यहाँ कुछ प्रमुख ऐतिहासिक तीर्थों से आपको परिचित कराया जा रहा है। इन तीर्थों को दो भागों में विभक्त किया गया है-(१) उत्तर भारत के तीर्थ (२) दक्षिण भारत के तीर्थ।
प्रथमत: आप पढ़ेंगे उत्तर भारत के तीर्थों के बारे में-
दिल्ली-आगरा के बीच मथुरा, रेल लाइन एवं रोड से जुड़ा है। मथुरा-दिल्ली से १४५ किमी. है। मथुरा अति प्राचीन काल से भारत का महान तीर्थ रहा है। हिन्दू, बौद्ध और जैनों में इसकी बड़ी मान्यता रही है। हिन्दू अनुश्रुति के अनुसार मथुरा की गणना सप्त महापुरियों में की जाती है। श्रीकृष्ण की जन्मस्थली एवं लीलाभूमि होने के नाते यहाँ देश-विदेश के लाखों यात्री प्रतिवर्ष आते हैं।
चौरासी सिद्धक्षेत्र मथुरा स्टेशन से ४ किमी. और सड़क मार्ग बाईपास पर अवस्थित है। यहाँ अंतिम केवली श्री जम्बूस्वामी संघ सहित पधारे थे। उनके साथ महामुनि विद्युच्चर और पाँच सौ मुनिराजों ने भी तप किया था। किसी धर्मद्रोही ने उन पर उपसर्ग किया। मुनिराजों ने उसे समताभाव से सहा। अंत में उनका समाधिमरण हुआ। उनकी स्मृति में यहाँ पाँच सौ स्तूप बने हुए थे। सोलहवीं शताब्दी तक उनका उल्लेख मिलता है। सम्राट अकबर के समय में अलीगढ़वासी साहू टोडर ने उनका जीर्णोद्धार किया था। कालांतर में वे भी नष्ट हो गये। वहीं पर एक स्तूप भगवान पार्श्वनाथ के समय का बना हुआ था, इसे ‘देवनिर्मित’ कहा जाता था। श्री सोमदेवसूरि ने उनका उल्लेख अपने ‘यशस्तिलकचंपू’ में किया है। जम्बूस्वामी के निर्वाण के कारण यह स्थान (चौरासी) सिद्धक्षेत्र माना जाता है। चौरासी में भव्य जैन मंदिर, ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम और उद्यान में ६ मीटर ऊँची ग्रेनाइट पाषाण की बनी प्रतिमा विराजमान है।
मथुरा में समय-समय पर की गई खुदाई में शिलालेखों, आयागपट्टों, मूर्तियों आदि की विपुल सामग्री मिली है। यहाँ बहुत सारे टीले हैं, जिनमें कंकाली टीला अति प्रसिद्ध है। यह सात टीलों का समूह है और कंकाली देवी के मंदिर के कारण कंकाली टीला कहलाता है। इस स्थान से स्तूप, मूर्तियाँ, सर्वतोभद्र प्रतिमाएँ, शिलालेख, आयागपट्ट, धर्मचक्र, तोरण, स्तंभ, वेदिकाएँ आदि जैन पुरातत्व की बहुमूल्य सामग्री उपलब्ध हुई हैं। कतिपय अन्य स्थानों से भी काफी सामग्री प्राप्त हुई है। यह सामग्री ईसा पूर्व चौथी शताब्दी से ईसा की बारहवीं शताब्दी तक की है और इस समय मथुरा के राष्ट्रीय संग्रहालय (कर्जन म्यूजियम) में सुरक्षित है। जैनधर्म की प्राचीनता समझने के लिए इस संग्रहालय का अवलोकन अवश्य करना चाहिए।
मथुरा के दर्शनीय स्थलों में श्रीकृष्ण जन्मस्थान, श्री द्वारिकाधीश का मंदिर, वृंदावन के श्रीरंगजी और बांकेबिहारी जी के मंदिरों का उल्लेख किया जा सकता है। श्रीकृष्ण की लीलाओं के संबंध होने के कारण समीपवर्ती स्थान-गोकुल, नंदगांव, बरसाना, दाऊजी, गोवर्धन, राधाकुंड आदि भी तीर्थ माने जाते हैं। यहाँ भी हर समय यात्रियों का आना-जाना बना रहता है।
मथुरा नगर में चार दिगम्बर जैन मंदिर और एक चैत्यालय है। घीया मंडी में दिगम्बर जैन धर्मशाला भी है। वृंदावन में भी एक दिगम्बर जैन मंदिर है।
अतिशयक्षेत्र त्रिलोकपुर बाराबंकी जिले में बिंदौरा रेलवे स्टेशन से ५ किमी. है। सड़क मार्ग द्वारा यह अयोध्या से १६७ व रतनपुरी से १४३ किमी. है। बाराबंकी से २० किमी. बिंदौरा नहर से ६ किमी. पड़ता है।
यहाँ दो जैन मंदिर हैं। भगवान नेमिनाथ का मंदिर अतिशयक्षेत्र कहा जाता है। इसमें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ की श्यामवर्णी कसौटी पाषाण की ५५ सेमी. की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमा अति मनोज्ञ है। इसके चमत्कारों और अतिशयों की नाना किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। सुबह से शाम तक मूर्ति का भाव परिवर्तन होता दिखाई देता है। दूसरा मंदिर भगवान पार्श्वनाथ का है। यहाँ प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ला षष्ठी को मेला होता है।
ललितपुर को जैन तीर्थों का जंक्शन कहा जाता है। यह चारों ओर से उत्कृष्ट जैन कला तीर्थों से घिरा हुआ है, यथा-देवगढ़, सैरोन, चंदेरी, थुबौन जी, पपौरा, आहारजी आदि।
यहाँ सात शिखरबंद जिनालय और तीन चैत्यालय हैं। रेलवे स्टेशन से नगर को जाते हुए कुछ ही दूरी पर क्षेत्रपाल स्थित है। यहाँ एक कोट के अंदर पाँच अत्यंत रमणीक मंदिर बने हुए हैं, उनमें भगवान अभिनंदननाथ की प्रतिमा बड़ी मनोज्ञ है। इन मंदिरों में से एक मंदिर भूगर्भ (भोंयरे) में है। वहाँ १२ प्रतिमाएँ तीर्थंकरों की तथा ३५ देवी-देवताओं की हैं। यहाँ क्षेत्रपाल के चमत्कार बहुत प्रसिद्ध हैं अत: इसे क्षेत्रपाल मंदिर के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है।
यह ललितपुर की तहसील महरौनी से २० किमी. सौजना से ५ किमी. तथा सागर-टीकमगढ़ बस मार्ग पर स्थित बड़ागाँव क्षेत्र से ८ किमी. की दूरी पर स्थित सुरम्य प्राकृतिक सौन्दर्ययुक्त अतिशय क्षेत्र है।
यहाँ मूलनायक भगवान अरनाथ प्रभु से ग्रामीण अंचल की जैन-जैनेतर समाज की अगाध श्रद्धा जुड़ी है। प्राकृतिक आपदा, असाध्य बीमारी, पशु पीड़ा का निदान भक्तजनों को निष्काम साधना से निरन्तर प्राप्त होता है।
श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कारीटोरन में भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ एवं अरहनाथ की ३ खड्गासन प्रतिमाएँ विराजमान हैं। यहाँ जाने के लिए ललितपुर से सायं ५ बजे वाया महरौनी बस सुविधा उपलब्ध है।
ललितपुर से २१ किमी. सेरोन है। भगवान शांतिनाथ की पाँच मीटर ऊँची प्रतिमा मूलनायक प्रतिमा है। भव्य मानस्तंभ व धर्मशाला है। परकोटे के भीतर ६ मंदिर हैं। लगभग १५० मूर्तियाँ हैं। पास में मंदिरों और मूर्तियोें के भग्नावशेष मिलते हैं।
यह झांसी से ४१ किमी. और ललितपुर से ४८ किमी. है। रेलमार्ग से बसई स्टेशन या तालबेहट उतरकर १४ किमी. पड़ता है। यहाँ पर १३वीं-१४वीं शताब्दी की मनोज्ञ मूर्तियाँ और तीन नवीन जिनालय हैं। लगभग १० मीटर ऊँचा मानस्तंभ है। बाहुबली स्वामी की एक मूर्ति भी विराजमान की गई है। इस क्षेत्र की मान्यता अतिशयक्षेत्र के रूप में रही है। कुछ समय से कतिपय विद्वानों का मत है कि स्वर्णभद्र आदि मुनि जिस पावागिरि से मोक्ष गए थे वह स्थान यही है। यहाँ मुनियों की छत्रियाँ भी बनी हुई हैं।
यह झांसी से ५ किमी. दूर लखनऊ वाली सड़क पर है। यह अतिशयक्षेत्र माना जाता है। यहाँ क्षेत्र के सामने मेडिकल कॉलेज है। कॉलेज के गेट नं. २ के सामने अंदर की ओर जाना होता है। क्षेत्र एक प्राचीन परकोटे में है। मंदिर भूगर्भ (भोंयरे) में है, जिसमें बड़ी-बड़ी प्रतिमाएँ हैं। यहाँ मूलनायक प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है। इसके अलावा चार मंदिर और हैं।
यहाँ १८-१०-१९९१ को दशहरे के दिन रेत के टीले से भगवान आदिनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा प्राप्त हुई। प्रतिमा के तीन ओर फलक पर अन्य तेईस तीर्थंकरों की मूर्तियाँ अंकित हैं, साथ ही एक अन्य प्रतिमा चक्रेश्वरी देवी की भी मिली है। सभी मूर्तियाँ एक बड़े कक्ष में विराजमान की गई हैं। श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी यहाँ के विकास कार्यों में संलग्न है। विशाल भूखण्ड पर जिनालय व धर्मशाला निर्मित हो गई है। यात्रियों के भोजन आदि की समुचित व्यवस्था है। यह स्थान दिल्ली से रोहतक होते हुए ११८ किमी. पक्की सड़क से जुड़ा है।
यहाँ १९-१-१९८२ को पुराने किले की दीवार से एक घड़े में अष्टधातु की ५७ प्रतिमाएँ प्राप्त हुईं। यह सभी प्रतिमाएँ स्थानीय दिगम्बर जैन मंदिर में विराजमान हैं। तीर्थ के विकास हेतु एक बहुत बड़े भूखण्ड पर विशाल जिनालय बनाने का कार्य प्रगति पर है। हांसी नगर दिल्ली-हिसार रोड पर अवस्थित है। यात्रियों के लिए सभी सुविधाएँ यहाँ उपलब्ध हैं। एक प्राचीन मंदिर भी है।
मौर्यकाल का पाटलीपुत्र यही है। कुसुमपुर आदि नामों से भी इसका उल्लेख मिलता है। यह नगर संस्कृति और राजनीति का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहाँ चाणक्य द्वारा नंद वंश के उन्मूलन के बाद मौर्यवंश की स्थापना की गई थी। गुलजारबाग स्टेशन के पास दिगम्बर जैन मंदिर है। जहाँ मूलनायक प्रतिमा भगवान नेमिनाथ की है। जैन शास्त्रों में कमलदहजी को सिद्धक्षेत्र माना जाता है। यहीं से मुनि सुदर्शन ने निर्वाण प्राप्त किया था। गुलजारबाग के निकट ही सुदर्शन मुनि की टेकरी है, जहाँ चरणपादुकाएँ विराजमान हैं।
पटना में कुल मिलाकर पाँच दिगम्बर जैन मंदिर और एक चैत्यालय है। यहाँ तीन संग्रहालय हैं-राज्य संग्रहालय, जालान संग्रहालय और कनोडिया संग्रहालय। इनके अतिरिक्त राजभवन, विधानसभा, कदम कुआं, पाटलीपुत्र के ध्वंसावशेष, शहीद स्मारक और हैवतजंग का मकबरा भी दर्शनीय हैं।
कहा जाता है कि श्री इन्द्रभूति गौतम और सुधर्माचार्य के सम्मुख शिशुनाग वंश के राजा अजातशत्रु जैनधर्म में दीक्षित हुए थे। पाटलीपुत्र नगर को अजातशत्रु के पौत्र उदयन ने बसाया था। उन्होंने अनेक जिनमंदिरों का भी निर्माण कराया था।
पावापुरी के मोड़ से २२ कि.मी. की दूरी पर गुणांवा है। यह पवित्र स्थान गणधर इंद्रभूति गौतम निर्वाण स्थल माना जाता है। यह सिद्धक्षेत्र है। यहां भी एक सरोवर है जिसके मध्य में एक मंदिर बना है। मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग ६० मीटर लंबा पुल है। मंदिर में गणधर गौतम स्वामी के चरण हैं। यहां सड़क के किनारे भी एक दिगम्बर जैन मंदिर है।
मंदारगिरि भागलपुर से ४९ किमी. दूर है। यह भगवान वासुपूज्य का तप और मोक्षकल्याणक स्थान है। भागलपुर से मंदारगिरि को रेल और बस दोनों जाती हैं।
गांव का नाम बौंसी है। रेलवे स्टेशन के सामने बस स्टैण्ड से आधे किलोमीटर की दूरी पर दिगम्बर जैन मंदिर और धर्मशाला है। क्षेत्र का कार्यालय भी यहीं है। क्षेत्र कार्यालय से मंदारगिरि पर्वत ३ किमी. है। तलहटी से पर्वत की चढ़ाई डेढ़ किमी. से कुछ अधिक है। रास्ते में मंदिर और जलकुण्ड है। पर्वत शिखर पर दो बड़े मंदिर हैं ‘बड़ा दिगम्बर जैन मंदिर’ और ‘छोटा दिगम्बर जैन मिंदर’ जहाँ भगवान वासुपूज्य की खड्गासन दिव्य प्रतिमा विराजमान है। पास ही एक गुफा भी है। तीनों जगह भगवान वासुपूज्य के चरणचिन्ह अंकित हैं।
