लोकालोकविभक्तेर्युगपरिवृत्तेश्चतुर्गतीनां च।।
आदर्शमिव तथामतिरवैति करणानुयोगं च।।४।।
जो श्रुतज्ञान लोक-अलोक के विभाग को, युग के परिवर्तन को और चतुर्गतियों के परिवर्तन को दर्पण के समान जानता है उसे करणानुयोग कहते हैं।
जिसमें जीव, पुद्गल आदि छहों द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं। यह तीन सौ तेतालीस राजू प्रमाण है। इससे परे चारों तरफ अनंतानंत अलोकाकाश है। इस लोक के मध्य में एक राजू की चौड़ाई में असंख्यात द्वीप समुद्र हैं। सबसे प्रथम बीचोंबीच में जम्बूद्वीप है। इत्यादि रूप से जो लोक का वर्णन तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों में वर्णित है, नरक, स्वर्ग, सिद्धशिला आदि का जो भी वर्णन है उसको पढ़कर पूर्ण आस्तिक्य भावना रखना ही सम्यग्दर्शन है। इस मध्यलोक के अंतर्गत ढाईद्वीप में पंद्रह कर्मभूमियाँ हैं। वहीं पर जन्म लेने वाले मनुष्य मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि कर सकते हैं अन्य नहीं।
सुषमासुषमा आदि छह कालरूप युग परिवर्तन को समझकर, चतुर्गतियों के परिभ्रमण को तथा पंच परावर्तन को पढ़कर संसार से भय उत्पन्न होता है। जीवों के कुल, योनि, जीवसमास, मार्गणा आदि को भी समझना चाहिए। तभी तो जीवों की दया का पूर्णतया पालन किया जा सकता है। अध्यात्म गं्रथ नियमसार में श्री कुंदकुंददेव कहते हैं-
कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं।
तस्सारंभणियत्तणपरिणामो होदि पढमवदं।।
कुल, योनि, जीव समास और मार्गणा आदि स्थानों में जीवों को जान करके उनके आरंभ में निवृत्तिरूप परिणाम का होना प्रथम अहिंसा महाव्रत है।
यह सब वर्णन इस करणानुयोग के अध्ययन से ही जाना जा सकता है। खेद है कि आजकल कुछ लोग गुणस्थानों के लक्षण को भी नहीं समझते हैं और समयसार जैसे महान् ग्रंथों को बगल में दबाए रहते हैं। सचमुच में वे लोग अध्यात्म के मर्म को न समझकर अपनी आत्मा की ही वंचना कर लेते हैं। गुणस्थानों को समझने से ही सराग चारित्र कहाँ तक हैै और वीतराग चारित्र कहाँ से शुरू होता है इसकी जानकारी मिलती है।
श्री कुंदकुंद स्वामी ने जीवों की विभाव पर्यायों का वर्णन करते हुये कहा है कि मनुष्य के दो भेद हैं-कर्मभूमिज और भोगभूमिज। नारकी सात पृथिवियों के भेद से सात प्रकार के हैं, तिर्यंच चौदह जीवसमास की अपेक्षा चौदह प्रकार के हैं तथा चतुर्णिकाय की अपेक्षा देव चार प्रकार के हैं। इन सबका विस्तार से वर्णन करणानुयोग ग्रंथों से जान लेना चाहिये।
संस्थानविचय धर्मध्यान भी करणानुयोग के अध्ययन से ही किया जाता है।
सम्यक्त्व प्राप्ति के लिए जो करण लब्धि होती है तथा चारित्र के लिये जो लब्धि होती है, इनका सविस्तार वर्णन भी करणानुयोग ही बतलाता है। किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियाँ बंधती हैं, कितनी उदय में रहती हैं और कितने की सत्ता रहती है इत्यादि विवरण भी इसी अनुयोग से जाना जाता है। करणसूत्रों के द्वारा गणित का सूक्ष्म से सूक्ष्म विवेचन परिणामों की एकाग्रता के लिए सर्वोत्कृष्ट साधन है।
आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज की पीठ में एक बार अदीठ नाम का भयंकर फोड़ा हुआ था। उसकी शल्य चिकित्सा के समय सभी चिन्तित थे कि महाराज इतनी वेदना को कैसे झेलेंगे। आचार्यश्री ने अपना उपयोग कर्म प्रकृतियों के बंध-उदय आदि के गणित में लगा लिया जिससे उन्हें उस विषय में तन्मयता हो जाने से डाक्टर ने सफलतापूर्वक आपरेशन कर दिया। इन प्रकृतियों के उदय आदि के चिंतन के समय विपाकविचय धर्मध्यान होता है।
यह जीव सम्यक्त्व व संयम को प्राप्त कर भावलिंगी श्रमण शुद्धोपयोगी आत्मध्यानी बनकर ग्यारहवें गुणस्थान तक भी चला जाता है। पुन: वहाँ से गिरकर कदाचित् मिथ्यात्व में आकर यदि एकेन्द्रिय आदि पर्यायों में चला जाता है तो वह पुन: संसार में कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक परिभ्रमण करता रहता है। इन सब प्रकरणों को पढ़कर बोधि को प्राप्त कर उसकी सुरक्षा के लिये पुरुषार्थ जाग्रत होता है और मिथ्यात्व से भय उत्पन्न होता है।
इस प्रकार से यह करणानुयोग भी सम्यक्त्व व संयम का कारण है। इसके प्रसाद से रत्नत्रय की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा होती रहती है। इस विषय में भी प्रमाद न करके इस अनुयोग का सतत अध्ययन करना चाहिये।
जीव के दो भेद हैं-संसारी और मुक्त। ‘‘चतुर्गतौ संसरणं संसार:’ चतुर्गति में संसरण करना-परिभ्रमण करना इसका नाम संसार है।
‘संसारो येषां सन्ति ते संसारिण:’ यह संसार जिन जीवों के पाया जाता है, वे संसारी कहलाते हैं।
द्रव्य संसार, क्षेत्र संसार, काल संसार, भव संसार और भाव संसार। इन्हें परिवर्तन भी कहते हैं।
द्रव्य संसार के २ भेद हैं-कर्म द्रव्य परिवर्तन और नोकर्म द्रव्य परिवर्तन।
कर्म द्रव्य परिवर्तन-
