प्रस्तुति—आर्यिका सुव्रतमती
(संघस्थ-गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी)
एकीभाव स्तोत्र के रचयिता, श्री वादिराजसूरि ने जिनधर्म की प्रभावना के लिए भगवान की भक्ति में एकीभाव स्तोत्र की रचना करके अपने शरीर के कुष्ट रोग को दूर करके शरीर को स्वर्णमय बना लिया था। इस एकीभाव स्तोत्र पर प्रज्ञाश्रमणी पूज्य आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी ने विधान की रचना की है, यह विधान भी चमत्कारिक विधान है। विधान के प्रारम्भ में पूज्य माताजी ने लिखा है—
तीर्थंकर प्रभु की भक्ति सदा ही, सच्चे सुख को देती है।
वह दुर्गति का वारण करके, भव-भव के दुख हर लेती है।।
श्री वादिराज मुनि ने प्रभु भक्ति से, तन का कुष्ट मिटाया था।
निज काया को कर स्वस्थ स्वर्णमय, धर्मरूप दरशाया था।
इस एकीभाव स्तोत्र विधान में १ पूजा, २५ अघ्र्य, १ पूर्णाघ्र्य एवं १ जयमाला है। नई-नई तर्ज एवं कई छन्दों में लिखा गया यह विधान अतिशयकारी है। सर्वरोग निवारक इस विधान में अर्घावली में पूज्य माताजी ने बहुत ही सुन्दर भाव संजोए हैं—
हे जिनेन्द्र प्रभु! तुम भक्ती से, भवसागर को तरना है। मनमंदिर में तुम्हें बिठाकर, तन को स्वर्णिम करना है।।
इस विधान की जयमाला में पूज्य माताजी ने एकीभाव स्तोत्र रचना के कथानक को लिखा है जिसे पढ़कर भक्ति का आनन्द लेते हुए इस स्तोत्र की रचना वैâसे और किस निमित्त से हुई ? इसका सहज ही ज्ञान हो जाता है। इस विधान की जयमाला में पूज्य माताजी ने लिखा है—
प्रभु भक्ति करने से मुक्ति श्री मिलती है।
मन उपवन की मुरझाई सब कलियाँ खिलती हैं।।
जयमाला का अर्घ्य चढ़ा नव निधियाँ मिलती हैं। प्रभु………….
इस विधान को करने, कराने वाले सभी महानुभाव रोग, शोक को दूर करके, शारीरिक स्वस्थता को प्राप्त करें और प्रभु की भक्ति करते हुए एक दिन मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करें यही मंगल भावना है।
सिद्धिप्रदा: षोडश भावना या:। तीर्थंकरै: प्राव्â खलु भावितास्ता:।
प्रवर्तयंते भुवि धर्मतीर्थं। तास्तांश्च नित्यं प्रणुमः स्वसिद्ध्यै।।१।।
तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराने वाली सोलहकारण भावनाएँ हैं। जो इन भावनाओं को बार-बार भाते हैं अर्थात् चिन्तवन करते हैं, उन्हें एक न एक दिन अवश्य ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है। वे सोलहकारण भावनाएँ कौन सी हैं ? तत्त्वार्थसूत्र की छठी अध्याय में २४ वें सूत्र में सोलहकारण भावनाओं के नाम हैं—
‘‘दर्शनविशुद्धिर्विनयसंपन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी
साधुसमाधि-र्वैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यका-परिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य।।२४।।’’
