उत्सव-महोत्सव की शृँखला में अपने-अपने स्थानीय जिनमंदिरों अथवा तीर्थक्षेत्रों पर जाकर २४ तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मकल्याणक आदि कल्याणक तिथियों पर विशेष आयोजन करना चाहिए। यदि किसी भी तीर्थंकर भगवान का जन्मकल्याणक उनकी साक्षात् जन्मभूमि में जाकर मनाया जाये, तो वह अति उत्तम फल प्रदायक सिद्ध होगा।
समाज में कहीं भी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव आयोजित किये जाते हैं, तब विभिन्न कल्याणकों के समय तीर्थंकर भगवान के नामोच्चार में कोई परिवर्तन नहीं करना चाहिए अर्थात् यदि भगवान महावीर का पंचकल्याणक हो रहा है तब जन्मकल्याणक के अवसर पर उनका नाम ‘महावीर कुमार’ उच्चारित नहीं करना चाहिए अपितु तीर्थंकर महावीर स्वामी का उद्बोधन दिया जाना चाहिए। इसी प्रकार दीक्षाकल्याणक के अवसर पर अनेकश: लोग भगवान के नाम के आगे ‘सागर’ का उच्चारण करने लगते हैं अत: चूँकि तीर्थंकर भगवान तो जन्म से ही तीनलोक के नाथ की उपमा से सुसज्जित होते हैं, जिनके गर्भ में आने के पहले ही सौधर्म आदि इन्द्रों तथा धनकुबेर द्वारा विशेष उत्सव सम्पन्न किया जाता है अत: किसी भी तीर्थंकर के दीक्षाकल्याणक में किसी सामान्य मुनि की तरह नाम में ‘‘सागर’’ लगाकर उनका उद्बोधन करना उचित नहीं है अत: भगवान का नाम ज्यों का त्यों ही दीक्षाकल्याणक के अवसर पर उच्चारित करना चाहिए।
इस पंचमकाल में ध्यान साधना करके अपने मन को एकाग्र करना अत्यन्त कठिन होता है अत: ध्यानाग्नि से कर्मों की निर्जरा करने के प्रयास करना उचित है लेकिन बहुलता से सभी को भगवान की पूजा भक्ति, अभिषेक, जाप्यानुष्ठान, स्वाध्याय, स्तोत्र आदि का पाठ, गुरु भक्ति जैसे कार्यों में सदैव निमग्न रहकर शुभोपयोग में अपना समय व्यतीत करना चाहिए, यह इस पंचमकाल में आत्मा को पवित्र करके उत्तम गति दिलाने में मुख्य कारण है।
एक लक्ष्य की पूर्णता होने के पहले ही दूसरे लक्ष्य की योजनाएँ निर्धारित कर ली जाना चाहिए। इससे व्यक्ति का मन-मस्तिष्क सदैव उचित कार्य में निर्धारित लक्ष्य पर केन्द्रित रहता है अत: स्वयं की उन्नति के साथ परिवार, समाज, देश व संस्कृति की उन्नति में भी हम अपना कुछ सहयोग प्रदान कर पाते हैं।
जैनधर्म में निहित कर्म सिद्धान्त के अनुसार आत्मा के साथ कर्मों का आस्रव सदा चला करता है। अत: विशेषरूप से प्रत्येक व्यक्ति को रात्रि में सोते समय सदैव चिंतन के द्वारा तीर्थों-जिनमंदिरों की वंदना, गुरुओं का दर्शन तथा भगवान की भक्ति का स्मरण करना चाहिए, जिससे कि नींद में भी सोते समय शुभ कर्मों का आस्रव हो सके, क्योंकि जैसा चिंतन सोने से पूर्व होता है, वैसे ही स्वप्नों का दर्शन मन के अंदर सुप्त अवस्था में भी देखा जाता है।
किसी भी कार्य को कभी बिना सोचे नहीं करना चाहिए लेकिन उस कार्य को करने के लिए इतना भी नहीं सोचना चाहिए कि वह कार्य ही प्रारंभ न हो सके। अर्थात् थोड़ा सोच-विचार करके कार्य को प्रारंभ कर देना चाहिए।
