कमलदल से अलंकृत है। प्रतिमा के दोनों तरफ बलराम एवं कृष्ण का अंकन। कृष्ण की मुर्ति का सिर आंशिक रूप से खण्डित है एवं तीर्थंकर का बायाँ हाथ भी आंशिक रूप से खण्डित है। बाल घुंघराले, कान लम्बे, नासिका एवं ठुड्डी सहित मुख आंशिक रूप से खण्डित है। नीचे दाएं तरफ उपासक खड़े हुए एवं बार्इं तरफ एक उपासक बैठी हुई मुद्रा में तथा एक खड़ी हुई तीर्थंकर प्रतिमा का अंकन है। पीठिका पर मध्य में धर्मचक्र के दोनों तरफ आसनस्थ तीर्थंकर प्रतिमा बनी है एवं किनारों की तरफ सिंहों को उकेरा गया है।