यहाँ कुछ प्रमुख ऐतिहासिक तीर्थों से आपको परिचित कराया जा रहा है। इन तीर्थों को दो भागों में विभक्त किया गया है-(१) उत्तर भारत के तीर्थ (२) दक्षिण भारत के तीर्थ। प्रथमत: आप पढ़ेंगे उत्तर भारत के तीर्थों के बारे में-
उत्तर भारत के प्रमुख ऐतिहासिक तीर्थ
उत्तरप्रदेश-उत्तराखंड
ऋषभांचल- ऋषभांचल अतिशय तीर्थक्षेत्र है। यहाँ भव्य जिनालय हैं। यात्रियों के आवास व भोजन की सुविधा है। यह स्थान दिल्ली-मेरठ मुख्य मार्ग पर अवस्थित है। यहाँ समय-समय पर ध्यान योग शिविरों का आयोजन किया जाता है। प्रतिवर्ष विकलांग एवं नेत्र शिविर और धार्मिक शिविर लगते हैं। यात्रियों की सुविधार्थ आवास और भोजन की व्यवस्था है।
बड़ागाँव-यहाँ भव्य जिनालय में भगवान पाश्र्वनाथ की मूलनायक प्रतिमा अतिशयकारी एवं प्राचीन है। यहाँ मनौती मनाने वाले भक्तों की भीड़ रहती है। यात्रियों की सुविधार्थ आवास व भोजन की समुचित व्यवस्था है। यह स्थान दिल्ली-सहारनपुर रोड व रेल लाइन पर खेकड़ा स्टेशन से जुड़ा है। वहाँ रोड के तिराहे और स्टेशन पर जीप-टैम्पो उपलब्ध रहते हैं। मंदिर की बस भी मिलती है। यहाँ अनेक नवनिर्माण हो रहे हैं।
बरनावा-बरनवा बड़ौत-सरधना रोड पर स्थित है। यहाँ भव्य जिनालय है। कहते हैं कि पाण्डवों को भस्म करने के लिए लाक्षागृह यहीं बना था। यहाँ सहस्रदल कमल मंदिर, चौबीसी कमल मंदिर दर्शनीय हैं। यात्रियों की सुविधार्थ आवास और भोजन की व्यवस्था है।
गढ़ीपुख्ता- यह स्थान शामली के पास है। यहाँ भूगर्भ से प्राप्त भगवान महावीर की अतिशययुक्त प्रतिमा विराजमान है। दिल्ली-सहारनपुर सड़क मार्ग एवं रेलमार्ग पर शामली कस्बा पड़ता है।
महलका- यहाँ पर भगवान चन्द्रप्रभु की अति प्राचीन प्रतिमा भव्य जिनालय में विराजमान है। यह स्थान मेरठ-रुड़की रोड पर सकौती से १० किमी. अंदर की तरफ पक्की सड़क से जुड़ा है। हस्तिनापुर से लावड़ होते हुए भी यहाँ पहुँचा जा सकता है।
बहलना- यह अतिशयक्षेत्र है। यह मेरठ-मुजफ्फरनगर मार्ग पर मेरठ से ४३ तथा मुजफ्फरनगर से ५ किमी. है। मुख्य सड़क पर पाश्र्वनाथ मार्ग लिखा है। उस मार्ग से लगभग १ किमी. अंदर चलकर छोटा सा गाँव है। इस स्थान का मुख्य आकर्षण यहाँ का जैन मंदिर है। मंदिर विशाल है, इस मंदिर में श्वेत पाषाण की नौ फण वाली भगवान पाश्र्वनाथ की अति सुन्दर एवं अतिशय युक्त प्रतिमा विराजमान है। मंदिर के बाहर उत्तर की ओर पांडुक शिला है। यहाँ पर कई मुनिराजों की चरण-छत्री भी बनी हैं। यहाँ प्रतिवर्ष २ अक्टूबर को मेला लगता है। जो यात्री रेल या सार्वजनिक बस से यात्रा करते हैं, उनको मुजफ्फरनगर पहुँचकर रिक्शा/टैम्पो द्वारा वहलना जाना चाहिए। यहाँ पर आवास व भोजन की समुचित व्यवस्था है।
ज्ञानस्थली-ज्ञानस्थली मेरठ-दिल्ली रोड पर मेरठ से १२ किमी. पर परतापुर के पास हैं। यहाँ खुले आसमान में भगवान महावीर की प्रतिमा कृत्रिम पहाड़ पर विराजमान की गई है, जिसके दर्शन सड़क से ही होते हैं। रमणीक स्थान है।
मथुरा चौरासी- दिल्ली-आगरा के बीच मथुरा, रेल लाइन एवं रोड से जुड़ा है। मथुरा-दिल्ली से १४५ किमी. है। मथुरा अति प्राचीन काल से भारत का महान तीर्थ रहा है। हिन्दू, बौद्ध और जैनों में इसकी बड़ी मान्यता रही है। हिन्दू अनुश्रुति के अनुसार मथुरा की गणना सप्त महापुरियों में की जाती है। श्रीकृष्ण की जन्मस्थली एवं लीलाभूमि होने के नाते यहाँ देश-विदेश के लाखों यात्री प्रतिवर्ष आते हैं। चौरासी सिद्धक्षेत्र मथुरा स्टेशन से ४ किमी. और सड़क मार्ग बाईपास पर अवस्थित है। यहाँ अंतिम केवली श्री जम्बूस्वामी संघ सहित पधारे थे। उनके साथ महामुनि विद्युच्चर और पाँच सौ मुनिराजों ने भी तप किया था। किसी धर्मद्रोही ने उन पर उपसर्ग किया। मुनिराजों ने उसे समभाव से सहा। अंत में उनका समाधिमरण हुआ। उनकी स्मृति में यहाँ पाँच सौ स्तूप बने हुए थे। सोलहवीं शताब्दी तक उनका उल्लेख मिलता है। सम्राट अकबर के समय में अलीगढ़वासी साहू टोडर ने उनका जीर्णोद्धार किया था। कालंतर में वे भी नष्ट हो गये। वहीं पर एक स्तूप भगवान पाश्र्वनाथ के समय का बना हुआ था, इसे ‘देवनिर्मित’ कहा जाता था। श्री सोमदेवसूरि ने उनका उल्लेख अपने ‘यशस्तिलकचंपू’ में किया है। जम्बूस्वामी के निर्वाण के कारण यह स्थान (चौरासी) सिद्धक्षेत्र माना जाता है। चौरासी में भव्य जैन मंदिर, ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम और उद्यान में ६ मीटर ऊँची ग्रेनाइट पाषाण की बनी प्रतिमा विराजमान है। मथुरा में समय-समय पर की गई खुदाई में शिलालेखों, आयागपट्टों, मूर्तियों आदि की विपुल सामग्री मिली है। यहाँ बहुत सारे टीले हैं, जिनमें कंकाली टीला अति प्रसिद्ध है। यह सात टीलों का समूह है और कंकाली देवी के मंदिर के कारण कंकाली टीला कहलाता है। इस स्थान से स्तूप, मूर्तियाँ, सर्वतोभद्र प्रतिमाएँ, शिलालेख, आयागपट्ट, धर्मचक्र, तोरण, स्तंभ, वेदिकाएँ आदि जैन पुरातत्व की बहुमूल्य सामग्री उपलब्ध हुई हैं। कतिपय अन्य स्थानों से भी काफी सामग्री प्राप्त हुई है। यह सामग्री ईसा पूर्व चौथी शताब्दी से ईसा की बारहवीं शताब्दी तक की है और इस समय मथुरा के राष्ट्रीय संग्रहालय (कर्जन म्यूजियम) में सुरक्षित है। जैनधर्म की प्राचीनता समझने के लिए इस संग्रहालय का अवलोकन अवश्य करना चाहिए। मथुरा के दर्शनीय स्थलों में श्रीकृष्ण जन्मस्थान, श्री द्वारिकाधीश का मंदिर, वृंदावन के श्रीरंगजी और बांकेबिहारी जी के मंदिरों का उल्लेख किया जा सकता है। श्रीकृष्ण की लीलाओं के संबंध होने के कारण समीपवर्ती स्थान-गोकुल, नंदगांव, बरसाना, दाऊजी, गोवर्धन, राधाकुंड आदि भी तीर्थ माने जाते हैं। यहाँ भी हर समय यात्रियों का आना-जाना बना रहता है। मथुरा नगर में चार दिगम्बर जैन मंदिर और एक चैत्यालय है। घीया मंडी में दिगम्बर जैन धर्मशाला भी है। वृंदावन में भी एक दिगम्बर जैन मंदिर है। मथुरा चौरासी में यात्रियों के लिए सुविधा सम्पन्न आवास एवं भोजन व्यवस्था उपलब्ध है।
त्रिमूर्ति मंदिर एत्मादपुर- फिरोजाबाद-आगरा राजमार्ग (एन.एच.-२) पर फिरोजाबाद से लगभग २५ किमी. आगरा की ओर यह अतिशयकारी मंदिर स्थित है जहाँ भक्तों की मनोकामना पूर्ण होती है। क्षेत्र पर आवास एवं भोजन की व्यवस्था है।
त्रिलोकपुर-अतिशयक्षेत्र त्रिलोकपुर बाराबंकी जिले में बिंदौरा रेलवे स्टेशन से ५ किमी. है। सड़क मार्ग द्वारा यह अयोध्या से १६७ व रतनपुरी से १४३ किमी. है। बाराबंकी से २० किमी. बिंदौरा नहर से ६ किमी. पड़ता है। यहाँ दो जैन मंदिर हैं। भगवान नेमिनाथ का मंदिर अतिशयक्षेत्र कहा जाता है। इसमें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ की श्यामवर्ण कसौटी पाषाण की ५५ सेमी. की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमा अति मनोज्ञ है। इसके चमत्कारों और अतिशयों की नाना किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। सुबह से शाम तक मूर्ति का भाव परिवर्तन होता दिखाई देता है। दूसरा मंदिर भगवान पाश्र्वनाथ का है। यहाँ प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ला षष्ठी को मेला होता है। आवास की व्यवस्था है और पूर्व सूचना पर भोजन उपलब्ध होता है।
ललितपुर (क्षेत्रपाल)- ललितपुर को जैन तीर्थों का जंक्शन कहा जाता है। यह चारों ओर से उत्कृष्ट जैन कला तीर्थों से घिरा हुआ है, यथा देवगढ़, सैरोन, चंदेरी, थुबौन जी, पपौरा, आहारजी आदि। यहाँ सात शिखरबंद जिनालय और तीन चैत्यालय हैं। रेलवे स्टेशन से नगर को जाते हुए कुछ ही दूरी पर क्षेत्रपाल स्थित है। यहाँ एक कोट के अंदर पाँच अत्यंत रमणीक मंदिर बने हुए हैं, उनमें भगवान अभिनंदननाथ की प्रतिमा बड़ी मनोज्ञ है। इन मंदिरों में से एक मंदिर भूगर्भ (भोंयरे) में है। वहाँ १२ प्रतिमाएँ तीर्थंकरों की तथा ३५ देवी-देवताओं की हैं। यहाँ क्षेत्रपाल के चमत्कार बहुत प्रसिद्ध हैं अत: इसे क्षेत्रपाल मंदिर के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त है।