अक्सर ऐसा होता है कि समाज में जिनमंदिर का व्यवस्थित निर्माण करने के उपरांत ही वहाँ जिनबिम्ब पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई जाती है। इस विषय में मेरी मान्यता यह रहती है कि भगवान की मूर्ति मंदिर अथवा तीर्थ स्थल पर आने के बाद सर्वप्रथम उस मूर्ति को यथोचित स्थान पर विराजमान करने हेतु व्यवस्था करके उस जिनबिम्ब का पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव कर दिया जाना चाहिए। पुन: मंदिर के निर्माण में चाहे जितना समय लगे, आगे उसका कार्य किया जाना चाहिए। इससे भक्तों को तीर्थ/मंदिर की पूज्यता का लाभ मिलना प्रारंभ से ही शुरू हो जाता है। अर्थात् मूर्ति को अधिक दिन अप्रतिष्ठित नहीं रखना चाहिए।
अपने सच्चे धर्म, शास्त्र सम्मत मान्यता, परम्परा व सिद्धान्तों में जीवन के किसी भी मोड़ पर समझौता नहीं करना चाहिए। सिद्धान्तवादी व्यक्तित्व की सदैव समाज में प्रतिष्ठा होती है और वह समाज के लिए विशेष प्रेरणादायी बनता है।
किसी भी कार्य को बहुत बड़ा और बहुत अच्छा करने का लक्ष्य बनाना उचित है, लेकिन इस लक्ष्य के साथ ऐसा न हो जाये कि हम वह कार्य छोटे रूप में भी न कर सकें और समय व्यतीत हो जाये, इस बात का सदैव ध्यान रखना चाहिए। इसलिए ज्यादा बड़े कार्य की अपेक्षा छोटे-छोटे कार्यों से ही अपना कार्य शुरू कर देना चाहिए क्योंकि समय पर सम्पन्न हुआ कार्य अधिक महत्वपूर्ण होता है।
जहाँ से सम्पूर्ण कर्मों का नाश करके महान आत्माओं ने मोक्ष को प्राप्त किया, उन्हें सिद्धक्षेत्र या निर्वाणक्षेत्र कहते हैं। वे तीर्थ अत्यन्त महान होते हैं, लेकिन उन महान आत्माओं ने जिस भूमि पर जन्म लिया, वह जन्मभूमि भी उतनी ही पूज्यनीय होती है जितनी कोई निर्वाणभूमि। क्योंकि जन्म के बिना निर्वाण संभव नहीं हो सकता अत: तीर्थंकर भगवन्तों की जन्मभूमियाँ भी महान पूज्य हैं, इनकी एक नहीं अनेक बार वंदना करना अपने जीवन का प्रमुख लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। प्राय: सभी तीर्थंकरों ने अपनी जन्मभूमि में दीक्षा ली और जन्मभूमि में ही केवलज्ञान प्राप्त किया है अत: वहीं समवसरण की प्रथम रचना हुई हैं।
समाज में आर्ष परम्परानुयायी सरस्वती पुत्रों का सदैव सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि विद्वानों ने सदा ही समाज की रीढ़ बनकर धर्म की प्रभावना, संस्कृति का संरक्षण और सिद्धान्तों के प्रति कटिबद्धता का धर्म निभाया है। कुछ समय पहले ही जब प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के समय में समस्त दिगम्बर जैन पिच्छीधारियों की कुल संख्या १०० भी नहीं थी, तब ऐसे समय में एवं उससे पूर्व के समय में निश्चित ही विद्वानों ने महान प्राचीन ग्रंथों का लेखन, टीकाकरण, अनुवाद आदि कार्य सम्पन्न करके अपनी आर्ष परम्परा को जीवंत रखने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और आज भी इस दिशा में तथा विधिविधान, प्रतिष्ठा आदि के क्षेत्र में विद्वानों की भूमिका परम आवश्यक होती है। अत: समाज के लिए सरस्वती पुत्रों का योगदान एवं उनकी भूमिका सदैव सम्मान की पात्र होना चाहिए।