कर्मबंध के पाँच कारण हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इनमें मिथ्यात्व और कषाय प्रधान हैं क्योंकि ये मोहनीय कर्म के दो भेद हैं और कर्मों में मोहनीय कर्म ही प्रधान एवं बलवान् है। मोहनीय के अभाव में संसार परिभ्रमण का चक्र ही रुक जाता है। इन मिथ्यात्व और कषाय के आधीन हुआ संसारी जीव ज्ञानावरण आदि सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्कंधों को प्रति समय ग्रहण करता है। लोक में सर्वत्र कार्मण वर्गणाएँ भरी हुई हैं, उनमें से अपने योग्य को ही ग्रहण करता है। आयुकर्म सदा नहीं बँधता अत: सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्कंधों को ही प्रतिसमय ग्रहण करता है और आबाधा काल पूरा हो जाने पर उन्हें भोग कर छोड़ देता है। किसी जीव ने विवक्षित समय में ज्ञानावरण आदि सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्कंधों को ग्रहण किया और आबाधा काल बीत जाने पर उन्हें भोग कर छोड़ दिया। उसके बाद अनन्त बार अगृहीत को ग्रहण किया और आबाधा काल बीत जाने पर उन्हें भोग कर छोड़ दिया। उसके बाद अनन्त बार अगृहीत को ग्रहण करके अनन्त बार मिश्र को ग्रहण करके और अनन्त बार गृहीत को ग्रहण करके छोड़ दिया। उसके बाद जब वे ही पुद्गल वैसे ही रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि भावों को लेकर, उसी के वैसे ही परिणामों से पुन: कर्मरूप परिणत होते हैं, उसे कर्म द्रव्य परिवर्तन कहते हैं।
नोकर्म द्रव्य परिवर्तन—
इस तरह किसी विवक्षित समय में एक जीव ने औदारिक, वैक्रियिक और आहारक, इन तीनों शरीरों और छह पर्याप्तियों के योग्य नोकर्म पुद्गल स्कंध ग्रहण किया और भोग कर छोड़ दिया। पूर्वोक्त क्रम के अनुसार जब वे ही नोकर्म पुद्गल उसी रूप, रस आदि को लेकर जीव के द्वारा पुन: नोकर्म रूप से ग्रहण किये जाते हैं, उसे नोकर्म द्रव्य परिवर्तन कहते हैं। कहा भी है-
‘‘सव्वे वि पुग्गला खलु कमसो भुत्तुज्झिया य जीवेण।
असइं अणंतखुत्तो पुग्गलपरियट्ट संसारे।।’’
‘पुद्गल परिवर्तनरूप संसार में इस जीव ने सभी पुद्गलों को क्रमश: अनन्त बार ग्रहण किया और छोड़ा।’
क्षेत्र परिवर्तन-
लोकाकाश के ३४३ राजुओं में सभी जीव अनेक बार जन्म ले चुके और मर चुके हैं। क्षेत्र परिवर्तन के दो भेद हैं-स्वक्षेत्र परिवर्तन, परक्षेत्र परिवर्तन।
स्वक्षेत्र परिवर्तन-कोई सूक्ष्म निगोदिया जीव, अपनी जघन्य अवगाहना को लेकर उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया पश्चात् अपने शरीर की अवगाहना में एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते महामत्स्य की अवगाहनापर्यन्त अनेक अवगाहना धारण करता है। इस प्रकार छोटी अवगाहना से लेकर बड़ी अवगाहना पर्यन्त सब अवगाहनाओं को धारण करने में जितना काल लगता है, उसे स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते हैं।
परक्षेत्र परिवर्तन-
कोई जघन्य अवगाहना का एक धारक सूक्ष्म निगोदिया लब्धपर्याप्तक जीव लोक के आठ मध्यप्रदेशों को अपने शरीर के आठ मध्यप्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ। पीछे वही जीव उसी रूप से उसी स्थान में दूसरी तीसरी बार भी उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य अवगाहना के जितने प्रदेश हैं, उतनी बार उसी स्थान पर क्रम से उत्पन्न हुआ और श्वास के अठारहवें भाग प्रमाण क्षुद्र आयु को भोगकर मरण को प्राप्त हुआ। पीछे एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते सम्पूर्ण लोक को अपना जन्म क्षेत्र बना ले, यह परक्षेत्र परिवर्तन है। कहा है-
‘‘सव्वह्मि लोयखेत्ते कमसो तं णत्थि जं ण उप्पप्णं।
ओगाहणाए बहुसो परिभमिदो खेत्तसंसारे।।’’
‘समस्त लोक में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहाँ क्षेत्ररूप संसार में परिभ्रमण करते हुए अनेक अवगाहनाओं को लेकर यह जीव क्रमश: उत्पन्न न हुआ हो।’
काल परिवर्तन-
कोई जीव उत्सर्पिणी काल के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया, फिर भ्रमण करके दूसरी उत्सर्पिणी के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया। फिर भ्रमण करके तीसरी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया। यही क्रम अवसर्पिणी काल के संबंध में भी समझना चाहिए। इस क्रम से उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणी के बीस कोड़ाकोड़ी सागर के जितने समय हैं, उनमें उत्पन्न हुआ तथा इसी क्रम से मरण को प्राप्त हुआ अर्थात् उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के प्रथम समय में मरा, फिर दूसरी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के दूसरे समय में मरा, इसे काल परिवर्तन कहते हैं। कहा भी है-
‘‘उस्सप्पिणि अवसप्पिणिसमयावलियासु णिरवसेसासु।
जादो मुदो य बहुसो भमणेण दु कालसंसारे।।’’
‘अनादि काल से संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के सब समयों में अनेक बार जन्मा और मरा।’
भव परिवर्तन-
नरक गति में जघन्य आयु दस हजार वर्ष की है, इस आयु को लेकर कोई जीव प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया पुन: उसी आयु को लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ और मर गया। इस प्रकार दस हजार वर्ष के जितने समय हैं, उतनी बार दस हजार वर्ष की आयु लेकर प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ। पीछे एक समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ, फिर दो समय अधिक दस हजार वर्ष की आयु लेकर उत्पन्न हुआ। इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते नरक गति की उत्कृष्ट आयु तैंतीस सागर पूर्ण करता है।
फिर तिर्यंच गति में अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु लेकर उत्पन्न हुआ और पहले की तरह अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं, उतनी बार अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर वहाँ उत्पन्न हुआ। फिर एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते तिर्यंच गति की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य समाप्त करता है। फिर तिर्यंच गति की ही तरह मनुष्य गति में भी अन्तर्मुहूर्त की जघन्य आयु से लेकर तीन पल्य की उत्कृष्ट आयु समाप्त करता है। पीछे नरक गति की तरह देवगति की आयु को भी समाप्त करता है किन्तु देवगति में इतनी विशेषता है व्िाâ वहाँ इकतीस सागर की ही उत्कृष्ट आयु को पूर्ण करता है क्योंकि ग्रैवेयक में उत्कृष्ट आयु इकतीस सागर की ही होती है और मिथ्यादृष्टियों की उत्पत्ति ग्रैवेयक तक ही होती है। इस प्रकार चारों गतियों की आयु पूर्ण करने को भव परिवर्तन कहते हैं। कहा भी है-