नवागढ़- यह ललितपुर की तहसील महरौनी से २० किमी. सौजना से ५ किमी. तथा सागर-टीकमगढ़ बस मार्ग पर स्थित बड़ागाँव क्षेत्र से ८ किमी. की दूरी पर स्थित सुरम्य प्राकृतिक सौन्दर्य युक्त अतिशय क्षेत्र है। यहाँ मूलनायक भगवान अरनाथ प्रभु से ग्रामीण अंचल की जैन-जैनेतर समाज की अगाध श्रद्धा जुड़ी है। प्राकृतिक आपदा, असाध्य बीमारी, पशु पीड़ा का निदान भक्तजनों को निष्काम साधना से निरन्तर प्राप्त होता है। सन् १९६० में प्रान्तीय जैन समाज के सहयोग से भोंयरे का जीर्णोद्धार किया गया। प्रतिष्ठाचार्य पं. गुलाबचंद्र ‘‘पुष्प’’ एवं आंचलिक समाज के विशेष सहयोग से वर्ष १९८५ में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ के सफल आयोजन के फलस्वरूप शिखर सहित मूलनायक मंदिर, बाहुबली जिनालय एवं धर्मशाला निर्माण का कार्य सम्पन्न हुआ।
कारीटोरन- श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कारीटोरन में भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ एवं अरहनाथ की ३ खड्गासन प्रतिमाएँ विराजमान हैं। यहाँ जाने के लिए ललितपुर से सायं ५ बजे व्हाया महरौनी बस सुविधा उपलब्ध है।
सेरोन-ललितपुर से २१ किमी. सेरोन है। भगवान शांतिनाथ की पाँच मीटर ऊँची प्रतिमा मूलनायक प्रतिमा है। भव्य मानस्तंभ व धर्मशाला है। परकोटे के भीतर ६ मंदिर हैं। लगभग १५० मूर्तियाँ हैं। पास में मंदिरों और मूर्तियोें के भग्नावशेष मिलते हैं। आवास एवं भोजन व्यवस्था है।
शांतिगिरि (मदनपुर)-९-१२वीं शताब्दी की वास्तुकला का अद्भुत क्षेत्र शांतिगिरि-मदनपुर ललितपुर जिले की महरौनी तहसील ने ललितपुर से ६५ एवं सागर से ५५ किमी. दूर स्थित है। ललितपुर से महरौनी, मडावरा होते हुए पहुँचा जा सकता है। आवास एवं भोजन व्यवस्था है। भगवान शांतिनाथ की खड्गासन सातिशय ९ फुट अवगाहना की प्राचीन प्रतिमा है।
टोड़ी फतेहपुर (मऊरानीपुर)- झांसी जिले की मउरानीपुर तहसील में स्थित यह अतिशयकारी तीर्थ है जहाँ २ जिनमंदिर एवं धरणेन्द्र-पद्मावती की मूर्तियाँ हैं। समवसरण एवं चौबीसी भी दर्शनीय है। प्रत्येक माह की कृष्ण पक्ष की द्वादशी से आगामी द्वितीय तक विशेष प्रवचन, असाध्य रोगों का इलाज होता है उस समय भोजनशाला नि:शुल्क रहती है। आवास की समुचित व्यवस्था है। मउरानीपुर से ३० किमी. है।
सीरौन (मड़ावरा)- ललितपुर से मड़ावरा होकर ७४ किमी. सीरौन है। यहाँ एक मंदिर है जो भग्नावस्था में है। जंगल में तथा गाँव के मकानों में बहुत सी मूर्तियाँ हैं। यहाँ आवास व्यवस्था है।
बालावेहट-ललितपुर से सागर वाली सड़क पर लगभग ३८ किमी. की दूरी पर बालाबेहट है। ललितपुर से बस मिलती है। दूसरा रास्ता अमझरा घाटी होकर है। अमझरा घाटी से १९ किमी. है। यह अतिशयक्षेत्र है। मुख्य प्रतिमा भगवान पाश्र्वनाथ की है। यहाँ पर एक ही मंदिर है। एक और मंदिर जीर्णावस्था में है। ५१ प्रतिमाएँ हैं। दो धर्मशालाएँ हैं।
पवा जी (पावागिरि)- यह झांसी से ४१ किमी. और ललितपुर से ४८ किमी. है। रेलमार्ग से बसई स्टेशन या तालबेहट उतरकर १४ किमी. पड़ता है। यहाँ पर १३वीं-१४वीं शताब्दी की मनोज्ञ मूर्तियाँ और तीन नवीन जिनालय हैं। लगभग १० मीटर ऊँचा मानस्तंभ है। बाहुबली स्वामी की एक मूर्ति भी विराजमान की गई है। इस क्षेत्र की मान्यता अतिशयक्षेत्र के रूप में रही है। कुछ समय से कतिपय विद्वानों का मत है कि स्वर्णभद्र आदि मुनि जिस पावागिरि से मोक्ष गए थे वह स्थान यही है। यहाँ मुनियों की छत्रियाँ भी बनी हुई हैं। यहाँ आवास की व्यवस्था है।
करगुआं (झांसी)- यह झांसी से ५ किमी. दूर लखनऊ वाली सड़क पर है। यह अतिशयक्षेत्र माना जाता है। यहाँ क्षेत्र के सामने मेडीकल कॉलेज है। कॉलेज के गेट नं. २ के सामने अंदर की ओर जाना होता है। क्षेत्र एक प्राचीन परकोटे में है। मंदिर भूगर्भ (भोंयरे) में है, जिसमें बड़ी-बड़ी प्रतिमाएँ हैं। यहाँ मूलनायक प्रतिमा भगवान पाश्र्वनाथ की है। इसके अलावा चार मंदिर और हैं।
हरियाणा-रानीला-यहाँ १८-१०-९१ को दशहरे के दिन रेत के टीले से भगवान आदिनाथ की मनोज्ञ प्रतिमा प्राप्त हुई। प्रतिमा के तीन ओर फलक पर अन्य तेईस तीर्थंकरों की मूर्तियाँ अंकित हैं, साथ ही एक अन्य प्रतिमा चव्रेâश्वरी देवी की भी मिली है। सभी मूर्तियाँ एक बड़े कक्ष में विराजमान की गई हैं। श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी यहाँ के विकास कार्यों में संलग्न है। विशाल भूखण्ड पर जिनालय व धर्मशाला निर्मित हो गई है। यात्रियों के आवास और भोजन की समुचित व्यवस्था है। यह स्थान दिल्ली से रोहतक होते हुए ११८ किमी. पक्की सड़क से जुड़ा है।
हांसी (पुण्योदय तीर्थ)- यहाँ १९-१-१९८२ को पुराने किले की दीवार से एक घड़े में अष्टधातु की ५७ प्रतिमाएँ प्राप्त हुईं। यह सभी प्रतिमाएँ स्थानीय दिगम्बर जैन मंदिर में विराजमान हैं। तीर्थ के विकास हेतु एक बहुत बड़े भूखण्ड पर विशाल जिनालय बनाने का कार्य प्रगति पर है। हांसी नगर दिल्ली-हिसार रोड पर अवस्थित है। यात्रियों के लिए सभी सुविधाएँ यहाँ उपलब्ध हैं। एक प्राचीन मंदिर भी है।
शिकोहपुर- यह दिगम्बर जैन सिद्धान्त तीर्थक्षेत्र है। यहाँ पर पाँच पबालयति तीर्थंकरों की भव्य प्रतिमाएँ खुले आकाश में विराजमान हैं। यहाँ जिनमंदिर भी है। गुड़गाँव से मानेसर जाते समय दिल्ली-जयपुर हाइवे पर शिकोहपुर मोड़ है और वहाँ से एक किलोमीटर अंदर यह तीर्थस्थान है। यहाँ पर बच्चों को धार्मिक संस्कार देने हेतु गुरुकुल भी है। यहाँ के पंचकल्याणक जनवरी २००४ में सम्पन्न हुए हैं। आवास और भोजन की समुचित व्यवस्था है।
कासनगांव- यहाँ २६ जून १९९७ को मकान की नींव खोदते समय अष्टधातु की ६००-७०० वर्ष प्राचीन १३ दुर्लभ मूर्तियाँ मिलीं। यह स्थान दिल्ली-जयपुर मुख्य मार्ग पर गुड़गाँव से २० किमी., मानेसर से २ किमी. अंदर की ओर पक्की सड़क से जुड़ा है। यहाँ दो विशाल दिगम्बर जैन मंदिर हैं। यात्रियों को सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
बिहार, झारखंड
श्री कमलदह जी (पटना)—मौर्यकाल का पाटलीपुत्र यही है। कुसुमपुर आदि नामों से भी इसका उल्लेख मिलता है। यह नगर संस्कृति और राजनीति का प्रमुख केन्द्र रहा है। यहाँ चाणक्य द्वारा नंद वंश के उन्मूलन के बाद मौर्यवंश की स्थापना की गई थी। गुलजारबाग स्टेशन के पास दिगम्बर जैन मंदिर है। जहाँ मूलनायक प्रतिमा भगवान नेमिनाथ की है। जैन शास्त्रों में कमलदहजी को सिद्धक्षेत्र माना जाता है। यहीं से मुनि सुदर्शन ने निर्वाण प्राप्त किया था। गुलजारबाग के निकट ही सुदर्शन मुनि की टेकरी है, जहाँ चरणपादुकाएँ विराजमान हैं। पटना में कुल मिलाकर पाँच दिगम्बर जैन मिंदर और एक चैत्यालय है। यहाँ तीन संग्रहालय हैं-राज्य संग्रहालय, जालान संग्रहालय और कानोडिया संग्रहालय। इनके अतिरिक्त राजभवन, विधानसभा, कदम कुआं, पाटलीपुत्र के ध्वंसावशेष, शहीद स्मारक और हैवतजंग का मकबरा भी दर्शनीय हैं। कहा जाता है कि श्री इन्द्रभूति गौतम और सुधर्माचार्य के सम्मुख शिशुनाग वंश के राजा अजातशत्रु जैनधर्म में दीक्षित हुए थे। पाटलीपुत्र नगर को अजातशत्रु के पौत्र उदयन ने बसाया था। उन्होंने अनेक जिनमंदिरों का भी निर्माण कराया था। कमलदहजी में आवास की समुचित व्यवस्था है।
गुणावाजी— पावापुरी के मोड़ से २२ कि.मी. की दूरी पर गुणावा है। यह पवित्र स्थान गणधर इंद्रभूति गौतम निर्वाण स्थल माना जाता है। यह सिद्धक्षेत्र है। यहां भी एक सरोवर है जिसके मध्य में एक मंदिर बना है। मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग ६० मीटर लंबा पुल है। मंदिर में गणधर गौतम स्वामी के चरण हैं। यहां सड़क के किनारे भी एक दिगम्बर जैन मंदिर है। यहां आवास की व्यवस्था है।