हिन्दू मान्यता के अनुसार समुद्रमंथन के समय इसी पर्वत (मंदराचल) को राई बनाया गया था।
यह अतिशयक्षेत्र है। सूरत जिले के बारडोली स्टेशन से १५ किमी. दूर यह पूर्णा नदी के तट पर स्थित है। बारडोली, नवसारी और सूरत सड़क मार्ग से यहाँ पहुँचा जा सकता है। यह सूरत से ४४ किमी. दूर है। गर्भगृह में भगवान पार्श्वनाथ की अतिशयसम्पन्न प्रतिमा है। यहाँ पर हिन्दू भी बड़ी संख्या में मनौती मनाने आते हैं तथा गाजे-बाजे के साथ नारियल आदि चढ़ाते हैं।
इस क्षेत्र को तीन बार भीषण आग और बाढ़ का सामना करना पड़ा। यहाँ दो मंदिर (चंद्रप्रभ और पार्श्वनाथ) थे, जिनमें लकड़ी पर सुन्दर नक्काशी का काम था। मंदिर तो अधिकांश नष्ट हो गये, कुशल है कि किसी मूर्ति को क्षति नहीं पहुँची। मंदिर विशाल हैं।
अमीझरो पार्श्वनाथ अतिशयक्षेत्र है। अहमदाबाद-खेडब्रह्मा रेल मार्ग पर बड़ाली स्टेशन है। बड़ाली ग्राम में दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र अमीझरो पार्श्वनाथ है।
बड़ाली ग्राम में एक प्राचीन मंदिर है। इसमें अमीझरो पार्श्वनाथ की लगभग १ मीटर अवगाहना की मूलनायक प्रतिमा है। मंदिर के भीतर बावड़ी और धर्मशाला है।
बड़ाली हिम्मतनगर से ४४ किमी. और ईडर से १४ किमी. है। ईडर के आसपास कई अतिशय क्षेत्र अथवा मंदिर उपेक्षित दशा में हैं। ईडर से ५ किमी. पर मुडेठी ग्राम में प्राचीन शिखरबंद जिनालय है, जिसमें चिंतामणि पार्श्वनाथ की बड़ी मनोज्ञ प्रतिमा है। टाकाटू और बोईडा के बीच नदी के किनारे आदीश्वर भगवान का शिखरबंद प्राचीन मंदिर है।
सूरत और बड़ौदा (बड़ोदरा) के बीच में अंकलेश्वर स्टेशन है। स्टेशन से अंकलेश्वर ग्राम १ किमी. है। बड़ौदा से अंकलेश्वर ७९ किमी. है।
नगर में चार दिगम्बर जैन मंदिर हैं यहाँ भोंयरे में भगवान पार्श्वनाथ की अतिशयसम्पन्न मूर्ति है। यह चिंतामणि पार्श्वनाथ के नाम से विख्यात है। आम धारणा है कि इनके दर्शन से समस्त चिंताएं दूर हो जाती हैं। यहाँ पर जैन और जैनेतर बंधु भारी संख्या में मनौती मांगने जाते हैं। इसके अलावा नेमिनाथ मंदिर, आदिनाथ मंदिर और महावीर मंदिर भी हैं। महावीर मंदिर बड़ा मंदिर कहलाता है।
श्रुतधारी आचार्य धरसेन ने अंगश्रुत का विच्छेद हो जाने की आशंका से उस ज्ञान को सुपात्र विद्वानों को देना चाहा। पुष्पदंत और भूतबलि ने उनसे ज्ञान प्राप्त किया। तत्पश्चात् इन दो साधुओं ने पहला चातुर्मास अंकलेश्वर में किया। वहीं पर इन दोनों मुनियों ने श्रुत के प्रचार पर चिंतन किया। इस प्रकार अंकलेश्वर पुष्पदंत और भूतबलि की चरण-रज से पवित्र हुआ था। नगर में दिगम्बर जैन धर्मशाला है।
अंकलेश्वर से बड़ौदा पहुँचकर सड़क द्वारा पावागढ़ पहुँचा जा सकता है। पश्चिम रेलवे के बड़ौदा-रतलाम मार्ग पर स्थित चांपानेर से पावागढ़ के लिए छोटी लाइन भी जाती है। पावागढ़ सिद्धक्षेत्र माना जाता है। यहाँ से रामचंद्र जी के दो पुत्र (लव और कुश) और असंख्य मुनियों ने मुक्ति प्राप्त की थी। यहाँ एक दिगम्बर जैन धर्मशाला है, जो स्टेशन और बस स्टैण्ड दोनों जगहों से बराबर फासले (एक किमी.) पर है। एक मंदिर और मानस्तंभ धर्मशाला के अंदर है। धर्मशाला के बाहर भी एक मंदिर है।प्राचीनकाल में पावागढ़ (तत्कालीन नाम पावागिरि) अति प्रसिद्ध तीर्थ था। तलहटी में चांपानेर नगर बसाया गया था। पहाड़ पर दुर्ग था। सूचनापट्ट के अनुसार यह २० किमी. लंबा शहर था। नगर के चारों ओर कोट बना था जिसका कुछ भाग अब भी है। कालविशेष में इस नगर के राजा ने ५२ जिनालय बनवाए थे। पर्वत पर भी कुछ जैन मंदिर और भवन बनवाए गए थे।
प्राचीनकाल में यहाँ १७ गढ़ थे, जिनके भग्न द्वार अब भी विद्यमान हैं। पर्वत पर पक्की सड़क है। लॉज, रेस्तरां, गेस्ट हाउस आदि भी हैं। कालीदेवी के मंदिर के कारण यहाँ हिन्दू यात्री भी भारी संख्या में आते हैं। नगाड़खाना पार कर एक किमी. की दूरी पर पहाड़ के शिखर पर एक विशाल ताल है। कुछ आगे तीन जैन मंदिर हैं, जिनमें बहुत सी प्रतिमाएँ हैं, निकट ही चौथा मंदिर (चंद्रप्रभ मंदिर) है। इस मंदिर के सामने तेलिया तालाब के किनारे एक भग्न मंदिर है, इसकी बाह्य भित्तियों पर तीर्थंकर चित्र अंकित हैं। आसपास कई जिनालयों के खंडहर हैं। तीन प्राचीन मंदिर और हैं जिनमें अनेक प्रतिमाएँ हैं।
पालीताना भावनगर से २९ किमी. है। यहाँ शत्रुंजयगिरि निर्वाणक्षेत्र है। यहाँ से तीन पांडव (युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन) तथा असंख्य राजादि मुक्त हुए थे। नगर में दिगम्बर जैन मंदिर हैं।
नगर से शत्रुंजय पहाड़ी की तलहटी डेढ़ किमी. है। फिर पर्वत की चढ़ाई लगभग ४ किमी. है। पक्की सड़क और सीढ़ियाँ हैं।
पहाड़ पर श्वेताम्बरों के लगभग ३५०० मंदिर और मंदिरियाँ हैं। कई मंदिरों का शिल्प और स्थापत्य अनूठा है।
इस पर्वत पर दो मुख्य टोंक हैं। प्रथम टोंक पर कोई दिगम्बर जैन मंदिर नहीं है। दूसरी टोंक पर श्वेताम्बर मंदिरों के केन्द्र में परकोटे के भीतर एक प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर है। इसमें नौ वेदियाँ हैं। यहाँ की प्रतिमाएँ भी अतिप्राचीन हैं। कहा जाता है कि दिगम्बर मंदिर ही प्राचीन है। श्वेताम्बरों के मंदिर बाद के बने हैं। नगर में आवास और भोजन की समुचित व्यवस्था है।
तारंगा सिद्धक्षेत्र है। वरदत्त, सागरदत्त आदि तीस करोड़ मुनि यहाँ से मोक्ष गये थे।
महेसाणा जंक्शन से तारंगा हिल ५७ किमी. है। तारंगा हिल रेलवे स्टेशन के निकट दिगम्बर जैन धर्मशाला है, वहाँ से तारंगा क्षेत्र ९ किमी. है।
क्षेत्र पर १४ दिगम्बर जैन मंदिर हैं। यह स्थान पहाड़ की तलहटी में है। यहाँ पर कोटिशिला और सिद्धशिला नामक दो पहाड़ियाँ हैं। धर्मशाला के पीछे से कोटिशिला की चढ़ाई है। तालाब, गुफाएँ, चरण आदि मिलते हैं। ऊपर लगभग डेढ़ मीटर के शिलाफलक में बनी भगवान नेमिनाथ की खड्गासन प्रतिमा है। शिलालेख के अनुसार इसकी प्रतिष्ठा श्री सिद्धचक्रवर्ती जयिंसह देव के शासनकाल में हुई थी। प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचंद्र इन्हीं के दरबार में थे।
क्षेत्र पर मूलनायक प्रतिमा भगवान संभवनाथ की है।
कोटिशिला से उतरकर धर्मशाला के दूसरी ओर सिद्धशिला को जाते हैं। यहाँ भी टोंक, चरण आदि हैं। मुख्य टोंक पर लगभग डेढ़ मीटर ऊँची भगवान मल्लिनाथ की खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। इस मूर्ति का प्रतिष्ठाकाल
सं. ११९२ है। भगवान नेमिनाथ और भगवान मल्लिनाथ दोनों की मूर्तियाँ शाह लखन द्वारा प्रतिष्ठित हुई हैं। दिगम्बर जैन धर्मशाला के निकट ९ श्वेताम्बर जैन मंदिर हैं।
यह उदयपुर से ६५ किमी. है। गांव का नाम धुलेव है। यहाँ एक कंगूरेदार कोट के भीतर प्राचीन मंदिर और धर्मशालाएँ हैं। मूलनायक प्रतिमा भगवान ऋषभदेव की है। यह श्यामवर्ण पाषाण की लगभग एक मीटर ऊँची मनोहर प्रतिमा है। यह अतिशययुक्त है। श्यामवर्ण की होने के कारण भील लोग इसे कालाजी या कारिया बाबा भी कहते हैं। यहाँ केशर चढ़ाने की परम्परा होने के कारण क्षेत्र केशरिया जी के नाम से भी प्रसिद्ध है।
इस मंदिर के चारों ओर ५२ जिनालय या देवकुलिकाएँ बनी हुई हैं। प्रवेश द्वार विशाल है। यहाँ अद्भुत कला के दर्शन होते हैं। यहाँ के चमत्कारों और अतिशयों की कथाओं के कारण लोग यहाँ दर्शन करने और मनौती मनाने आते हैं।
यह मंदिर मूलत: दिगम्बर है। बहुत काल तक भट्टारक गद्दी भी यहाँ रही, पर अब नहीं है। वर्तमान में यहाँ की व्यवस्था राजकीय है। दिगम्बर जैन ही नहीं श्वेताम्बर जैन, हिन्दू, भील आदि भी बड़ी संख्या में दर्शनार्थ आते हैं। यहाँ दिगम्बर जैन, श्वेताम्बर जैन और हिन्दू तीनों रीतियों से पूजा होती है।
पास में ही भट्टारक यशकीर्ति गुरुकुल और मनोज्ञ दिगम्बर जैन मंदिर है।
नागफणी पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र है। ऋषभदेव (केशरिया जी) से बीछीवाड़ा होते हुए ५० किमी. है। नदी पर पहुँचकर मौदर गांव से पहले ही नदी के किनारे बाईं ओर लगभग २०० मीटर चलने पर पहाड़ पर मंदिर दिखाई देने लगता है। लगभग ५० सीढ़ी चढ़कर मंदिर आता है। सीढ़ियाँ चढ़ने से पहले जलकुंड है। इसका जल अभिषेक और पीने के काम आता है।
मूलनायक अति प्राचीन प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है। प्रतिमा के सिर पर सप्तफण-मंडप बना है, इसमें तीन फण खंडित हैं। यहाँ के अतिशय की बहुत मान्यता है।
यह एक छोटी सी पहाड़ी पर है। चारों ओर सघन वन है। दाहोद से उत्तर की ओर ५० किमी. है। यहाँ के कई अतिशयों की मान्यता है।
यहाँ कोई बस्ती नहीं है। केवल दो दिगम्बर जैन मंदिर हैं, दोनों ही पार्श्वनाथ मंदिर कहलाते हैं, एक मंदिर में भगवान पार्श्वनाथ की चमत्कारसम्पन्न प्रतिमा विराजमान है। दूसरे में चौबीसी है। इस क्षेत्र की अजैनों में भी काफी श्रद्धा है।
चित्तौड़गढ़ रेल और सड़क से पूरे देश से जुड़ा है। उदयपुर से ११७ किमी. है। भारतीय इतिहास में चित्तौड़ का नाम अमर है। यह स्वाधीनता की रक्षा के लिए आत्मबलिदान का प्रतीक है।
गढ़ निर्माण की वास्तुकला की दृष्टि से चित्तौड़गढ़ एक अनुपम उदाहरण है। समुद्रतल से ६०० मीटर ऊँची पहाड़ी पर यह किला कोई १६ किमी. लंबा और एक किमी. चौड़ा है। इस गढ़ के सात पाल (फाटक) हैं और इसके अंदर बहुत से दर्शनीय स्थान हैं। यह सब भारत के ऐतिहासिक तीर्थ हैं।
दुर्ग के द्वार, सिसौदिया फत्ता का स्मारक, सतबीस देवरा (श्वेताम्बर जैन मंदिर), महाराणा कुंभा के महल, जयमहल और फत्ता के भग्नमहल, विजयस्तंभ, कीर्तिस्तंभ, दिगम्बर जैन मंदिर, मीराबाई का मंदिर, पद्मिनी का महल, जौहर-स्थल आदि दर्शनीय हैं।
चित्तौड़गढ़ में दिगम्बर जैन कीर्तिस्तंभ है। यह लगभग २४ मीटर ऊँचा है। यह सात मंजिला स्तंभ शिल्प कला का अनुपम उदाहरण है। चारों कोनों पर भगवान आदिनाथ की डेढ़ मीटर अवगाहना की दिगम्बर मूर्तियाँ स्थित हैं। इसके निर्माता साहू जीजा बघेरवाल जाति के दिगम्बर जैन थे। इस कीर्तिस्तंभ के समीपस्थ ही दिगम्बर जैन मंदिर है। नगर में एक दिगम्बर जैन मंदिर और दो चैत्यालय हैं।
यह अतिशयक्षेत्र है। झालावाड़-बारां सड़क पर स्थित खानपुर से २ किमी. के फासले पर चांदखेड़ी स्थित है। इस स्थान से अटरू स्टेशन (बीना-कोटा लाइन पर) ३५ किमी. और झालावाड़ रोड स्टेशन (पश्चिमी रेलवे) ६२ किमी. है। सभी ओर से खानपुर पहुँचना होता है।
