त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर परमानंदैककारण कुरुष्व।
मयि किंकरेऽत्र करुणां यथा तथा जायते मुक्ति:।।१।।
अर्थ —हे तीनों लोकों के गुरु! हे कर्मों के जीतने वाले महात्माओं के स्वामी! और हे उत्कृष्ट मोक्षरूपी आनंद के देने वाले जिनेन्द्र! मुझदास पर ऐसी दया कीजिये जिससे कि मेरा मोक्ष हो जावे अर्थात् समस्त पाप कर्मों से मैं सर्वथा छूट जाऊँ।।१।।
निर्विण्णोहं नितरामर्हन् बहुदु:खया भवस्थित्या।
अपुनर्भवाय भवहर कुरु करुणामत्र मयि दीने।।२।।
अर्थ —हे समस्त घातिया कर्मों को जीतने वाले अर्हंत भगवान! अनेक प्रकार के दु:खों को देने वाली ऐसी जो संसार की स्थिति है, उससे मैं सर्वथा खिन्न हूँ इसलिये हे संसार के नाश करने वाले जिनेन्द्र ! इस संसार में मुझ दीन पर ऐसी दया कीजिये जिससे मुझे फिर से जन्म न धारण करना पड़े अर्थात् मैं मुक्त हो जाऊँ।।२।।
उद्धर मां पतितमतो विषमाद्भवकूपत: कृपां कृत्वा।
अर्हन्नलमुद्धरणे त्वमसीतिं पुन: पुनर्वच्मि।।३।।
अर्थ —हे प्रभो ! मैं इस भयंकर संसाररूपी कूएँ में पड़ा हुआ हूँ इसलिये मेरे ऊपर दया करके मुझे इस संसाररूपी भयंकर कुएँ से बाहर निकालिये क्योंकि हे अर्हन् ! हे भगवन् ! इस कूप से मुझे निकालने में आप ही समर्थ हैं ऐसा मैं फिर-फिर से आपकी सेवा में निवेदन करता हूँ।।३।।
त्वं कारुणिक: स्वामी त्वमेव शरणं जिनेश तेनाहम्।
मोहरिपुदलितमान: पूत्कारं तव पुर: कुर्वे।।४।।
अर्थ —हे जिनेश ! हे प्रभो ! यदि संसार में कोई दयावान है, तो आप ही हैं और भव्यजीवों के शरण हैं तो आप ही हैं इसलिये मोहरूपी बैरी ने जिसका मान (अभिमान) नष्ट कर दिया है, ऐसे मैं आपके सामने ही फूत्कार को करता हूँ अर्थात् फुक्का मार-मार कर रोता हूँ।।४।।
ग्रामपतेरपि करुणा परेण केनाप्युपद्रुते पुंसि।
जगतां प्रभो न किं तव जिन मयि खलकर्मभि: प्रहते।।५।।
अर्थ —जो मनुष्य जिस गाँव का अध्यक्ष (मुखिया) है, यदि उस गाँव में किसी मनुष्य पर कोई अन्य मनुष्य आकर उपद्रव करे अर्थात् उसको दु:ख देवे तो वह ग्राम का मुखिया भी जब उस दु:खित मनुष्य पर करुणा करता है, तो हे जिनेन्द्र! आप तो तीनों लोक के प्रभु हैं और मुझे अत्यंत दुष्ट कर्मों ने सता रक्खा है तो क्या आप मेरे ऊपर करुणा न करेंगे ? अवश्य ही दया करेंगे।।५।।
अपहर मम जन्म दयां कृत्वेत्येकत्र वचसि वक्तव्यो।
तेनातिदग्ध इति मे देव बभूव प्रलापित्वम्।।६।।
अर्थ —हे प्रभो ! सबका मूलभूत एक ही शब्द कह देना चाहिये, वह एक शब्द यही है कि कृपाकर आप मेरे जन्म को (संसार को) सर्वथा नष्ट करें क्योंकि मैं इस जन्म से अत्यंत दु:खित हूँ इसीलिये यह मेरा आपके सामने प्रलाप हुआ है अर्थात् मैं विलप-विलप कर रो रहा हूँ।।६।।
तव जिन चरणाब्जयुगं करुणामृतसंगशीतलं यावत्।
संसारातपतप्त: करोमि हृदि तावदेव सुखी।।७।।
अर्थ —हे प्रभो! हे जिनेन्द्र! संसाररूपी आतप से संतप्त हुआ मैं जब तक दयारूपी जल के संग से अत्यन्त शीतल ऐसे आपके दोनों चरण-कमलों को हृदय में धारण करता हूँ तभी तक मैं सुखी हूँ।
भावार्थ —जिस प्रकार कोई मनुष्य धूप के संताप से अत्यंत संतप्त होवे तथा उस समय पानी के संबंध से अत्यंत शीतल ऐसे कमलों को अपने हृदय पर धरे तो जिस प्रकार वह सुखी होता है, उसी प्रकार हे प्रभो! हे जिनेन्द्र! मैं भी संसार के प्रखर संताप से अत्यंत संतप्त हूँ इसलिये जब तक मैं दयारूपी जल के संबंध से अत्यंत शीतल ऐसे आपके दोनों चरण-कमलों को अपने हृदय में धारण करता हूँ, तब तक मैं अत्यंत सुखी रहता हूँ।।७।।
जगदेकशरण भवन्नसमश्रीपद्मनन्दितगुणौध।
किं बहुना कुरु करुणामत्र जने शरणमापन्ने।।८।।
अर्थ —इहे समस्त जगत के एकशरण! हे भगवन्! आपसे अतिरिक्त जनों में नहीं पाये जाये, ऐसे श्रीपद्मनंदि नामक आचार्य द्वारा गान किये गुणों के समूह को धारण करने वाले हे जिनेश ! हे प्रभो ! अब मैं विशेष कहाँ तक कहूँ! बस यही प्रार्थना है कि इस शरण में आये हुए जन पर अर्थात् मुझ पर आप इस संसार में दया करें।।८।।
इस प्रकार श्री पद्मनंदिआचार्यद्वारा विरचित श्री पद्मनंदिपंचविंशतिका में
करुणाष्टकनामक अधिकार समाप्त हुवा।