मंदारगिरि— मंदारगिरि भागलपुर से ४९ किमी. दूर है। यह भगवान वासुपूज्य का तप और मोक्षकल्याणक स्थान है। भागलपुर से मंदारगिरि को रेल और बस दोनों जाती हैं। गांव का नाम बौंसी है। रेलवे स्टेशन के सामने बस स्टैण्ड से आधे किलोमीटर की दूरी पर दिगम्बर जैन मंदिर और धर्मशाला है। क्षेत्र का कार्यालय भी यहीं है। क्षेत्र कार्यालय से मंदिारगिरि पर्वत ३ किमी. है। तलहटी से पर्वत की चढ़ाई डेढ़ किमी. से कुछ अधिक है। रास्ते में मंदिर और जलकुण्ड है। पर्वत शिखर पर दो बड़े मंदिर हैं ‘बड़ा दिगम्बर जैन मंदिर’ और ‘छोटा दिगम्बर जैन मिंदर’ जहाँ भगवान वासुपूज्य की खड्गासन दिव्य प्रतिमा विराजमान है। पास ही एक गुफा भी है। तीनों जगह भगवान वासुपूज्य के चरणचिन्ह अंकित हैं। हिन्दू मान्यता के अनुसार समुद्रमंथन के समय इसी पर्वत (मंदराचल) को राई बनाया गया था। यहाँ आवास एवं भोजन की व्यवस्था है।
गुजरात-विद्यानंदि क्षेत्र-यह अत्यंत रमणीय स्थान है। यह सूरत से ३ किमी. दूर है। यहाँ पृथक् वेदियों पर ८२ भट्टारकों और मुनियों के चरणचिन्ह विराजमान हैं। चरण चिन्हों के मध्य में आचार्य शांतिसागर और भट्टारक विद्यानंद की मूर्तियाँ विराजमान हैं। यहाँ एक मानस्तंभ भी है, जिसमें ऊपर जाने के लिए २८ सीढ़ियाँ हैं। शीर्ष वेदिका में चारों दिशाओं में मुंह किए चार तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। क्षेत्र पर आवास व्यवस्था है।
महुआ (विघ्नहर पार्श्वनाथ)- यह अतिशयक्षेत्र है। सूरत जिले के बारडोली स्टेशन से १५ किमी. दूर यह पूर्णा नदी के तट पर स्थित है। बारडोली, नवसारी और सूरत सड़क मार्ग से यहाँ पहुँचा जा सकता है। यह सूरत से ४४ किमी. दूर है। गर्भगृह में भगवान पाश्र्वनाथ की अतिशय-सम्पन्न प्रतिमा है। यहाँ पर हिन्दू भी बड़ी संख्या में मनौती मनाने आते हैं तथा गाजे-बाजे के साथ नारियल आदि चढ़ाते हैं। इस क्षेत्र को तीन बार भीषण आग और बाढ़ का सामना करना पड़ा। यहाँ दो मंदिर (चंद्रप्रभ और पाश्र्वनाथ) थे, जिनमें लकड़ी पर सुन्दर नक्काशी का काम था। मंदिर तो अधिकांश नष्ट हो गये, कुशल है कि किसी मूर्ति को क्षति नहीं पहुँची। मंदिर विशाल हैं। क्षेत्र पर आवास व भोजन की व्यवस्था है।
अमीझरो पाश्र्वनाथ-अमीझरो पाश्र्वनाथ अतिशयक्षेत्र है। अहमदाबाद-खेडब्रह्मा रेल मार्ग पर बड़ाली स्टेशन है। बड़ाली ग्राम में दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र अमीझरो पाश्र्वनाथ है। बड़ाली ग्राम में एक प्राचीन मंदिर है। इसमें अमीझरो पाश्र्वनाथ की लगभग १ मीटर अवगाहना की मूलनायक प्रतिमा है। मंदिर के भीतर बावड़ी और धर्मशाला है। बड़ाली हिम्मतनगर से ४४ किमी. और ईडर से १४ किमी. है। ईडर के आसपास कई अतिशय क्षेत्र अथवा मंदिर उपेक्षित दशा में हैं। ईडर से ५ किमी. पर मुडेठी ग्राम में प्राचीन शिखरबंद जिनालय है, जिसमें चिंतामणि पाश्र्वनाथ की बड़ी मनोज्ञ प्रतिमा है। टाकाटू और बोईडा के बीच नदी के किनारे आदीश्वर भगवान का शिखरबंद प्राचीन मंदिर है।
अंकलेश्वर-सूरत और बड़ौदा (बड़ोदरा) के बीच में अंकलेश्वर स्टेशन है। स्टेशन से अंकलेश्वर ग्राम १ किमी. है। बड़ौदा से अंकलेश्वर ७९ किमी. है। नगर में चार दिगम्बर जैन मंदिर हैं यहाँ भोंयरे में भगवान पाश्र्वनाथ की अतिशयसम्पन्न मूर्ति है। यह चिंतामणि पाश्र्वनाथ के नाम से विख्यात है। आम धारणा है कि इनके दर्शन से समस्त चिंताएं दूर हो जाती हैं। यहाँ पर जैन और जैनेतर बंधु भारी संख्या में मनौती मांगने जाते हैं। इसके अलावा नेमिनाथ मंदिर, आदिनाथ मंदिर और महावीर मंदिर भी हैं। महावीर मंदिर बड़ा मंदिर कहलाता है। श्रुतधारी आचार्य धरसेन ने अंगश्रुत का विच्छेद हो जाने की आशंका से उस ज्ञान को सुपात्र विद्वानों को देना चाहा। पुष्पदंत और भूतबलि ने उनसे ज्ञान प्राप्त किया। तत्पश्चात् इन दो साधुओं ने पहला चातुर्मास अंकलेश्वर में किया। वहीं पर इन दोनों मुनियों ने श्रुत के प्रचार पर चिंतन किया। इस प्रकार अंकलेश्वर पुष्पदंत और भूतबलि की चरण-रज से पवित्र हुआ था। नगर में दिगम्बर जैन धर्मशाला है।
पावागढ़ (पावागिरि)- अंकलेश्वर से बड़ौदा पहुँचकर सड़क द्वारा पावागढ़ पहुँचा जा सकता है। पश्चिम रेलवे के बड़ौदा-रतलाम मार्ग पर स्थित चांपानेर से पावागढ़ के लिए छोटी लाइन भी जाती है। पावागढ़ सिद्धक्षेत्र माना जाता है। यहाँ से रामचंद्र जी के दो पुत्र (लव और कुश) और असंख्य मुनियों ने मुक्ति प्राप्त की थी। यहाँ एक दिगम्बर जैन धर्मशाला है, जो स्टेशन और बस स्टैण्ड दोनों जगहों से बराबर फासले (एक किमी.) पर है। एक मंदिर और मानस्तंभ धर्मशाला के अंदर है। धर्मशाला के बाहर भी एक मंदिर है। प्राचीनकाल में पावागढ़ (तत्कालीन नाम पावागिरि) अति प्रसिद्ध तीर्थ था। तलहटी में चांपानेर नगर बसाया गया था। पहाड़ पर दुर्ग था। सूचना पट्ट के अनुसार यह २० किमी. लंबा शहर था। नगर के चारों ओर कोट बना था जिसका कुछ भाग अब भी है। काल विशेष में इस नगर के राजा ने ५२ जिनालय बनवाए थे। पर्वत पर भी कुछ जैन मंदिर और भवन बनवाए गए थे। प्राचीन काल में यहाँ १७ गढ़ थे, जिनके भग्न द्वार अब भी विद्यमान हैं। पर्वत पर पक्की सड़क है। लॉज, रेस्तरां, गेस्ट हाउस आदि भी हैं। काली देवी के मंदिर के कारण यहाँ हिन्दू यात्री भी भारी संख्या में आते हैं। नगाड़खाना पार कर एक किमी. की दूरी पर पहाड़ के शिखर पर एक विशाल ताल है। कुछ आगे तीन जैन मंदिर हैं, जिनमें बहुत सी प्रतिमाएँ हैं, निकट ही चौथा मंदिर (चंद्रप्रभ मंदिर) है। इस मंदिर के सामने तेलिया तालाब के किनारे एक भग्न मंदिर है, इसकी बाह्य भित्तियों पर तीर्थंकर चित्र अंकित हैं। आसपास कई जिनालयों के खंडहर हैं। तीन प्राचीन मंदिर और हैं जिनमें अनेक प्रतिमाएँ हैं। क्षेत्र पर आवास और भोजन की व्यवस्था है।
पालीताणा शत्रुंजय-पालीताणा भावनगर से २९ किमी. है। यहाँ शत्रुंजयगिरि निर्वाणक्षेत्र है। यहाँ से तीन पांडव (युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन) तथा असंख्य राजादि मुक्त हुए थे। नगर में दिगम्बर जैन मंदिर हैं। नगर से शत्रुंजय पहाड़ी की तलहटी डेढ़ किमी. है। फिर पर्वत की चढ़ाई लगभग ४ किमी. है। पक्की सड़क और सीढ़ियाँ हैं। पहाड़ पर श्वेताम्बरों के लगभग ३५०० मंदिर और मंदिरियाँ हैं। कई मंदिरों का शिल्प और स्थापत्य अनूठा है। इस पर्वत पर दो मुख्य टोंक हैं। प्रथम टोंक पर कोई दिगम्बर जैन मंदिर नहीं है। दूसरी टोंक पर श्वेताम्बर मंदिरों के केन्द्र में परकोटे के भीतर एक प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर है। इसमें नौ वेदियाँ हैं। यहाँ की प्रतिमाएँ भी अति प्राचीन हैं। कहा जाता है कि दिगम्बर मंदिर ही प्राचीन है। श्वेताम्बरों के मंदिर बाद के बने हैं। नगर में आवास और भोजन की समुचित व्यवस्था है।
सोनगढ़- सोनगढ़ आध्यात्मिक संत श्री कानजी स्वामी के कारण महत्वपूर्ण स्थान बन गया है। सोनगढ़ पालीताणा से २२ किमी. है। रेलवे स्टेशन से सोनगढ़ डेढ़ किमी. है। यहाँ का श्री महावीर कुन्दकुन्द दिगम्बर जैन परमागम मंदिर दर्शनीय है। भगवद् कुंदाकुंदाचार्य के समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और अष्टपाहुड़ ग्रंथों को सवा मीटर लंबी और लगभग पौन मीटर चौड़ी ४८८ मार्बल की पाटियों पर उत्कीर्ण कराकर लगाया गया है। यहाँ सीमंधर स्वामी दिगम्बर जैन मंदिर, समवसरण मंदिर, स्वाध्याय मंदिर और विशाल मानस्तंभ भी दर्शनीय हैं। आवास और भोजन की सुविधा है।
गिरनार- गिरनार तीर्थक्षेत्र को आचार्य वीरसेन ने धवला टीका में मंगल क्षेत्र माना है। इस क्षेत्र में बाईसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के तीन कल्याणक-दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण हुए हैं। गिरनार, जूनागढ़ से केवल ५ किमी. है। जूनागढ़ में बंडीलाल दिगम्बर जैन कारखाना नाम से क्षेत्र का कार्यालय है। इसी में मंदिर और मानस्तंभ भी है। यहीं बड़ी धर्मशाला है। धर्मशाला से कुछ दूर चलने पर पहाड़ पर चढ़ने की सीढ़ियाँ शुरू हो जाती हैं। ४४०० सीढ़ियाँ चढ़कर पहली टोंक है यहाँ पर ४ दिगम्बर जैन मंदिर और धर्मशाला हैं। निकट ही राजुल गुफा है। कहा जाता है कि राजुलमती ने यहीं तपस्या की थी। गुफा अंधेरी है और बैठकर जाना पड़ता है। फिर १०९ सीढ़ी चढ़कर गोमुख कुंड आता है, वहाँ दीवार में २४ चरण बने हुए हैं। गोमुख से आगे खंगार का किला और अनेक श्वेताम्बर मंदिर हैं। पहली टोंक से १०० सीढ़ी चढ़कर अनिरुद्धकुमार की टोंक तथा निकट में अंबादेवी का मंदिर है (यह मंदिर अब हिन्दुओं के अधिकार में है)। फिर ७०० सीढ़ी चढ़कर शंभुकुमार की टोंक और उसके बाद २५०० सीढ़ी चढ़कर पांचवीं टोंक भगवान नेमिनाथ की है। चौथी टोंक प्रद्युम्न कुमार की है। इस प्रकार भगवान नेमिनाथ की टोंक तक पहुँचने में ९९९९ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। वापसी में पहली टोंक से १४९९ सीढ़ियों द्वारा सहस्राम्र वन जाते हैं। इस क्षेत्र पर ही आचार्य धरसेन के शिष्य पुष्पदंत एवं भूतबलि ने षट्खण्डागम ग्रंथ की रचना की थी। पर्वत की तलहटी में निर्मल ध्यान केन्द्र में भव्य जिनालय दर्शनीय है। जूनागढ़ शहर में भी ऊपर कोट के पास दिगम्बर जैन मंदिर है। क्षेत्र पर आवास और भोजन की व्यवस्था है।