निश्चित ही हमारी यह पुद्गल काया अजीव द्रव्य है और तीनों लोकों का सम्पूर्ण सार आत्मा में ही केन्द्रित होता है लेकिन मनुष्य जीवन को प्राप्त करके आत्मा को परमात्मा के मार्ग पर लगाने में इस पुद्गल काया का उपकार कभी भूलना नहीं चाहिए। क्योंकि शरीर ही आत्मा को मोक्ष तक की यात्रा कराने का प्रमुख साधन है अत: इस जीवन में स्वास्थ्य के प्रति सदैव सजग एवं अनुकूल रहने का सत्प्रयास भी रखना चाहिए।
समय बीतते ही बचपन से जवानी और जवानी से बुढ़ापा कब आ जाता है, इस बात का यथार्थ ज्ञान व्यक्ति को अपनी अकर्मण्य स्थिति में पता लगता है अत: जब हमारा बल, पौरुष एवं इन्द्रियाँ भली प्रकार कार्यरत हों, तभी से समय का कीमत करना सीखकर प्रतिक्षण धर्म मार्ग का अनुसरण करते हुए अपने उचित कर्तव्यों के निर्वहन का दृढ़ लक्ष्य मन में रखना चाहिए।
जीवन के वास्तविक लक्ष्य में बीते समय में प्राप्त सफलता या विफलता महत्वपूर्ण नहीं होती अपितु आगामी पल अर्थात् भविष्य में क्या उचित किया जा सकता है, उसे सोचकर आगे बढ़ना चाहिए। ‘‘जो बीत गया, सो बीत जाने दो, आगे की सुध रखियो’’। यह सोचकर भविष्य में कुछ अच्छा करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
चलते रहना जीवन का प्राथमिक लक्ष्य होना चाहिए अर्थात् सदैव अपने मन, वचन, काय की स्थिति को गतिमान रखते हुए नये-नये लक्ष्यों की ओर कितनी भी धीमी गति अथवा तेज गति से, लेकिन सदा बढ़ते रहना चाहिए। एक घटक पर स्थिर हो जाना, हमें जीवन की अनेक ऊँचाईयों एवं उपलब्धियों से वंचित कर सकता है।
किसी भी कार्य को सम्पन्न करने वाले योग्य कार्यकर्ता की योग्यता पर अविश्वास और अतिविश्वास दोनों ही उचित नहीं है। अर्थात् योग्यतानुसार कार्य की जिम्मेदारी सौंपने के उपरांत उस कार्यकर्ता पर विश्वास करके कार्य के प्रति उसका उत्साह वृद्धिंगत करना चाहिए। लेकिन किसी कार्यकर्ता को अति विश्वास करके पूरी बागडोर छोड़ भी नहीं देना चाहिए।
आर्ष परम्परा का संरक्षण करने वाले पूर्वाचार्यों, पूर्ववर्ती विद्वानों, समाजसेवियों एवं कार्यकर्ताओं के प्रति सदैव सम्मान एवं उपकार की भावनाएं समाज में व्याप्त होना चाहिए और विशेषरूप से अपने परम्परा गुरु का गुणानुवाद एवं उनकी कीर्ति को दिग्दिगंत व्यापी करने का सत्प्रयास करना चाहिए।
अपने अहिंसा परमोधर्म: और आगम परम्परा के प्रति सदैव समर्पण भाव रखकर उसके सम्पोषण, विकास एवं उन्नति में अग्रिम भूमिका निभाना चाहिए।