(१) दर्शनविशुद्धि (२) विनयसम्पन्नता (३) शीलव्रतेष्वनतिचार (४) अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, (५) संवेग (६) शक्तितस्त्याग (७) शक्तितस्तप (८) साधुसमाधि (९) वैयावृत्यकरण (१०) अर्हंतभक्ति (११) आचार्यभक्ति (१२) बहुश्रुतभक्ति (१३) प्रवचनभक्ति (१४) आवश्यक अपरिहाणि (१५) मार्गप्रभावना (१६) प्रवचनवत्सलत्व । इन सोलहकारण भावनाओं में से दर्शनविशुद्धि का होना अत्यन्त आवश्यक है। अन्य सभी भावनायें हों अथवा कुछ कम भी हो फिर भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है। चारित्र चन्द्रिका परम पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माता ने पूज्य माताजी की पावन प्रेरणा से ‘सोलहकारण विधान’ की रचना की है। इस विधान में पूज्य माताजी ने नए-नए तर्ज एवं कई छन्दों का प्रयोग किया है। विधान बहुत सुन्दर, सौष्ठव एवं लालित्यपूर्ण है। विधान के प्रारम्भ में समुच्चय पूजा के अन्दर कितनी सुन्दर पंक्तियाँ पूज्य माताजी ने संजोई हैं—
दर्शनविशुद्धि हो, आतम की शुद्धि हो, आगे तीर्थंकर बनके इस जग से मुक्ति हो, आओ करें मिल आज सोलहकारण पूजा।।२।।
जो सोलह भावना भाते, वे तीर्थंकर बन जाते। केवलि श्रुतकेवलि पद में, ऐसे स्वर्णिम क्षण मिलते।।
भावों की शुद्धि हो, निजगुण की वृद्धि हो, आगे तीर्थंकर बनके इस जग से मुक्ति हो। आओ करें मिल आज सोलहकारण पूजा।।१।।
जिस समय पूज्य माताजी ने इस विधान की रचना की होगी, उस समय उनके परिणामों में कितनी अधिक विशुद्धि होगी, क्योंकि हृदय में जैसे भाव-परिणाम होते हैं वैसे ही हम उसकी अभिव्यक्ति कर पाते हैं। इस विधान को करने, कराने वाले सभी महानुभाव जब इन पंक्तियों को बार-बार पढ़ेंगे तो अवश्य ही उनके परिणामों में विशुद्धता आएगी और उनका सम्यग्दर्शन दृढ़होगा। पहली पूजा की जयमाला में पूज्य माताजी ने कितने सुन्दर भाव लिखे हैं—
गुरुओं की वैयावृत्ति का जो भाव बनाते। वे भीम के समान तन की शक्ति को पाते।।
हे नाथ! कृपा करके मुझे शक्ति दीजिए। सोलह सुभावना के लिए युक्ति दीजिए।।७।।
निःशंकित आदि आठ अंगों से सहित और २५ मल दोषों से रहित निर्मल सम्यग्दर्शन का होना ‘दर्शनविशुद्धि’ है। रत्नत्रय तथा उनके धारकों की विनय करना ‘विनय सम्पन्नता’ है। अहिंसादिव्रत और उनके रक्षक क्रोध त्याग आदि शीलों में विशेष प्रवृत्ति ‘शीलव्रतेष्वनतिचार भावना’ है। निरन्तर ज्ञानमय उपयोग रखना और संसार से भयभीत होना ‘अभीक्ष्णज्ञानोपयोग’ और संवेग भावना है। यथाशक्ति दान देना और उपवासादि तप करना ‘शक्तितस्त्याग एवं शक्तितस्तप भावना है। साधुओं के विघ्न आदि को दूर करना ‘साधुसमाधि’ भावना है। रोगी तथा बालवृद्ध मुनियों की सेवा करना वैय्यावृत्यकरण’ भावना है। अर्हन्त भगवान की भक्ति करना ‘अर्हद्भक्ति भावना’ है। दीक्षा देने वाले आचार्यों की भक्ति करना ‘आचार्य भक्ति’ भावना है। उपाध्यायों की भक्ति करना ‘बहुश्रुतभक्ति’ भावना है। शास्त्रों की विनय करना ‘प्रवचन भक्ति’ भावना है। सामायिक आदि छह क्रियाओं में हानि नहीं करना ‘आवश्यकापरिहाणि’ भावना है। जैनधर्म की प्रभावना करना ‘मार्गप्रभावना’ है। गोवत्स की तरह धर्मात्मा जीवों से स्नेह रखना ‘प्रवचनवत्सलत्व’ भावना है। ये सभी भावनायें तीर्थंकरप्रकृति नामकर्म के आस्रव में कारण हैं। इस विधान में १७ पूजा, २४४ अघ्र्य एवं २१ पूर्णाघ्र्य हैं। बहुत ही सुन्दर ढंग से पूज्य माताजी ने इसमें सोलहकारण भावना के बारे में भाव संजोए हैं। अन्तिम पूजा की जयमाला में पूज्य माताजी ने लिखा है—