इस क्षेत्र का निर्माण औरंगजेब के शासनकाल में महाराज किशोरिंसह (कोटा) के दीवान शाह विशनदास बघेरवाल ने कराया था। इस स्थान के चमत्कारों का वर्णन मिलता है। मूलनायक प्रतिमा भगवान आदिनाथ की है। यह लगभग दो मीटर ऊँची और पौने दो मीटर चौड़ी है। प्रतिमा पर संवत् ५१२ अंकित है।
क्षेत्र के प्रवेश द्वार में घुसते ही एक अहाता है, जिसमें जिनमंदिर है। एक समवसरण मंदिर भी है। यहाँ अनेक प्रतिमाएँ हैं। यहाँ चैत्र कृष्णा पंचमी से नवमी तक मेला लगता है।
चंबल नदी के तट पर अवस्थित केशोरायपाटन अतिशयक्षेत्र है। यह बूंदी से ४३ किमी., कोटा से १४ किमी. और केशवराय पाटन स्टेशन से ३ किमी. है।
परम्परा के अनुसार यहाँ प्राचीन काल में (९वीं-१०वीं शताब्दी से पूर्व) भगवान मुनिसुव्रतनाथ की एक मूर्ति थी, जिसके चमत्कारों की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। शोध के आधार पर विद्वानों का मत है कि वर्तमान केशोरायपाटन प्राचीन नगर है। इस स्थान का नाम केशोरायपाटन विष्णु के विग्रह के कारण पड़ा था। इस मूर्ति का सं. ३३६ प्रतिष्ठाकाल बताया जाता है।
यहाँ के चमत्कारों की अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि मुहम्मद गौरी की आज्ञा से मूर्ति को तोड़ने का प्रयास किया गया, पर कुछ नहीं बिगड़ा। जब टांकी से काटना चाहा तो अंगूठे से दूध की प्रबल धारा निकली। कुछ समय पहले यहाँ भयंकर रूप से प्लेग पैâला था। तब नगरवासी भयभीत होकर जंगलों में चल गये। कुछ श्रद्धालु दर्शनार्थ आए। वे भगवान के सामने जोत (दीपक) जला गए। जब महामारी शांत हुई और लोग लौटे तो देखा कि
३-४ माह बाद भी जोत जल रही थी।
जिनालय चंबल नदी के तट पर १२ मीटर ऊँची चौकी पर बना है। बाढ़ आदि से सुरक्षा के लिए मजबूत दीवार बनाई गई हैं। मूलनायक प्रतिमा भगवान मुनिसुव्रतनाथ की है। यह कृष्ण वर्ण है और लगभग पौने दो मीटर ऊँची पद्मासन प्रतिमा है। इसके अतिरिक्त और भी बहुत सी मूर्तियाँ हैं। अधिकांश मूर्तियाँ सातवीं-आठवीं शताब्दी की हैं। मंदिर में ऊपर और भूगर्भ में छ:-छ: वेदियाँ हैं। कहा जाता है कि ब्रह्मदेव मुनि ने ‘वृहद् द्रव्य संग्रह’ की टीका इसी स्थान पर लिखी थी।
चंबलेश्वर भीलवाड़ा से ४५ किमी. पूर्व में स्थित है। यह अतिसुंदर प्राकृतिक स्थान है। चंवलेश्वर क्षेत्र पहाड़ी पर है। कहते हैं कि केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् भगवान पार्श्वनाथ की पहली समवसरण रचना यहीं हुई थी।
मंदिर का शिखर दूर से ही दिखाई पड़ता है। भूगर्भ से प्राप्त मूलनायक प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है। इसके अतिशय की अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। एक मंदिर पहाड़ की तलहटी में भी है उसमें भगवान पार्श्वनाथ की विशाल अवगाहना की खंडित प्रतिमा है।
सवाईमाधोपुर रेलवे स्टेशन से लगभग ५ किमी. की दूरी पर चमत्कार जी अतिशयक्षेत्र है। अनुश्रुति के अनुसार विक्रम सं. १८८७ में भाद्रपद कृष्णा द्वितीया को नाथ संप्रदाय के एक योगी को स्वप्न हुआ। फलस्वरूप भूगर्भ से भगवान आदिनाथ की स्फटिक प्रतिमा प्राप्त हुई। वहाँ पर जैनों ने मंदिर का निर्माण कराया। जिस स्थान पर प्रतिमा निकली थी वहाँ भगवान के चरण बने हुए हैं।
यहाँ के चमत्कारों की अनेक कथाएँ प्रचलित हैं इसलिए अनेक जैन और जैनेतर बंधु यहाँ मनौती मनाने आते हैं। यहाँ के दर्शन कर सवाईमाधोपुर के श्री नसीरुद्दीन और श्री सफरुद्दीन की मनोकामना पूर्ण हुई थी। उन्होंने यहाँ छतरियों का निर्माण कराया था। वे छतरियाँ अब भी विद्यमान हैं।
यह अतिशयक्षेत्र है। पश्चिम रेलवे पर भरतपुर और गंगापुर स्टेशनों के बीच ‘श्री महावीरजी’ स्टेशन है। यहां प्राय: सभी गाड़ियां रुकती हैं। ग्राम का नाम चांदनपुर है और यहां के मन्दिर का क्षेत्र ‘श्री महावीरजी’ है। स्टेशन से श्री महावीरजी को क्षेत्र की ओर से नि:शुल्क बस सेवा है। यहां विशाल दिगम्बर जैन मंदिर है, जिसमें टीले से प्राप्त भगवान महावीर की दसवीं शताब्दी की मनोज्ञ प्रतिमा मूलनायक है और भी कई वेदियां हैं। मूल मंदिर के नीचे ध्यान केन्द्र में हीरे—पन्ने आदि की लगभग २०० प्रतिमा दर्शनीय हैं। प्रतिमाओं का यह संग्रह बेजोड़ है।
इस क्षेत्र की बड़ी मान्यता है। बड़ी संख्या में यात्री प्राय: वर्ष भर यहां दर्शन को आते हैं। जैनों के अलावा मीणा, गूजर, जाट आदि बड़ी संख्या में भगवान के दर्शन करने आते हैं। भगवान महावीर के निर्वाणोत्सव (दीपावली) पर बड़ी संख्या में दिगम्बर जैन यात्री यहां निर्वाण लाडू चढ़ाने आते हैं।
यहां ब्रह्मचारिणी कमलाबाई जी द्वारा स्थापित महाविद्यालय है, जिसमें कक्षा एक से स्नातकोत्तर की शिक्षा दी जाती है। इस विद्यालय में समीपवर्ती सभी जातियों की लड़कियां शिक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को आदर्श जीवन बनाती हैं। छात्रावास में कांच के मंदिर में भगवान पार्श्वनाथ की अनुपम प्रतिमा है।
प्राकृतिक चिकित्सालय के पास कृष्णाबाई द्वारा स्थापित भव्य दिगम्बर जैन मंदिर और शिक्षण संस्था है। नदी के दूसरी ओर शांतिवीर नगर है जहाँ भगवान शांतिनाथ की लगभग ९ मीटर ऊंची प्रतिमा और चौबीसों तीर्थंकरों की मूर्तियां हैं। जैन गुरुकुल और कीर्तिस्तंभ भी हैं।
मुख्य मंदिर के पीछे की ओर भगवान की चरण छतरी है। यहां से भगवान महावीर की वह मूर्ति निकली थी जो इस मंदिर में विराजमान है। इस मूर्ति की भव्यता अन्यत्र नहीं मिलती है।
जयपुर नगर से लगभग ३ किमी. दूर खानिया में राणाओं की नसिया के पास पहाड़ पर चूलगिरि पार्श्वनाथ मंदिर है। यह जैनों का तीर्थ और अतिशयक्षेत्र है। मंदिर में अनेक टोंक और वेदियाँ हैं, मंदिर तक सड़क व सीढ़ियाँ बनी हैं।
जयपुर से खानिया—गोनेर होते हुए पदमपुरा २४ कि.मी. है। शिवदासपुरा रेलवे स्टेशन से क्षेत्र ६ कि.मी. है।
पदमपुरा (बाड़ा) अतिशयक्षेत्र है। कहा जाता है कि छोटे से गांव बाड़ा में एक व्यक्ति को भैरोंजी की सवारी आती थी। बाड़ा में गंभीर जल संकट था। एक दिन उस व्यक्ति से लोगों ने पूछा कि गांव का जल संकट कब दूर होगा। ‘जब भूगर्भ से बाबा की चमत्कारी मूर्ति निकलेगी’—उस व्यक्ति का उत्तर था।
कुछ समय पश्चात् मूला जाट नामक व्यक्ति गांव में आकर रहने लगा। वहां उसने मकान बनवाया। जमीन खोदते समय मूला का फावड़ा एक पत्थर से टकराया जिसकी ध्वनि ने उसे आश्चर्यचकित कर दिया। सावधानीपूर्वक मिट्टी हटाने पर वहां भगवान पद्मप्रभ की मूर्ति मिली। तभी से गांव के कष्ट दूर होते चले गए। इस मूर्ति की बड़ी मान्यता है और इसके अतिशय की अनेक कथाएँ हैं। विशेषत: भूतबाधा दूर करने के लिए क्षेत्र की बड़ी मान्यता है। यहां का नवनिर्मित मंदिर अनूठे ढंग का है। यह मंदिर गोलाकार है और लगभग ६५²६५ मीटर का है और गुंबद जमीन से २६—२७ मीटर ऊंचा है। जहां से प्रतिमा निकली थी, उस स्थान पर चरण छतरी बन गई है।
तिजारा (देहरा-तिजारा) अतिशयक्षेत्र है। दिल्ली, रेवाड़ी, अलवर, फिरोजपुर-झिरका आदि स्थानों से यह सड़क मार्ग से जुड़ा है।
प्राचीन रिकार्डों में इस स्थान का नाम देहरा लिखा है। पहले यह पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र के रूप में जाना जाता था। सन् १९५६ की खुदाई में यहाँ भगवान चंद्रप्रभ की श्वेत प्रतिमा प्रकट हुई। तब से इस क्षेत्र की ख्याति बढ़ती गई। यहाँ अनेक लोग मनौती मनाने आते हैं। जनता का विश्वास है कि यहाँ आने पर मनोकामना पूर्ण होती है। विशेष रूप से भूत-प्रेत, व्यंतर आदि के कष्ट दूर करने के संदर्भ में इस क्षेत्र की बड़ी प्रसिद्धि है।
क्षेत्र पर विशाल कलापूर्ण मंदिर में भगवान चन्द्रप्रभ की अतिशयकारी मूर्ति विराजमान है। दो वेदियाँ और हैं। मंदिर में ५०० व्यक्ति एक साथ बैठकर पूजन-भजन कर सकते हैं। पीछे की ओर चरण-छतरी है जहाँ से प्रतिमा प्राप्त हुई थी। मंदिर परिसर के पास एक उद्यान में ग्रेनाइट पाषाण की पद्मासन प्रतिमा लगभग ४ मीटर ऊंची और इतनी ही चौड़ी खुले आकाश में एक भव्य सिंहासन पर विराजमान है। इसके अलावा गांव में भी एक प्राचीन मंदिर है।
सिंहौनिया जी-
सिंहौनिया मुरैना से ३० किमी. दूर है। यह एक अतिशयक्षेत्र है। संभवत: मध्ययुग में यह एक समृद्ध नगर था। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व इसे ग्वालियर के संस्थापक राजा सूरजसेन के पूर्वजों ने बसाया था। इसका सिंहौनिया नाम काफी बाद में पड़ा। यहाँ जैनों के अनेक मंदिर थे। दसवीं शताब्दी के बाद आक्रमणों और अव्यवस्था के कारण यह नगर नष्ट हो गया। लगभग ९वीं शताब्दी तक यह पूर्णरूपेण उपेक्षित रहा। बीसवीं शताब्दी में जैनों का ध्यान इसके पुनरुद्धार की ओर गया। यहाँ भगवान शांतिनाथ की भूगर्भ से प्राप्त ५ मीटर ऊँची भव्य प्रतिमा है। इस प्रतिमा के अतिशय के कारण ही सिंहौनिया तीर्थ बना है। इस मूर्ति के दोनों ओर भगवान कुंथुनाथ और भगवान अरनाथ की मूर्तियाँ हैं। यहाँ भूगर्भ से कुछ अन्य मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं जो दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी की बताई जाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि दसवीं शताब्दी तक यह समृद्ध नगर था और यहाँ ११ दिगम्बर जैन मंदिर रहे हैं।
ग्वालियर; आगरा और झांसी के बीच स्थित है। यह नगर तीन भागों में विभाजित है : ग्वालियर, लश्कर और मुरार। ग्वालियर में ४ मंदिर, ४ चैत्यालय और २ जैन धर्मशालाएँ हैं। लश्कर में २० मंदिर, ३ चैत्यालय और ९ धर्मशालाएँ हैं। मुरार में २ मंदिर, २ चैत्यालय हैं।
गोपाचल—ग्वालियर का किला देश का अति प्राचीन ५००० वर्ष पुराना किला माना जाता है। एक हजार वर्ष पूर्व के शिलालेखों में इसका उल्लेख मिलता है। इसकी लंबाई ३ कि.मी. तथा चौड़ाई १८० से ८७० मीटर तक है। ग्वालियर के किले में पहाड़ी पर जैन मूर्तियों की संख्या लगभग १५०० है। ये मूर्तियां अत्यन्त भव्य एवं दर्शनीय हैं। मूर्तियां पांच समूहों में हैं। उरवाही समूह, उत्तर—पश्चिम समूह, उत्तर—पूर्व समूह, दक्षिण—पश्चिम समूह और दक्षिण—पूर्व समूह। सबसे विशाल मूर्ति भगवान आदिनाथ की १७.५ मीटर ऊंची खड्गासन में है। यह उरवाही दरवाजे के बाहर है। दूसरी विशाल प्रतिमा भगवान सुपार्श्वनाथ की है जो एक पत्थर की बावड़ी में है। यह पद्मासन प्रतिमा है और १०.५ मीटर ऊंची है। उरवाही समूह में ४० खड्गासन, २४ पद्मासन और स्तंभों और दीवारों में उकेरी हुई ८४० प्रतिमाएं हैं।