‘‘णिरयादि जहण्णादिसु जाव दु उवरिल्लया दु गेवज्जा।
मिच्छत्तसंसिदेण दु बहुसो वि भवट्ठिदीभमिदा।।’’
‘नरक की जघन्य आयु से लेकर ऊपर के ग्रैवेयकपर्यंत के सब भवों में यह जीव मिथ्यात्व के आधीन होकर अनेक बार भ्रमण करता है।’
भाव परिवर्तन-
योगस्थान, अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान, कषायाध्यवसाय स्थान और स्थिति स्थान, इन चार के निमित्त से भाव परिवर्तन होता है। प्रकृति बंध और प्रदेश बंध के कारण आत्मा के प्रदेश परिस्पन्दरूप योग के तारतम्यरूप स्थानों को योग स्थान कहते हैं। अनुभाग बंध के कारण कषाय के तारतम्य स्थानों को अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान कहते हैं। स्थिति बंध के कारण कषाय के तारतम्य स्थानों को कषाय स्थान या स्थिति बंधाध्यवसाय स्थान कहते हैं। बंधने वाले कर्म की स्थिति के भेदों को स्थिति स्थान कहते हैं। योग स्थान श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनुभाग बंधाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोक प्रमाण हैं। कषाय बंधाध्यवसाय स्थान भी असंख्यात लोक प्रमाण हैं।
कोई मिथ्यादृष्टि, सैनी, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव ज्ञानावरण कर्म की अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण जघन्य स्थिति को बाँधता है, उस जीव के उस स्थिति के योग्य जघन्य कषाय स्थान, जघन्य अनुभाग स्थान और जघन्य ही योग स्थान होता है। फिर उसी स्थिति, उसी कषाय स्थान और अनुभाग स्थान को प्राप्त जीव के दूसरा योग स्थान होता है। जब सब योग स्थानों को समाप्त कर देता है, तब उसी स्थिति और उसी कषाय. स्थान को प्राप्त जीव के दूसरा अनुभाग स्थान होता है। उसके योगस्थान भी पूर्वोक्त जानने चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक अनुभाग स्थान के समय सब योग स्थानों को समाप्त करता है। अनुभाग स्थानों के समाप्त होने पर, उसी स्थिति को प्राप्त जीव के दूसरा कषाय स्थान होता है। इस कषाय स्थान के अनुभाग स्थान तथा योग स्थान पूर्ववत् जानने ाचहिए। इस प्रकार सब कषाय स्थानों की समाप्ति तक अनुभाग स्थान और योग स्थानों की समाप्ति का क्रम जानना चाहिए।
कषाय स्थानों के भी समाप्त होने पर वही जीव उसी कर्म की एक समय अधिक अन्त: कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति बाँधता है। उसके भी कषाय स्थान, अनुभाग स्थान तथा योग स्थान पूर्ववत् जानने चाहिए। इस प्रकार एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर पर्यन्त प्रत्येक स्थिति के कषाय स्थान, अनुभाग स्थान और योगस्थानों का क्रम जानना चाहिए। इसी प्रकार सभी मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतियों में समझना चाहिए। अर्थात् प्रत्येक मूल-प्रकृति और प्रत्येक उत्तर प्रकृति की जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यंत प्रत्येक स्थिति के साथ पूर्वोक्त सब कषाय स्थानों, अनुभाग स्थानों और योग स्थानों को पहले की ही तरह लगा लेना चाहिए। इस प्रकार सब कर्मों की स्थितियों के भोगने को भाव परिवर्तन कहते हैं इन परिवर्तनों को पूर्ण करने में जितना काल लगता है, उतना काल भी उस-उस परिवर्तन के नाम से कहाता है। कहा भी है-
‘‘सव्वा पयडिट्ठिदीओ अणुभागपदेसबंधठाणाणि।
मिच्छत्त संसिदेण य भमिदा पुण भावसंसारे।।’’
‘इस जीव ने मिथ्यात्व के संसर्ग से सब प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध के स्थानों को प्राप्त कर भाव संसार में परिभ्रमण किया।’
इस प्रकार अनेक दुःखों की उत्पत्ति के कारण इन पाँच प्रकार के संसार में यह जीव मिथ्यारूपी दोष के कारण अनादिकाल तक भ्रमण करता रहता है। जब इस जीव को सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है, तब पंच परावर्तन समाप्त हो जाता है। सम्यग्दृष्टि जीव यदि सम्यक्त्व से च्युत होकर अधिक से अधिक संसार में भ्रमण करे, तो वह अर्धपुद्गल परावर्तन मात्र काल तक भ्रमण करता है जो कि द्रव्य परिवर्तन के अन्तर्गत नोकर्म पुद्गल परावर्तन काल के समान है किन्तु यह भी अनन्तकाल सदृश होने से अनन्त कहलाता है।
‘भवांतरावाप्ति: गति:’ एक भव को छोड़कर दूसरे भव के ग्रहण करने का नाम गति है। गति के चार भेद हैं-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति। एक-एक गति से आने के और उसमें जाने के कितने द्वार हैं सो ही देखिए-
नरकगति से आने-जाने के द्वार
(१) नरकगति से आने के दो द्वार हैं और नरकगति में जाने के भी दो ही द्वार हैं-एक मनुष्य और द्वितीय तिर्यंच। अर्थात् मनुष्य या पंचेन्द्रिय तिर्यंच ही मरकर नरकगति में जा सकते हैं तथा नरकगति से निकलकर जीव मनुष्य या पंचेन्द्रिय तिर्यंच ही हो सकते हैं, अन्य गति में नहीं जा सकते हैं।
असैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पहले नरक तक ही जा सकते हैं इससे नीचे नरकों में नहीं चूँकि वे मन के बिना इतना अधिक पाप नहीं कर सकते हैं। सरीसृप तिर्यंच दूसरे नरक तक ही जा सकते हैं इससे नीचे नहीं। पक्षीगण कदाचित् नरक जावें तो तीसरे नरक तक ही जा सकते हैं इससे नीचे नहीं जा सकते हैं। सर्प चौथे नरक तक जा सकते हैं इससे नीचे नरकों में नहीं। सिंह कितना भी अधिक पाप क्यों न करे किन्तु वह पाँचवें नरक तक ही जन्म ले सवâता है छठे या सातवें में नहीं। स्त्रियाँ अधिक से अधिक पाप करके भी छठे नरक तक ही जा सकती हैं, सातवें में नहीं चूँकि उनके उत्तम संहननों का अभाव है। पुरुष और मत्स्य सातवें नरक तक गमन करने की शक्ति रखते हैं। स्वयंभूरमण समुद्र में रहने वाले महामत्स्य और उसके कान में रहने वाले तन्दुल मत्स्य यदि हिंसा करते हैं या तंंदुल मत्स्य जो कि सभी जीवों के खाने का भाव ही किया करता है, ये मत्स्य हिंसा के अभिप्राय से सातवें नरक में भी चले जाते हैं। यह तो हुई नरक गति में जाने वालों की बात। अथवा नरक गति में जाने के ये दो ही गतिरूप द्वार बताये हैं। अब वहाँ से आने वालों की गतियों को देखिए-
सातवें नरक से निकला हुआ जीव क्रूर पंचेन्द्रिय पशु ही होता है, वह मनुष्य नहीं हो सकता है। छठे नरक से निकला हुआ जीव मनुष्य भी हो सकता है अर्थात् तिर्यंच या मनुष्य इन दो ही गतियों में जन्म ले सकता है और यह मनुष्य या तिर्यंच मोहकर्म के मंद हो जाने से कदाचित् गुरुओं का उपदेश या देवों का सम्बोधन प्राप्त करके अथवा जिनेन्द्रदेव के जन्म आदि कल्याणकों को या रथयात्रा आदि महामहोत्सवों को देखकर अथवा जातिस्मरण हो जाने के निमित्त आदि कारणों से सम्यक्त्व को भी ग्रहण कर सकता है किन्तु इस छठे नरक से आये हुए जीव के भाव अणुव्रत या महाव्रत ग्रहण के नहीं हो सकते हैं चूँकि उसमें अभी इतने पापकर्म मंद नहीं हो पाते हैं। पाँचवें नरक से निकला हुआ जीव यदि मनुष्य हुआ है तो महाव्रत ग्रहण कर मुनि होने की भी क्षमता रखता है तथा यदि तिर्यंच है तो वह देशव्रत ग्रहण कर सकता है। चतुर्थ नरक से निकले हुए जीव में से यदि कोई मनुष्य हुआ है तो वह कदाचित् मुनिपद ग्रहण कर केवलज्ञान भी प्राप्त कर सकता है और यदि तिर्यंच है तो वह देशव्रती तक हो सकता है। तीसरे नरक से निकला हुआ जीव तीर्थंकर भी हो सकता है अर्थात् यदि किसी जीव ने यहाँ पर पहले नरकायु का बंध कर लिया अनन्तर उपशम या क्षयोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ पुन: केवली भगवान के या श्रुतकेवली के पादमूल में सोलहकारण भावनाओं को भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लिया तो वह जीव मरने के कुछ क्षण ही पूर्व सम्यक्त्व से च्युत होकर तीसरे नरक में चला जाता है और वहाँ पर पर्याप्त अवस्था को प्राप्त होते हुए पुन: सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है तो फिर वहाँ अपनी आयुपर्यंत सम्यग्दृष्टि रहता है और उसके वहाँ से निकलने के छह महीने पहले ही देवगण वहाँ पर जाकर उस नारकी जीव (भावी तीर्थंकर) की सुरक्षा की व्यवस्था बना देते हैं-उसके चारों ओर परकोटा सुरक्षित कर देते हैं तथा वे देवगण यहाँ मध्यलोक में जन्म नगरी में अतिशय शोभा करके माता के आंगन में रत्नों की वर्षा प्रारंभ कर देते हैं। श्री, ह्री आदि देवियाँ इन्द्र महाराज की आज्ञा से आकर माता की सेवा करती हैं, गर्भशोधन आदि क्रियाएँ करती हैं।
अनन्तर तीर्थंकर होने वाला वह जीव नरक से निकलकर माता के गर्भ में प्रवेश करता है तब इन्द्र शची सहित असंख्य देव परिवारों के साथ आकर तीर्थंकर के माता-पिता की पूजा करके महान उत्सव के साथ गर्भकल्याणक मनाते हैं। तात्पर्य यह रहा कि तीसरे नरक से निकलकर जीव तीर्थंकर भी हो सकते हैं।
इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि दूसरे और पहले नरक से निकले हुए जीव तीर्थंकर भी हो सकते हैं, केवली भी हो सकते हैं और मोक्षपद को भी प्राप्त कर सकते हैं किन्तु नरकों से निकले हुए जीव चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण या प्रतिनारायण नहीं हो सकते हैं यह बात विशेष है। इस तरह नरकगति से आने के द्वार अर्थात् गतियाँ बताई गई हैं। इसमें यह बात खासतौर से समझने की है कि जो नरक से निकलकर तीर्थंकर या केवली आदि होते हैं वह सब सम्यक्त्व का ही माहात्म्य है। सातवें नरक से जीव सम्यक्त्व लेकर नहीं निकल सकते हैं किन्तु अन्य नरकों से सम्यक्त्व लेकर भी निकल सकते हैं। सातों ही नरकों में जीव सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर सकते हैं। नरकों में सम्यक्त्व के बहिरंग कारणों में वेदना अनुभव, जातिस्मरण और देवों द्वारा सम्बोधन, ये ३ कारण माने गये हैं। देवों द्वारा सम्बोधन तृतीय नरक तक ही है इससे नीचे कोई भी देव नहीं जाते हैं अत: चतुर्थ आदि नरकों में दो ही कारण हैं। यदि किसी मनुष्य ने पहले नरकायु बांध ली है और बाद में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया है तो वह पहले नरक में ही जा सकता है, इससे नीचे नहीं।
नरकगति में नारकियों की जघन्य आयु दस हजार वर्ष एवं उत्कृष्ट आयु में तेंतीस सागर प्रमाण है। इनकी आयु का विस्तृत वर्णन तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रंथों से जानना चाहिए।
तात्पर्य यही समझना चाहिए कि बिना सम्यक्त्व के बिना यह जीव अनन्तों बार नरकगति में जा चुका है और वहाँ से आकर मनुष्य भव को भी प्राप्त कर संसार में ही घूमता रहता है। यदि संसार भ्रमण को समाप्त करना है तो सम्यक्त्व को ग्रहण करना चाहिए।
तिर्यग्गति से आने-जाने के द्वार
पंचेन्द्रिय पशु यदि मरण करते हैं तो वे चौबीसों दण्डक में (चारों गतियों में) जा सकते हैं। तो पहले आप चौबीस दण्डक को समझ लीजिए-