वीरावल-सोमनाथ- वीरावल जूनागढ़ से ८३ किमी. है। यहाँ से ४ किमी. पर समुद्र के किनारे प्रसिद्ध सोमनाथ का मंदिर है। संग्रहालय में पुराने मंदिर के अवशेष हैं। वर्तमान मंदिर नया बना है। यहाँ पर कुछ दिगम्बर जैन परिवार भी रहते हैं।
द्वारका-द्वारका भी समुद्र तट पर स्थित है। यह यादवों का प्रसिद्ध स्थान रहा है। यहाँ का मंदिर भी बहुत प्रसिद्ध, आकर्षक और दर्शनीय है।
तारंगा- तारंगा सिद्धक्षेत्र है। वरदत्त, सागरदत्त आदि तीस करोड़ मुनि यहाँ से मोक्ष गये थे। महेसाणा जंक्शन से तारंगा हिल ५७ किमी. है। तारंगा हिल रेलवे स्टेशन के निकट दिगम्बर जैन धर्मशाला है, वहाँ से तारंगा क्षेत्र ९ किमी. है। क्षेत्र पर १४ दिगम्बर जैन मंदिर हैं। यह स्थान पहाड़ की तलहटी में है। यहाँ पर कोटिशिला और सिद्धशिला नामक दो पहाड़ियाँ हैं। धर्मशाला के पीछे से कोटिशिला की चढ़ाई है। तालाब, गुफाएँ, चरण आदि मिलते हैं। ऊपर लगभग डेढ़ मीटर के शिलाफलक में बनी भगवान नेमिनाथ की खड्गासन प्रतिमा है। शिलालेख के अनुसार इसकी प्रतिष्ठा श्री सिद्धचक्रवर्ती जयिंसह देव के शासनकाल में हुई थी। प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचंद्र इन्हीं के दरबार में थे। क्षेत्र पर मूलनायक प्रतिमा भगवान संभवनाथ की है। कोटिशिला से उतरकर धर्मशाला के दूसरी ओर सिद्धशिला को जाते हैं। यहाँ भी टोंक, चरण आदि हैं। मुख्य टोंक पर लगभग डेढ़ मीटर ऊँची भगवान मल्लिनाथ की खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। इस मूर्ति का प्रतिष्ठाकाल सं. ११९२ है। भगवान नेमिनाथ और भगवान मल्लिनाथ दोनों की मूर्तियाँ शाह लखन द्वारा प्रतिष्ठित हुई हैं। दिगम्बर जैन धर्मशाला के निकट ९ श्वेताम्बर जैन मंदिर हैं। क्षेत्र पर आवास व भोजन की व्यवस्था है।
राजस्थान-आबू- अहमदाबाद-दिल्ली मार्ग पर अहमदाबाद से १८६ किमी. पर आबू रोड स्टेशन है। आबू रोड से २९ किमी. आबू पहाड़ है। आबू रोड तक सड़क मार्ग से भी जा सकते हैं। यह समुद्र तल से ६०० मीटर ऊँचा है। पर्यटक केन्द्र के रूप में सरकार ने इसका पर्याप्त विकास किया है। माउंट आबू से ३ किमी. पर दिलवाड़ा है। वहाँ पर सड़क के एक ओर प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर है एवं आवास व्यवस्था भी है। कुछ ही आगे चलकर दूसरी ओर श्वेताम्बर मंदिरों का समूह है। विमलवसदि, नेमिनाथ मंदिर, लूणवसदि, खरतरवसदि नाम के मंदिर हैं। इनकी दीवारों, छतों, स्तंभों की कला अद्भुत है। इनमें विमलवसदि और लूणवसदि विशेष आकर्षक हैं। विमलवसदि में ५२ और लूणवसदि में ४८ देहरियाँ हैं। भगवान कुंथुनाथ का प्राचीन दिगम्बर जैन मंदिर है। दिलवाड़ा से ६ किमी. पर अचलगढ़ है। अचलगढ़ की चढ़ाई में कुंथुनाथ मंदिर, ऋषभदेव मंदिर और फिर सीढ़ियाँ चढ़कर आदिनाथ मंदिर आता है। भगवान आदिनाथ की प्रतिमा अष्ट धातु की है और यह ५०० वर्ष पुरानी बताई जाती है। इसका वजन १५४४ मन बताया जाता है। आबू पहाड़ पर अचलेश्वर महादेव का प्रसिद्ध मंदिर भी है। इसके अतिरिक्त यहाँ नक्की झील, रघुनाथ जी का मंदिर आदि भी दर्शनीय स्थल हैं।
ऋषभदेव-यह उदयपुर से ६५ किमी. है। गांव का नाम धुलेव है। यहाँ एक कंगूरेदार कोट के भीतर प्राचीन मंदिर और धर्मशालाएँ हैं। मूलनायक प्रतिमा भगवान ऋषभदेव की है। यह श्यामवर्ण पाषाण की लगभग एक मीटर ऊँची मनोहर प्रतिमा है। यह अतिशय युक्त है। श्यामवर्ण की होने के कारण भील लोग इसे कालाजी या कारिया बाबा भी कहते हैं। यहाँ केशर चढ़ाने की परम्परा होने के कारण क्षेत्र केशरिया जी के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस मंदिर के चारों ओर ५२ जिनालय या देवकुलिकाएँ बनी हुई हैं। प्रवेश द्वार विशाल है। यहाँ अद्भुत कला के दर्शन होते हैं। यहाँ के चमत्कारों और अतिशयों की कथाओं के कारण लोग यहाँ दर्शन करने और मनौती मनाने आते हैं। यह मंदिर मूलत: दिगम्बर है। बहुत काल तक भट्टारक गद्दी भी यहाँ रही, पर अब नहीं है। वर्तमान में यहाँ की व्यवस्था राजकीय है। दिगम्बर जैन ही नहीं श्वेताम्बर जैन, हिन्दू, भील आदि भी बड़ी संख्या में दर्शनार्थ आते हैं। यहाँ दिगम्बर जैन, श्वेताम्बर जैन और हिन्दू तीनों रीतियों से पूजा होती है। क्षेत्र पर आवास और भोजन की समुचित व्यवस्था है। पास में ही भट्टारक यशकीर्ति गुरुकुल और मनोज्ञ दिगम्बर जैन मंदिर है।
नागफणी पार्श्वनाथ- नागफणी पाश्र्वनाथ अतिशय क्षेत्र है। ऋषभदेव (केशरिया जी) से बीछीवाड़ा होते हुए ५० किमी. है। नदी पर पहुँचकर मौदर गांव से पहले ही नदी के किनारे बार्इं ओर लगभग २०० मीटर चलने पर पहाड़ पर मंदिर दिखाई देने लगता है। लगभग ५० सीढ़ी चढ़कर मंदिर आता है। सीढ़ियाँ चढ़ने से पहले जलकुंड है। इसका जल अभिषेक और पीने के काम आता है। मूलनायक अति प्राचीन प्रतिमा भगवान पाश्र्वनाथ की है। प्रतिमा के सिर पर सप्तफण-मंडप बना है, इसमें तीन फण खंडित हैं। यहाँ के अतिशय की बहुत मान्यता है। क्षेत्र पर आवास और भोजन की व्यवस्था है।
अंदेश्वर पार्श्वनाथ- यह एक छोटी सी पहाड़ी पर है। चारों ओर सघन वन है। दाहोद से उत्तर की ओर ५० किमी. है। यहाँ के कई अतिशयों की मान्यता है। यहाँ कोई बस्ती नहीं है। केवल दो दिगम्बर जैन मंदिर हैं, दोनों ही पाश्र्वनाथ मंदिर कहलाते हैं एक मंदिर में भगवान पाश्र्वनाथ की चमत्कार सम्पन्न प्रतिमा विराजमान है। दूसरे में चौबीसी है। इस क्षेत्र की अजैनों में भी काफी श्रद्धा है। क्षेत्र पर आवास व भोजन की सुविधा है।
बमोतर अतिशयक्षेत्र- प्रतापगढ़-छोटी सादड़ी-चित्तौड़गढ़ रोड पर प्रतापगढ़ से ५ किमी. पर बमोतर गांव है। यहाँ सं. १९०२ में भगवान शांतिनाथ की डेढ़ मीटर उत्तुंग मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान की गई थी। तब से यह अतिशयक्षेत्र माना जाता है। यहाँ के अतिशयों की कई किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। यहाँ आवास व्यवस्था है।
चित्तौड़गढ़- चित्तौड़गढ़ रेल और सड़क से पूरे देश से जुड़ा है। उदयपुर से ११७ किमी. है। भारतीय इतिहास में चित्तौड़ का नाम अमर है। यह स्वाधीनता की रक्षा के लिए आत्म बलिदान का प्रतीक है। गढ़ निर्माण की वास्तुकला की दृष्टि से चित्तौड़गढ़ एक अनुपम उदाहरण है। समुद्र तल से ६०० मीटर ऊँची पहाड़ी पर यह किला कोई १६ किमी. लंबा और एक किमी. चौड़ा है। इस गढ़ के सात पाल (फाटक) हैं और इसके अंदर बहुत से दर्शनीय स्थान हैं। यह सब भारत के ऐतिहासिक तीर्थ हैं। दुर्ग के द्वार, सिसौदिया फत्ता का स्मारक, सतबीस देवरा (श्वेताम्बर जैन मंदिर), महाराणा कुंभा के महल, जयमहल और फत्ता के भग्न महल, विजयस्तंभ, कीर्तिस्तंभ, दिगम्बर जैन मंदिर, मीराबाई का मंदिर, पद्मिनी का महल, जौहर-स्थल आदि दर्शनीय हैं। चित्तौड़गढ़ में दिगम्बर जैन कीर्तिस्तंभ है। यह लगभग २४ मीटर ऊँचा है। यह सात मंजिला स्तंभ शिल्प कला का अनुपम उदाहरण है। चारों कोनों पर भगवान आदिनाथ की डेढ़ मीटर अवगाहना की दिगम्बर मूर्तियाँ स्थित हैं। इसके निर्माता साहू जीजा वघेरवाल जाति के दिगम्बर जैन थे। इस कीर्तिस्तंभ के समीपस्थ ही दिगम्बर जैन मंदिर है। नगर में एक दिगम्बर जैन मंदिर और दो चैत्यालय हैं। क्षेत्र में आवास आदि की व्यवस्था है।