भाषाओं की महत्ता के आधार पर सदा धर्म, गुरु एवं शास्त्र के वचन आवश्यकतानुसार विभिन्न भाषाओं में अनुवादित कर उनका प्रचार-प्रसार करना चाहिए। विशेषरूप से वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में विख्यात आंग्ल (अंग्रेजी) भाषा का ज्ञानार्जन एवं जैनधर्म की शिक्षाओं, सिद्धान्तों एवं विभिन्न ग्रंथों का अनुवाद अंग्रेजी भाषा में करके विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार करना चाहिए।
धर्म, गुरु एवं संस्कृति के प्रति प्रत्येक व्यक्ति के भावों में इतना समर्पण होना चाहिए कि कभी मन में स्व-अपनी प्रभावना के भाव उत्पन्न न होवे, अपितु सदा धर्म, गुरु और संस्कृति के प्रति कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए उन्हीं की प्रभावना में अपना जीवन न्यौछावर करें।
धर्म की प्रभावना यथासंभव करने का प्रयास रखना चाहिए। इसके लिए वर्तमान में उपलब्ध आधुनिक उपकरणों में टी.वी. चैनल, वी.सी.डी., इंटरनेट, कम्प्यूटर आदि के माध्यम से धर्मप्रभावना का यथोचित प्रयास करना चाहिए।
विद्वानों को अपने प्रवचनों-संभाषणों में किसी तर्व को समझाने हेतु समाज के समक्ष आगम ग्रंथों के आधार पर प्रथमानुयोग के वास्तविक उदाहरणों का उपयोग करना चाहिए। काल्पनिक एवं मिथ्या उदाहरणों से धर्म को समझाने का प्रयास करना उचित नहीं है।
यद्यपि समयसार आत्मोत्थान का अंतिम सत्य है लेकिन सम्पूर्ण जैन वाङ्मय का ज्ञान प्राप्त करना और नियमित उस ज्ञान के आधार पर अपने जीवन की चर्याओं को निर्धारित करना व अपने आत्मप्रकाश को विकसित करते रहने का प्रयास परम आवश्यक है। इसके लिए चारों अनुयोगों के ग्रंथों का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए।
दैनिक स्वाध्याय में करणानुयोग के ग्रंथों का अध्ययन आत्म विकास तथा मनन-चिंतन के लिए अत्यन्त सदुपयोगी होता है। इस संदर्भ में जैन भूगोल का अध्ययन करके नियमित ध्यानपूर्वक मध्यलोक में जम्बूद्वीप आदि के कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्य-चैत्यालयों, अष्टान्हिका में नंदीश्वर द्वीप के शाश्वत जिनमंदिरों, ढ़ाई द्वीप के पंचमेरु पर्वतों व तीनलोक के समस्त जिनबिम्बों का दर्शन करना चाहिए, इससे असंख्य कर्मों की निर्जरा होती है और अपनी आत्मा में चिंतन का अद्भुत विषय प्राप्त होता है। इसी प्रकार निगोद, नरक, मध्यलोक की संरचना, ज्योतिर्लाेक, स्वर्ग, नव ग्रैवेयक, नवअनुदिश, पंच अनुत्तर आदि की व्यवस्थाएँ व साक्षात् मोक्ष का स्थान अर्थात् सिद्धशिला आदि के बारे में विशेष जानकारी प्राप्त करने से मनुष्य जीवन में उचित कर्म करने की प्रेरणा प्राप्त करके उच्च गति में जाने का भाव बंधता है।
मेरी समस्त शिष्यों को यह विशेष प्रेरणा रहती है कि स्वाध्याय अथवा अध्ययन किया हुआ विषय पढ़कर यदि भूल भी गये, तो भी वह व्यर्थ नहीं है, बजाय कि भूलने के भय से पढ़ाई ही नहीं की जाये। वर्तमान में पढ़ा हुआ जैन वाङ्गमय का एक भी अक्षर भले ही इस भव में हमारी स्मृति से बाहर हो जाये, लेकिन कभी न कभी किसी अन्य भव में विकट परिस्थितियों का सामना होने पर कदाचित् पुण्योदय स्वरूप वह पढ़ा हुआ ज्ञान जातिस्मरण बनकर हमें संसार भ्रमण से मुक्ति दिलाने में सहायक बन सकता है। अत: विषय कितना भी कठिन अथवा गूढ़ हो, जो समझ में आवे या न आवे, उसको भी पढ़ना अवश्य चाहिए, क्योंकि वर्तमान में हमारा यह कृत्य कर्मनिर्जरा में तो अत्यन्त सहायक होता ही है और अन्य भवों में यह ज्ञानोदय कभी भी फलदायी सिद्ध होता ही है।