नरक गति का दण्डक-१, भवनवासी के दण्डक-१०, ज्योतिषी देव का-१, व्यंतरों का-१, वैमानिक देवों का-१, स्थावर के-५, विकलत्रय के-३, पंचेन्द्रिय तिर्यंच का-१ और मनुष्य का-१, ऐसे १+१० +१+१+१+५+३+१+१=२४ ये चौबीस दण्डक माने गये हैं।
पंचेन्द्रिय तिर्यंच इन चौबीसों दण्डकों में जा सकते हैं और चौबीस दण्डक से आये हुए जीव पशु हो सकते हैं।
विकलत्रय अर्थात् दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय और चार इंद्रिय जीवों के जाने की तथा आने की दश ही गति हैं। ये विकलत्रय मरकर पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य इन दश स्थानों में जन्म ले सकते हैं तथा इन दश स्थानों से निकलकर ही विकलत्रय होते हैं अर्थात् विकलत्रय जीव तिर्यंच गति और मनुष्य गति में ही तो जन्म ले सकते हैं और तिर्यंच या मनुष्य ही मरकर विकलत्रय हो सकते हैं। ये विकलत्रय जीव मरकर देवगति या नरकगति में नहीं जा सकते हैं और न देवगति या नरकगति से निकलकर जीव विकलत्रय ही हो सकते हैं। इनका अस्तित्व भी कर्मभूमि में ही है। ये जीव न नरक भूमि में हैं, न स्वर्ग भूमि में हैं, न भोगभूमि में हैं और न असंख्यात द्वीप समुद्रों में ही जन्मते हैं। ये मात्र कर्मभूमियों में, लवण समुद्र, कालोदधि समुद्र में, स्वयंभूरमण द्वीप के उत्तर भाग की कर्मभूमि में तथा स्वयंभूरमण समुद्र में ही जन्मते हैं, अन्यत्र ये नहीं पाये जाते हैं।
नारकियों के बिना बाकी शेष तेईस दंडक के जीव मरकर पृथ्वीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक में जन्म ले सकते हैं अर्थात् भवनत्रिक देव और वैमानिक में ईशान स्वर्ग तक के देव मरकर इन तीनों स्थावर में जन्म ले सकते हैं तथा ये तीनों स्थावर मरकर देवगति और नरकगति के सिवाय सर्वत्र दश दण्डकों में अर्थात् पाँचों स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पशु और मनुष्य में जन्म ले सकते हैं।
तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव मरकर पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पशु इन नव स्थानों में ही जन्म ले सकते हैं। वे मरकर मनुष्य, नारकी या देव नहीं हो सकते हैं। तथैव देव या नारकी भी इन दो स्थावरों में जन्म नहीं ले सकते हैं, किन्तु मनुष्य मरकर अग्निकायिक व वायुकायिक हो सकते हैं अर्थात् एक मनुष्य गति ही ऐसी गति है कि जिससे जाने के लिए सभी मार्ग खुले हुए हैं।
तिर्यंचों की आयु
शुद्ध पृथ्वीकायिक जीव की उत्कृष्ट आयु १२ हजार वर्ष, खर पृथ्वीकायिक जीव की २२ हजार वर्ष, जलकायिक जीव की ७ हजार वर्ष, अग्निकायिक जीव की ३ दिन, वायुकायिक जीव की ३ हजार वर्ष और वनस्पतिकायिक जीव की १० हजार वर्ष प्रमाण है।
विकलेन्द्रियों में दो इन्द्रिय की १२ वर्ष, तीन इन्द्रियों की ४९ दिन और चार इन्द्रियों की ६ मास प्रमाण है।
पंचेन्द्रियों में सरीसृप की उत्कृष्ट आयु ९ पूर्वांग, पक्षियों की ७२ हजार वर्ष और सर्पों की ४२ हजार वर्ष है। शेष तिर्यंचों की उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि प्रमाण है।
यह उपर्युक्त आयु पूर्व-पश्चिम विदेहों में उत्पन्न हुए तिर्यंचों के तथा स्वयंप्रभपर्वत के बाह्य कर्मभूमि भाग में उत्पन्न हुए तिर्यंचों के तो सर्वकाल पायी जाती है तथा भरत और ऐरावत क्षेत्र के भीतर चतुर्थकाल के प्रथम भाग में किन्हीं तिर्यंचों के पाई जाती है।
एकेन्द्रिय जीवों की जघन्य आयु उच्छ्वास के अठारहवें भाग प्रमाण है तथा विकलेन्द्रिय एवं सकलेन्द्रियों की क्रमश: इससे उत्तरोत्तर संख्यातगुणी है।
उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि के तिर्यंचों की उत्कृष्ट आयु क्रम से तीन पल्य, दो पल्य और एक पल्य है। शाश्वत भोगभूमियों में जघन्य, मध्यम व उत्कृष्ट ये तीन प्रकार ही हैं।
अशाश्वत भोगभूमि में से जघन्य भोगभूमि में जघन्य आयु एक समय अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट एक पल्य प्रमाण है और मध्यम आयु के भेद अनेक प्रकार हैं। मध्यम भोगभूमि में जघन्य आयु एक समय अधिक एक पल्य और उत्कृष्ट आयु दो पल्य है तथा मध्यम में अनेक भेद हैं। उत्तम भोगभूमि में जघन्य आयु एक समय अधिक दो पल्य और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य है, मध्यम के अनेक भेद हैं।
हैमवत, हरि, विदेह के देवकुरु-उत्तरकुरु, रम्यव्â और हैरण्यवत् ये छह, ऐसे ही पाँच मेरु संबंधी ३० भोगभूमि शाश्वत अनादिनिधन हैं उनमें परिवर्तन का कोई सवाल ही नहीं है तथा पाँच भरत और पाँच ऐरावतों के आर्य खण्डों में जो षट्काल परिवर्तन से तीन कालों में उत्तम, मध्यम, जघन्य भोगभूमि होती हैं, वे अशाश्वत हैं उनमें अवसर्पिणी युग में क्रम से हानि और उत्सर्पिणी में क्रम से वृद्धि चलती रहती है। वहीं पर जघन्य, मध्यम आयु होती हैं।
भोगभूमिज तिर्यंचों के आने-जाने के द्वार-कर्मभूमियाँ मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच ही भोगभूमि में जाते हैं तथा भोगभूमि से मरकर तिर्यंच जीव नियम से देवगति में ही जाते हैं। भवनत्रिक से ईशान स्वर्ग तक इनका जाने का मार्ग खुला है। कर्मभूमि के असंयत सम्यग्दृष्टी या देशव्रती तिर्यंच अधिक से अधिक सोलहवें स्वर्ग तक जा सकते हैं, ऐसा भी विधान है।
तिर्यंचों में गुणस्थान-पंचेन्द्रिय संज्ञी जीवों के अतिरिक्त पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय इनके एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है अर्थात् ये बेचारे मिथ्यादृष्टी ही बने रहते हैं।