झालरापाटन- झालरापाटन अतिशय क्षेत्र है। यह झालरापाटन रोड स्टेशन से २८ किमी. है। सड़क मार्ग से अजमेर, जयपुर, कोटा, इंदौर आदि से यह जुड़ा है। यहाँ विशाल जिनमंदिर है जिसमें पौने तीन मीटर ऊँची भगवान शांतिनाथ की अति मनोज्ञ मूलनायक प्रतिमा है। प्राचीन काल में भगवान शांतिनाथ का मंदिर सन् १०४४ में पाड़ाशाह हूमड ने बनवाया था। इसी मंदिर के स्थान पर वर्तमान मंदिर बना है। द्वार पर दो विशाल श्वेत वर्ण हाथी बने हैं। यहाँ हस्तलिखित ग्रंथों का विशाल भंडार है तथा अनेक प्राचीन मूर्तियाँ हैं। मंदिर के तीन ओर १५ वेदियाँ हैं। नगर में ४ मंदिर और हैं। नगर में आवास व्यवस्था उपलब्ध है।
चांदखेड़ी- यह अतिशयक्षेत्र है। झालावाड़-बारां सड़क पर स्थित खानपुर से २ किमी. के फासले पर चांदखेड़ी स्थित है। इस स्थान से अटरू स्टेशन (बीना-कोटा लाइन पर) ३५ किमी. और झालावाड़ रोड स्टेशन (पश्चिमी रेलवे) ६२ किमी. है। सभी ओर से खानपुर पहुँचना होता है। इस क्षेत्र का निर्माण औरंगजेब के शासनकाल में महाराज किशोरिंसह (कोटा) के दीवान शाह विशनदास वघेरवाल ने कराया था। इस स्थान के चमत्कारों का वर्णन मिलता है। मूलनायक प्रतिमा भगवान आदिनाथ की है। यह लगभग दो मीटर ऊँची और पौने दो मीटर चौड़ी है। प्रतिमा पर संवत् ५१२ अंकित है। क्षेत्र के प्रवेश द्वार में घुसते ही एक आहाता है, जिसमें जिन मंदिर है। एक समवसरण मंदिर भी है। यहाँ अनेक प्रतिमाएँ हैं। यहाँ चैत्र कृष्णा पंचमी से नवमी तक मेला लगता है। क्षेत्र पर आवास व भोजन की समुचित व्यवस्था है।
केशोराय पाटन (केशवराय पाटन)– चंबल नदी के तट पर अवस्थित केशोराय पाटन अतिशयक्षेत्र है। यह बूंदी से ४३ किमी., कोटा से १४ किमी. और केशवराय पाटन स्टेशन से ३ किमी. है। परम्परा के अनुसार यहाँ प्राचीन काल में (९वीं-१०वीं शताब्दी से पूर्व) भगवान मुनिसुव्रतनाथ की एक मूर्ति थी, जिसके चमत्कारों की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। शोध के आधार पर विद्वानों का मत है कि वर्तमान केशोराय पाटन ही वह प्राचीन नगर है। इस स्थान का नाम केशोराय पाटन विष्णु के विग्रह के कारण पड़ा था। इस मूर्ति का सं. ३३६ प्रतिष्ठा काल बताया जाता है। यहाँ के चमत्कारों की अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि मुहम्मद गौरी की आज्ञा से मूर्ति को तोड़ने का प्रयास किया गया, पर कुछ नहीं बिगड़ा। जब टांकी से काटना चाहा तो अंगूठे से दूध की प्रबल धारा निकली। कुछ समय पहले यहाँ भयंकर रूप से प्लेग फैला था। तब नगरवासी भयभीत होकर जंगलों में चल गये। कुछ श्रद्धालु दर्शनार्थ आए। वे भगवान के सामने जोत (दीपक) जला गए। जब महामारी शांत हुई और लोग लौटे तो देखा कि ३-४ माह बाद भी जोत जल रही थी। जिनालय चंबल नदी के तट पर १२ मीटर ऊँची चौकी पर बना है। बाढ़ आदि से सुरक्षा के लिए मजबूत दीवार बनाई गई हैं। मूलनायक प्रतिमा भगवान मुनिसुव्रतनाथ की है। यह कृष्ण वर्ण है और लगभग पौने दो मीटर ऊँची पद्मासन प्रतिमा है। इसके अतिरिक्त और भी बहुत सी मूर्तियाँ हैं। अधिकांश मूर्तियाँ सातवीं-आठवीं शताब्दी की हैं। मंदिर में ऊपर और भूगर्भ में छ:-छ: वेदियाँ हैं। कहा जाता है कि ब्रह्मदेव मुनि ने ‘वृहद् द्रव्य संग्रह’ की टीका इसी स्थान पर लिखी थी। क्षेत्र पर आवास और भोजन की व्यवस्था है।
बिजौलिया पाश्र्वनाथ-यह अतिशयक्षेत्र कोटा से बूंदी होते हुए ८५ किमी. है। बिजौलिया रेवा तट पर बसा एक प्राचीन ग्राम है। इसकी चारदीवारी से क्षेत्र डेढ़ किमी. है। बीच में पाश्र्वनाथ मंदिर है। संवत् १२२६ शिलालेख के अनुसार भगवान पाश्र्वनाथ को कमठ द्वारा उपसर्ग के पश्चात् यहीं पर केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। यहाँ के चमत्कारों की अनेक कथाएँ हैं। यहाँ बड़ी संख्या में लोग मनौती मनाने आते हैं। यहाँ ऐतिहासिक महत्व के कई शिलालेख हैं। आवास व भोजन की व्यवस्था है।
चंवलेश्वर पार्श्वनाथ– चंबलेश्वर भीलवाड़ा से ४५ किमी. पूर्व में स्थित है। यह अति सुंदर प्राकृतिक स्थान है। चंवलेश्वर क्षेत्र पहाड़ी पर है। कहते हैं कि केवलज्ञान प्राप्ति के पश्चात् भगवान पाश्र्वनाथ की पहली समवसरण रचना यहीं हुई थी। मंदिर का शिखर दूर से ही दिखाई पड़ता है। भूगर्भ से प्राप्त मूलनायक प्रतिमा भगवान पाश्र्वनाथ की है। इसके अतिशय की अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। एक मंदिर पहाड़ की तलहटी में भी है उसमें भगवान पाश्र्वनाथ की विशाल अवगाहना की खंडित प्रतिमा है। क्षेत्र पर भोजन और आवास व्यवस्था है।
चमत्कार जी- सवाईमाधोपुर रेलवे स्टेशन से लगभग ५ किमी. की दूरी पर चमत्कार जी अतिशयक्षेत्र है। अनुश्रुति के अनुसार विक्रम सं. १८८७ में भाद्रपद कृष्णा द्वितीया को नाथ संप्रदाय के एक योगी को स्वप्न हुआ। फलस्वरूप भूगर्भ से भगवान आदिनाथ की स्फटिक प्रतिमा प्राप्त हुई। वहाँ पर जैनों ने मंदिर का निर्माण कराया। जिस स्थान पर प्रतिमा निकली थी वहाँ भगवान के चरण बने हुए हैं। यहाँ के चमत्कारों की अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। इसलिए अनेक जैन और जैनेतर बंधु यहाँ मनौती मनाने आते हैं। यहाँ के दर्शन कर सवाईमाधोपुर के श्री नसीरुद्दीन और श्री सफरुद्दीन की मनोकामना पूर्ण हुई थी। उन्होंने यहाँ छतरियों का निर्माण कराया था। वे छतरियाँ अब भी विद्यमान हैं। क्षेत्र पर आवास व भोजन की व्यवस्था है।
सवाई माधोपुर- सवाईमाधोपुर नगर में १० दिगम्बर जैन मंदिर हैं। इनमें नौ सौ से अधिक प्रतिमाएँ हैं। अकेले दीवान जी के मंदिर में पाँच सौ से अधिक प्रतिमाएँ हैं।
श्री महावीरजी (चांदनपुर)— यह अतिशयक्षेत्र है। पश्चिम रेलवे पर भरतपुर और गंगापुर स्टेशनों के बीच ‘श्री महावीरजी’ स्टेशन है। यहां प्राय: सभी गाड़ियां रुकती हैं। ग्राम का नाम चांदनपुर है और यहां के मन्दिर का क्षेत्र ‘श्री महावीरजी’ है। स्टेशन से श्री महावीरजी को क्षेत्र की ओर से नि:शुल्क बस सेवा है। यहां विशाल दिगम्बर जैन मंदिर है, जिसमें—टीले से प्राप्त भगवान महावीर की दसवीं शताब्दी की मनोज्ञ प्रतिमा मूलनायक है और भी कई वेदियां हैं। मूल मंदिर के नीचे ध्यान केन्द्र में हीरे—पन्ने आदि की लगभग २०० प्रतिमा दर्शनीय हैं। प्रतिमाओं का यह संग्रह बेजोड़ है। इस क्षेत्र की बड़ी मान्यता है। बड़ी संख्या में यात्री प्राय: वर्ष भर यहां दर्शन को आते हैं। जैनों के अलावा, मीणा, गूजर, जाट आदि बड़ी संख्या में भगवान के दर्शन करने आते हैं। भगवान महावीर के निर्वाणोत्सव (दीपावली) को बड़ी संख्या में दिगम्बर जैन यात्री यहां निर्वाण लाडू चढ़ाने आते हैं। यहां ब्रह्मचारिणी कमलाबाई जी द्वारा स्थापित महाविद्यालय है, जिसमें कक्षा एक से स्नातकोत्तर की शिक्षा दी जाती है। इस विद्यालय में समीपवर्ती सभी जातियों की लड़कियां शिक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को आदर्श जीवन बनाती हैं। छात्रावास में कांच के मंदिर में भगवान पाश्र्वनाथ की अनुपम प्रतिमा है। प्राकृतिक चिकित्सालय के पास कृष्णाबाई द्वारा स्थापित भव्य दिगम्बर जैन मंदिर और शिक्षण संस्था है। नदी के दूसरी ओर शांतिवीर नगर है जहाँ भगवान शांतिनाथ की लगभग ९ मीटर ऊंची प्रतिमा और चौबीसों तीर्थंकरों की र्मूितयां हैं। जैन गुरुकुल और र्कीितस्तंभ भी हैं। मुख्य मंदिर के पीछे की ओर भगवान की चरण छतरी है। यहां से भगवान महावीर की वह र्मूित निकली थी जो इस मंदिर में विराजमान है। इस र्मूित की भव्यता अन्यत्र नहीं मिलती है। क्षेत्र पर सुविधायुक्त आवास और भोजन व्यवस्था उपलब्ध है।
चूलगिरि- जयपुर नगर से लगभग ३ किमी. दूर खानियाँ में राणाओं की नसियाँ के पास पहाड़ पर चूलगिरि पाश्र्वनाथ मंदिर है। यह जैनों का तीर्थ और अतिशयक्षेत्र है। मंदिर में अनेक टोंक और वेदियाँ हैं, मंदिर तक सड़क व सीढ़ियाँ बनी हैं। आवास की व्यवस्था है।