इस सिद्धिकन्या से, जिनेन्द्र विवाह करते हैं। फिर भी हमेशा ब्रह्मचर्यस्वरूप रहते हैं।।
सिद्धात्मा की स्थिती को, सिद्धी कहते हैं। शुद्धात्मा उसके लिए, पुरुषार्थ करते हैं।।
पुरुषारथ से सिद्ध अवस्था मिलती है। प्रभु चरणों में सिद्धिकन्या रहती हैं।
अर्थात् जिनेन्द्र भगवान सिद्धिकन्या से विवाहकर सिद्धपद को प्राप्त कर लेते हैं और यह सिद्ध अवस्था पुरुषार्थ से सभी भव्य जीवों को मिल सकती है। अतः हम सभी को सिद्धिकन्या को प्राप्त करने के लिए सतत पुरुषार्थ करते रहना चाहिए। अंत में बड़ी जयमाला में पूज्य माताजी ने सोलहकारण पर्व के बारे में, व्रत के बारे में बताते हुए सोलह-कारण व्रत की कथा को भी लिखा है कि राजगृही में एक कालभैरवी नाम की कुरूप कन्या ने अपने द्वारा पूर्व भव में किए गए मुनि के ऊपर उपसर्ग को जानकर उसका प्रायश्चित्त करने हेतु गुरु के द्वारा बताए गए सोलहकारण व्रत को किया, जिसके फलस्वरूप उसने परम्परा से विदेह क्षेत्र में तीर्थंकर पद को प्राप्त कर लिया। अतः सोलहकारण व्रत भी यथाशक्ति करना चाहिए। अंत में प्रशस्ति में लिखा है—
सोलहकारण पर्व का, जानो सब माहात्म्य। इसीलिए समझो इसे, जीवन में वरदान।।
राजाश्रेणिक ने मुनि के गले में मरा सर्प डालकर सातवें नरक की आयु का बंध कर लिया था लेकिन बाद में भगवान महावीर की खूब भक्ति करके, सोलहकारण भावनाओं को भा करके, कर्मों को निर्जीर्ण करके, क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्तकर, तीर्थंकरप्रकृति का बंध करके, सातवें नरक की आयु को घटा-घटाकर प्रथम नरक की जघन्य आयु कर ली। अतः भगवान की भक्ति में अचिन्त्य शक्ति है। इस सोलहकारण विधान को आद्योपांत पढ़ने के बाद ऐसा लगता है साक्षात् सरस्वती ने ही आकर इस विधान को रचा हो। एक-एक शब्द मोती की माला के समान गूंथे गए हैं। इस सोलहकारण विधान को करने, कराने वाले सभी जीव नियम से भव्य हैं और एक न एक दिन सिद्धपद को प्राप्त करेंगे। ==
‘तीर्थंकरोति इति तीर्थंकरः’ जो धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं वे ‘तीर्थंकर’ कहलाते हैं। उन तीर्थंकर भगवन्तों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष ये पाँच कल्याणक होते हैं। तीर्थंकर के अलावा अन्य किसी महापुरुष के पाँच कल्याणक नहीं हो सकते हैं। जिस भव्यात्मा ने पूर्व भव में तीर्थंकर के पादमूल में सोलहकारण भावनाओं को भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया हो और सर्वार्थसिद्धि आदि विमानों में जन्म लेकर वहाँ से च्युत होकर जब वह जीवन माता के गर्भ में आता है तभी से सौधर्म इन्द्र आदि उनका गर्भकल्याण आदि पंचकल्याणक महान उत्सव के साथ मनाते हैं।