किले में मूर्तियों के अतिरिक्त अन्य कई दर्शनीय स्थल हैं। मान मंदिर, गूजरी महल (जहां संग्रहालय है), बावड़ी, करण मंदिर, विक्रम मंदिर, जहांगीर महल, शाहजहानी महल, कई दर्शनीय िंहदू मंदिर भी हैं-सूर्यदेव, ग्वालिया, चतुर्भुज, तेली का मंदिर, सास—बहू (बड़ा मंदिर)। सास—बहू मंदिर के बीच एक महत्त्वपूर्ण जैन मंदिर भी है। लश्कर की नई सड़क पर दिगम्बर जैन धर्मशाला है। ग्वालियर का तेरहपंथी स्वर्ण मंदिर एवं बीसपंथी मंदिर भी दर्शनीय है।
सोनागिरि को स्वर्णगिरि, श्रमणगिरि आदि नामों से भी जाना जाता है, यह सिद्धक्षेत्र है। यहां से नंग-अनंग आदि पांच कोटि-करोड़ मुनि मुक्त हुए हैं। यहां अनेक मुनियों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। भगवान चंद्रप्रभु का समवसरण भी यहां आया था।
यह क्षेत्र मध्य रेलवे के सोनागिरि स्टेशन से ५ कि.मी. और दतिया से ११ कि.मी. है। क्षेत्र के मुख्य द्वार से मंदिरों और धर्मशालाओं की शृंखला आरंभ हो जाती है। तलहटी में १७ मंदिर, ५ छतरी और १५ धर्मशालाएं हैं।
पहाड़ पर ७७ जैन मंदिर और १३ छतरियां हैं। मंदिर नं. ५७, जिसमें भगवान चंद्रप्रभ की ३ फीट ऊंची मूलनायक प्रतिमा है, यहां का मुख्य मंदिर है। मंदिर अतिविशाल और मूर्ति अतिभव्य एवं अतिशयसंपन्न है। मंदिर के निकट एक छतरी में नंग—अनंग मुनियों के चरणचिन्ह अंकित हैं।
यहां मंदिरों के अतिरिक्त आकर्षण के दो प्रमुख केन्द्र हैं : नारियल कुंड और बजनी शिला। इन दोनों स्थानों के लिए मंदिर नं. ६७ के बाद एक मार्ग जाता है। नारियल कुंड नारियल के आकार का है। इसके बारे में लोगों में एक विश्वास है, यदि कोई नि:संतान व्यक्ति इसमें बादाम डाले और वह तैरने लगे, तो उस व्यक्ति को संतान की प्राप्ति हो जाती है। बजनी शिला एक पहाड़ी शिला है। इसे बजाने से मधुर ध्वनि निकलती है।
यह क्षेत्र अतिप्राचीन है। इस क्षेत्र की सबसे प्राचीन मूर्ति मंदिर नं. १६ में विराजमान है। कुछ विद्वानों के अनुसार भगवान चंद्रप्रभु मंदिर का शिलालेख १०३५ का है। क्षेत्र पर चारों ओर पुरातत्व सामग्री है। कुछ सामग्री मंदिर नं. ७६ के संग्रहालय में रखी है।
गुना से ४५ किमी. की दूरी पर अशोकनगर है। अशोकनगर-चंदेरी सड़क पर अशोकनगर से ६८ किमी. की दूरी पर थूवौन है। यह पुरानी चंदेरी से १४ किमी. है। ललितपुर से चंदेरी (३४ किमी.) होते हुए ५५ किमी. है। यह अतिशय क्षेत्र है।
यहाँ सबसे ऊँची प्रतिमा मंदिर नं. १५ में भगवान ऋषभदेव की कायोत्सर्ग मुद्रा में है। इसकी ऊँचाई ८ मीटर है। इसी प्रतिमा के अतिशय के कारण यह क्षेत्र अतिशयक्षेत्र कहलाता है। अन्य मंदिरों में मंदिर नं.१ में भगवान पार्श्वनाथ की (लगभग ४.५ मीटर ऊंची), मंदिर नं. २ में (पौने चार मीटर उँâची), मंदिर नं. ५० में भगवान शांतिनाथ की (५.५ मीटर ऊँची), मंदिर नं. ६ में भगवान आदिनाथ की (पौने दो मीटर ऊंची) तथा मंदिर नं. ७० में भगवान पार्श्वनाथ की (४.५ मीटर ऊँची), मंदिर नं. १४ में भगवान अजितनाथ की (५ मीटर ऊँची), मंदिर नं. १७ में भगवान अभिनंदननाथ की (५ मीटर ऊंची) तथा मंदिर नं. २५ में भगवान ऋषभदेव की (५ मीटर ऊँची) प्रतिमाएं विशेष उल्लेखनीय हैं।
चंदेरी थूवौन से २२ किमी. दूर है। चंदेरी बस स्टैण्ड से एक किमी. दूरी पर बड़ा जैन मंदिर है। इसी मंदिर में २४ तीर्थंकरों की अत्यन्त कलापूर्ण प्रतिमाएँ विराजमान हैं। प्रत्येक प्रतिमा पृथक् गर्भगृह में है और उसी वर्ण की है जिसे शास्त्रों में सम्बद्ध तीर्थंकर का वर्ण बताया गया है। चंदेरी की यह चौबीसी सर्वाधिक प्रसिद्ध चौबीसी है। इस मंदिर का निर्माण सवाईसिंह जी ने कराया था। मूर्तियों की प्रतिष्ठा सं. १८९३ में हुई थी। नगर में भी एक जैन मंदिर तथा एक चैत्यालय है।
चंदेरी जैन संस्कृति का प्रसिद्ध केन्द्र रहा है। इसके आसपास अनेक स्थल हैं, जहाँ प्राचीन मूर्तियाँ और मंदिर हैं। इनमें से कुछ ये हैं-खंदार जी (चंदेरी के समीपस्थ पर्वत पर), गुरीलागिरि (चंदेरी से ७ किमी.), आमनचार (चंदेरी से मुंगावली रोड पर २९ किमी.), बिठता (चंदेरी से १९ किमी.), भामौन (चंदेरी से १६ किमी.) तथा भियांदांत (चंदेरी से १४ किमी.)।
यह अतिशयक्षेत्र टीकमगढ़ से ५ किमी. तथा ललितपुर स्टेशन से ८५ किमी. है।
वृक्षावली से घिरे मैदान में एक परकोटे के अंदर १०७ मंदिर हैं। कुछ मंदिरों में पृथक्-पृथक् गर्भगृहों को पृथक् मंदिर मान लिया गया है। यदि ऐसा न माना जाये तो मंदिरों की संख्या ६० है। ये मंदिर बारहवीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक के बताये जाते हैं। सभी मंदिर शिखरबंद हैं। यहाँ बाहुबली मंदिर विशेष दर्शनीय है।
खजुराहो न केवल भारत के अपितु विश्व के प्रसिद्ध पर्यटक केन्द्रों में गिना जाता है। इसकी प्रसिद्धि इसके उत्कृष्ट शिल्प और भव्य मंदिरों के कारण है। यहाँ अनेक जैन एवं हिन्दू मंदिर हैं। यहाँ एक अहाते में ३२ जैन मंदिर हैं। कहते हैं कभी यहाँ ८५ मंदिर थे। ५० मंदिर नष्ट हो गए। जैन मंदिरों का यह समूह बस स्टैण्ड से लगभग ३ किमी. की दूरी पर है।
खजुराहो में चंदेलकालीन शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना मिलता है। यहाँ के मंदिरों को तीन समूहों में रखा जा सकता है-पश्चिमी, पूर्वी और दक्षिणी। पश्चिमी समूह में हिन्दुओं के प्रसिद्ध मंदिर, चौंसठ योगिनी मंदिर, महादेव मंदिर, कंदारिया मंदिर आदि प्रसिद्ध मंदिर हैं। कंदारिया मंदिर खजुराहो के मंदिर समूह में सबसे बड़ा मंदिर है। पूर्वी समूह में हिन्दुओं का प्रसिद्ध मंदिर हनुमान मंदिर और ४ प्रसिद्ध जैन मंदिर हैं-आदिनाथ, पार्श्वनाथ, शांतिनाथ और घंटई। जैन मिंदरों में पार्श्वनाथ मंदिर सबसे सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। दक्षिणी समूह में दूल्हादेव और चतुर्भुज मंदिर है।
मंदिरों की भीतर और बाहरी भित्तियों, शिखरों, द्वार शाखाओं पर तीर्थंकर मूर्तियों के अतिरिक्त शासन देव-देवियों, सुर-सुंदरियों, गंधर्व-मिथुनों और व्यालों की भी मूर्तियाँ बनी हुई हैं। यहाँ के मंदिरों की मूर्तियों में १००० वर्ष पुरानी अनेक मूर्तियाँ हैं। शांतिनाथ मंदिर में भगवान शांतिनाथ की मूर्ति लगभग ५ मीटर ऊँची है और अतिमनोज्ञ है। पार्श्वनाथ मंदिर के खुले मैदान में एक संग्रहालय है जिसमें प्राचीन जैन मूर्तियाँ संग्रहीत हैं।
टीकमगढ़ से आहार जी २० किमी. है। यह अतिशयक्षेत्र है। यहाँ भगवान शांतिनाथ का मंदिर है। इसका निर्माण पाड़ाशाह ने कराया था। मूलनायक प्रतिमा भगवान शांतिनाथ की है, जो लगभग ५ मीटर ऊंची है। हाल में ९२ दीवार वेदियाँ, तीन चौबीसी और २० विदेहक्षेत्रस्थ तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ विराजमान हैं। गर्भगृह के बाहर चार वेदियाँ हैं।
मुख्य मंदिर के अतिरिक्त ६ मंदिर तथा २ मानस्तंभ और हैं। क्षेत्र से लगभग ४०० मीटर के फासले पर पहा़डी पर ६ लघु मंदिर हैं। क्षेत्र पर एक संग्रहालय है, जिसमें निकटवर्ती क्षेत्र से प्राप्त पुरातत्व सामग्री संग्रहीत है। इनमें अनेक मूर्तियाँ ११वीं-१२वीं शताब्दी की बताई जाती हैं।
बड़ा मलहरा से द्रोणगिरि ७ कि.मी. है। सागर, हरपालपुर, महोबा, सतना से भी बड़ा—मलहरा पहुंचा जा सकता है। यह इन सभी जगह से लगभग १०० कि. मी. पड़ता है। गांव का नाम सेंदपा है। द्रोणगिरि क्षेत्र पहाड़ी पर है। सेंदपा बस अड्डे से ९० मीटर दूर गांव के भीतर गुरुदत्त जैन संस्कृत विद्यालय है।
यह निर्वाणक्षेत्र माना जाता है। यहां से गुरुदत्त आदि साढ़े आठ करोड़ मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया था। पर्वत पर पहुंचने के लिए २३२ सीढ़ियां हैं। पर्वत पर २८ जिनालय हैं।
यह निर्वाणक्षेत्र है। लगभग ईसा पूर्व नौवीं शताब्दी में यहां पार्श्वनाथ का समवसरण आया था। साथ ही पंच ऋषिराजों ने यहां से मोक्ष प्राप्त किया था। खुदाई में १३ प्रतिमाओं सहित मंदिर निकला था। बड़ा—मलहरा से दलपतपुर (६४ कि.मी.) है। वहां से रेशिंदीगिरि १२ कि.मी. है। सड़क के एक ओर (पहाड़ी पर) क्षेत्र है, दूसरी ओर गांव है। पर्वत पर ३८ और तलहटी में १३ मंदिर हैं। तलहटी के मंदिरों में जलमंदिर अतिभव्य है।
पजनारी अतिशयक्षेत्र है। सागर से कानपुर रोड पर २२ किमी. पर कंदारी ग्राम है। वहाँ से ५ किमी. पर पजनारी क्षेत्र है। मंदिर में भगवान शांतिनाथ की सवा मीटर ऊँची पद्मासन प्रतिमा है। दोनों पार्श्वों में भगवान कुंथुनाथ और भगवान अरनाथ की लगभग पौने दो मीटर ऊँची खड्गासन मूर्तियाँ हैं।
यह भी अतिशयक्षेत्र है, जो सागर से देवरीकला होकर ७२ किमी. है। क्षेत्र पर ६ जैन मंदिर हैं। मुख्य मंदिर भगवान शांतिनाथ का है। उनकी खड्गासन प्रतिमा साढ़े चार मीटर अवगाहना की है। इस प्रतिमा के अतिशयों की अनेक अनुश्रुतियाँ प्रचलित हैं।
क्षेत्र पर प्रवेश करने के लिए नदी पार करनी होती है। ग्राम में प्राचीन भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। कई मकानों में इन भग्नावशेषों का उपयोग उदारतापूर्वक किया गया है। गांव की सीमा पर यह क्षेत्र है। कोई प्रवेश द्वार या अहाता नहीं है।
कुंडलपुर अतिशयक्षेत्र है। जब से इसे अंतिम अनुबद्ध केवली श्रीधर की निर्वाण भूमि कहा जाने लगा है, तब से इसे सिद्धक्षेत्र भी मानते हैं। यह स्थान दमोह से पटेरा होते हुए ३८ कि.मी. है।
कुंडलाकार पर्वतमाला से घिरा यह स्थान अत्यंत रमणीक है। यहीं वर्धमान सागर नामक सरोवर की एक ओर मंदिरों की शृंखला है और तीन ओर पर्वतमाला। पर्वत पर मंदिरों की संख्या ६१ है। एक मानस्तंभ भी है। मुख्य मंदिर पहाड़ी पर मंदिर नं. ११ है। इसे बड़े बाबा का मंदिर कहा जाता है।
इसमें बड़े बाबा की लगभग ४ मीटर ऊंची पद्मासन प्रतिमा है। धारणानुसार यह मूर्ति भगवान महावीर की मानी जाती है किन्तु लक्षणादि से यह भगवान आदिनाथ की प्रतिमा है।
इस स्थान से महाराज छत्रसाल का संबंध रहा है। कहते हैं, उन्होंने यहां मनौती मनाई थी। फलत: उन्हें विजय प्राप्त हुई। विजयोपरांत उन्होंने यहां पक्का घाट बनवाया। मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। पीतल का दो मन का घंटा तथा अन्य वस्तुएं भेंट कीं। उनके सान्निध्य में एक विशाल समारोह भी हुआ था।