काम करता आदमी ही भला लगता है, फुर्सत में बैठा व्यक्ति न किसी को अच्छा लगता है और न वह स्वयं उन्नति की दिशा प्राप्त कर सकता है अत: काम करने से भागने का प्रयास कभी उन्नतिदायक नहीं हो सकता है। अत: कोई भी काम करने से कभी बचे नहीं। व्यस्तता हमारे मानसिक एवं शारीरिक संतुलन व विकास के लिए भी परम आवश्यक है।
णमोकार महामंत्र अत्यन्त शक्तिशाली मंत्र है। इस मंत्र से चौरासी लाख अन्य मंत्रों की उत्पत्ति बतलाई गई है अत: जितने भी जैन महानुभाव हैं, उन सबको अपने घर के मुख्य द्वार पर, शयन कक्ष के मुख्य द्वार पर या अन्य किसी भी आवश्यक स्थान पर अर्थात् दूकान, ऑफिस, पैक्ट्री आदि के मुख्य द्वार पर णमोकार महामंत्र अवश्य लिखना चाहिए। यह रक्षा कवच मंत्र सदैव किसी भी आपत्ति-विपत्ति में हमें समाधान प्रदान करने की मदद करता है।
अपने घरों, बंगलों, ऑफिस आदि के निर्माण में प्रत्येक जैन व्यक्ति को सदैव खिड़की, दरवाजे, रोशनदान आदि स्थानों पर किसी भी जैन चिन्ह की डिजाइन से समन्वित जाली आदि लगाना चाहिए। जैसे-लकड़ी के दरवाजों पर डिजाइन अथवा खिड़की, रोशनदान में लगने वाले लोहे के जाल में तीनलोक का नक्शा, सुमेरु का नक्शा, स्वस्तिक चिन्ह, भरतक्षेत्र-आर्यखण्ड का नक्शा आदि जैन चिन्ह बनाये जा सकते हैं। दीवारों पर भी इस प्रकार के जैन चिन्हों की कारविंग की जा सकती है।
मंदिर, मकान, ऑफिस आदि किसी भी निर्माण के समय विधानाचार्य को बुलाकर जैन विधि-विधान अवश्य कराना चाहिए। विशेषरूप से किसी भी नये निर्माण की नींव अथवा नई दीवार, छत आदि के शुभारंभ में जैन रक्षा यंत्र अवश्य्र रखना चाहिए। यह आध्यात्मिक शक्ति प्रदायक तथा भविष्य में जैनत्व के संरक्षण के हित में रहता है और सभी की रक्षा में निमित्त बनता है।
मंदिर में, सड़क पर अथवा किसी धर्मशाला में कोई भी पिच्छीधारी साधु-साध्वी दिखने पर उनके प्रति सदैव सम्मान से माथा झुकाकर यथायोग्य विनयपूर्वक नमन करना चाहिए। क्योंकि मुद्रा सदैव पूज्य होती है।
जिस प्रकार बुरे समय को भूलकर अच्छा समय याद रखा जाता है, उसी प्रकार किसी भी व्यक्ति की बुराई को भूलकर सदा उसकी अच्छाई याद रखना चाहिए। ऐसा करने से सकारात्मक कार्यशक्ति बढ़ती है और मानसिक रूप से हमें किसी भी कार्य को प्रगति प्रदान करने में कोई अवरोध नहीं आता है।