पदमपुरा (बाड़ा)— जयपुर से खानिया—गोनेर होते हुए पदमपुरा २४ कि.मी. है। शिवदासपुरा रेलवे स्टेशन से क्षेत्र ६ कि.मी. है। पदमपुरा (बाड़ा) अतिशयक्षेत्र है। कहा जाता है कि छोटे से गांव बाड़ा में एक व्यक्ति को भैरोंजी की सवारी आती थी। बाड़ा में गंभीर जल संकट था। एक दिन उस व्यक्ति से लोगों ने पूछा कि गांव का जल संकट कब दूर होगा। ‘जब भूगर्भ से बाबा की चमत्कारी र्मूित निकलेगी’—उस व्यक्ति का उत्तर था। कुछ समय पश्चात् मूला जाट नामक व्यक्ति गांव में आकर रहने लगा। वहां उसने मकान बनवाया। जमीन खोदते समय मूला का फावड़ा एक पत्थर से टकराया जिसकी ध्वनि ने उसे आश्चर्यचकित कर दिया। सावधानीपूर्वक मिट्टी हटाने पर वहां भगवान पद्मप्रभ की र्मूित मिली। तभी से गांव के कष्ट दूर होते चले गए। इस र्मूित की बड़ी मान्यता है और इसके अतिशय की अनेक कथाएँ हैं। विशेषत: भूतबाधा दूर करने के लिए क्षेत्र की बड़ी मान्यता है। यहां का नवर्नििमत मंदिर अनूठे ढंग का है। यह मंदिर गोलाकार है और लगभग ६५²६५ मीटर का है और गुंबद जमीन से २६—२७ मीटर ऊंचा है। जहां से प्रतिमा निकली थी, उस स्थान पर चरण छतरी बन गई है। क्षेत्र पर आवास और भोजन की पूरी सुविधा है।
संघीजी-सांगानेर- यह स्थान जयपुर हवाई अड्डे के पास है। क्षेत्र पर कुल ८ मंदिर हैं। बड़ा मंदिर भव्य-प्राचीन वैभवयुक्त कलापूर्ण है। इसमें मूलनायक प्रतिमा भगवान आदिनाथ की है। यहाँ के भोंयरे में बड़ी संख्या में रत्नों की प्रतिमाएँ हैं। यह मूर्तियाँ कई बार निकालकर पुन: भोंयरे में ही स्थापित कर दी गई। भोजन व आवास व्यवस्था है। संघी जी दिगम्बर जैन मंदिर से २ किमी. दूरी पर ‘श्रमण संस्कृति संस्थान’ नामक भव्य जैन गुरुकुल है।
तिजारा (देहरा-तिजारा)- तिजारा (देहरा-तिजारा) अतिशयक्षेत्र है। दिल्ली, रेवाड़ी, अलवर, फिरोजपुर-झिरका आदि स्थानों से यह सड़क मार्ग से जुड़ा है। प्राचीन रिकार्डों में इस स्थान का नाम देहरा लिखा है। पहले यह पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशयक्षेत्र के रूप में जाना जाता था। सन् १९५६ की खुदाई में यहाँ भगवान चंद्रप्रभ की श्वेत प्रतिमा प्रकट हुई। तब से इस क्षेत्र की ख्याति बढ़ती गई। यहाँ अनेक लोग मनौती मनाने आते हैं। जनता का विश्वास है कि यहाँ आने पर मनोकामना पूर्ण होती है। विशेष रूप से भूत-प्रेत, व्यंतर आदि के कष्ट दूर करने के संदर्भ में इस क्षेत्र की बड़ी प्रसिद्धि है। क्षेत्र पर विशाल कलापूर्ण मंदिर में भगवान चन्द्रप्रभ की अतिशयकारी मूर्ति विराजमान है। दो वेदियाँ और हैं। मंदिर में ५०० व्यक्ति एक साथ बैठकर पूजन-भजन कर सकते हैं। पीछे की ओर चरण-छतरी हैं जहाँ से प्रतिमा प्राप्त हुई थी। मंदिर परिसर के पास एक उद्यान में ग्रेनाईट पाषाण की पद्मासन प्रतिमा लगभग ४ मीटर ऊंची और इतनी ही चौड़ी खुले आकाश में एक भव्य सिंहासन पर विराजमान है। इसके अलावा गांव में भी एक प्राचीन मंदिर है।
नौगामा नसियां जी- यह स्थान दाहोद के पास है। नसियां जी क्षेत्र पहाड़ीनुमा है। इसमें श्री सम्मेदशिखर जी की रचना भव्य रूप में की गई है। यहाँ एक मंदिर है। गांव में भी एक मंदिर है।
मध्यप्रदेश
सिंहौनियां जी—सिंहौनिया मुरैना से ३० किमी. दूर है। यह एक अतिशयक्षेत्र है। संभवत: मध्ययुग में यह एक समृद्ध नगर था। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व इसे ग्वालियर के संस्थापक राजा सुरजसैन के पूर्वजों ने बसाया था। इसका सिंहौनिया नाम काफी बाद में पड़ा। यहाँ जैनों के अनेक मंदिर थे। दसवीं शताब्दी के बाद आक्रमणों और अव्यवस्था के कारण यह नगर नष्ट हो गया। लगभग ९वीं शताब्दी तक यह पूर्णरूपेण उपेक्षित रहा। बीसवीं शताब्दी में जैनों का ध्यान इसके पुनरुद्धार की ओर गया। यहाँ भगवान शांतिनाथ की भूगर्भ से प्राप्त ५ मीटर ऊँची भव्य प्रतिमा है। इस प्रतिमा के अतिशय के कारण ही सिंहौनिया तीर्थ बना है। इस मूर्ति के दोनों ओर भगवान कुंथुनाथ और भगवान अरनाथ की मूर्तियाँ हैं। यहाँ भूगर्भ से कुछ अन्य मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं जो दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी की बताई जाती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि दसवीं शताब्दी तक यह समृद्ध नगर था और यहाँ ११ दिगम्बर जैन मंदिर रहे हैं।
ग्वालियर गोपाचल—ग्वालियर; आगरा और झांसी के बीच स्थित है। यह नगर तीन भागों में विभाजित है : ग्वालियर, लश्कर और मुरार। ग्वालियर में ४ मंदिर, ४ चैत्यालय और २ जैन धर्मशालाएँ हैं। लश्कर में २० मंदिर, ३ चैत्यालय और ९ धर्मशालाएँ हैं। मुरार में २ मंदिर, २ चैत्यालय हैं। गोपाचल—ग्वालियर का किला देश का अति प्राचीन ५००० वर्ष पुराना किला माना जाता है। एक हजार वर्ष पूर्व के शिलालेखों में इसका उल्लेख मिलता है। इसकी लंबाई ३ कि.मी. तथा चौड़ाई १८० से ८७० मीटर तक है। ग्वालियर के किले में पहाड़ी पर जैन र्मूितयों की संख्या लगभग १५०० है। ये र्मूितयां अत्यन्त भव्य एवं दर्शनीय हैं। र्मूितयां पांच समूहों में हैं। उरवाही समूह, उत्तर—पश्चिम समूह, उत्तर—पूर्व समूह, दक्षिण—पश्चिम समूह और दक्षिण—पूर्व समूह। सबसे विशाल र्मूित भगवान आदिनाथ की १७.५ मीटर ऊंची खड्गासन में है। यह उरवाही दरवाजे के बाहर है। दूसरी विशाल प्रतिमा भगवान सुपाश्र्वनाथ की है जो एक पत्थर की बावड़ी में है। यह पद्मासन प्रतिमा है और १०.५ मीटर ऊंची है। उरवाही समूह में ४० खड्गासन, २४ पद्मासन और स्तंभों और दीवारों में उकेरी हुई ८४० प्रतिमाएं हैं। किले में र्मूितयों के अतिरिक्त अन्य कई दर्शनीय स्थल हैं। मान मंदिर, गूजरी महल (जहां संग्रहालय है), बावड़ी, करण मंदिर, विक्रम मंदिर, जहांगीर महल, शाहजहानी महल, कई दर्शनीय िंहदू मंदिर भी हैं—सूर्यदेव, ग्वालिया, चतुर्भुज, तेली का मंदिर, सास—बहू (बड़ा मंदिर) सास—बहू मंदिर के बीच एक महत्त्वपूर्ण जैन मंदिर भी है। लश्कर की नई सड़क पर दिगम्बर जैन धर्मशाला है। ग्वालियर का तेरहपंथी स्वर्ण मंदिर एवं बीसपंथी मंदिर भी दर्शनीय है।
मनहरदेव- ग्वालियर जिले में स्थित यह एक अतिशयक्षेत्र है। यह मध्य रेलमार्ग के आंतरी और उवरामंडी स्टेशनों से १० किमी. है। चिनौर तक पक्की सड़क है, फिर ५ किमी. की सड़क कच्ची है। यहाँ एक छोटी सी पहाड़ी पर एक जैन मंदिर तथा ११ अन्य मंदिर जीर्णावस्था में हैं। तलहटी में भी दो मंदिर हैं। पर्वत पर स्थित मंदिर में मूलनायक भगवान शांतिनाथ की अतिशय सम्पन्न प्रतिमा साढ़े चार मीटर ऊँची है। इस स्थान पर पुरातत्त्व सामग्री विपुल मात्रा में बिखरी पड़ी है। यहाँ ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में बहुत मूर्तियाँ थीं। सुरक्षा का प्रबंध न होने के कारण यहाँ मूर्ति-चोरों ने काफी उत्पात किया है। १९६७ में १९ मूर्तियों के सिर काटकर चुरा लिए गए थे। असुरक्षा के कारण ही मूलनायक प्रतिमा सोनागिरि पहुँचा दी गई है।
सोनागिरि— सोनागिरि को स्वर्णगिरि, श्रमणगिरि आदि नामों से भी जाना जाता है, यह सिद्धक्षेत्र है। यहां से नंग-अनंग आदि पांच कोटि मुनि मुक्त हुए हैं। यहां अनेक मुनियों को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है। भगवान चंद्रप्रभ का समवसरण भी यहां आया था। यह क्षेत्र मध्य रेलवे के सोनागिरि स्टेशन से ५ कि.मी. और दतिया से ११ कि.मी. है। क्षेत्र के मुख्य द्वार से मंदिरों और धर्मशालाओं की शृंखला आरंभ हो जाती है। तलहटी में १७ मंदिर, ५ छतरी और १५ धर्मशालाएं हैं। पहाड़ पर ७७ जैन मंदिर और १३ छतरियां हैं। मंदिर नं. ५७, जिसमें भगवान चंद्रप्रभ की ३ फीट ऊंची मूलनायक प्रतिमा है, यहां का मुख्य मंदिर है। मंदिर अति विशाल और र्मूित अतिभव्य एवं अतिशयसंपन्न है। मंदिर के निकट एक छतरी में नंग—अनंग मुनियों के चरणचिन्ह अंकित हैं। यहां मंदिरों के अतिरिक्त आकर्षण के दो प्रमुख केन्द्र हैं : नारियल कुंड और बजनी शिला। इन दोनों स्थानों के लिए मंदिर नं. ६७ के बाद एक मार्ग जाता है। नारियल कुंड नारियल के आकार का है। इसके बारे में लोगों में एक विश्वास है, यदि कोई नि:संतान व्यक्ति इसमें बादाम डाले और वह तैरने लगे, तो उस व्यक्ति को संतान की प्राप्ति हो जाती है। बजनी शिला एक पहाड़ी शिला है। इसे बजाने से मधुर ध्वनि निकलती है। यह क्षेत्र अतिप्राचीन है। इस क्षेत्र की सबसे प्राचीन र्मूित मंदिर नं. १६ में विराजमान है। कुछ विद्वानों के अनुसार भगवान चंद्रप्रभ मंदिर का शिलालेख १०३५ का है। क्षेत्र पर चारों ओर पुरातत्व सामग्री है। कुछ सामग्री मंदिर नं. ७६ के संग्रहालय में रखी है, भोजन-आवास आदि की अच्छी व्यवस्था है। यहाँ कुन्दकुन्द कहान नगर के मुख्य परिसर में कई जिनालय, सुविधा सम्पन्न आवास र्नििमत हुए हैं। यहाँ भी शुद्ध भोजनालय की व्यवस्था है।