मढ़िया जी एक अतिशयक्षेत्र है, यह पिसनहारी की मढ़िया के नाम से प्रसिद्ध है। जबलपुर से ६ किमी. दूर है। सड़क के किनारे ही धर्मशाला तथा महावीर जिनालय है। उसके सामने एक मानस्तंभ है। मंदिर एक पहाड़ी पर है। यहाँ कुल ३७ मंदिर हैं। यहाँ नंदीश्वर द्वीप की रचना अनुपम है।
यह अतिशयक्षेत्र है। जबलपुर-दमोह मार्ग पर जबलपुर से ३२ किमी. की दूरी पर पाटन है। वहाँ से ४ किमी. दूर बासन ग्राम है। कोनी बासन से २ किमी. है। यहाँ कुल १० मंदिर हैं। गर्भमंदिर अतिशयसम्पन्न है। इस मंदिर में सहस्रकूट चैत्यालय है। यहीं नंदीश्वर जिनालय भी दर्शनीय है।
यह स्थान जबलपुर से कटनी-जबलपुर रोड पर १६ किमी. की दूरी पर है। जबलपुर-सागर रेलमार्ग के देवरी स्टेशन से पनागर केवल १ किमी. पड़ता है। यहाँ भगवान शांतिनाथ की सातिशय मूर्ति है। यह लगभग ढाई मीटर ऊँची है। इस नगर में कुल १७ मंदिर हैं। पंचायती मंदिर में भगवान ऋषभदेव की कायोत्सर्गासन में लगभग ढाई मीटर ऊँची अत्यन्त मनोज्ञ प्रतिमा है। इसके अतिशयों के कारण ही यह क्षेत्र प्रसिद्ध हुआ है। यहाँ सम्मेदशिखर की रचना दर्शनीय है।
यह जबलपुर से ६४ किमी. और सिहोरा रोड रेलवे स्टेशन से २४ किमी. है। मध्यकाल में यह प्रसिद्ध सांस्कृतिक केन्द्र और समृद्ध नगर था। ब्राह्मण, जैन और बौद्ध तीनों धर्मों के मंदिर यहाँ थे। जैनों का तो बहुत बड़ा केन्द्र रहा है। यहाँ एक हजार वर्ष पुरानी भगवान शांतिनाथ की ४ मीटर ऊँची प्रतिमा है। यहाँ तीन मंदिर हैं। भगवान शांतिनाथ की मूर्ति के कारण इस क्षेत्र की गणना अतिशयक्षेत्रों में की जाती है। खुदाई में १६ मूर्तियाँ निकली हैं।
यह अतिशयक्षेत्र भोपाल-उज्जैन रेल लाइन पर मक्सी स्टेशन से ३ किमी. दूर है। स्टेशन से लगभग २०० मीटर के फासले पर दिगम्बर जैन धर्मशाला है। उज्जैन से यह ३८ किमी. और इंदौर से ७२ किमी. है।
क्षेत्र पर दो मंदिर हैं। बड़ा मंदिर भगवान पार्श्वनाथ का है। उन्हीं के अतिशय के कारण यह अतिशयक्षेत्र बना है। मंदिर में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही अपनी मान्यतानुसार दर्शन-पूजन करते हैं। पुजारियों पर कोई प्रतिबंध नहीं है। दिगम्बर लोग पूजन प्रात: ६ से ९ बजे तक करते हैं।
छोटा मंदिर भगवान सुपार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर है।
विदिशा से ६ किमी. और सांची से ८ किमी. पर है। पहाड़ काटकर गुफाओं का निर्माण किया गया है। बीस गुफाएँ हैं, जिनमें नं. १ और नं. २० की गुफा जैन है, शेष शैव और वैष्णव हैं।
इंदौर से सड़क द्वारा १५० कि.मी. बड़वानी है, वहां से यह क्षेत्र ७ कि.मी. है। बस क्षेत्र तक जाती है। यह सिद्धक्षेत्र है। माना जाता है कि इंद्रजीत, कुंभकरण आदि अनेक मुनि यहां से मोक्ष पधारे थे।
यहां पाषाण में भगवान आदिनाथ की लगभग २७ मीटर ऊंची प्रतिमा उकेरी हुई है। (यह प्रतिमा ५२ हाथ ऊंची है, पहले संभवत: एक हाथ को गज कहते थे इसलिए यह बावनगजा कहलाती है) अनुमान है कि यह मूर्ति १३वीं शताब्दी से पहले की है। पहाड़ी पर ११ और तलहटी में १५ मंदिर हैं।
यह सिद्धक्षेत्र है। यहाँ से स्वर्णभद्र आदि मुनियों को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। यहाँ के चमत्कारों के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। ऊन इंदौर से १४५ किमी., खण्डवा से १०४ किमी., सनावद से ८३ किमी. है।
यहाँ तीन मंदिर हैं। ग्वालेश्वर या शांतिनाथ मंदिर क्षेत्र से दो फर्र्लांग पर है। लौटने के मार्ग में पंच पहाड़ी नामक एक टीला है। उस पर पाँच लघु मंदिर हैं। ऊन नगर में ११वीं-१२वीं शताब्दी के मंदिर और मूर्तियाँ हैं।
ऊन से सनावद होते हुए मांधाता पहुँचना चाहिए। यह दूरी कुल ८८ किमी. है। मांधाता से सिद्धवरकूट जाना होता है। इंदौर-खण्डवा रेलमार्ग पर बड़वाह स्टेशन से यह क्षेत्र केवल १९ किमी. है। सिद्धवरकूट नर्मदा और कावेरी नदियों का संगम स्थल है। मांधाता में क्षेत्र की धर्मशाला है। धर्मशाला के मैनेजर से नाव आदि की पूरी जानकारी मिल जाती है। सिद्धवरकूट क्षेत्र को नाव द्वारा ही जाया जाता है। यहाँ दोनों नदियों के मध्य पर्वत आ गया है। उसी पर्वत पर प्रसिद्ध ओंकारेश्वर वैष्णव तीर्थ है। अब नदी पर बांध बंध जाने से सीधा सड़क संपर्क हो गया है।
सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र है। यहाँ से २ चक्रवर्ती, १० कामदेव और असंख्य मुनि मुक्त हुए हैं। यहाँ १० जिनालय और १४ धर्मशालाएँ हैं।
श्रीमनारगुडी क्षेत्र तंजौर जिले में है। यह निडमंगलम् दक्षिण रेलवे स्टेशन से लगभग १४ किमी. दूर है। यह स्थान श्री जीवंधर स्वामी का जन्मस्थान बताया जाता है। कहते हैं सन् १८०० में यहाँ एक मुनि पर्णकुटी में तपस्या किया करते थे। उन्होंने ही यहाँ भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान की थी। जब इसका पता कुंभकोनम के जैनों को चला तो उन्होंने यहाँ आकर मंदिर का निर्माण कराया। तब से अद्यतन यहाँ वैशाख मास में १० दिन तक यात्रोत्सव सम्पन्न होता है। मंदिर में श्री मल्लिनाथ स्वामी की भव्य प्रतिमा विराजमान है।
मदुरै नगर पांड्या वंश की राजधानी रहा है। यह तमिल संस्कृति-साहित्य का प्रमुख केन्द्र रहा है। मदुरै के आसपास की प्राय: सभी पहाड़ियों पर जैन साधुओं के वास के लक्षण-शैय्याएँ, शिलालेख आदि अब भी हैं। आवेमलै, तीरुपरनकुंद्रम्, कोंकरपुलिनकुलम्, मुथुपती, विक्रममंगलम्, अन्नामलै, करुणकलनगुडी, कीज्हाकुडी, मेत्तुपत्ती आदि अनेक स्थानों में ऐसे लक्षण हैं। कई स्थानों पर तीर्थंकर मूर्तियाँ भी हैं।
मदुरै एक प्रसिद्ध धार्मिक और पर्यटन स्थल है। शिलालेखों आदि से प्रतीत होता है कि कभी इस क्षेत्र में बहुत महत्त्व का जैन मठ रहा होगा। इस क्षेत्र का संबंध जैन आचार्यों से रहा है। अरिष्टनेमि, माघनंदि, गुणसेन, वर्धमान, कनकनंदी आदि आचार्यों का उल्लेख मिलता है। महान आचार्या अज्जनंदी (आर्यनंदी) द्वारा जैनधर्म के उन्नयन के प्रयास महत्वपूर्ण रहे हैं।
तिरूनेलवेली जिले में कोबिलपट्टी तालुक में कलगुमलै (कजहगुमलै) ग्राम के पास पहाड़ी गुफाएँ हैं। चट्टानों पर ६० से अधिक तीर्थंकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से ही नहीं, कला की दृष्टि से भी यह स्थान महत्वपूर्ण और दर्शनीय है। यहाँ कई शिलालेख और मूर्तियाँ भी हैं। इतना ही नहीं, यहाँ की प्राकृतिक रम्यता और नैसर्गिक छटा अत्यन्त हृदयहारी है।
ऐरोडे के किट, विजयमंगलम् रेलवे स्टेशन से ५ किमी. पर मेत्तपुथूर नामक समृद्ध गांव में एक महत्वपूर्ण मंदिर है। यह स्थान कोयंबटूर से चेन्नई जाने वाली सड़क पर कोयंबटूर से ६७ किमी. है।
कोयंबटूर-एरोडे का क्षेत्र, जो कभी कोंगुनडू (कोगु क्षेत्र) कहलाता था, जैनों का प्रभावशाली स्थान रहा है। यह अनेक प्रख्यात जैन कवियों और संतों की जन्मभूमि है। इनमें कोंगुवेलर, कारमेख पुलावार, मुनिवर भावनंदी, अतीयरकुन्नालर, विल्लीपुथुर, महामुनिवर गुणवीर के नाम उल्लेखनीय हैं।
परम्परानुसार कोंगु क्षेत्र में ७५ जैन मंदिर थे जिनमें विजयमंगलम् बड़ा मंदिर कहलाता था। कालगति में प्राय: सभी मंदिर नष्ट हो गए।
कोल्हापुर से ४० किमी. पर निपानी नामक कस्बा है, जहाँ पर २०० घर जैनों के हैं और २ मंदिर हैं। वहाँ से तावंदी ५ किमी. है। बस स्टैण्ड से कोई १०० मीटर पर ही पार्श्वनाथ जैन गुरुकुल है। गुरुकुल में जैन मंदिर है, जिसमें भगवान पार्श्वनाथ की पौने दो मीटर अवगाहन वाली मनोज्ञ प्रतिमा है।
गुरुकुल से सवा किमी. पर स्तवनिधि क्षेत्र है। वहाँ पर एक धर्मशाला और चार मंदिर हैं। ब्रह्मदेव की एक विशाल मूर्ति है। इसकी काफी मान्यता है।
तावंदी से ६६ किमी. पर बेलगांव है। इस नगर में ९ जिनमंदिर हैं। कर्नाटक क्षेत्र में मंदिर को वसदि और धर्मशाला को बोर्डिंग हाउस, छोटे को चिक और बड़े को दोड्ड कहते हैं।
यहाँ नौ मंदिर हैं। (१) किले के अंदर भाग में कमलवसदि, (२) रोही गली में, (३) दोड्ड बस्ती में नेमिनाथ मंदिर, (४) शोरी गली में चंद्रप्रभ मंदिर, (५) चिक वसदि, (६) हसूर में, (७) शाहपुर में, (८) तड़कबाड़ी में और (९) गोम्मट्टनगर में। यहाँ मंदिरों पर शिखर नहीं हैं।
धारवाड़ से २० किमी. पर हुबली है। बस स्टेशन से लगभग एक किमी. पर जैन बोर्डिंग है। उसमें एक छोटा सा जैन मंदिर भी है। बोगार गली में तीन जैन मंदिर हैं। चंद्रनाथ स्वामी, शांतिनाथ स्वामी और आदिनाथ स्वामी। वहाँ से कोई डेढ़ किमी. दूर अनंतनाथ और पार्श्वनाथ के दो और मंदिर हैं।
यह मैसूर से १६ किमी. की दूरी पर स्थित है। एक बहुत छोटी पहाड़ी पर भगवान बाहुबली की साढ़े पाँच मीटर ऊँची मनोज्ञ मूर्ति है। भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव के समय यहाँ पर एक धर्मशाला बनवाई गई है। यदि कोई संघ चाहे तो एकाध दिन ठहरकर एकांतवास और भगवान बाहुबली के दर्शन-पूजन का सुयोग प्राप्त कर सकता है।
श्रवणबेलगोल जैनों का अति प्राचीन और परमपावन तीर्थ है। जैन इतिहास में इसका विशिष्ट स्थान है। उत्तरवासी इसे ‘जैनबद्री’ कहते हैं। यह ‘जैन काशी’ और ‘गोमट्टतीर्थ’ नामों से भी प्रसिद्ध रहा है। यह कर्नाटक राज्य के हासन जिले में स्थित है और बंगलौर से १४० कि.मी. हासन से ५२ कि.मी. तथा मैसूर से ८३ कि.मी. है। यहां पर श्री बाहुबली स्वामी की लगभग १८ मीटर (५७ फीट) ऊंची अद्वितीय एवं अतिशयसंपन्न विशाल प्रतिमा है। ऐसी प्रतिमा संसार में अन्यत्र नहीं है। लगभग १५—१६ कि.मी. दूर से ही यह दिव्य मूर्ति दृष्टिगोचर होने लगती है। मूर्ति पर दृष्टि पड़ते ही यात्री अपूर्व शांति का अनुभव करने लगता है। धन्य है वह व्यक्ति, जिसे भगवान बाहुबली की इस भव्य प्रतिमा के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है। और धन्य हैं वह महाभाग चामुंडरायजी, जिन्होंने दसवीं शताब्दी में इस मनोज्ञ मूर्ति का निर्माण कराया था। इस मूर्ति का निर्माण उन्होंने अपनी मातेश्वरी की इच्छानुसार कराया था।