प्रतिभा का सदैव मूल्यांकन किया जाना चाहिए, फिर प्रतिभा चाहे किसी बालक में हो, युवा में हो या किसी भी अन्य वर्ग में। क्योंकि दूसरों की उत्कृष्ट प्रतिभा को जानने, उसकी अनुमोदना करने एवं उसका यथायोग्य सम्मान करने से स्वत: हमें अपनी प्रतिभा विकसित करने का बहुमूल्य अवसर प्राप्त होता है। गुणग्राहकता का यह गुण प्रत्येक व्यक्ति में होना आवश्यक है।
लौकिक व्यवहार में बच्चों के जन्मदिन अथवा शादी की सालगिरह आदि को तिथि से मनाना चाहिए, न कि तारीखों से। पुन: इन अवसरों पर केक काटना, मोमबत्ती बुझाना, गुब्बारे फोड़ना जैसी पाश्चात्य परम्परा (काटना, बुझाना, फोड़ना) में कभी विश्वास न रखकर भारतीय संस्कृति पर आधारित लड्डू (मिठाई) बनाना, खाना एवं बाँटना, भगवान के समक्ष दीप समूह को प्रज्ज्वलित करके आरती करना तथा रंग-बिरंगे गुब्बारे पुलाकर उन्हें नील गगन में छोड़ना जैसे शुभ लक्षणी एवं हर्ष प्रदायी कार्य करना चाहिए, ऐसा करना हमारे व्यक्तित्व की धनात्मक ऊर्जा व चिंतन को प्रदर्शित करता है। प्रसन्नता के जितने दिवस अथवा वर्ष बीत गये, उसकी गिनती में एक बढ़ाकर उतने दीपों से भगवान की मंगल आरती करना चाहिए तथा उतने ही फल चढ़ाना चाहिए।
किसी भी धार्मिक मंच पर नाटक के मंचन के दौरान यदि पति-पत्नी का रोल करना होवे, तो सदा एक ही लिंग धारी (लड़का-लड़का या लड़की-लड़की) पात्रों को पति-पत्नी, स्त्री-पुरुष आदि का रोल करना चाहिए। अर्थात् अपनी-अपनी वेशभूषा में दोनों ही तरह के पात्र या तो स्त्री ही होवें या पुरुष ही होवें। क्योंकि किसी स्त्री-पुरुष को पति-पत्नी बना देने से दोष लगता है। यदि सच्चे पति-पत्नी को पति-पत्नी बनाते हैं, तो अति उत्तम है।
बच्चों के जन्मोपरांत नामकरण करते समय उनके नाम देश के महापुरुषों, तीर्थंकर भगवन्तों अथवा किसी उच्च अर्थ वाले शब्दों/नामों का चयन करना चाहिए क्योंकि किसी बच्चे का नाम ‘राम’ रखने पर निश्चित ही उसके जीवन में उसे सदा राम का चरित्र याद रखने की इच्छा उत्पन्न होगी और स्वत: ही उसे अपने कार्यकलाप भी सदा उसी अनुरूप करने की प्रेरणा प्राप्त होती रहेगी।
जैन समाज में प्राचीनकाल से ८४ जातियाँ प्रचलित हैं। उनमें जन्म लेने वाले सभी जाति के लोगों को अपनी-अपनी जैन जाति में विवाह करना चाहिए। इससे सज्जातित्व की रक्षा होती है। इसके अतिरिक्त कोई भी जैन द्वारा किसी भी जैन जाति के लड़के-लड़कियों के साथ विवाह करना अन्तर्जातीय विवाह कहलाता है। जैन से अतिरिक्त जातियों में विवाह विजातीय विवाह है। पति से तलाक लेकर स्त्री द्वारा दूसरे पुरुष के साथ विवाह करना पुनर्विवाह है तथा विधवा नारी द्वारा दूसरा विवाह करना विधवा विवाह कहलाता है। ये प्राचीन आगम परम्परा के विरुद्ध हैं अत: सज्जातित्व की रक्षा करते हुए ऐसे विवाह संबंध नहीं करना चाहिए, ताकि भविष्य में अपनी कुल-परम्परा में तीर्थंकर आदि महापुरुषों का जन्म होता रहे और सतत मोक्ष परम्परा चलती रहे।
राजनीति सदैव धर्मनीति से संयुक्त होना चाहिए ताकि कूटटनीति न बनने पाए। लेकिन धर्मनीति सदा राजनीति से पृथक् ही होना चाहिए। अन्यथा धर्मनीति विकृत हो जाएगी।