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में शाश्वत जन्मभूमि अयोध्या एवं शाश्वत निर्वाणभूमि सम्मेदशिखर मानी है अर्थात् हमेशा चौबीसों तीर्थंकर अयोध्या में जन्म लेते रहे हैं और सम्मेदशिखर से मोक्ष जाते रहे हैं, लेकिन इस बार हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से २४ तीर्थंकरों की १६ जन्मभूमि, एवं ४ निर्वाणभूमि हो गई है। भगवान ऋषभदेव की केवलज्ञान भूमि प्रयाग, भगवान पाश्र्वनाथ की केवलज्ञानभूमि अहिच्छत्र एवं भगवान महावीर की केवलज्ञानभूमि जृम्भिका तीर्थ होने से इस विधान में २३ तीर्थों की पूजा है। दो बार डी. लिट. की मानद उपाधि से अलंकृत चारित्र चन्द्रिका, गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के साथ ही ८ अप्रैल २०१२ को पी. एच. डी. की मानद उपाधि से अलंकृत पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी ने इस विधान के प्रारम्भ में समुच्चय पूजा में लिखा है—
श्री ऋषभदेव से महावीर तक चौबिस तीर्थंकर प्रभु हैं। इन सबके पंचकल्याणक से पावन तेईस तीर्थ भू हैं।।
इस पंचकल्याणक तीर्थक्षेत्र विधान में २६ पूजा है, १६५ अघ्र्य है, १८ पूर्णाघ्र्य है और समुच्चय जयमाला है। इस विधान में अयोध्या, श्रावस्ती, कौशाम्बी, वाराणसी, चन्द्रपुरी, काकन्दी, भद्रिकापुरी, सिंहपुरी, चम्पापुरी, कम्पिलपुरी, रत्नपुरी, हस्तिनापुर, मिथिलापुरी, राजगृही, शौरीपुर, कुण्डलपुर, प्रयाग, अहिच्छत्र, जृम्भिका, वैâलाशपर्वत, सम्मेदशिखर, गिरनारजी, पावापुरी, एवं निर्वाणक्षेत्र आदि तीर्थों की पूजन है। सभी पूजन एक से एक बढ़कर सुन्दर, शब्द सौष्ठव एवं लालित्य से परिपूर्ण है। सभी पूजा के अन्त में पूज्य माताजी ने बहुत ही सुन्दर भावना भाई है—
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जो तीर्थ हैं। उनकी यशोगाथा से जो जीवन्त तीर्थ हैं।।
निज आत्म के कल्याण हेतु उनको मैं नमूँ। फिर ‘चन्दनामती’ पुनः भव वन में ना भ्रमूँ।।
इस ‘पंचकल्याणक तीर्थक्षेत्र’ विधान को करने, कराने वाले सभी महानुभाव एक दिन पंचकल्याणक को प्राप्त करें और यह विधान अभीष्ट मनोरथों की सिद्धि में सहायक हो यही मंगल भावना है।
वर्तमान में देखा जा रहा है कि दिन-प्रतिदिन वास्तुविद्या का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। कोई चाहे आलीशान भवन बनवा रहा हो अथवा छोटा सा मकान या दुकान, सभी की यह इच्छा रहती है कि इसे वास्तुशास्त्री से परामर्श करके ही बनवाया जाए। वास्तुदोष को दूर करने के लिए शास्त्रों में वास्तु विधान करने के लिए लिखा है। मन्दिरों में, घर में वास्तुदेव रहते हैं जो कि मंदिर, मकान की रक्षा करते हैं इसलिए श्रावक उन वास्तुदेव की पूजा, भक्ति करके, उन्हें प्रसन्न करके, सुख शान्ति को प्राप्त करते हैं। वर्तमान युग की इस आवश्यकता को देखते हुए पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की शिष्या प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी ने ‘वास्तुविधान’ नामक कृति की सरलरूप में रचना की है, इसमें ४९ प्रकार के वास्तुसम्बन्धी देवों की अर्चना की गई है ताकि प्रत्येक कार्य निर्विघ्नरूप से सम्पन्न हो सके। अरहंत, सिद्ध आदि नवदेवता, कृत्रिम, अकृत्रिम चैत्यालय आदि के रक्षक समस्त वास्तुदेवों का इस विधान में आह्वान करते हुए पूज्य माताजी ने लिखा है—
