इसके सात भेद हैं-सज्जाति, सद्गृहित्व, पारिव्राज्य, सुरेन्द्रता, साम्राज्य, आर्हन्त्य और परिनिर्वाण। ये क्रियाएँ अल्प संसारी भव्य प्राणी के ही हो सकती हैं। इसमें जो सबसे पहली क्रिया सज्जाति है, वह किसी निकट भव्य को मनुष्य जन्म की प्राप्ति होने पर होती है।
१. सज्जाति – जब वह दीक्षा धारण करने योग्य उत्तम वंश में विशुद्ध जन्म धारण करता है, तब उसके सज्जाति क्रिया होती है। पिता के वंश की शुद्धि को कुल और माता के वंश की शुद्धि को सज्जाति कहते हैं, इस सज्जाति के प्राप्त होने पर सहज ही प्राप्त हुए गुणों से रत्नत्रय की प्राप्ति सुलभ हो जाती है। यह२ सज्जाति उत्तम शरीर के जन्म से ही बतलाई गई है क्योंकि पुरुषों के समस्त इष्ट पदार्थों की सिद्धि का मूलकारण यही एक सज्जाति है। जिस प्रकार विशुद्ध खान से उत्पन्न हुआ रत्न संस्कार के योग से उत्कर्षता को प्राप्त होता है, उसी प्रकार विशुद्ध कुल में जन्मा हुआ मनुष्य सुसंस्कार से द्विज कहलाता है। सर्वज्ञदेव की आज्ञा प्रधान मानता हुआ वह मंत्रपूर्वक सूत्र (यज्ञोपवीत) धारण करता है। तीन लर का यज्ञोपवीत द्रव्यसूत्र है और सम्यग्दर्शन आदि उस श्रावक के भावसूत्र कहलाते हैं। संस्कारों से संस्कृत उस श्रावक के यह सज्जाति नाम की पहली क्रिया है।
२. सद्गृहित्व – सज्जातीयत्व से सहित वह भव्य सद्गृहस्थ होता हुआ आर्य पुरुषों के करने योग्य छह कर्मों का पालन करता है। गृहस्थ अवस्था में पालन करने योग्य जो-जो विशुद्ध आचरण अरहन्त भगवान् के द्वारा कहे गये हैं, उन सबको पालन करने वाला ‘सद्गृही’ कहलाता है। वह गृहस्थ असि, मषि आदि षट् क्रियाओं से उत्पन्न हुए दोष को पक्ष, साधन और चर्या के द्वारा दूर करता है, उसके ‘सद्गृहित्व’ क्रिया कहलाती है।
३. पारिव्राज्य – घर के निवास से विरक्त होते हुए पुरुष का जो दीक्षा ग्रहण करना है, वह पारिव्राज्य क्रिया है। इस पारिव्राज्य क्रिया में ममत्व भाव छोड़कर दिगम्बर रूप धारण करना पड़ता है। जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, चरित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और प्रतिभा अच्छी है, ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करने योग्य माना गया है। गुरु के द्वारा जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करना तीसरी पारिव्राज्य क्रिया है।
४. सुरेन्द्रता – पारिव्राज्य के फल का उदय होने से जो सुरेन्द्र पद की प्राप्ति होती है, वही यह ‘सुरेन्द्रता’ नाम की क्रिया है।
५. साम्राज्य – जिसमें चक्ररत्न के साथ-साथ निधियों और रत्नों से उत्पन्न हुए भोगोपभोगरूपी सम्पदाओं की परम्परा प्राप्त होती है, ऐसा चक्रवर्ती का सार्वभौम राज्य प्राप्त करना ‘साम्राज्य’ क्रिया है।
६. आर्हन्त्य – स्वर्ग से अवतीर्ण हुए अर्हन्त परमेष्ठी को जो पंचकल्याणकरूप सम्पदाओं की प्राप्ति होती है, उसे ‘आर्हन्त्य’ क्रिया कहते हैं, यह आर्हन्त्य क्रिया तीनों लोकों में क्षोभ उत्पन्न करने वाली है।
७. परिनिर्वाण – संसार के बंधन से मुक्त हुए परमात्मा की जो अवस्था होती है, उसे परिनिवृत्ति कहते हैं। यह सातवीं ‘परिनिर्वाण’ क्रिया है। यह भव्यपुरुष प्रथम ही योग्य जाति को पाकर सद्गृहस्थ होता है, फिर गुरु की आज्ञा से उत्कृष्ट पारिव्राज्य को प्राप्त कर स्वर्ग जाता है, वहाँ उसे इन्द्र की लक्ष्मी प्राप्त होती है, तदनन्तर वहाँ से च्युत होकर उत्कृष्ट महिमा का धारक अर्हन्त होता है और इसके बाद निर्वाण को प्राप्त हो जाता है।