धार्मिक मंचों पर राजनेताओं को आमंत्रित करना अपने धर्म की प्रभावना का प्रमुख अंग है। राजनेताओं के आगमन पर हम अपने मंच से अपने धर्म की शिक्षा उन राजपुरुषों तक पहुँचा सकते हैं, जिनके प्रयास से शासन-प्रशासन संचालित होता है। हमारी धर्म शिक्षा का एक अंश भी यदि उनकी राजनीति में घुल जाये, तो निश्चित ही राजनीति में धर्मनीति के इस समावेश से नागरिकों, समाज एवं देश का न्यायपूर्ण उत्थान संभव हो सकता है। अत: धार्मिक क्षेत्र में राजनेताओं का आगमन निरर्थक नहीं मानकर सार्थक मानना चाहिए।
समाज में सदा शिक्षाविदों-डॉक्टर, प्रोपेसर और कुलपति आदि का उचित सम्मान किया जाना चाहिए। क्योंकि विकास के विरले चिंतन की धाराएं इन्हीं के मन-मस्तिष्क में बहती हैं।
वर्तमान में देखा जा रहा है कि आधुनिक शोधकर्ताओं द्वारा प्राचीन सदियों में महान जैनाचार्यों द्वारा लिखित जैन आगम में उल्लेखित साक्ष्यों पर पृथक दृष्टिकोण से शोध करके नई-नई अवधारणाएँ एवं निष्कर्ष प्रस्तुत किया जाता है, यह कदापि उचित नहीं है। अत: शोध करने वाले शोधार्थियों को प्रस्तावित शोध ग्रंथ का सूक्ष्मता से अध्ययन करके ही लेखनी चलानी चाहिए। जैसे-कुछ लोग ऋषभ जन्मभूमि, राम जन्मभूमि अयोध्या को थाईलैण्ड में कह देते हैं आदि।
किसी भी धार्मिक स्थल/तीर्थ/मंदिर की परम्पराओं व मान्यताओं को अपनी मान्यतानुरूप बदलना अथवा बदलने का प्रयास करना अनुचित है। प्रत्येक तीर्थ पर प्राचीनकाल से चली आ रही मान्यता अर्थात् बीसपंथ, तेरहपंथ परम्परा सभी को ग्राह्य होना चाहिए।
किसी भी तीर्थ पर लगे प्राचीन शिलालेखों को हटाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। यदि तीर्थ का जीर्णोद्धार भी किया जाये, तब भी उन शिलालेखों को सुरक्षित निकालकर पुन: जीर्णोद्धार के उपरांत यथास्थान लगा देना चाहिए, यही प्राचीन संस्कृति के संरक्षण हेतु हमारा परम कर्तव्य है।
अपने जीवन में कतिपय सिद्धान्तों के प्रति सदैव कड़ा अनुशासन रखना चाहिए। पुन: उस अनुशासन की सीमा से स्वयं बंधकर रहना चाहिए और अन्यों की भूमिका भी उसी के अनुकुल स्वीकार्य होना चाहिए।
प्रत्येक तीर्थंकर भगवन्तों के केवलज्ञानकल्याणक की तिथि को शासन जयंती पर्व के रूप में उद्घोषित करके उल्लासपूर्वक उसका उत्सव-महोत्सव समाज में अवश्य करना चाहिए। विशेषरूप से प्रतिवर्ष फाल्गुन कृ. ग्यारस को युग का प्रथम दिव्यध्वनि दिवस मनाते हुए भगवान ऋषभदेव शासन जयंती पर्व, धर्मविच्छेद काल के उपरांत पुन: उदित हुए धर्म सूर्य के अविच्छिन्न रहने वाले पौष शुक्ला दशमी को भगवान शांतिनाथ शासन जयंती पर्व तथा वर्तमान शासनपति अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का दिव्यध्वनि दिवस श्रावण कृ. एकम् को अवश्य मनाना चाहिए।