मंदिर महल मकान का, वास्तु रहे सुखकार। स्वस्थ सुखी हों भक्तजन, रहे सुखी संसार।।१।।
इस विधान की जयमाला में बहुत ही सरल सुन्दर भाषा में इस वास्तुविधान को करने का सार पूज्य माताजी ने लिखा है—
जस गृह में प्रभु विराजते मन्दिर उसे कहते। उन मंदिरों में उनके वास्तुदेव भी रहते।।
रक्षा सदैव मंदिरों – मकान की करते। इस हेतु ही हम लोग आमंत्रित उन्हें करते।।
इस वास्तु विधान को करके सभी लोग अपने जीवन को मंगलमयी बनावें यही मंगल भावना है।
ब्राह्मी चन्दन बाला जैसी छवि जिनमें दिखती रहती। कुन्दकुन्द गुरुवर सम जिनकी सतत लेखनी है चलती।।
नारी ने भी नर के सदृश अपनाई चर्या यति की। मेरा शत वन्दन स्वीकारो गणिनी माता ज्ञानमती।।’’
बीसवीं सदी में क्वाँरी कन्याओं के लिए दीक्षा का मार्ग प्रशस्त करने वाली युगप्रवर्तिका, चारित्रचन्द्रिका, आर्यिका शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी हैं जिनका पूरा जीवन संयम, त्याग में ही व्यतीत हुआ हो, जिनका रोम-रोम अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत को धारण करने से पवित्र है, जिनके ज्ञान का लोहा आज सारा विश्व मानता हो, उनके बारे में, उनकी कृतियों के बारे में गुणानुवाद करना, वर्तमान में त्याग और संयम को धारण करने की भावना को वृद्धिंगत करना है। पूज्य गणिनी ज्ञानमती माताजी की शिष्या पूज्य आर्यिका श्री चन्दनामती माताजी ने भी अपने व्यक्तित्व, कृतित्त्व से जैन समाज का मस्तक गौरवान्वित किया है। सौ से अधिक कृतियों का लेखन करके एक कीर्तिमान स्थापित किया है। विधानों की शृंखला में लिखा गया यह ‘गणिनी ज्ञानमती महापूजा’ अपने आप में एक अलौकिक कृति है। इसमें चंदनामती पूज्य माताजी ने ७५ अघ्र्यों में पूज्य गणिनी माताजी का गुणानुवाद किया है। एक उदाहरण देखिए—
ऊँ ज्ञानमती माताजी को है, मेरा बारम्बार नमन। निज नाम किया साकार उन्हीं ने, चरणों में शत शत वन्दन।।
गंगा की निर्मलधारा से, जिनका अन्तर्मन है पावन। हे गणिनी माता ज्ञानमती! स्वीकार करो यह अघ्र्य सुमन।।१।।
उँ ह्रीं श्री ज्ञानमत्यै नमः अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इस पुस्तक में महापूजा के बाद गणिनी ज्ञानमती जी की वैराग्य भावना, ज्ञानामृत पताका, सप्तति ज्ञान- मंत्राणि एवं भजन, आरती भी दिया है। ज्ञान की वृद्धि के लिए विशेषरूप से आश्विन शुक्ला एकम् से आश्विन शुक्ला पूर्णिमा तक शारदा पक्ष में जो भी पूज्य माताजी के इन मंत्रों का प्रातःकाल पाठ करेगा उसके ज्ञान में पूर्ण चन्द्रमा की तरह वृद्धि होगी। यहाँ पर सप्तति ज्ञानमन्त्राणि के कुछ मंत्र दे रही हूँ— १. उँ हीं ज्ञानमत्यै नमः। २. उँâ हीं आर्यिकायै नमः ३. उँâ हीं गणिन्यै नमः ४. ऊँ हीं जगन्मात्रे नमः। ५. उँâ हीं चारित्रचन्द्रिकायै नमः ६. उँâ हीं युगप्रवर्तिकायै नमः आदि। यह महापूजा करने, कराने वालों को एक दिन श्रुतज्ञान की प्राप्ति में सहायक सिद्ध हो यही, मंगल भावना है और मुझे भी शीघ्र ही श्रुतज्ञान की प्राप्ति हो, यही जिनेन्द्रदेव से मंगल प्रार्थना है।