मार्ग श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र करगुवाँ झाँसी शहर से ५ कि.मी. की दूरी पर झाँसी-लखनऊ राजमार्ग पर मेडिकल कालेज के ठीक सामने आधा कि.मी. दूर पहाड़ी की मनोरम तलहटी में अवस्थित है। यहाँ आठ एकड़ जमीन पर प्राचीन परकोटा बना हुआ है। क्षेत्र इसी परकोटे के अंदर है। परकोटे के अंदर आम, जामुन आदि फलदार वृक्ष लगे हुए हैं तथा कुछ भूमि पर खेती भी होती है। मंदिर भूगर्भ (भोंयरे) में है। पहले यहाँ अंधकार रहता था। किन्तु कुछ समय पहले जैन समाज ने यहाँ जीर्णोद्धार कराया था। अब तो भूगर्भ में एक विशाल हाल बन गया है और उसमें प्रकाश की समुचित व्यवस्था हो गयी है। इस भोंयरे में अब केवल सात प्रतिमाएँ हैं। छह प्रतिमाओं पर संवत् १३४३ खुदा हुआ है और एक महावीर स्वामी की प्रतिमा पर संवत् १८५१ खुदा हुआ है। यहाँ मूलनायक प्रतिमा भगवान पार्श्वनाथ की है। इस प्रतिमा के निकट प्राय: सर्प देखे गये हैं किन्तु किसी को उन्होंने कभी काटा नहीं है। अनेक भक्तजन यहाँ मनोती मनाने आते हैं। इस कारण यह अतिशय क्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। इन सात प्रतिमाओं में पाँच पद्मासन हैं तथा दो खड्गासन हैं। ये प्राय: तीन से चार फुट ऊँची हैं। यहाँ पहले बहुत मूर्तियाँ थीं। किन्तु कहते हैं कि अंग्रेजों ने जब १८१४ ई.में झाँसी पर आक्रमण किया था, उस समय उच्छृंखल अंग्रेज सैनिकों ने बहुत सी मूर्तियों को तोड़-फोड़ डाला। इस क्षेत्र के अतिशयों की अनेक िंकवदंतियाँ प्रचलित हैंं। कहते हैं, लगभग दो सौ वर्ष पहले की बात है। एक गाड़ी खंडित जिनप्रतिमाओं से भरी हुई इधर से निकली। जैसे ही वह गाड़ी मंदिर की भूमि से गुजरने लगी, गाड़ी वहीं रूक गयी। उस समय झाँसी का नाम बलवंतनगर था। यह समाचार वहाँ भी पहुँचा। अनेक व्यक्ति आये, अनेक उपाय किये, किन्तु गाड़ी नहीं चली। उसी रात को बलवंतनगर के प्रमुख जैन पंच श्री नन्हेजू को स्वप्न हुआ कि जिस स्थान पर गाड़ी रूकी है उसके नीचे जमीन में जैन मूर्तियाँ हैं। उन्हें तुम निकलवाओ। प्रात:काल श्री नन्हेजू ने यह स्वप्न अपने मित्रों और परिचितों को सुनाया और तब यह निश्चय हुआ कि उस स्थान की खुदाई करायी जाये। सब लोग उस स्थान पर गये और खुदाई आरंभ की गयी। कुछ गहरा खोदने पर मूर्तियाँ दिखाई देने लगीं। तब यह निश्चय हुआ कि पहले रक्षा का प्रबंध हो जाये, तभी आगे खुदाई करायी जाये। इस निर्णय के अनुसार खुदाई रोक दी गयी। उस समय बलवंतनगर में बाजीराव पेशवा द्वितीय का शासन था। श्री नन्हेजू उनके सम्मानप्राप्त दरबारी थे। सिंघई जी ने दरबार में जाकर यह आश्चर्यजनक समाचार सुनाया। चर्चा के पश्चात् यह निश्चय हुआ कि महाराज उस स्थान पर जायेंगे। तदनुसार महाराज और सिंघई जी घोड़ों पर करगुवाँ पहुँचे। उनके सामने खुदाई की गई। थोड़ी देर में भव्य जिनप्रतिमाएँ प्रकट हुई। जनता हर्षित होकर जय-जयकार करने लगी। तभी महाराज और नन्हेजू ने मनोरंजन के तौर पर घोड़ों की दौड़ का निश्चय किया। दोनों ने घोड़े दौड़ाये। भाग्य ने सिंघई जी का साथ दिया। उनका घोड़ा जीत गया। महाराज ने उनसे इच्छानुसार इनाम लेने का आग्रह किया। सिंघई जी ने अवसर का लाभ उठाकर उस भूगर्भ स्थान के चारों ओर आठ एकड़ जमीन माँग ली। महाराज ने उन्हें तत्काल प्रदान कर दी। सिंघई जी ने समाज के सहयोग से उस भूमि के चारों ओर परकोटा खिंचवाया, बगीचा लगवाया और विशेष समारोह के साथ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करायी, जिसमें भगवान महावीर की उपर्युक्त प्रतिमा विराजमान करायी। क्षेत्र के सामने ही जब से मेडिकल कालेज खुला है, तब से क्षेत्र पर यात्री अधिक संख्या में आने लगे हैं। अभी मार्च सन् १९७२ में एक विशाल मेला हुआ था। इस भूगृह की वेदी का जीर्णोद्धार किया गया था और वेदी-प्रतिष्ठा की गयी थी। इस अवसर पर एकत्रित जनसमूह ने महावीर शोध संस्थान और बुन्देलखंड महावीर विश्वविद्यालय की स्थापना का निश्चय किया। शोध-संस्थान का शिलान्यास तो १२ मार्च सन् १९७२ को समाज के विख्यात उद्योगपति दानवीर साहू शांतिप्रसाद जी के कर कमलों द्वारा संपन्न हो चुका है। क्षेत्र से संलग्न ५५ एकड़ भूमि में विश्वविद्यालय का निर्माण कार्य प्रारंभ हो गया है।
वार्षिक मेला— यहाँ वर्ष में दो मेले भरते हैं—चैत्र शुक्ला त्रयोदशी (भगवान महावीर का जन्म-दिवस तथा कार्तिक कृष्णा अमावस्या (भगवान महावीर का निर्वाण दिवस)। इसके अतिरिक्त दशलक्षण पर्व के पश्चात् कलशाभिषेक का मेला लगता है। क्षेत्र पर स्वाध्याय भवन आदि बने हैं। यह स्थान सोनागिरी से ४५ कि.मी एवं पावागिरी जी (ललितपुर) से ५० कि.मी. दूर स्थित है। निकटतम प्रमुख नगर झांसी व दतिया हैं।