धार्मिक दृष्टिकोण से कोई व्यक्ति किसी कार्य विशेष को करने अथवा नहीं करने के लिए जब कटिबद्ध हो जाता है, तब जैनधर्म के कर्म सिद्धान्त के अनुसार उसके संयम के प्रति पुण्य योग का बंध प्रारंभ हो जाता है। अत: बिना किसी प्रयास के अत्यन्त सरलतापूर्वक एक विशेष नियम का पालन प्रत्येक व्यक्ति कर सकता है, वह है-रात्रि विश्राम की अवस्थिति में आवश्यक अर्थात् अपने ओढ़ने-बिछाने के परिग्रह को छोड़कर अन्य समस्त परिग्रह का त्याग कर देना। अर्थात् रात्रि सोने के उपरांत तथा उठने से पहले तक के लिए आवश्यक परिग्रह के अलावा अन्य सभी परिग्रह तथा चतुर्विध आहार का भी नियमपूर्वक त्याग कर देना। इस नियमपूर्वक अनायास किसी घटना-दुर्घटना में प्राण निकलने पर समाधिपूर्वक मरण से उच्च गति प्राप्त होती है।
संसारी प्राणी के सदा ही आर्तध्यान और रौद्रध्यान लगा रहता है, लेकिन रात्रि सोते समय एवं प्रात:काल उठते समय ९ बार णमोकार महामंत्र पढ़ने से सम्पूर्ण रात्रि एवं सम्पूर्ण दिवस दोनों ही मांगलिक होते हैं तथा मन मेें सदा शुभ भावों का परिणमन होता है। इससे बुरे कर्मों का आस्रव कम होता है, व्यक्तित्व भी महान बनता है तथा अनिष्ट की संभावना भी समाप्त होती हैं अत: प्रत्येक माता-पिता को अपने घर में बच्चों को प्रारंभ से ही रात्रि सोने व सुबह उठने के समय ९ बार णमोकार महामंत्र पढ़ने के संस्कार अवश्य देना चाहिए।
पंचमकाल में यद्यपि मोक्ष नहीं जा सकते, लेकिन यह पंचमकाल हम सबके लिए चतुर्थकाल से भी अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि उस चतुर्थ काल के आने पर हम कुछ नहीं कर पाए होंगे, तभी आज तक इस संसार में भटक रहे हैं अत: वर्तमान में इस पंचमकाल में जिन्होंने संयम को धारण कर लिया है तथा सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय को प्राप्त कर लिया है, ऐसे मोक्षमार्गी जीवों के लिए चतुर्थ काल की अपेक्षा यह पंचमकाल भी अत्यन्त श्रेयस्कर है अत: हमें इस पंचमकाल में ही भगवान की अत्यधिक भक्ति करके मोक्ष प्राप्ति का पुरुषार्थ अवश्य करते रहना चाहिए।
यह शरीर नाशवान है अंत में एक दिन माटी में ही मिल जायेगा अत: जितना अधिक से अधिक कठोर परिश्रम करने की आपमें सामथ्र्य है, उतना कार्य इस शरीर को नौकर मानकर इससे लेना चाहिए। आवश्यक राशन-पानी (भोजन) देकर सदा ही इस शरीर का उपयोग धर्म आदि अच्छे पुरुषार्थ के लिए करते रहना चाहिए।
जैन शास्त्रों का कोई विषय समझ में नहीं आने पर भी उसे एक बार पूरा अवश्य पढ़ना चाहिए। पढ़ने के उपरांत उस विषय से संदर्भित बुद्धि का विकास अपने आप होता है और एक बार, दो बार अथवा तीन बार में वह विषय हमारे गम्य बन जाता है। अत: कोई विषय कठिन महसूस होने पर उससे दूर भागना उचित नहीं है।
संसार में तीर्थंकर भगवन्त समस्त पूज्य पुरुषों में सबसे महान और पूज्य हैं, चक्रवर्ती सम्राट् सबसे अधिक वैभवशाली पूजक हैं, उनके द्वारा किया गया महान पूजा अनुष्ठान ‘‘कल्पद्रुम महा विधान अनुष्ठान’’ कहलाता है। सभी श्रावकों को जीवन में एक बार कल्पद्रुम विधान अवश्य करना चाहिए।