पनिहार-बरई- ग्वालियर-शिवपुरी रोड पर ग्वालियर से २२ किमी. दूर सड़क के बार्इं ओर पनिहार और दार्इं ओर बरई गांव है। पनिहार रेलवे स्टेशन भी है यह ग्वालियर से २४ किमी. है। स्टेशन से पनिहार गांव लगभग २ किमी. है। पनिहार गांव के बाहर ही प्राचीन जिनालय और भोंयरा है। सड़क से लगभग ३ किमी. की दूरी पर बरई गांव का टीला है। इस टीले पर जैन मंदिर है जो भग्नप्राय है। मंदिर में कई बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ हैं। एक तीर्थंकर मूर्ति लगभग साढ़े पाँच मीटर ऊँची है। कोई व्यवस्था न होने के कारण कई मूर्तियाँ ऐसी हैं, जिनके सिर काट लिए गए हैं।
शिवपुरी- पनिहार से शिवपुरी ९६ किमी. दूर है। यहाँ राजकीय संग्रहालय है। इसमें जैन सामग्री विपुल मात्रा में संग्रहीत है। शिवपुरी में कई दर्शनीय जिनालय हैं।
खनियांधाना-खनियाधाना शिवपुरी से १०२ किमी. दूर है। मध्य रेलवे के बसई स्टेशन से ३७ किमी. और चंदेरी से ५३ किमी. है। यहाँ दो प्राचीन मंदिर हैं जिनमें से एक भग्नप्राय है। यहाँ एक मानस्तंभ भी है। यहाँ से अनेक अभिलेख प्राप्त हुए हैं। सुरक्षा की समुचित व्यवस्था न होने के कारण यहाँ समय-समय पर मूर्तियों की चोरी होती रही है। उपलब्ध सामग्री जैनधर्म और जैनकला की समृद्धि की द्योतक है। अधिकांश सामग्री १२वीं, १४वीं शताब्दी की है। नवनिर्मित भव्य नन्दीश्वर मंदिर दर्शनीय है।
थूवौन- गुना से ४५ किमी. की दूरी पर अशोकनगर है। अशोकनगर-चंदेरी सड़क पर अशोकनगर से ६८ किमी. की दूरी पर थुवौन है। यह पुरानी चंदेरी से १४ किमी. है। ललितपुर से चंदेरी (३४ किमी.) होते हुए ५५ किमी. है। यह अतिशय क्षेत्र है। यहाँ सबसे ऊँची प्रतिमा मंदिर नं. १५ में भगवान ऋषभदेव की कायोत्सर्ग मुद्रा में है। इसकी ऊँचाई ८ मीटर है। इसी प्रतिमा के अतिशय के कारण यह क्षेत्र अतिशयक्षेत्र कहलाता है। अन्य मंदिरों में मंदिर नं.१ में भगवान पाश्र्वनाथ की (लगभग ४.५ मीटर ऊंची), मंदिर नं. २ में (पौने चार मीटर उँâची), मंदिर नं. ५० में भगवान शांतिनाथ की (५.५ मीटर ऊँची), मंदिर नं. ६ में भगवान आदिनाथ की (पौने दो मीटर ऊंची) तथा मंदिर नं. ७० में भगवान पाश्र्वनाथ की (४.५ मीटर ऊँची), मंदिर नं. १४ में भगवान अजितनाथ की (५ मीटर ऊँची), मंदिर नं. १७ में भगवान अभिनंदननाथ की (५ मीटर ऊंची) तथा मंदिर नं. २५ में भगवान ऋषभदेव की (५ मीटर ऊँची) प्रतिमाएं विशेष उल्लेखनीय हैं।
चंदेरी- चंदेरी थूवौन से २२ किमी. दूर है। चंदेरी बस स्टैण्ड से एक किमी. दूरी पर बड़ा जैन मंदिर है। इसी मंदिर में २४ तीर्थंकरों की अत्यन्त कलापूर्ण प्रतिमाएँ विराजमान हैं। प्रत्येक प्रतिमा पृथक् गर्भगृह में है और उसी वर्ण की है जिसे शास्त्रों में सम्बद्ध तीर्थंकर का वर्ण बताया गया है। चंदेरी की यह चौबीसी सर्वाधिक प्रसिद्ध चौबीसी है। इस मंदिर का निर्माण सवाईसिंह जी ने कराया था। मूर्तियों की प्रतिष्ठा सं. १८९३ में हुई थी। नगर में भी एक जैन मंदिर तथा एक चैत्यालय है। चंदेरी जैन संस्कृति का प्रसिद्ध केन्द्र रहा है। इसके आसपास अनेक स्थल हैं, जहाँ प्राचीन मूर्तियाँ और मंदिर हैं। इनमें से कुछ ये हैं-खंदार जी (चंदेरी के समीपस्थ पर्वत पर), गुरीलागिरि (चंदेरी से ७ किमी.), आमनचार (चंदेरी से मुंगावली रोड पर २९ किमी.), बिठता (चंदेरी से १९ किमी.), भामौन (चंदेरी से १६ किमी.) तथा भियांदांत (चंदेरी से १४ किमी.)।
खंदारगिरि- चंदेरी से पुरानी कचहरी होकर २ किमी. है। यह स्थान चंदेरी के किले के दूसरे और तीसरे दरवाजे के बीच में पड़ता है। मूर्तियाँ और गुफाएँ चट्टानों में से बनाई गई हैं। तलहटी में भट्टारकों की छतरियाँ और मानस्तंभ हैं। ऊपर जाने को सीढ़ियाँ हैं। ऊपर ६ गुफाएँ हैं। यहाँ अनेक तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं।
पपौरा- यह अतिशयक्षेत्र टीकमगढ़ से ५ किमी. तथा ललितपुर स्टेशन से ८५ किमी. है। वृक्षावली से घिरे मैदान में एक परकोटे के अंदर १०७ मंदिर हैं। कुछ मंदिरों में पृथक्-पृथक् गर्भगृहों को पृथक् मंदिर मान लिया गया है। यदि ऐसा न माना जाये तो मंदिरों की संख्या ६० है। ये मंदिर बारहवीं शताब्दी से लेकर बीसवीं शताब्दी तक के बताये जाते हैं। सभी मंदिर शिखरबंद हैं। यहाँ बाहुबली मंदिर विशेष दर्शनीय है।
खजुराहो- खजुराहो न केवल भारत के अपितु विश्व के प्रसिद्ध पर्यटक केन्द्रों में गिना जाता है। इसकी प्रसिद्धि इसके उत्कृष्ट शिल्प और भव्य मंदिरों के कारण है। यहाँ अनेक जैन एवं हिन्दू मंदिर हैं। यहाँ एक अहाते में ३२ जैन मंदिर हैं। कहते हैं कभी यहाँ ८५ मंदिर थे। ५० मंदिर नष्ट हो गए। जैन मंदिरों का यह समूह बस स्टैण्ड से लगभग ३ किमी. की दूरी पर है। खजुराहो में चंदेलकालीन शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना मिलता है। यहाँ के मंदिरों को तीन समूहों में रखा जा सकता है-पश्चिमी, पूर्वी और दक्षिणी। पश्चिमी समूह में हिन्दुओं के प्रसिद्ध मंदिर, चौंसठ योगिनी मंदिर, महादेव मंदिर, कंदारिया मंदिर आदि प्रसिद्ध मंदिर हैं। कंदारिया मंदिर खजुराहो के मंदिर समूह में सबसे बड़ा मंदिर है। पूर्वी समूह में हिन्दुओं का प्रसिद्ध मंदिर हनुमान मंदिर और ४ प्रसिद्ध जैन मंदिर हैं-आदिनाथ, पाश्र्वनाथ, शांतिनाथ और घंटई। जैन मिंदरों में पाश्र्वनाथ मंदिर सबसे सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। दक्षिणी समूह में दूल्हादेव और चतुर्भुज मंदिर है। मंदिरों की भीतर और बाहरी भित्तियों, शिखरों, द्वार शाखाओं पर तीर्थंकर मूर्तियों के अतिरिक्त शासन देव-देवियों, सुर-सुंदरियों, गंधर्व-मिथुनों और व्यालों की भी मूर्तियाँ बनी हुई हैं। यहाँ के मंदिरों की मूर्तियों में १००० वर्ष पुरानी अनेक मूर्तियाँ हैं। शांतिनाथ मंदिर में भगवान शांतिनाथ की मूर्ति लगभग ५ मीटर ऊँची है और अतिमनोज्ञ है। पाश्र्वनाथ मंदिर के खुले मैदान में एक संग्रहालय है जिसमें प्राचीन जैन मूर्तियाँ संग्रहीत हैं।
आहार जी- टीकमगढ़ से आहार जी २० किमी. है। यह अतिशयक्षेत्र है। यहाँ भगवान शांतिनाथ का मंदिर है। इसका निर्माण पाड़ाशाह ने कराया था। मूलनायक प्रतिमा भगवान शांतिनाथ की है, जो लगभग ५ मीटर ऊंची है। हाल में ९२ दीवार वेदियाँ, तीन चौबीसी और २० विदेह क्षेत्रस्थ तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ विराजमान हैं। गर्भगृह के बाहर चार वेदियाँ हैं। मुख्य मंदिर के अतिरिक्त ६ मंदिर तथा २ मानस्तंभ और हैं। क्षेत्र से लगभग ४०० मीटर के फासले पर पहाड़ी पर ६ लघु मंदिर हैं। क्षेत्र पर एक संग्रहालय है, जिसमें निकटवर्ती क्षेत्र से प्राप्त पुरातत्व सामग्री संग्रहीत है। इनमें अनेक मूर्तियाँ ११वीं-१२वीं शताब्दी की बताई जाती हैं।
द्रोणगिरि— बड़ा महलरा से द्रोणगिरि ७ कि.मी. है। सागर, हरपालपुर, महोबा, सतना से भी बड़ा—मलहरा पहुंचा जा सकता है। यह इन सभी जगह से लगभग १०० कि. मी. पड़ता है। गांव का नाम सेंदपा है। द्रोणगिरि क्षेत्र पहाड़ी पर है। सेंदपा बस अड्डे से ९० मीटर दूर गांव के भीतर गुरुदत्त जैन संस्कृत विद्यालय है। यह निर्वाणक्षेत्र माना जाता है। यहां से गुरुदत्त आदि साढ़े आठ करोड़ मुनियों ने निर्वाण प्राप्त किया था। पर्वत पर पहुंचने के लिए २३२ सीढ़ियां हैं। पर्वत पर २८ जिनालय हैं।
नैनागिरि (रेशंदीगिरि)— यह निर्वाणक्षेत्र है। लगभग ईसा पूर्व नौवीं शताब्दी में यहां पाश्र्वनाथ का समवसरण आया था। साथ ही पंच ऋषिराजों ने यहां से मोक्ष प्राप्त किया था। खुदाई में १३ प्रतिमाओं सहित मंदिर निकला था। बड़ा—मलहरा से दलपतपुर (६४ कि.मी.) है। वहां से रेशंदीगिरि १२ कि.मी. है। सड़क के एक ओर (पहाड़ी पर) क्षेत्र है, दूसरी ओर गांव है। पर्वत पर ३८ और तलहटी में १३ मंदिर हैं। तलहटी के मंदिरों में जलमंदिर अतिभव्य है।