चामुंडराय जी कर्नाटक राज्य के सम्राट गंगराज श्री रच्चमल के महामात्य थे। अपने गुणों एवं पराक्रम के कारण वह महाबलाधिपति, समरधुरंधर, सत्य युधिष्ठिर आदि उपाधियों से अलंकृत थे। उन्होंने भगवान बाहुबली की उपर्युक्त प्रतिमा बनवाकर इंद्रगिरि पर्वत पर प्रतिष्ठित कराई थी। यह उत्सव आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के सान्निध्य में सम्पन्न हुआ था।
श्रवणबेलगोल गांव के दोनों ओर दो मनोहर पर्वत विंध्यगिरि (इंद्रगिरि) और चंद्रगिरि हैं। गांव के बीच में कल्याणी सरोवर है इसलिए यहां की प्राकृतिक छटा चित्ताकर्षक है। इंद्रगिरि को यहां के लोग दोड्ड—वेट्ट (बड़ा पहाड़) कहते हैं इस पर चढ़ने के लिए पांच सौ सीढ़ियां बनी हुई हैं। इस पर्वत पर चढ़ते ही पहले ब्रह्मदेव मंदिर पड़ता है जिसकी अटारी में पार्श्वनाथ स्वामी की एक मूर्ति है। पर्वत की चोटी पर पत्थर की प्राचीन दीवार का घेरा है जिसके अंदर बहुत से प्राचीन जिनमंदिर हैं। घुसते ही ‘चौबीस तीर्थंकर वसदि’ एक छोटा—सा मंदिर है। इसमें चौबीसी पट्ट विराजमान हैं। इसकी स्थापना सन् १६४८ में हुई थी। इस मंदिर के उत्तर—पश्चिम में एक कुंड है। उसके पास ‘चेन्नण्ण बसदि’ नामक एक दूसरा मंदिर है। इसमें भगवान चंद्रप्रभ की मनोज्ञ प्रतिमा है। मंदिर के सामने एक मानस्तंभ है। यह मंदिर लगभग १६७३ ई. में चेन्नगण ने बनवाया था।
इसके आगे चबूतरे पर बना हुआ ‘ओदेगल बसदि’ नामक मंदिर है। यह कड़े कंकड़ का बना हुआ है और होयसल काल का है। इस मंदिर की छत के मध्य भाग में एक बहुत ही सुन्दर कमल लटका हुआ है। श्री आदिनाथ भगवान की जिनप्रतिमा दर्शनीय है। श्री शांतिनाथ और नेमिनाथ की भी सुंदर प्रतिमाएँ हैं।
इस विंध्यगिरि पर्वत पर ही एक छोटे घेरे में श्री बाहुबली (गोम्मट) स्वामी की विशालकाय मूर्ति विराजमान है। इस घेरे के बाहर भव्य संगतराशी का त्यागद् ‘ब्रह्मदेव स्तंभ’ नामक सुंदर स्तंभ छत से अधर लटका हुआ है। इसे गंगवंश के राजमंत्री सेनापति चामुंडराय ने बनवाया था, जो ‘गोम्मटसार’ के रचयिता श्री नेमिचंद्राचार्य के शिष्य थे। गुरु और शिष्य की मूर्तियाँ भी उस पर अंकित हैं। इस स्तंभ के सामने ही गोम्मटेश की मूर्ति के प्राकार में घुसने का अखंड द्वार है। वह एक शिला का बना हुआ है। इस द्वार के दाहिनी ओर बाहुबली जी का छोटा सा मंदिर और बाईं ओर भरत भगवान का मंदिर है। पास वाली चट्टान पर सिद्ध भगवान की मूर्तियाँ हैं। वहीं पर ‘सिद्धर वसदि’ है। पास ही दो सुंदर स्तंभ हैं। वहीं पर ‘ब्रह्मदेव स्तंभ’ है और गुल्लकायि जी की मूर्ति है। गुल्लकायिजी चामुंडराय के समय में ही हुई थीं। वह बड़ी धर्मवत्सला महिला थीं। लोकश्रुति है कि चामुंडराय ने बड़े धूमधाम से गोम्मट स्वामी के अभिषेक की तैयारी की थी। परन्तु अभिषिक्त दूध जांघों के नीचे नहीं उतरा। कारण यह था कि चामुंडराय जी को थोड़ा सा अभिमान हो गया था। एक वृद्धा भक्तिन गुल्लकायि नारियल में दूध भरकर लाई। उसने भक्तिपूर्वक अभिषेक किया तो वह सर्वांग सम्पन्न हुआ। चामुंडराय जी ने गुल्लकायिजी की मूर्ति बनवाकर उनकी भक्ति को चिरस्थाई बना दिया।
‘जैनमठ’ में मैनेजिंग कमेटी का कार्यालय है और स्वस्तिश्री भट्टारक चारुकीर्ति जी कमेटी के अध्यक्ष हैं। इसके द्वार मंडप के स्तंभों पर कौशलपूर्ण खुदाई का काम है। मंदिर में तीन गर्भगृह हैं, जिनमें अनेक जिनबिम्ब विराजमान हैं। इसमें ‘नवदेवता’ की मूर्ति अनूठी है। पंचपरमेष्ठियों के अतिरिक्त इसमें जैनधर्म को एक वृक्ष के द्वारा सूचित किया गया है। व्यास पीठ (चौकी) जिनवाणी का प्रतीक है। चैत्य एक जिनमूर्ति द्वारा और जिनमंदिर एक देवमंडप द्वारा दर्शाए गए हैं। सबकी दीवारों पर सुंदर चित्र बने हुए हैं। पास ही बालक-बालिकाओं के लिए अलग-अलग जैन पाठशालाएँ हैं। यहाँ पर इंजीनियरिंग कॉलेज है। इस तीर्थ की मान्यता मैसूर के विगत शासनाधिकारी राजवंश में पुरातन काल से है।
धर्मस्थल बेलूर से १०५ किमी., हासन से ७० किमी. है। मंगलौर से चारमाडी जाने वाली सड़क पर ६४ किमी. पर उजरे पड़ता है, वहाँ से ९ किमी. पर धर्मस्थल है। उजरे से २ किमी. की दूरी पर नेत्रवती नदी है। यात्री इस नदी में स्नान करके धर्मस्थल को जाते हैं। यहाँ पर मंजुनाथ स्वामी (शिव का एक रूप) एक मुख्य मंदिर है और जैनों का चंद्रनाथ स्वामी (भगवान चन्द्रप्रभ) का मंदिर है। बड़ी संख्या में हिन्दू, जैन, मुसलमान और ईसाई उस स्थान पर आते हैं और धर्म का लाभ प्राप्त करते हैं। इस स्थान की बड़ी मान्यता है। क्षेत्र की ओर से विशाल धर्मशालाएँ, भोजनशाला निर्मित करायी गयी है। आसपास में क्षेत्र की ओर से कई कॉलेज, स्कूल, गुरुकुल चल रहे हैं।
यहाँ के धर्माधिकारी डॉ. डी. वीरेन्द्र हेगड़े (जैन) हैं। यह क्षेत्र धार्मिक सद्भाव का स्थान है। इस सारे क्षेत्र में डॉ. हेगड़े जी का विशेष मान है। आसपास की जनता के आपसी विवाद में हेगड़े जी का निर्णय सर्वमान्य होता है, उसकी अपील नहीं की जा सकती।
यहाँ भगवान बाहुबली की १२ मीटर ऊँची प्रतिमा एक पहाड़ी पर विराजमान है। इसका निर्माण कारकल में हुआ था।
मंगलौर से ५३ किमी. और धर्मस्थल से ३६ किमी. की दूरी पर वेणूर है। यह जैनों का प्राचीन केन्द्र है। यहाँ एक जैन धर्मशाला और कई जैन मंदिर हैं। यहाँ के राजा वीर निम्मराज ने सन् १६०४ में भगवान बाहुबली की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई थी और शांतिनाथ मंदिर का निर्माण कराया था। यहाँ बड़ी संख्या में सुंदर मूर्तियाँ हैं।
यह मंगलौर से ३४ कि.मी. और वेणूर से २० कि.मी. दूर है। वेणूर से कारकल जाने वाली बसें जैन धर्मशाला के सामने से गुजरती हैं इसलिए बस स्टैंड पर न उतरकर धर्मशाला के सामने ही उतर जाना चाहिए। होयसल काल में मूडबिद्री जैनों का प्रमुख केन्द्र था। कई राजा जैनधर्म के अनुयायी थे। यहां जैन व्यापारियों आदि का वास था। इस कस्बे में १८ जैन मंदिर हैं, जिनमें त्रिभुवनतिलक चूड़ामणि, जो भगवान चंद्रनाथ (चंद्रप्रभ) को समर्पित है, सबसे बड़ा है। यह सन् १४२९—३० में निर्मित हुआ था। सन् १४४२ में यहां प्रसिद्ध यात्री अब्दुल रज्जाक का आगमन हुआ था। उसने इसे संसार का सबसे शानदार मंदिर लिखा है। यह मंदिर तीन मंजिला है। नीचे की मंजिल में मूलनायक की पंचधातु की प्रतिमा लगभग पौने तीन मीटर ऊंची है। कतिपय अन्य मूर्तियां भी इस मंदिर में हैं जो अति मनोज्ञ हैं। सामने साढ़े बारह मीटर ऊंचा मानस्तंभ है। यहां छोटे—बड़े तथा उत्कीर्ण कुल मिलाकर १००० खंभे हैं।
गुरु वसदि में मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ की विशाल मूर्ति है। सिद्धान्त वसदि में ‘षट्खंडागम’, धवला, जयधवला आदि की ताड़पत्र पर मूल प्रतियां हैं, जिसे सिद्धान्त दर्शन कहते हैं तथा ३५ मूर्तियां हीरा, पन्ना आदि रत्नों की है। इनके दर्शनों के लिए पहले कहना पड़ता है। अन्य मंदिरों में भी मनोज्ञ प्रतिमाएं हैं। संध्या को आरती के समय चित्ताकर्षक रोशनी की जाती है।
मूडबिद्री में भट्टारक गद्दी भी है। वर्तमान भट्टारक स्वस्ति श्री चारुकीर्ति जी महाराज क्षेत्र की उन्नति की ओर ध्यान दे रहे हैं। यहां साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा स्थापित श्री रमारानी जैन रिसर्च इंस्टीट्यूट भी है। इस संस्था द्वारा साहित्यिक शोधकार्य को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। पांडुलिपियों का एक विशाल भंडार है।
मंगलौर से ५३ किमी. और मूडबिद्री से १६ किमी. दूर कारकल अतिशयक्षेत्र है। यहाँ भट्टारक जी का मठ है। उसी में धर्मशाला है, जो बस स्टैण्ड से एक किलोमीटर के फासले पर है। सामने श्राविकाश्रम है। थोड़ी दूर पहाड़ी पर बाहुबली स्वामी की १३ मीटर ऊँची प्रतिमा है। इस मूर्ति का निर्माण सन् १४३२ में कारकल नरेश वीर पांडव ने कराया था। यहाँ के भरव ओड़िया वंश के राजा जैन थे। सन् १३३४ में कुमुदचंद्र भट्टारक के द्वारा बनवाए शांतिनाथ मंदिर को महाराजाधिराज लोकनाथ रस की बहनों ने दान दिया था। शक सं. १५८८ में इम्मडिभैरवराज ने ‘चतुर्मुख वसदि’ नामक विशाल मंदिर बनवाया था। इस मंदिर में चारों ओर द्वार हैं। यहाँ लगभग साढ़े छ: मीटर ऊंची १२ प्रतिमाएँ विराजमान हैं। कारकल में कुल मिलाकर २३ जैन मंदिर हैं।
वारांग कारकल से २५ किमी. दूर है। यह छोटा सा कस्बा है। इस क्षेत्र का प्रबंध हुमचा के भट्टारक जी के हाथ में है। बस स्टैण्ड से थोड़ी दूर पर जैन मठ और धर्मशाला है। धर्मशाला में केवल एक दालान है। यहाँ तीन मंदिर हैं। एक और मंदिर एक तालाब में है, जो जल मंदिर कहलाता है। इसमें लगभग एक मीटर ऊँची चौमुखी प्रतिमा है। इस मंदिर तक छोटी नाव द्वारा जाते हैं।
कहा जाता है कि यहीं से कुंदकुंदाचार्य विदेहक्षेत्र में गए थे और वहाँ पर ८ दिन तक भगवान सीमंधर के समवसरण में धर्म का साक्षात् श्रवण किया था परन्तुु शास्त्रीय प्रमाण नहीं मिलते। वारांग से १६ किमी. पर सोमेश्वर नामक स्थान है। वहाँ से २४ किमी. लंबी ओगंबे घाटी शुरू होती है, इस घाटी में छोटी बसें (१४ सवारी वाली) ही जाती हैं। १० किमी. जाने पर ओगंबे पहुँचते हैं, जहाँ से बड़ी बसें चलती हैं। शिमोगा वाली सड़क पर १० किमी. जाने पर गुडडकेरी गांव पड़ता है (शिमोगा से आने वाले गुडडकेरी आते हैं)।
हुमचा (हुंबुज पद्मावती) तीर्थक्षेत्र है। शिमोगा से यह स्थान कोई ६० किमी. पड़ता है।
यहाँ का मठ प्राचीन है। वारांग आदि कई स्थान इसी मठ से निर्देश प्राप्त करते हैं। यहाँ के मठाधिपति कुंदकुदान्वय के नंदी संघ से संबंध रखते हैं। इस मठ का संबंध कई महान आचार्यों से रहा है। जिनमें आचार्य समंतभद्र, विद्यानंदि, विशालकीर्ति, मुनि नेमिचंद्र प्रमुख हैं।
यहाँ पर मुख्य मंदिर पद्मावती का है। इस इलाके में पद्मावती जी की बड़ी मान्यता है। बहुत से लोग उनका आशीर्वाद लेने यहाँ आते हैं।
पहाड़ी के ऊपर बाहुबली मंदिर है तथा कई मंदिर और भी हैं। हुमचा अतिशययुक्त क्षेत्र माना जाता है। यहाँ के अतिशय हैं-
१. लक्की का वृक्ष जो सदा हरा रहता है,
२. मुतीन केरे तालाब (जिसमें सदा जल रहता है),
३. कुमुदवती नदी, जो सतुंगभद्रा में मिलती है एवं यहीं से निकलती है। पहाड़ी में एक छेद से जल निकलता है और गर्मी के मौसम में भी पानी बहता है। इस क्षेत्र द्वारा कई संस्थाएं संचालित हैं।
