मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। १. मिथ्यात्व के गृहीत और अगृहीत, ऐसे दो भेद होते हैं। गृहीत-पर के उपदेश आदि निमित्त से विपरीत बुद्धि का होना। कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु आदि का श्रद्धान करना। अगृहीत-बिना उपदेश, अनादिकालीन संस्कारवश परवस्तु को अपनी समझना, किसी भी प्रकार की एकान्त बुद्धि रखना आदि। मिथ्यात्व के गृहीत, अगृहीत और सांशयिक, ऐसे तीन भेद भी होते हैं तथा एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान, ऐसे पाँच भेद भी होते हैं। एकांत-अनेक धर्मात्मक पदार्थ को किसी एक धर्मात्मक मानना, इसको एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं, जैसे-वस्तु सर्वथा क्षणिक ही है अथवा नित्य ही है, वक्तव्य है अथवा अवक्तव्य ही है इत्यादि। विपरीत-धर्मादिक के स्वरूप को विपर्ययरूप मानना, जैसे कि हिंसा से स्वर्ग मिलता है। विनय-सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि देव गुरु शास्त्रों में समान बुद्धि रखना, उन सबका समान विनय नमस्कार आदि करना। संशय-सच्चे तथा झूठे दोनों प्रकार के पदार्थों में किसी एक पक्ष का निश्चय न होना, जैसे-सग्रन्थ लिंग मोक्ष का साधन है या निग्र्रन्थ लिंग। अज्ञान-जीवादि पदार्थों को ‘यही है, इसी प्रकार से है’ इस तरह से विशेषरूप न समझने को अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं। विस्तार से मिथ्यात्व के ३६३ भेद भी माने गये हैं तथा जीव के परिणामों की अपेक्षा और अधिक विस्तार करने से असंख्यात लोक प्रमाण तक भेद हो सकते हैं। तीन सौ त्रेसठ पाखण्डमत-जिसमें सर्वथा एक नय का ही ग्रहण पाया जाता है, ऐसे जो एकान्त मत हैं उनके ३६३ भेदों को बताते हैं- क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानवादियों के ६७ और वैनयिकवादियों के ३२ भेद हैं। क्रियावादियों के १८० भेद – पहले ‘अस्ति’ ऐसा पद लिखना, उसके ऊपर ‘आप से’ ‘पर से’ ‘नित्यपने से’ ‘अनित्यपने से’, ऐसे ४ पद लिखना, उनके ऊपर जीवादि ९ पदार्थ लिखना, उनके ऊपर ‘काल’ ‘ईश्वर’ ‘आत्मा’ ‘नियति’ और ‘स्वभाव’ इस तरह ५ पद लिखना, इस प्रकार १²४²९²५·१८० भेद हो जाते हैं। अस्ति, अपने से, पर से, नित्यपनेकर, अनित्यपनेकर, इन पाँचों का अर्थ सुगम है तथा जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप पदार्थ कहलाते हैं। अब काल आदि पाँच का अर्थ स्पष्ट करते हैं। कालवाद-काल ही सबको उत्पन्न करता है और काल ही सबका नाश करता है, सोते हुए प्राणियों में काल ही जागता है, ऐसे काल के ठगने को कौन समर्थ हो सकता है, इस प्रकार काल से ही सब कुछ मानना कालवाद का अर्थ है। ईश्वरवाद-आत्मा ज्ञानरहित है, अनाथ है-कुछ भी नहीं कर सकता, उस आत्मा का सुख-दु:ख, स्वर्ग तथा नरक में गमन आदि सब ईश्वर का किया हुआ होता है, ऐसे ईश्वर का किया हुआ सब मानना ईश्वरवाद है। आत्मवाद-संसार में एक ही महान् आत्मा है, वही पुरुष है, वही देव है और वह सबमें व्यापक है, सर्वाङ्गपने से अगम्य है, चेतनासहित है, निर्गुण है और उत्कृष्ट है। इस तरह आत्मस्वरूप ही सबको मानना आत्मवाद है। नियतिवाद-जो जिस समय जिससे जैसे जिसके नियम से होता है, वह उस समय उससे वैसे उसके ही होता है, ऐसा नियम से ही सब वस्तु को मानना उसे नियतिवाद कहते हैं। स्वभाववाद-कांटे आदि को लेकर जो तीक्ष्ण (चुभने वाली) वस्तु है, उनके तीक्ष्णपना कौन करता है? और मृग तथा पक्षी आदिकों में अनेक रूपता पाई जाती है उसे कौन करता है? ऐसा प्रश्न होने पर यही उत्तर मिलता है कि सबमें स्वभाव ही है, ऐसे सबको कारण के बिना स्वभाव से ही मानना स्वभाववाद है। इस प्रकार से कालादि की अपेक्षा एकान्त पक्ष के ग्रहण कर लेने से क्रियावाद के १८० भेद हो जाते हैं। अक्रियावादियों के चौरासी भेद – पहले ‘नास्ति’ पद लिखना, उसके ऊपर ‘आप से’ ‘पर से’, ये दो पद लिखना, उनके ऊपर पुण्य-पाप के बिना सात पद लिखना, उनके ऊपर काल आदि को लेकर ५ पद लिखना, इस प्रकार इनका गुणा करने से १²२²७²५·७० भेद हुए पुन: आगे ‘नास्ति’ पद लिखना, उसके उâपर सात पदार्थ लिखना, उनके ऊपर ‘नियति’ ‘काल’, ऐसे दो पद लिखना। इस प्रकार इनका गुणा करने से १²७²२·१४ भेद होते हैं। पूर्वोक्त ७०±१४·८४ हो जाते हैं।