पजनारी- पजनारी अतिशयक्षेत्र है। सागर से कानपुर रोड पर २२ किमी. पर कंदारी ग्राम है। वहाँ से ५ किमी. पर पजनारी क्षेत्र है। मंदिर में भगवान शांतिनाथ की सवा मीटर ऊँची पद्मासन प्रतिमा है। दोनों पाश्र्वों में भगवान कुंथुनाथ और भगवान अरनाथ की लगभग पौने दो मीटर ऊँची खड्गासन मूर्तियाँ हैं।
बीना बरहा- यह भी अतिशयक्षेत्र है, जो सागर से देवरी कला होकर ७२ किमी. है। क्षेत्र पर ६ जैन मंदिर हैं। मुख्य मंदिर भगवान शांतिनाथ का है। उनकी खड्गासन प्रतिमा साढ़े चार मीटर अवगाहना की है। इस प्रतिमा के अतिशयों की अनेक अनुश्रुतियाँ प्रचलित हैं। क्षेत्र पर प्रवेश करने के लिए नदी पार करनी होती है। ग्राम में प्राचीन भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। कई मकानों में इन भग्नावशेषों का उपयोग उदारतापूर्वक किया गया है। गांव की सीमा पर यह क्षेत्र है। कोई प्रवेश द्वार या अहाता नहीं है।
कुंडलपुर (कुंडलगिरि)— कुंडलपुर अतिशयक्षेत्र है। जब से इसे अंतिम अनुबद्ध केवली श्रीधर की निर्वाण भूमि कहा जाने लगा है, तब से इसे सिद्धक्षेत्र भी मानते हैं। यह स्थान दमोह से पटेरा होते हुए ३८ कि.मी. है। कुंडलाकार पर्वतमाला से घिरा यह स्थान अत्यंत रमणीक है। यहीं वर्धमान सागर नामक सरोवर की एक ओर मंदिरों की शृंखला है और तीन ओर पर्वतमाला। पर्वत पर मंदिरों की संख्या ६१ है। एक मानस्तंभ भी है। मुख्य मंदिर पहाड़ी पर मंदिर नं. ११ है। इसे बड़े बाबा का मंदिर कहा जाता है। इसमें बड़े बाबा की लगभग ४ मीटर ऊंची पद्मासन प्रतिमा है। धारणानुसार यह र्मूित भगवान महावीर की मानी जाती है किन्तु लक्षणादि से यह भगवान आदिनाथ की प्रतिमा है। यहां कलापूर्ण भव्य मंदिर निर्माणाधीन है। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से यहाँ बहुत विकास हुये हैं। इस स्थान से महाराज छत्रसाल का संबंध रहा है। कहते हैं, उन्होंने यहां मनौती मनाई थी। फलत: उन्हें विजय प्राप्त हुई। विजयोपरांत उन्होंने यहां पक्का घाट बनवाया। मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। पीतल का दो मन का घंटा तथा अन्य वस्तुएं भेंट कीं। उनके सान्निध्य में एक विशाल समारोह भी हुआ था।
त्रिपुरी (तेवर)- यह स्थान जबलपुर से ९ किमी. पश्चिम में है। इसका वर्तमान नाम तेवर है। इसके समीप संगमरमर की चट्टानें तथा नर्मदा का धुआंधार जलप्रपात है। बंदरकूदनी नामक प्रसिद्ध संगमरमरी चट्टानें यहीं हैं। यह स्थान अति मनोज्ञ एवं प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण है। यात्री लोग नाव में बैठकर इसको देखने जाते हैं। लौटते हुए मार्ग में चौंसठ योगनियों का मंदिर पड़ता है।
मढ़िया- मढ़िया जी एक अतिशयक्षेत्र है, यह पिसनहारी की मढ़िया के नाम से प्रसिद्ध है। जबलपुर से ६ किमी. दूर है। सड़क के किनारे ही धर्मशाला तथा महावीर जिनालय है। उसके सामने एक मानस्तंभ है। मंदिर एक पहाड़ी पर है। यहाँ कुल ३७ मंदिर हैं। यहाँ नंदीश्वर द्वीप की रचना अनुपम है।
कोनी (कुण्डलगिरि)- यह अतिशयक्षेत्र है। जबलपुर-दमोह मार्ग पर जबलपुर से ३२ किमी. की दूरी पर पाटन है। वहाँ से ४ किमी. दूर बासन ग्राम है। कोनी बासन से २ किमी. है। यहाँ कुल १० मंदिर हैं। गर्भमंदिर अतिशयसम्पन्न है। इस मंदिर में सहस्रकूट चैत्यालय हैं। यहीं नंदीश्वर जिनालय भी दर्शनीय है।
लखनादौन- लखनादौन जबलपुर-सिवनी मार्ग पर है और जबलपुर से ८३ किमी. दूर है। यह राष्ट्रीय मार्ग नं. २६ एवं नं. ७ के संगम पर स्थित है। यहाँ महावीर दिगम्बर जैन मंदिर है। इस मंदिर में भगवान महावीर की भूगर्भ से प्राप्त पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। प्रतिमा अत्यन्त भव्य एवं अतिशयसम्पन्न है।
पनागर— यह स्थान जबलपुर से कटनी-जबलपुर रोड पर १६ किमी. की दूरी पर है। जबलपुर-सागर रेलमार्ग के देवरी स्टेशन से पनागर केवल १ किमी. पड़ता है। यहाँ भगवान शांतिनाथ की सातिशय मूर्ति है। यह लगभग ढाई मीटर ऊँची है। इस नगर में कुल १७ मंदिर हैं। पंचायती मंदिर में भगवान ऋषभदेव की कायोत्सर्गासन में लगभग ढाई मीटर ऊँची अत्यन्त मनोज्ञ प्रतिमा है। इसके अतिशयों के कारण ही यह क्षेत्र प्रसिद्ध हुआ है। यहाँ सम्मेदशिखर की रचना दर्शनीय है।
बहोरी बंध- यह जबलपुर से ६४ किमी. और सिहोरारोड रेलवे स्टेशन से २४ किमी. है। मध्यकाल में यह प्रसिद्ध सांस्कृतिक केन्द्र और समृद्ध नगर था। ब्राह्मण, जैन और बौद्ध तीनों धर्मों के मंदिर यहाँ थे। जैनों का तो बहुत बड़ा केन्द्र रहा है। यहाँ एक हजार वर्ष पुरानी भगवान शांतिनाथ की ४ मीटर ऊँची प्रतिमा है। यहाँ तीन मंदिर हैं। भगवान शांतिनाथ की मूर्ति के कारण इस क्षेत्र की गणना अतिशयक्षेत्रों में की जाती है। खुदाई में १६ मूर्तियाँ निकली हैं। क्षेत्र पर आवास की व्यवस्था है।
मक्सी पार्श्वनाथ- यह अतिशयक्षेत्र भोपाल-उज्जैन रेल लाइन पर मक्सी स्टेशन से ३ किमी. दूर है। स्टेशन से लगभग २०० मीटर के फासले पर दिगम्बर जैन धर्मशाला है। उज्जैन से यह ३८ किमी. और इंदौर से ७२ किमी. है। क्षेत्र पर दो मंदिर हैं। बड़ा मंदिर भगवान पाश्र्वनाथ का है। उन्हीं के अतिशय के कारण यह अतिशयक्षेत्र बना है। मंदिर में दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही अपनी मान्यतानुसार दर्शन-पूजन करते हैं। पुजारियों पर कोई प्रतिबंध नहीं है। दिगम्बर लोग पूजन प्रात: ६ से ९ बजे तक करते हैं। छोटा मंदिर भगवान सुपाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर है।
उदयगिरि गुहा मंदिर- विदिशा से ६ किमी. और सांची से ८ किमी. पर है। पहाड़ काटकर गुफाओं का निर्माण किया गया है। बीस गुफाएँ हैं, जिनमें नं. १ और नं. २० जैन हैं, शेष शैव और वैष्णव हैं।
बावनगजा (चूलगिरि)— इंदौर से सड़क द्वारा १५० कि.मी. बड़वानी है, वहां से यह क्षेत्र ७ कि.मी. है। बस क्षेत्र तक जाती है। यह सिद्धक्षेत्र है। माना जाता है कि इंद्रजीत, कुंभकरण आदि अनेक मुनि यहां से मोक्ष पधारे थे। यहां पाषाण में भगवान आदिनाथ की लगभग २७ मीटर ऊंची प्रतिमा उकेरी हुई है। (यह प्रतिमा ५२ हाथ ऊंची है, पहले संभवत: एक हाथ को गज कहते थे इसलिए यह बावनगजा कहलाती है) अनुमान है कि यह र्मूित १३वीं शताब्दी से पहले की है। पहाड़ी पर ११ और तलहटी में १५ मंदिर हैं।
बड़वानी- यह एक अच्छा नगर है। यहाँ पर विशाल दिगम्बर जैन मंदिर है। चूलगिरि क्षेत्र की चार धर्मशालाएँ भी बड़वानी में हैं।
पावागिरि (ऊन)— यह सिद्धक्षेत्र है। यहाँ से स्वर्णभद्र आदि मुनियों को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। यहाँ के चमत्कारों के बारे में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। ऊन इंदौर से १४५ किमी., खण्डवा से १०४ किमी., सनावद से ८३ किमी. है। यहाँ तीन मंदिर हैं। ग्वालेश्वर या शांतिनाथ मंदिर क्षेत्र से दो फर्र्लांग पर है। लौटने के मार्ग में पंच पहाड़ी नामक एक टीला है। उस पर पाँच लघु मंदिर हैं। ऊन नगर में ११वीं-१२वीं शताब्दी के मंदिर और मूर्तियाँ हैं।
सिद्धवरकूट– ऊन से सनावद होते हुए मांधाता पहुँचना चाहिए। यह दूरी कुल ८८ किमी. है। मांधाता से सिद्धवरकूट जाना होता है। इंदौर-खण्डवा रेलमार्ग पर बड़वाह स्टेशन से यह क्षेत्र केवल १९ किमी. है। सिद्धवरकूट नर्मदा और कावेरी नदियाँ का संगम स्थल है। मांधाता में क्षेत्र की धर्मशाला है। धर्मशाला के मैनेजर से नाव आदि की पूरी जानकारी मिल जाती है। सिद्धवरकूट क्षेत्र को नाव द्वारा ही जाना जाता है। यहाँ दोनों नदियों के मध्य पर्वत आ गया है। उसी पर्वत पर प्रसिद्ध ओंकारेश्वर वैष्णव तीर्थ है। अब नदी पर बांध बंध जाने से सीधा सड़क संपर्क हो गया है। सिद्धवरकूट सिद्धक्षेत्र है। यहाँ से २ चक्रवर्ती, १० कामदेव और असंख्य मुनि मुक्त हुए हैं। यहाँ १० जिनालय और १४ धर्मशालाएँ हैं।