भरत, ऐरावत के आर्यखण्ड के तिर्यंचों में पाँच गुणस्थान तक हो सकते हैंं। पाँच विदेहों में, विद्याधर श्रेणियों में व स्वयंप्रभ पर्वत के बाह्य भाग में तिर्यंचों के पाँच गुणस्थान तक देखे जाते हैं।
म्लेच्छों के तिर्यंचों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है।
भोगभूमिज तिर्यंचों के पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा ये चार गुणस्थान तक हो सकते हैं। वहाँ पर पाँचवाँ देशविरत गुणस्थान नहीं होता है।
सम्यक्त्व प्राप्ति के कारण-कितने ही तिर्यंच गुरुओं के उपदेश से या देवों के प्रतिबोध से तथा कितने ही जीव स्वभाव से प्रथमोपशम अथवा वेदक सम्यक्त्व ग्रहण कर लेते हैं तथा कितने ही सुख-दु:ख को देखकर, कितने ही जातिस्मरण से, कितने ही जिनेन्द्र महिमा के दर्शन से और कितने ही जिनबिम्ब के दर्शन से सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लेते हैं। इसी प्रकार से कर्मभूमिज जीव गुरुओं के उपदेश या देवों के प्रतिबोध आदि कारणों से पाँच अणुव्रतों को ग्रहणकर देश-संयत भी हो जाते हैं। तिर्यंचगति में सम्यक्त्व प्राप्ति के मुख्य तीन कारण हैं-जाति स्मरण, धर्मोपदेश और जिनबिम्बदर्शन।
सम्यग्दृष्टी तिर्यंच मरकर नियम से देवगति में वैमानिक देव होते हैं अर्थात् भवनत्रिक में नहीं जाते हैं और न अन्यत्र तीन गतियों में ही जाते हैं। यदि इन्होंने पहले तिर्यंचायु या मनुष्यायु बांध ली, पीछे सम्यक्त्व ग्रहण किया है तो सम्यक्त्व सहित ये जीव भोगभूमि के तिर्यंच या मनुष्य हो जाते हैं पुन: वहाँ से नियम से सौधर्म या ईशान स्वर्ग में देव हो जाते हैं।
इन तिर्यंचों में से भोगभूमिज तिर्यंचों में संकल्पवश से केवल एक सुख ही होता है और कर्मभूमिज तिर्यंचों में सुख-दु:ख दोनों ही पाये जाते हैं।
मनुष्यगति से आने-जाने के द्वार
मनुष्यगति में प्राप्त करने योग्य सबसे श्रेष्ठ जो स्थान ‘मुक्तिधाम’ है यदि आप इस मनुष्य पर्याय से उस मोक्ष पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिए धर्म पुरुषार्थ का अवलंबन कर लेते हैं तो ठीक है अन्यथा इस चिंतामणि सदृश मनुष्य गति से आप निगोद में भी जा सकते हैं-जहाँ से पुन: निकलना बहुत ही दुर्लभ हो जाता है अत: सभी पर्यायों में सार मनुष्य पर्याय है, मनुष्य पर्याय का सार संयम है और संयम का सार निर्वाण सुख है, ऐसा समझकर संयम को ग्रहण कर लेना चाहिए।
मनुष्य चौबीसों दण्डक में जा सकता है इसमें किंचित् भी संदेह नहीं है। यह मनुष्य मुक्ति को भी प्राप्त करके तीन लोक का स्वामी हो सकता है। चूँकि मुनि बने बिना कोई भी जीव मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है और मनुष्य के अतिरिक्त कोई भी मुनि हो नहीं सकता। जो सम्यग्दृष्टी मुनि होते हैं वे ही इस संसार समुद्र को पार कर शिवधाम में पहुँचते हैं वहाँ पर जाकर अविनश्वर हो जाते हैं फिर पुन: उन्हें यहाँ आने का कोई मार्ग ही नहीं रहता है। वहाँ पर वे शाश्वत चिच्चैतन्य-स्वरूप अपनी आत्मा में ही निवास करते हैं और परमानंदमय सुख का अनुभव करते रहते हैं।
इस प्रकार से मनुष्यगति से जाने के गति द्वार पच्चीस हो जाते हैं तथा मनुष्यगति में आने के द्वार बाईस ही हैं। चूँकि अग्निकायिक और वायुकायिक जीव मरकर मनुष्य नहीं हो सकते हैं तथा पच्चीसवाँ दण्डक जो सिद्धगतिरूप है वहाँ से आने का तो सवाल ही नहीं उठता है। यह तो सामान्य मनुष्यों की बात हुई है। अब विशेष अर्थात् पदवीधारी मनुष्यों की गति-आगति को देखिए-
तीर्थंकर के आने के दो द्वार हैं-या वे स्वर्ग से आते हैं या नरक से और पुन: वे गति अर्थात् जन्म को धारण नहीं करते हैं बल्कि उसी भव से लोक के अग्रभाग पर जाकर विराजमान हो जाते हैं अत: तीर्थंकर के आने के द्वार दो हैं और जाने का द्वार एक पच्चीसवें दण्डकरूप मोक्ष ही है।
चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र ये स्वर्ग- लोक से ही आते हैं अत: इनके आने का द्वार एक ही है तथा इनमें से चक्रवर्ती स्वर्ग, नरक या मोक्ष इन तीन स्थानों में जा सकते हैं। यदि चक्रवर्ती तपश्चरण करते हैं अर्थात् दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं तो स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं और यदि राज्य में मरण करते हैं तो नरक में चले जाते हैं किन्तु अंत में ये मोक्ष को नियम से प्राप्त करते हैं चूँकि पदवीधारी हैं। बलभद्रों के लिए जाने के दो ही द्वार हैं-स्वर्ग या मोक्ष। क्योंकि ये नियम से तपश्चरण धारण करते हैं। अर्धचक्री अर्थात् नारायण और प्रतिनारायण ये नियम से नरक ही जाते हैं चूँकि ये राज्य में ही मरते हैं अत: ये उस ही भव से मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सकते हैं किन्तु अंत में ये नियम से निर्वाण प्राप्त करते ही करते हैं अर्थात् ये चक्रवर्ती या अर्धचक्री उस भव से यदि नरक भी चले जाते हैं तो भी कतिपय भवों को धारण कर पुन: ये मोक्ष अवश्य प्राप्त करते हैं। चूँकि पदवीधारक पुरुषों के आखिर में मोक्ष का नियम ही है। यह शलाका पुरुषों की बात हुई। इनके अतिरिक्त भी जो पदवीधर हैं उनके विषय में पढ़िये-
जो कुलकर हो जाते हैं, या नारद हो जाते हैं या रुद्र हो जाते हैं और कामदेव हो जाते हैं या तीर्थंकर के माता-पिता हो जाते हैं, वे भी इन पदों को धारण करने के बाद कुछ भव के बाद मोक्ष को अवश्य ही प्राप्त करते हैं चूँकि इन पदों को धारण करने वाले जीव बहुत काल तक संसार में भ्रमण नहीं कर सकते हैं। कुलकर चौदह होते हैं, नारद नव होते हैं, रुद्र ग्यारह होते हैं और कामदेव चौबीस होते हैं।