अज्ञानवादियों के सड़सठ भेद
जीवादि नव पदार्थों में से एक-एक का सप्त भंग से न जानना, जैसे कि ‘जीव’ अस्ति स्वरूप है, ऐसा कौन जानता है तथा नास्ति, अथवा दोनों, वा अवक्तव्य वा बाकी तीन भंग मिले हुए, इस तरह सात भंगों से जीव को कौन जानता है, इस प्रकार ९ पदार्थों को ७ नयों से गुणा करने से ९²७·६३ भेद होते हैं। आगे-पहले ‘शुद्ध पदार्थ’ ऐसा लिखना उसके ऊपर अस्ति, नास्ति, अस्ति-नास्ति और अवक्तव्य ये चार लिखना, इन दोनों पंक्तियों से चार भंग उत्पन्न होते हैं, जैसे-शुद्ध पदार्थ अस्ति आदि रूप है, ऐसा कौन जानता है इत्यादि। इस तरह ४ तो ये और पूर्वोक्त ६३ सब मिलकर अज्ञानवाद के ६७ भेद होते हैं।
वैनयिकवाद के बत्तीस भेद – देव, राजा, ज्ञानी, यति, बुड्ढा, बालक, माता, पिता इन आठों का मन, वचन, काय और दान इन चारों से विनय करना। इस प्रकार वैनयिकवाद के भेद ८ गुणित ४ अर्थात् ८²४·३२ भेद होते हैं। ये विनयवादी गुण, अवगुण की परीक्षा किये बिना विनय से ही सिद्धि मानते हैं। इस प्रकार स्वछन्द-अपना मनमाना श्रद्धान करने वाले पुरुषों ने ये ३६३ भेदरूप कल्पना की है, जो कि अज्ञानी जीवों को अच्छी लगती है। आगे अन्य भी एकातवादों का वर्णन करते हैं – पौरुषवाद – जो आलस्य कर सहित हो तथा उद्यम करने में उत्साह रहित हो, वह कुछ भी फल भोग नहीं सकता, जैसे-स्तनों का दूध पीना बिना पुरुषार्थ के कभी नहीं बन सकता। इसी प्रकार पुरुषार्थ से सब कार्यों की सिद्धि होती है, ऐसा मानना एकान्त पुरुषार्थवाद है। दैववाद – मैं केवल दैव (भाग्य) को ही उत्तम मानता हूँ निरर्थक पुरुषार्थ को धिक्कार हो। देखो! किला के समान ऊँचा जो ‘कर्ण’ नामा राजा सो युद्ध में मारा गया, ऐसा दैववाद है इसी से सर्वसिद्धि होती है। संयोगवाद – यथार्थ ज्ञानी संयोग से ही कार्य सिद्धि मानते हैं क्योंकि जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता तथा जैसे एक अंधा दूसरा पंगु ये दोनों वन में प्रविष्ट हुए थे, सो किसी समय आग लग जाने से ये दोनों मिलकर अंधे के ऊपर पंगु चढ़कर अपने नगर में पहुँच गये, इस प्रकार एकान्त मान्यता संयोगवाद है।
लोकवाद – एक बार उठी हुई लोक प्रसिद्धि देवों से भी मिलकर दूर नहीं हो सकती, अन्य की तो बात ही क्या है? जैसे कि द्रौपदी के द्वारा केवल अर्जुन के ही गले में डाली गई माला पाँचों पाण्डवों को पहनाई है, ऐसी प्रसिद्धि हो गई, इस प्रकार से लोकवादी लोक प्रवृत्ति को ही सर्वस्व मानते हैं। आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या? सारांश इतना ही है कि जितने वचन बोलने के मार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही पर समय हैं अर्थात् जो कुछ भी वचन बोला जाता है वह किसी अपेक्षा को लिए हुए ही होता है, उस जगह जो अपेक्षा है, वही नय है और बिना अपेक्षा के बोलना अथवा एक ही अपेक्षा से अनन्त धर्म वाली वस्तु को सिद्ध करना यही परमतों में मिथ्यापना है। परमतों के वचन ‘सर्वथा’ कहने से नियम से असत्य होते हैं और जैनमत के वचन ‘कथंचित्’ (किसी एक प्रकार से) बोलने से सत्य हैं।
२ अविरति के बारह भेद हैं – षट्काय के जीवों की दया न करना तथा पंच इन्द्रिय और मन इन छह को वश में न करना। ३ प्रमाद – कुशल कार्य में अनादर करना। प्रमाद के १५ भेद हैं-४ विकथा, ४ कषाय, ५ इन्द्रियविषय, १ निद्रा और १ स्नेह। ४ विकथा – स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा, अवनिपाल कथा। ४ कषाय – क्रोध, मान, माया, लोभ।५ इन्द्रिय-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र। ४ कषाय पच्चीस हैं – अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधादि ४, प्रत्याख्यानावरण क्रोधादि ४, संज्वलन क्रोधादि ४ और हास्यादि नौ नोकषाय। ५ योग १५ हैं – ४ मनोयोग, ४ वचनयोग और ७ काययोग। इस प्रकार से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये कर्मबंध के कारण कहे गये हैं।