-प्राचार्य नरेन्द्रप्रकाश जैन, फिरोजाबाद
(जून २००२ में प्रस्तुत)
जैन समाज में कोई या कैसा भी विवाद, चाहे वह सैद्धान्तिक हो या भौगोलिक, एक बार उत्पन्न हो जाए तो उसका समाधान नहीं निकल पाता। आज तक मूल आम्नाय या सोनगढ़ पक्ष अथवा तेरह या बीस पंथ का कई दशकों तक चली लम्बी बहस के बाद भी कोई हल नहीं निकल सका है। आज भी लोग खेमों में बँटे हुए हैं। अब एक नया विवाद भगवान महावीर की जन्मभूमि को लेकर उत्पन्न हो गया है। इसका भी कोई सर्वसम्मत हल निकल पायेगा, कुछ लोगों की हठधर्मी को देखते हुए इसकी संभावना कम ही लगती है। गत आधी सदी पूर्व दिगम्बरेतर शास्त्रों के आधार पर कुछ पाश्चात्य और कुछ जैनेतर विद्वानों द्वारा की गई खोज से प्रभावित होकर हमारे कुछ मुट्ठी भर प्रगतिशील जैन श्रीमन्तों और विद्वानों ने समाज की श्रद्धा और भावनाओं का ख्याल किए बिना वैशाली को भगवान महावीर की जन्मभूमि घोषित कर दिया था। उनके कुछ पक्षधर आज भी सक्रिय हैं और उन्होंने इस प्रकरण को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया लगता है। वे नहीं चाहते कि इस बिन्दु पर पुन: कोई ठोस चर्चा शुरू हो। ध्यान रहे कि चर्चा से कतराना भी कमजोरी की ही निशानी होती है। सदियों से नालंदा के निकटवर्ती कुण्डलपुर को महावीर की जन्मभूमि माना जाता रहा है। आजादी से पूर्व तक किसी ने इस पर उंगली नहीं उठाई,किन्तु नई जन्मभूमि वैशाली को मान्यता दिए जाने के साथ ही कुण्डलपुर के कुछ स्वनामधन्य पदाधिकारियों ने ही उसकी उपेक्षा करना शुरू कर दिया। उपेक्षा का पहला उदाहण सन् १९४७ में हमारे सामने आया। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित ‘भारत के जैन तीर्थ’ पुस्तक-शृंखला में संलग्न जैन तीर्थों के मानचित्र में वैशाली को जन्मभूमि के रूप में दिखाया जाने लगा, किन्तु संतोष की बात यह रही कि धर्मतीर्थ के रूप में कुण्डलपुर भी नक्शे में बना रहा। यह मानचित्र भारतवर्षीय दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी ने जारी किया था। पटना संग्रहालय के डॉ. अरविन्द महाजन ने जन्मभूमि के रूप में वैशाली का पुरजोर समर्थन करते हुए भी लिखा है-‘कुण्डलपुर (नालंदा) और लछुआड़ (जमुई) भी जैन तीर्थ हो सकते हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।’ पटना के ही एक पत्रकार श्री विजय कुमार ने इसका कारण बताते हुए लिखा है कि विहार प्रदेश में घूमते हुए भगवान महावीर ने इन दोनों स्थानों की भी यात्रा की होगी और यहाँ पर उनका धर्मोपदेश हुआ होगा। धन्यवाद के पात्र हैं ये दोनों विद्वान, किन्तु भा.दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के वर्तमान पदाधिकारियों के बारे में हम क्या कहें, जिन्होंने अब जो नया नक्शा प्रसारित किया है,उसमें वैशाली को तो मोटे अक्षरों में दिखाया गया है, किन्तु कुण्डलपुर को इस नए नक्शे में से जड़मूल से ही गायब कर दिया गया है। इधर कई पत्रों (दि. जैन मित्र मण्डल, दिल्ली की स्मारिका, मासिक ‘जैन प्रचारक’ आदि) में इसे छपवाकर यह दिखाने की कोशिश की गई है कि मानों कुण्डलपुर नामक किसी स्थान का खरगोश के सींगों की तरह कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं है। हमारे ये स्वयंभू नेता शायद यह साचेते हैं कि नक्शे में से कुण्उलपुर को यदि हटा देंगे तो धरती पर उसका वजूद ही समाप्त हो जायेगा। उनकी उस खामख्याली पर हमें दया आती है। वे यह भूल रहे हैं कि जिस वस्तु को मिटाने की कोशिश की जाती है, वह और अधिक मजबूत होकर तेजी से उभरने लगती है। हमने तो पढ़ा है कि कहीं किसी सुनसान स्थान पर रखी यदि किसी प्राचीन जिन प्रतिमा की सौ वर्षों तक पूजा होती रहे तो वह प्रतिमा प्रतिष्ठित मान ली जाती है। खेद है कि जहाँ सदियों से भगवान महावीर की जन्मकल्याणक की पूजा होती रही है, उसे ये अब स्थापना निक्षेप से भी तीर्थ मानने के लिए तैयार नहीं हैं। मानचित्र में से कुण्डलपुर को निकालना एक अक्षम्य दुःसाहस ही कहा जाएगा। ऐसा करने से तीर्थक्षेत्र कमेटी के पदाधिकारियों की छवि में कोई इजाफा नहीं हुआ है। कहीं अब उनका इरादा भारत के जैन तीर्थ ग्रन्थमाला के द्वितीय खण्ड से भी कुण्डलपुर के नाम और तत्सम्बंधी विवरण को भी निकालने का तो नहीं है। कुण्डलपुर के गौरव को कम करने का दूसरा बचकाना प्रयास जैन कॉलिज, आरा की संस्कृत विभाग की उपाचार्या डा. शांति जैन द्वारा एक नई आरती गढ़वाकर किया गया है। चूँकि दिगम्बर जैन समाज के ख्यातिलब्ध कवियों द्वारा समय-समय पर रचित पूजाओं, भजनों, पदों, आरतियों आदि में कहीं वैशाली का नाम नहीं आया है। इसलिए अब इस नई आरती को गढ़कर उस कमी के पूरा हो जाने का सपना संजोया गया है। इस मनगढ़न्त नई आरती के कुछ बोल हैं-
‘सिद्धारथ गृह जनमें वैशाली नगरी हरषित त्रिशला माता जिनकी गोद भरी स्वामी जय सन्मति देवा वैशाली के ललना, त्रिशला के नंदन गायें आरती इनकी, करें चरणवन्दन स्वामी जय सन्मति देवा। डा. शांति जैन ने अपने इस बुद्धि-चातुर्य से दिगम्बर जैनागम विरुद्ध इस नई आरती को गढ़कर क्या हमारे पूर्वज कविवृन्दों सर्वश्री वृन्दावन, बुध महाचन्द, हरप्रसाद आदि की समझ कर उपहास उड़ाने की ही कोशिश नहीं की है? हमें संदेह है कि महावीर स्मारक समिति या तीर्थक्षेत्र कमेटी आगे चलकर हमारे यहाँ प्रचलित जिनवाणी-संग्रहों में ऐसी नई-नई पूजा-आरतियों को गढ़वाकर सम्मिलित करने की कोशिश कर सकती है। समाज के प्रबुद्धजनों, संतों, श्रीमन्तों और विद्वानों को सावधानी बनाए रखकर इस पर दृष्टि रखनी होगी। इतिहास को विकृत करने की ऐसी कोशिशों को सहन नहीं किया जाना चाहिए। जहाँ एक ओर ये दोनों बचकानी कोशिशें हमारी दृष्टि में अत्यन्त आपत्तिजनक हैं, वहाँ महावीर स्मारक समिति, पटना द्वारा इस वर्ष ‘जन्मस्थली : वैशाली’ शीर्षक से एक पत्रिका के