कुलकर स्वर्ग में ही जाते हैं अत: इनके जाने का एक ही द्वार है तथा आने में ये इस अवसर्पिणी में तो विदेह क्षेत्र में पहले मनुष्यायु बांध कर पीछे क्षायिक सम्यग्दृष्टि हुए हैं अत: वे यहाँ भरतक्षेत्र के तृतीय काल के अंत में भोगभूमि में कुलकर हुए हैं। जन्मांतर में ये भी निर्वाण को प्राप्त करते हैं।
कामदेव पदवी धारक पुरुष नियम से कामदेव का नाशकर मोक्षधाम को प्राप्त करते हैं। नारद और रुद्र अधोगति में ही अर्थात् न्ारक में ही जाते हैं क्योंकि नारद तो कलहप्रिय होते हैं और रुद्र अपने जीवन को पाप से कलंकित कर लेते हैं। फिर भी ये नारद और रुद्र भी जन्मांतर में नियम से मोक्ष प्राप्त करते हैं।
तीर्थंकर के पिता या तो स्वर्ग जाते हैं या सिद्धपद प्राप्त करते हैं अत: इनके भी जाने के दो ही द्वार हैं। माता स्वर्ग ही जाती हैं पुन: अल्पकाल में ही निर्वाण को प्राप्त कर लेती हैं।
शाश्वत भोगभूमि और अशाश्वत भोगभूमि दोनों भोगभूमि से मनुष्यों के जाने का एक ही द्वार है-देवगति अर्थात् भवनत्रिक या सौधर्म-ईशान स्वर्ग तक ये जीव मरकर जा सकते हैं। भोगभूमि में आने के दो द्वार हैं-कर्मभूमि के पंचेन्द्रिय तिर्यंच या मनुष्य। अर्थात् ये ही जीव मरकर भोगभूमि में जा सकते हैं।
मनुष्यों की आयु-मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व वर्ष की है और जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। यह आयु कर्मभूमियाँ जीवों की है। पूर्व-पश्चिम विदेह में तथा चतुर्थकाल के पूर्वकाल में यह उत्कृष्ट आयु होती है। मध्यम आयु के अनेक भेद हैं। भोगभूमि में उत्तम में तीन पल्य, मध्यम में दो पल्य और जघन्य में एक पल्य आयु है। परिवर्तनशील भोगभूमियों में उत्कृष्ट तो यही आयु है। जघन्य आयु उत्तम भोगभूमि में एक समय अधिक दो पल्य, मध्यम भोगभूमि में एक समय अधिक एक पल्य और जघन्य भोगभूमि में एक समय अधिक एक पूर्वकोटिप्रमाण है तथा मध्यम आयु के अनेक भेद हैं।
लवण समुद्र आदि में कुभोगभूमियों में कुमानुष रहते हैं, ये भी मरकर देवगति को ही प्राप्त करते हैं।
विजयार्ध पर्वत की दक्षिण-उत्तर श्रेणियों में जो मनुष्य रहते हैं वे विद्याधर कहलाते हैं। इनमें कुछ विद्याएँ जाति और कुल की परम्परा से प्राप्त रहती है, कुछ विद्याएँ सिद्ध करके ये लोग नाना प्रकार से विद्याओं के निमित्त से सुखों का अनुभव करते हैं।
मनुष्यों में गुणस्थान व्यवस्था-विदेह क्षेत्रोें में हमेशा चौदहों गुणस्थान पाये जाते हैं अर्थात् वहाँ से हमेशा मोक्ष का द्वार खुला रहता है। भोगभूमि में चार गुणस्थान तक ही हो सकते हैं। सभी म्लेच्छों के मनुष्यों को वहाँ पर एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है।
विद्याधरों के चौदह गुणस्थान तक हो जाते हैं, जबकि ये विद्याओं को छोड़कर दीक्षा ले लेते हैं तब, अन्यथा विद्यासहित अवस्था में पाँच गुणस्थान तक हो सकते हैं अर्थात् विद्या सहित जीव कदाचित् क्षुल्लक बन सकते हैं किन्तु मुनि नहीं बन सकते।
भरत-ऐरावत क्षेत्र में मनुष्यों के चतुर्थकाल में चौदह गुणस्थान होते हैं। चतुर्थकाल के जन्मे हुए मनुष्य कदाचित् पंचमकाल में मोक्ष जा सकते हैं किन्तु पंंचमकाल के जन्मे हुए नहीं जा सकते। पंचमकाल में उत्तम तीन संहनन के न होने से अधिक से अधिक सोलह स्वर्ग तक का मार्ग खुला है। कदाचित् कोई महामुनि लौकांतिक देव भी हो सकते हैं अर्थात् पंचमकाल में छठा, सातवाँ गुणस्थान होता है अत: मुनियों का अस्तित्व अंत तक है।
सम्यक्त्वग्रहण के कारण-कितने ही मनुष्य गुरुओें के उपदेश से या देवों के प्रतिबोधन से अथवा स्वभाव से सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लेते हैं। कितने ही मनुष्य जातिस्मरण से, कितने ही जिनेन्द्रदेव के कल्याणकों को देखकर, कितने ही जीव जिनबिम्ब के दर्शन से औपशमिक आदि सम्यक्त्व को ग्रहण कर लेते हैं क्षायिक सम्यक्त्व तो केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही प्रगट होता है अत: आज पंचमकाल में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हो सकता है। मनुष्यगति में सम्यक्त्व उत्पत्ति के मुख्य तीन कारण हैं-जातिस्मरण, धर्मोपदेश एवं जिनबिम्बदर्शन।
सम्यक्त्वग्रहण के पहले यदि इसने तिर्यंचायु या मनुष्यायु बांध ली है पुन: क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया तो यह जीव भोगभूमि का तिर्यंच या मनुष्य होगा, अन्यथा स्वर्ग ही जाएगा। सम्यग्दृष्टि जीव मरकर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असैनी आदि नहीं होता है, स्त्री या नपुंसक नहीं होता है और न वह दरिद्री, विकलांग, अल्पायु ही होता है किन्तु महापुरुष होकर कालांतर में या उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
भव्यात्माओं! आपको शायद देवगति सबसे अधिक प्रिय लगती हो, किन्तु देखिये! देवगति के सुख भोगकर यह जीव वहाँ की आयु पूर्णकर नियम से मरेगा और मरकर तिर्यंच होगा या मनुष्य। यदि मिथ्यादृष्टि है और वहाँ के भोगों को छोड़ते हुए अधिक संक्लेश हो रहा है तो प्राय: वही जीव एकेन्द्रिय स्थावर योनि में पृथ्वी, जल या वनस्पति हो जाता है, फिर वहाँ से निकलने का क्या उपाय है! इन्हीं तुच्छ कुयोनियों में यह जीव भटकता रहता है क्योंकि एकेन्द्रिय में कान के बिना गुरू का उपदेश आदि है ही नहीं, अत: देवगति की इच्छा नहीं करना चाहिये।
देवगति से आने-जाने के द्वार
देवों के तेरह दंडक माने हैं-भवनवासी देवों के १०, व्यंतरवासी देवों का १, ज्योतिषी देवों का १ और वैमानिक देवों का १, ऐसे १० + १ + १ + १ = १३ दंडक देवसंबंधी हैं।
मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच इनके बिना कोई भी देवपद को प्राप्त नहीं कर सकते हैं अर्थात् स्थावर व विकलत्रय तिर्यंच देवगति प्राप्त नहीं कर सकते हैं तथा देव और नारकी भी देवगति प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
देवों के लिये जाने के पाँच द्वार हैं-पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक, पंचेन्द्रिय पशु और मनुष्य। अर्थात् देव मरकर इन पाँच पर्यायों में जन्म धारण कर सकते हैं। भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिषी देव तथा वैमानिवâ देवों में से सौधर्म, ईशान इन दो स्वर्गों तक के देव ही मरकर कदाचित् स्थावर योनि में जन्म ले सकते हैं, इनसे आगे के देव नहीं तथा बारहवें स्वर्ग तक के देव मरकर कदाचित् पंचेन्द्रिय तिर्यंच हो सकते हैं आगे के नहीं। अर्थात् दूसरे स्वर्ग तक देवों के लिये तीन स्थावर काय, पशु और मनुष्य इन पाँचों में आने का द्वार खुला हुआ है, तीसरे स्वर्ग से लेकर बारहवें स्वर्ग तक के देवों के लिए स्थावर का द्वार बंद हो गया है, मात्र पंचेन्द्रिय पशु और मनुष्य इनका द्वार खुला हुआ है, तथा उससे ऊपर के देवों के लिए एक मनुष्य का ही द्वार शेष है बाकी सभी द्वार बंद हैं। ये तो देवों के आने के द्वार आपने सुने, अब जाने के द्वार भी देखिये-
पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य ही देवगति को प्राप्त कर सकते हैं अन्य नहीं। इसमें भी भोगभूमि के मनुष्य या पशु मरकर भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों में अथवा सौधर्म, ईशान स्वर्ग में जन्म ले सकते हैं अर्थात् इनके लिये दूसरे स्वर्ग तक ही मार्ग खुला हुआ है, आगे नहीं। किन्तु देव, मरकर भोगभूमि में जन्म नहीं ले सकते हैं, यह नियम है। कर्मभूमियां मनुष्य और तिर्यंच ही भोगभूमि में जाते हैं अन्य कोई नहीं जा सकते हैं।
कर्मभूमि के तिर्यंच यदि सम्यक्त्व और अणुव्रत धारण कर लेते हैं तो वे बारहवें स्वर्ग तक चले जाते हैं।
असंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्य बारहवें स्वर्ग तक जा सकते हैं।
अन्यमती साधु पंचाग्नि तप करके भवनत्रिक देवों तक जा सकते हैं। पारिव्राजक और दंडी साधु अधिक से अधिक पाँचवें स्वर्ग तक जा सकते हैं। परमहंस नामक साधु बारहवें स्वर्ग तक जा सकते हैं इसके ऊपर नहीं जा सकते। परमत से मोक्ष की सिद्धि नहीं है चूँकि कर्मों का नाश जैनमत के बिना सर्वथा असम्भव ही है।
श्रावक और श्राविकाएँ भले ही वे क्षुल्लक, ऐलक या क्षुल्लिका ही क्यों न हों किन्तु ये सोलहवें स्वर्ग तक ही जा सकते हैं, इसके आगे नहीं। क्योंकि बिना मुनिपद धारण किये आगे जाना असंभव है। द्रव्यलिंगी मुनि नवग्रैवेयक तक जा सकते हैं, आगे नहीं। भावलिंगी महामुनि ही नवअनुदिश और पाँच अनुत्तरों में जन्म लेते हैं।
यह जीव कितनी ही बार देवपद को प्राप्त कर चुका है किन्तु उनमें भी कुछ ऐसे पद हैं जिन्हें नहीं पाया, नहीं तो अब तक मोक्ष को प्राप्त कर लेता।
इंद्र पद को इसने नहीं पाया अर्थात् सौधर्म आदि छह दक्षिणेंद्र नियम से एक भवावतारी होते हैं। उन्हीं के लोकपाल पद को भी इसने नहीं पाया चूँकि वे भी मोक्षगामी हैं। शचीदेवी भी नियम से वहाँ से नरलोक में आकर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त कर लेती हैं चूँकि तीर्थंकरों के जन्म महोत्सव में जब इंद्राणी बालक को प्रसूतिगृह में लेने जाती हैं उस समय उन्हें तीर्थंकर शिशु को स्पर्श कर इतना आनन्द होता है कि वे उसी समय अपनी स्त्रीपर्याय का छेद कर देती हैं। दूसरी बात यह है कि शचिदेवी को नियम से उस पर्याय में सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद पुन: स्त्रीवेद का बंध नहीं होता है।
लौकांतिक देव तथा अनुत्तरवासी देवों के लिये भी निर्वाण का नियम है। लौकांतिक देव तो एक भवावतारी ही होते हैं और विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित इन विमानों के देव द्विचरम माने गये हैं अर्थात् अधिक से अधिक दो भव लेकर मोक्ष प्राप्त करते हैं तथा सर्वार्थसिद्धि के देव नियम से वहाँ से आकर एक भव से ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
इस सर्वार्थसिद्धि के ऊपर सिद्धलोक में जाने वाले जीव अर्थात् मुक्त होने वाले जीवों के आने का द्वार तो बंद ही है और मुक्तगति में जाने के लिए एक मनुष्यगति का ही द्वार है।
भवनवासी, व्यंतरवासी और ज्योतिषी इन तीन प्रकार के देवों में सम्यग्दृष्टि जीव जन्म नहीं लेते हैं किन्तु वहाँ पर सम्यक्त्व ग्रहण कर सकते हैं।
सम्यक्त्वोत्पत्ति के कारण-कोई देव जिनमहिमा के दर्शन से, कोई जातिस्मरण से, कोई देवों की ऋद्धि देखने से, कोई पाँच कल्याणकों का उत्सव देखने से और कोई देव उपदेश के श्रवण से सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लेते हैं अत: भवनत्रिकों में भी चार गुणस्थान होते हैं। देवगति में सम्यक्त्वोत्पत्ति के मुख्य चार कारण माने हैं-जातिस्मरण, जिनमहिमादर्शन, धर्मोपदेश एवं देवर्द्धिदर्शन।
कल्पवासी देवों में भी नवग्रैवेयक तक भाव मिथ्यादृष्टी जीव जा सकते हैं, द्रव्य से मिथ्यावेषधारी पाखंडी अर्थात् जिनमत के बाह्य साधु तो बारहवें स्वर्ग के ऊपर नहीं जा सकते हैं। आगे के विमानों में अर्थात् नवअनुदिश और अनुत्तरों में सम्यग्दृष्टि ही उत्पन्न होते हैं अत: नवग्रैवेयक तक जीव यदि मिथ्यादृष्टी हैं तो वे सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते हैं इसलिये वहाँ तक चारों गुणस्थान होते हैं।