सागर से १६० किमी. की दूरी पर हुबली है। यहाँ ठहरने का उचित प्रबंध नहीं है इसलिए अधिकांश लोग बागलकोट (बादामी से ४१ किमी.) में ठहरते हैं। इस इलाके में तीन स्थान-बादामी, ऐहोले और पट्टदकल प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान हैं।
यहाँ राम गली में श्रीराम मंदिर के सामने दिगम्बर जैन मंदिर है। बाबानगर में भगवान पार्श्वनाथ की सातिशय प्रतिमा लगभग पांचवीं शताब्दी की है। १००८ सर्पफणों से सुशोभित होने के कारण यह प्रतिमा सहस्रफणी कहलाती है। हर फण भीतर ऐसी कलाकारी से जुड़ा हुआ है कि अभिषेक का जल हर फण से उतरते हुए प्रतिमा का अभिषेक करता है।
बीजापुर आदिलशाही वंश की राजधानी रहा है। (१५६५ में बीजापुर, अहमदनगर, गोलकुंडा और बीदर से मिलकर विजयनगर को परास्त किया था) यहाँ कई दर्शनीय स्थल हैं। सबसे प्रमुख ‘गोल गुंबज’ है, जो विश्व में अपना एकमात्र उदाहरण है। इस गुंबज का क्षेत्रफल १८,३७७ वर्ग फुट है और यह ४० मीटर ऊँचा (अंदर का नाप) है। इसमें एक ऐसा भाग है, जहाँ आवाज गूंजती है। यहाँ इब्राहीम रोजा, जामा मस्जिद, असर महल आदि दर्शनीय स्थल हैं।
यह अतिशय क्षेत्र हैदराबाद-काजीपेट रेल मार्ग पर है। हैदराबाद से ७९ किमी. पर आलेर स्टेशन है। वहाँ से लगभग ६ किमी. पर प्राचीन क्षेत्र है। यहाँ भगवान आदिनाथ की अतिशयसम्पन्न दिगम्बर मूर्ति विराजमान थी जो माणिक स्वामी के नाम से विख्यात थी। इस प्रतिमा की चोरी हो गई। अब यहाँ हरे रंग की एक प्रतिमा विराजमान है। इस समय इस क्षेत्र पर श्वेताम्बरों का अधिकार है।
हैदराबाद से १५२ किमी. काजीपेट से ११ किमी. और विजयवाड़ा से १११ किमी. की दूरी पर वारंगल है। स्टेशन से ८ किमी. पर वारंगल का विशाल दुर्ग है। दुर्ग में चार जैन मंदिर एवं कतिपय कलापूर्ण वस्तुएँ हैं। ऐसा लगता है कि राजधानी बनने से पहले वारंगल बड़ी जैन बस्ती थी।
गोलकुंडा-
किले में कई खंडित जैन मूर्तियाँ हैं। आसपास अनेक स्थानों पर अवशेष मिलते हैं।
यहाँ पर १९८४ में भूगर्भ से प्राप्त ११ फुट ३ इंची की विशाल खड्गासन भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा विराजमान है। यह स्थान मेदक जिले के जोगीपेठ जिले में स्थित है। हैदराबाद से ८० किमी. दूर है। बस द्वारा जाया जा सकता है।
नागपुर से रामटेक ४८ किमी. दूर है। यह श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र है। यहाँ एक अहाते में १५ जिनालय बने हैं। मुख्य मंदिर भगवान शांतिनाथ का है। इसमें भगवान शांतिनाथ की पीले पाषाण की लगभग ४ मीटर ऊंची खड्गासन प्रतिमा है। यह प्रतिमा अत्यन्त मनोज्ञ है। चरण चौकी जमीन के अंदर है।
कहते हैं कि श्री अप्पा साहब भोसला के राज्यमंत्री वर्धमान सावजी जैन श्रावक थे। एक दिन राजा अप्पा साहब रामटेक आए। मंत्री जी उनके साथ थे। राजा ने श्रीराम मंदिर के दर्शन कर भोजन कर लिया परन्तु मंत्री वर्धमान ने भोजन नहीं किया। कारण यह था कि उन्होंने देवदर्शन नहीं किए थे। इस पर राजा ने जैन मंदिर का पता लगवाया। काफी खोजबीन के बाद जंगल में झाड़ियों से ढकी हुई एक तीर्थंकर मूर्ति का पता चला। मंत्री उसके दर्शन कर अति आनंदित हुए। फिर उन्होंने वहाँ कई मंदिर बनवाए।
कहते हैं इस स्थान पर श्री रामचंद्र जी का आगमन हुआ था। एक किंवदंती के अनुसार यह वही स्थान है जिसके सुरम्य वनों का वर्णन महाकवि कालिदास ने अपने ‘मेघदूत’ में किया है। शासन ने यहाँ पर्वत पर कालिदास स्मारक बनवाया है।
अमरावती से मुक्तागिरि की दूरी ६५ किमी. है। खरपी से ६ किमी. दूर स्थित इस क्षेत्र को सड़क जाती है। यहाँ तलहटी में एक जैन धर्मशाला और एक मंदिर है। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य अपूर्व है। तलहटी से डेढ़ किमी. की चढ़ाई है। पहाड़ पर सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। कहते हैं कि इस स्थान पर मेंढदेव ने बहुत से मोतियों की वर्षा की थी, इसलिए इसका नाम मुक्तागिरि पड़ा है। वंशस्थल ४०वें मंदिर के पास है। अधिक उपयुक्त यह जान पड़ता है कि निर्वाणक्षेत्र होने के कारण यह मुक्तागिरि कहलाया। इस पर्वत से साढ़े तीन करोड़ मुनि मुक्त हुए इसलिए यह सिद्धक्षेत्र माना जाता है।
पर्वत पर ५२ अति मनोज्ञ मंदिर हैं। अधिकांश मंदिर प्राय: १५वीं शताब्दी के या बाद के बने हुए हैं। अचलपुरी के एक ताम्रपत्र में इस पवित्र स्थान पर सम्राट श्रेणिक िंबबसार द्वारा गुफा मंदिर बनवाने का उल्लेख है। अचलपुर (ऐलिचपुर) यहाँ से १३ किमी. है। यहाँ दसवें नम्बर का मंदिर ‘मेंढागिरि मंदिर’ नाम से प्रसिद्ध है। इसमें नक्काशी का काम बहुत अच्छा है। स्तंभों और छत की रचना अपूर्व है। भगवान शांतिनाथ की प्रतिमा दर्शनीय है। इस मंदिर के समीप ६०-६५ मीटर की ऊँचाई से पानी की धारा पड़ती है, जिससे एक रमणीय जलप्रपात बन गया है। मंदिर प्रपात के नाले के दोनों ओर बने हुए हैं। मंदिरों की पंक्ति बहुत ही भव्य लगती है। पार्श्वनाथ भगवान का पहला मंदिर भी प्राचीन शिल्प का नूमना है। प्रतिमा सप्तफणमंडित एवं प्राचीन है। जनश्रुति के अनुसार यहाँ पर केशर की वर्षा होती थी।
कारंजा से मंगलरूलपीर मालेगांव (दूरी ८४ किमी.) होते हुए सिरपुर पहुँचा जा सकता है। सिरपुर, मालेगांव से
७ किमी. है। सिरपुर, अकोला से ७४ किमी. तथा अकोला जिले में सिरपुर ग्राम में स्थित है। वाशिम रेलवे स्टेशन (खण्डवा-पूर्णा लाइन) से ३१ किमी. है।
अंतरिक्ष पार्श्वनाथ अतिशयक्षेत्र और उसके अधिष्ठाता अंतरिक्ष पार्श्वनाथ भारत भर में प्रसिद्ध हैं। क्षेत्र की ख्याति तो इस मूर्ति विशेष के विराजमान होने के पहले से थी। जैन कथा साहित्य के आधार पर रामचंद्र जी के समय में भी यह क्षेत्र था। सिरपुर के पार्श्वनाथ की ख्याति ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों से रही है। एक धारणा के अनुसार यहाँ के मंदिर का निर्माण चोलवंशी श्रीपाल नरेश ने कराया था। सिरपुर ग्राम के बाहर वह स्थान है, जहाँ पर राजा श्रीपाल को कुष्ट रोग से मुक्ति मिली। यहाँ के चमत्कारों की कई कथाएँ हैं। यहाँ उत्खनन में अनेक मूर्तियाँ आदि पुरातात्विक सामग्री प्राप्त हुई है। कहते हैं कि यहाँ की पुरानी ईंट पानी में तैरती है।
मूल मंदिर गांव के मध्य में एक गली में है। प्रवेश द्वार छोटा है। उसमें झुककर ही जाया जा सकता है। प्रवेश करने पर प्रांगण है। उसके तीन ओर बरामदे हैं। इस प्रांगण में ऊपर से ही झरोखे द्वारा अंतरिक्ष पार्श्वनाथ के दर्शन होते हैं।
यह स्थान शिरड शहापुर से केवल ४५ किमी. है। पहले यह नगर जैनपुर कहलाता था। काचेगुडा-मनमाड रेल लाइन पर परभणी स्टेशन से ४२ किमी. जिंतूर नगर है।
क्षेत्र, जिंतूर नगर से ४ किमी. की दूरी पर सहयाद्रि पर्वत पर है। यह श्री नेमिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। क्षेत्र पर एक अहाते में गुफा मंदिर है। यहाँ कुल ६ गुफाएँ या तल प्रकोष्ठ हैं। भगवान नेमिनाथ की लगभग २ मीटर ऊॅँची पद्मासन प्रतिमा है। इनके अतिरिक्त यहाँ भगवान पार्श्वनाथ, भगवान बाहुबली आदि की मूर्तियाँ भी विराजमान हैं। भगवान पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा पाषाण के एक जरा से टुकड़े पर टिकी है इसलिए इसे अंतरिक्ष पार्श्वनाथ कहते हैं। शिलालेख से पता चलता है कि इन मूर्तियों के प्रतिष्ठाचार्य आचार्य कुमुदचंद्र थे। यहाँ राजुलमती का प्राचीन मंदिर भी है।
हिजरी सन् ६३१ में इस नगर पर कादरी नामक अफगान ने हमला किया था। उसी ने इसका नाम जिंतूर रखा। तब यहाँ अनेक जैन मंदिर थे। कादरी ने उनमें से अनेक को नष्ट-भ्रष्ट किया और कुछ को मस्जिद बना दिया।
संवत् १५३२ में वीर संघवी का यहाँ आगमन हुआ। उन्होंने मंदिरोें का जीर्णोद्धार किया। पहले गांव में १४ जैन मंदिर थे लेकिन अब दो हैं। दोनों मंदिरों में १०२४ मूर्तियाँ (१०००+२४) हैं।
ये जगतविख्यात गुफाएँ और गुहा मंदिर औरंगाबाद से ३० किमी. हैं। ऐलोरा ग्राम (वर्तमान नाम वेरुल) गुफाओं से डेढ़ किमी. दूर है। बस वैâलाश नामक गुहा मंदिर के सामने रुकती है। यहाँ पर उप गुफाएँ, गुहा मंदिर हैं। जिनमें १२ (नं. १ से १२ तक) बौद्धधर्म की गुफाएँ हैं, १७ (नं. १३ से २९ तक) हिन्दू (शैव) धर्म की हैं और ५ (नं. ३० से ३४ तक) जैनधर्म की हैं।
जैन गुहा मंदिरों में तीर्थंकरों के अलावा अन्य मूर्तियाँ भी बनी हुई हैं। कई गुफाएँ दो मंजिली हैं। छोटा कैलाश, इंद्रसभा और जगन्नाथ नाम की जैन गुफाओं में उत्कृष्ट कला देखने को मिलती है।
गुफा नं. ३० अधबनी है। इसकी प्रतिमाएं खड्गासन हैं। इसी में से एक फर्लांग चलकर इसी गुफा का दूसरा भाग मिलता है जहाँ एक स्तंभ में एक विशाल खड्गासन मूर्ति है। दुंदभिवादक पुष्पवर्षा करते हुए देव दिखाई देते हैं। यहाँ बहुत सी मूर्तियाँ हैं। एक ढाई मीटर ऊँची अलंकार धारण किए हुए इंद्र की नृत्यमुद्रा में मूर्ति है। इस गुफा को छोटा वैâलाश कहते हैं।
गुफा नं. ३१ छ: स्तंभों पर आधारित मंडप है। यहाँ दो मीटर की भगवान पार्श्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा है। देवी-देवताओं, यक्षों आदि की मूर्तियाँ भी हैं। एक प्रतिमा बाहुबली की है जो लगभग २ मीटर ऊँची है।
गुफा नं. ३२ को इंद्रसभा कहते हैं। यह दो मंजिला है और यहां की जैन गुफाओं में सबसे बड़ी है। छतों में भी चित्रकारी है जो अपने वैशिष्ट्य के कारण प्रसिद्ध है। यहाँ अनेक मूर्तियाँ आदि हैं। भगवान पार्श्वनाथ की एक साढ़े तीन मीटर ऊँची प्रतिमा दीवार में है। एक कोष्ठक में साढ़े तीन मीटर ऊँची बाहुबली स्वामी की प्रतिमा है। यह स्थान कलाकृतियों से भरा पड़ा है। ऊपर की मंजिल का मंडप दो स्तंभों पर आधारित है। यहाँ अनेक मूर्तियाँ हैं। ढाई मीटर ऊँची अर्द्ध-पद्मासन प्रतिमाएँ हैं।
गुफा नं.-३३ और गुफा नं. ३४ कलाकृतियों से भरी है। गुफा नं. ३३ में भगवान पार्श्वनाथ की साढ़े तीन मीटर ऊँची मूर्ति है। यह गुफा दो मंजिला है। इसी गुफा से गुफा नं. ३४ में जाते हैं।
हिन्दू गुफाओं में वैâलाश सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। शिल्प और वास्तुकला का यह एक उत्कृष्ट नमूना है। शायद इस प्रकार का इतना बड़ा गुहा मंदिर कहीं और नहीं हैं।
सारी गुफाएँ ३ किमी. के क्षेत्र में है।