प्रकाशन का हम स्वागत करते हैं। हमने इसे बहुत ध्यान से पढ़ा है। भले ही इस पत्रिका में व्यक्त निष्पत्तियों से हम कतई सहमत नहीं हैं, फिर भी किसी निर्णयात्मक स्थिति तक पहुँचने के लिए इस तरह के वैचारिक प्रयासों को हम एक सही तरीका मानते हैं। इस पत्रिका में वैशाली को जन्मभूमि सिद्ध करने वाले अनेक जैन-जैनेतर विद्वानों के आलेख संकलित हैं। उनके शोध, सर्वेक्षणों को हम एकांगी मानते हैं। उन्होंने दावा तो यह किया है ाqक उनके इस नये शोध का आधार जैनागम है, किन्तु जैनागम के नाम पर उन्होंने प्रमाण प्राय: श्वेताम्बर ग्रंथों के ही दिए हैं। जन्मभूमि के भूगोल के निर्धारण में बौद्ध ग्रंथों की भी सहायता ली गई है। इस शोध कार्य में दिगम्बर जैनागम की पूर्णत: उपेक्षा की गई है। उनके द्वारा प्रस्तुत निष्कर्षों से कुछ श्वेताम्बर एवं कुछ जैनेतर विद्वान भी सहमत नहीं हैं। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे। दिगम्बर जैन समाज के कुछ नेताओं द्वारा वैशाली को जन्मभूमि के रूप में मान्यता दिए जाने के पीछे दादुर-रट की प्रवृत्ति काम करती रही है। किसी एक समर्थ ने एक बार कोई फतवा दे दिया तो शेष सभी उसकी कार्बन कापी करते रहे। नियम भी है कि तेज हवा या रुख जिस ओर होता है, धुआँ उसी ओर मुड़ जाता है। हमारे आगमनिष्ठ संतों और विद्वानों का उस समय का मौन अखरने वाला है। अब यह भूल हमें नहीं करनी चाहिए। इस समय की तटस्थता भविष्य के लिए घातक होगी। वैशाली की ताबड़तोड़ मान्यता के पीछे एक कारण सरकार से भारी आर्थिक अनुदान पाने की उम्मीद भी रही है। आखिर पैसा ही तो वह कील है, जिस पर सारा ग्लोब घूमता है। आज भी सही को सही मानने में नेताओं की हिचकिचाहट के पीछे भी सरकार से मिलने वाली दो-चार करोड़ की सहायता को पाने की लालसा या आशा ही तो है। अकबर ने लिखा भी है-‘श्रीमान् जी का फकत ये मतलब है, जिसमें रुपया मिले वो काम करो’ चलिए, पचास साल बाद ही सही, पूज्य आर्यिका द्वय (गणिनी ज्ञानमती एवं प्रज्ञाश्रमणी चंदनामती माताजी) तथा कुछ भक्तजनों को इस भूल का अहसास तो हुआ। भूल की याद भी जागृति का लक्षण है। अन्य सभी आगमनिष्ठ पूज्य सन्तों एवं विद्वज्जनों को भी दिगम्बर जैनागम की प्रामाणिकता को चुनौती देने वाले इन प्रयासों को नाकाम करने की पहल करनी चाहिए। ‘‘जो अक्ल का गुलाम हो, वो दिल न कबूल कर’’ की उक्ति पर हमारा पूरा विश्वास है। तर्क और बुद्धि की जगह श्रद्धा और लगाव का अधिक महत्व है। जहाँ श्रद्धा का आधार न हो और निकटता तथा अपनेपन का अहसास न हो, वहाँ जन-भावनाएं नहीं जुड़ सकतीं। किसी भी नई खोज को तभी स्थायित्व प्राप्त हो सकता है, जबकि वह श्रद्धामूलक परम्परा की गहरी नींव पर आधारित हो। कुछ लोग भले ही रुढ़िवादी होने का आरोप हम पर जड़ें, पर हम इस चर्चा को आगे अवश्य बढ़ायेंगे। जैन समाज के भले और भोले लोगों के सामने सच्चाई तो आनी ही चाहिए।