१. जैनागम मे श्रावक के शत् आवश्यक कर्त्तव्य बताए गये है | जिनको अवश्य ही करना होता है वे आवश्यक क्रियाए या कर्त्तव्य कहलाता है उनके छः भेद है- देवपूजा , गुरुपस्ति, स्वाध्याय , संयम, तप औरर दान |
जिनेन्द्र भगवान के चरणों की पूजा सम्पूर्ण दुखों का नाश करने वाली है और सभी मनोरथों को सफल करने वाली है | जिनेन्द्र भगवान की पूजा के बाद निग्रंथ दिगम्बर मुनियों के पास जाकर उन्हें भक्ति से नमोस्तु करके उनकी स्तुति करके अष्टद्रव्य से पूर्ववत् पूजन करनी चाहिए | उनके मुख से धर्मोंपदेश सुनना चाहिए | यदि अष्टद्रव्य से पूजा न कर सके तो अक्षत, फलादि चढ़कर नमस्कार करना चाहिए | अपनी बुद्धि के अनुसार जैन शास्त्रों का पढ़ना या पढ़ना स्वाध्याय कहलाता है | छहकाय के जीवों की दया करना एवं पांच इन्द्रिय और मन को वश करना संयम है | श्रावक अपनी योग्यता के अनुसार त्रस जीवों की दया करते हुए व्यर्थ मे स्थावर जीवों कका वध भी नहीं करे और यथाशक्ति अपने इन्द्रिय तथा मन पर नियत्रंण करे | अपनी शक्ति के अनुसार अनशन, ऊनोदर आदि बारह प्रकार के तपो का धारण करना, व्रतादि करना तप है | गृहस्थ की शत् आवश्यक कर्त्तव्यो मे दान महाक्रिया कहलाती है दान के बिना कोई श्रावक नहीं हो सकता है |
२. व्यवहार मे कर्त्तव्य का अर्थ है अपने दायित्व का निर्वाह करना जैसे – माता – पिता का पुत्र के प्रति , पुत्र का माता- पिता कके प्रति , व्यक्ति का समाज राष्ट्र के प्रति, राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक के प्रति , गुरु का शिष्य के प्रति तथा शिष्य का गुरु के प्रति , धर्म के प्रति इत्यादि जो भी कर्त्तव्य है उनका विधिवत् निर्वाह करना चाहिए |