पार्श्वनाथ मंदिर-गुफा नं. ३ से एक चौड़ा मार्ग पहाड़ी से ऊपर गया है। उससे आधा किमी. पर पार्श्वनाथ मंदिर है। मंदिर आधुनिक है, प्राचीन मंदिर के स्थान पर बनाया गया है। पाँच मीटर ऊँची भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति है। यह मंदिर गुफाओं से अलग एकांत में बना है। इस पर्वत को चारणाद्रि या कनकाद्रि कहते हैं।
दर्शन के बाद लगभग ८ सीढ़ियाँ उतरकर एक गुफा है, जिसमें यक्ष-यक्षियों की मूर्तियाँ हैं। फिर एक खाली गुफा मिलती है। इसके आगे एक छोटी गुफा मिलती है जिसमें जलकुंड बना हुआ है। इसके दाएं-बाएं तीर्थंकर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। फिर जल से भरी एक गुफा मिलती है।
फिर एलोरा (वेरुल) ग्राम है। यह क्षेत्र कहलाता है। यहाँ पर श्री पार्श्वनाथ ब्रह्मचर्याश्रम गुरुकुल है। छात्रावास, विद्यालय-भवन, अतिथि-गृह एवं निर्माणाधीन जिनालय आदि हैं।
औरंगाबाद से १०३ किमी. की दूरी पर जगत-प्रसिद्ध अजंता की गुफाएँ हैं। जलगांव से यह स्थान ५९ किमी. है। (जलगांव मनमाड़ से १६० किमी. और मुम्बई से ४२० किमी. है।)
अर्द्ध-चंद्राकार पहाड़ी पर ३० गुफाएं हैं। इनमें से ५ (नं. ९, १०, १९, २६ और २९) को चैत्य की संज्ञा दी जाती है और बाकी को विहार की। यों तो सभी में कुछ न कुछ विशेषता है पर गुफा नं. १, २, ९, १०, १६, १७, १९ एवं २६ औरों से अधिक महत्वपूर्ण है। गुफा नं. १, २, १६, १७ एवं १९ में प्रसिद्ध चित्र हैं।
औरंगाबाद से दक्षिण की ओर से ५१ किमी. पर पैठण (प्राचीन नाम प्रतिष्ठान) है। यह भगवान मुनिसुव्रतनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र है। मूलनायक भगवान मुनिसुव्रतनाथ के नाम पर ही मंदिर का नामकरण हुआ है। क्षेत्र गोदावरी नदी के निकट ऊँचाई पर है। मंदिर दो मंजिला है यहाँ मूलनायक मुनिसुव्रतनाथ के अतिरिक्त ५० मूर्तियाँ हैं।
यहाँ भगवान मुनिसुव्रत की बड़ी मान्यता है। जैन और जैनेतर भाई बड़ी संख्या में कल्याण लाभ के लिए यहाँ आते हैं।
कुंथलगिरि उस्मानाबाद से सड़क मार्ग द्वारा ५२ किमी. है। यहाँ येडशी या वार्शी टाउन से भी पहुँचा जा सकता है। येडशी से यह ४० किमी. तथा वार्शी टाउन से ५८ किमी. पड़ता है। मोड़ से यह स्थान तीन किमी. है।
कुंथलगिरि सिद्धक्षेत्र है। यहाँ से कुलभूषण एवं देशभूषण मुनि मुक्त हुए थे। यहाँ एक पहाड़ी पर सात मंदिर हैं-(१) कुलभूषण-देशभूषण का मंदिर (२) शांतिनाथ मंदिर (३) बाहुबली मंदिर (लगभग साढ़े पाँच मीटर ऊँची खड्गासन प्रतिमा) (४) आदिनाथ मंदिर (५) अजितनाथ मंदिर (६) चैत्य (७) नंदीश्वर जिनालय। शांतिनाथ मंदिर के पास ही आचार्य शांतिसागर जी के चरणचिन्ह स्थापित हैं। यहीं उनका समाधिमरण हुआ था।
तलहटी में चार मंदिर हैं-(१) नेमिनाथ मंदिर, (२) महावीर मंदिर (३) रत्नत्रय मंदिर, (४) समवसरण मंदिर।
बाहुबली (कुंभोज)-यह दिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र है। यह दक्षिण मध्य रेलवे की मिरज—कोल्हापुर लाइन पर हातकलंगणे स्टेशन से ६ कि.मी. है। क्षेत्र का नाम बाहुबली है। (वहां से २ कि.मी. पर कुंभोज नामक नगर है)। मीरज से सड़क द्वारा भी जा सकते हैं। कोल्हापुर से यह २७ कि.मी. पड़ता है।
अनुश्रुति है कि कई शताब्दी पूर्व मुनि बाहुबली विहार करते हुए पधारे और एकांत देखकर एक गुफा में तपस्या के लिए ठहर गए। कई—कई दिन के बाद वे आहार के लिए उठते थे। इस इलाके में जैन कृषक काफी संख्या में थे और उनकी स्त्रियां उनका भोजन लेकर खेत पर जातीं; वे ही मुनिवर को आहार दे देती थीं। उनके नग्न रूप को देखकर कुछ शरारती युवक मुनिवर को परेशान करने लगे। मुनिराज पहाड़ी पर लौट गए। एक व्याघ्र आकर चुपचाप उनके सामने बैठ गया। शरारती युवक जब वहां पहुचे तो समझ गए कि वह तो पहुंचे हुए संत हैं।
मुनिराज बाहुबली के चमत्कारों की और भी कथाएं हैं। उनकी स्मृतिस्वरूप उनके चरण चिन्ह यहां अंकित हैं।
प्रवेशद्वार में घुसने पर एक ओर दो धर्मशालाएं, यांत्रिक विद्यालय, अतिथि निवास और विद्यापीठ के गुरुजनों के निवास हैं और दूसरी ओर प्रतीक्षागृह, छात्रावास, विद्यालय भवन और क्रीड़ाक्षेत्र हैं। ५० सीढ़ियों के बाद मार्बल का चबूतरा है जहां भगवान बाहुबली की ९ मीटर ऊंची श्वेत संगमरमर की भव्य प्रतिमा है (इसकी प्रतिष्ठा सन् १९६३ में हुई थी)। इसके अतिरिक्त अन्य अनेक प्रतिमाएं एवं मंदिर भी हैं।
मंदिरों के पास से पहाड़ी पर रास्ता जाता है। ३८६ सीढ़ियां चढ़कर ऊपर पहुंचते हैं। क्षुल्लिका पार्श्वमती, मुनि वर्धमान सागर और एक अन्य मुनि के चरण बने हुए हैं।
यहां पहले चार दिगम्बर जैन मंदिर थे। वे गिरा दिए गए हैं और उनके स्थान पर नए मंदिरों का निर्माण हो गया है। इन मंदिरों के उत्तर की ओर श्वेतांबर मंदिर बना हुआ है। इस क्षेत्र पर बाहुबली स्वामी की ढ़ाई मीटर ऊंची खंडित प्रतिमा है। तलहटी के मंदिरों से पौन कि.मी. दूर प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर है। जिसमें भगवान आदिनाथ, नेमिनाथ और महावीर की अत्यंत मनोज्ञ प्रतिमाएं हैं। एक मुनि गुफा भी है, जहां आचार्य शांतिसागर जी और अन्य मुनियों ने तपस्या की थी।
यहां श्री बाहुबली ब्रह्मचर्याश्रम चल रहा है (यह कारंजा ब्रह्मचर्याश्रम के बाद स्थापित हुआ है) क्षेत्र के मंदिरों की संख्या ६६ है।
यह दिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र नातेपुते और बालचंद्र नगर के मध्य अवस्थित है। यह नातेपुते से ६ किमी. और बालचंद्र नगर से १३ किमी., बारामती रेलवे स्टेशन से ३५ किमी. और लोणंद से ६५ किमी. है। पंढरपुर-नीरा से भी ६५ किमी. है। इस नाम के कई स्थान हैं इसलिए यह याद रखना जरूरी है कि तीर्थ दहीगांव वही है जो नातेपुते बालचंद नगर मार्ग पर है।
लगभग सन् १८०० में यहाँ महतीसागर जी पधारे थे। उन्हीं की प्रेरणा पर यहाँ जिनमंदिर का निर्माण हुआ। इससे पूर्व यहाँ कोई मंदिर नहीं था। फिर ब्र. जी की समाधि के बाद उनकी चरण-पादुका विराजमान कराई गई। लोकविश्वास है कि इनके दर्शन से मनोकामना पूर्ण हो जाती हैं। इस मान्यता के आधार पर यह क्षेत्र कालांतर में अतिशयक्षेत्र बन गया।
मंदिर की मुख्य वेदी में पौने दो मीटर ऊँची भगवान महावीर की पद्मासन प्रतिमा मूलनायक प्रतिमा के रूप में विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९१० में हुई थी। इस वेदी पर धातु की ५० मूर्तियाँ भी विराजमान हैं।
गर्भगृह, कमरों, प्रकोष्ठों और तलघर में बहुत सी प्रतिमाएँ हैं। सभामंडप के अतिरिक्त यहाँ शास्त्रभंडार भी हैं। एक गुरुकुल भी चल रहा है।
मांगीतुंगी एक प्रमुख पावन सिद्धक्षेत्र है। यह दक्षिण भारत का सम्मेदशिखर कहलाता है। यहां से राम, हनुमान, सुग्रीव, नील, महानील और असंख्य मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया। जैन मान्यतानुसार नारायण श्रीकृष्ण का अंतिम संस्कार उनके बड़े भाई बलराम जी ने यहीं पर किया था। तदनंतर संन्यास लेकर यहीं पर उन्होंने तप किया। भीषण दुर्भिक्ष की आशंका से संघ सहित दक्षिण की ओर जाते समय आचार्य भद्रबाहु यहां पधारे थे। इस घटना की स्मृति में एक गुफा में यहां पर उनकी ध्यानस्थ मूर्ति विराजमान है।
एक पहाड़ के दो शिखर हैं : एक मांगी और दूसरा तुंगी। क्षेत्र तहाराबाद से १० कि.मी. दूर है। मुंबई की ओर से आने वाले नासिक से सटाणा (८० कि. मी.) और वहां से तहाराबाद (८० कि.मी.) पहुंचते हैं। मनमाड़ से सीधी बस सर्विस मांगीतुंगी के लिए है।
क्षेत्र की तलहटी में तीन मंदिर हैं। दो में मूलनायक भगवान पार्श्वनाथ हैं और एक में भगवान आदिनाथ। इस स्थान से ३ कि.मी. पर मुल्हेड़ है।
तलहटी के मंदिरों के पीछे एक किलोमीटर चलकर सीढ़ियां शुरू होती हैं। दोनों शिखरों पर जाने के लिए २५०० सीढ़ियां हैं। कुछ सीढ़ियां चढ़ने पर दो गुफाएं मिलती हैं, जो शुद्ध—बुद्ध जी की गुफाएं कहलाती हैं। इन दोनों में तीर्थंकर प्रतिमाएं विराजमान हैं। कई प्रतिमाएं दीवार में भी उत्कीर्ण हैं।
आगे बढ़कर पाषाण द्वार है। दाईं ओर का समतल मार्ग तुंगी को जाता है और बाईं ओर का सीढ़ियों का मार्ग मांगी को। प्राय: यात्री पहले मांगी के दर्शन करते हैं।
मांगी शिखर पर दो तथा तुंगी शिखर पर एक गुफा है। इनका पलस्तर कराकर या टाइल लगवाकर मंदिरों का रूप दे दिया गया है। इन दीवारों में मुनियों, महंतों एवं तीर्थंकरों की ६०० मूर्तियां हैं। कुछ आदिवासियों की सूचना के अनुसार मांगी—तुंगी शिखरों के पीछे जंगल में अनेक जैन मूर्तियां बिखरी पड़ी हैं। यहां सहस्रकूट मंदिर में १००८ प्रतिमाएं हैं। मांगी पर्वत पर ७ व तुंगी पर ४ मंदिर हैं।
यहाँ पहाड़ पर १०८ फीट ऊँची भगवान ऋषभदेव की मूर्ति निर्माणाधीन है। यह भारत की सबसे अधिक विशालकाय खड्गासन जैन मूर्ति होगी। कार्य प्रगति पर है।
चांदवाड़ से सटाणा पहुंचकर गजपंथा पहुंचा जा सकता है। गजपंथा क्षेत्र नासिक—िंडडोरी रोड पर म्हसरूल नामक गांव ही है।
गजपंथा सिद्धक्षेत्र है। यहां से सात बलभद्र और असंख्य मुनि मुक्त हुए। नासिक से म्हसरूल गांव ६ कि.मी. है। नासिक रोड रेलवे स्टेशन से १६ कि.मी. है। म्हसरूल गांव में उत्तर की तरफ जैन मंदिर हैं। मंदिर के पास से ही पर्वत पर चढ़ने के लिए सीढ़ियां हैं। सीढ़ियां प्राय: ६० से.मी. ऊंची और खड़ी हैं। पर्वत पर चढ़कर एक फाटक आता है। उसमें घुसते ही बलभद्रों के चरणों के दर्शन होते हैं। एक नवनिर्मित जिनालय है जिसमें भगवान पार्श्वनाथ की तीन मीटर ऊंची पद्मासन प्रतिमा है और पार्श्वनाथ गुफा है। गुफाएं, मंदिर, पैनल, मूर्तियां हैं। इसके निकटस्थ लगभग २०—२५ कि.मी. क्षेत्र में जैन पुरातत्त्व की सामग्री बड़ी मात्रा में है।
गुफाओं को इस क्षेत्र में लेनी कहते हैं इसीलिए यह क्षेत्र ‘चाम्मार लेनी’ के नाम से प्रसिद्ध है।
यह मुंबई का उपनगर है। यह मुंबई सेंट्रल रेलवे स्टेशन से लोकल ट्रेन द्वारा ३० कि.मी. है। स्टेशन से नेशनल पार्क २ कि.मी. है। उसी पार्क में गांधी स्मारक से कुछ आगे चलकर भगवान आदिनाथ बाहुबली दिगम्बर जैन मंदिर, पोदनपुर है। इसे स्थानीय बोलचाल में तीनमूर्ति मंदिर भी कहा जाता है। यहां भगवान आदिनाथ की मूर्ति १० मीटर ऊँची और उसके दोनों तरफ भरत चक्रवर्ती और भगवान बाहुबली की मूर्तियां ५—५ मीटर ऊँची हैं।
इन मूर्तियों के पृष्ठ भाग में २४ वेदियों में २४ तीर्थंकरों के दर्शन मिलते हैं। कई आचार्यों के चरण भी विराजमान हैं। अपनी भव्यता के कारण यह स्थान एक क्षेत्र ही हो गया है।