श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम्।
जीयात्त्रैलोक्य नाथस्य शासनं जिनशासनम्।।
अनंतानंत आकाश के मध्य में ३४३ राजू प्रमाण पुरुषाकार लोकाकाश है जिसमें जीव, पुद्गल, धर्म अधर्म और काल ये द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों सहित अवलोकित किये जाते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं उसके परे सर्वत्र अलोकाकाश है। यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है। अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊध्र्वलोक इसके ऐसे तीन भेद हैं। इस लोक के मध्य में मध्यलोक असंख्यात द्वीप समुद्रों से सहित है। प्रारंभ में एक लाख योजन विस्तृत गोलाकार जंबूद्वीप है। उसको वेष्टित करके दो लाख योजन व्यास वाला लवण समुद्र है, इसके अनंतर धातकी खंडद्वीप,कालोदधि समुद्र आदि से अंत में स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत द्वीप- समुद्र एक दूसरे को वेष्टित करते हुये दूने-दूने प्रमाण वाले होते चले गये हैं।
इस जंबूद्वीप के बीचोंबीच में दश हजार योजन विस्तृत और एक लाख चालीस योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है अंत में इसका अग्रभाग चार योजन मात्र का रह गया है। इस जंबूद्वीप में हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी ऐसे छह पर्वत हैं। इनसे विभाजित भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ऐसे सात क्षेत्र हैं। सबसे प्रथम भरतक्षेत्र का विस्तार ५२६ (६/१९) योजन प्रमाण है आगे विदेह तक दूना-दूना होकर पुन: आधा-आधा हो गया है। विदेह के बीचोंबीच में सुमेरु के होने से विदेह के पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह ऐसे दो भेद एवं मेरु के दक्षिण में देवकुरु और उत्तर में उत्तरकुरु माने गये हैं। भरत, ऐरावत में कर्मभूमि, हैमवत, हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्यभोगभूमि, हरि, रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोग- भूमि और देवकुरु उत्तरकुरु में उत्तमभोगभूमि होती है। पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह में शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था है।
जीव, पुद्रगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं। ‘सद्द्रव्यलक्षणं’ द्रव्य का लक्षण सत् है और ‘‘उत्पादव्यय ध्रौव्य युक्तं सत्’’ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से सहित को सत् कहते हैं। ज्ञानदर्शन रूप चेतना लक्षण वाला जीव है। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, से सहित मुर्तिक द्रव्य पुद्गल है। जीव और पुद्गल कोे चलने में उदासीन रूप से सहायक धर्म द्रव्य है और इनको ठहरने में उदासीन रुप से सहायक अधर्म द्रव्य है। सभी द्रव्यों को अवकाश देने वाला आकाश द्रव्य है। प्रत्येक द्रव्य में परिणमन के लिये निमित्तभूत वर्तना लक्षण वाला काल द्रव्य है। कालद्रव्य-यह अत्यंत सूक्ष्म होने से परमाणु बराबर है और असंख्यात होने से लोकाकाश में सर्वत्र -एक प्रदेश पर स्थित है। घड़ी, घंटा आदि इस काल द्रव्य की पर्यायें हैं यही समय, आवली आदि व्यवहार काल है। उस व्यवहार काल के दो भेद हैं-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी । जिसमें मनुष्यों के आयु, बल आदि क्रम से बढ़ते जावें वह उत्सर्पिणी है। जिसमें घटते जावें वह अवसर्पिणी है। उत्सर्पिणी दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है और उतनी ही अवसर्पिणी होने से दोनों कालों को मिलकर बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है। इन दोनों कालों के छह-छह भेद होते हैं। अवसर्पिणी के -सुषमा सुषमा, सुषमा, सुषमा दु:षमा, दु:षमा सुषमा, दु:षमा और दु:षमा दु:षमा। उत्सर्पिणी के-दु:षमा, सुषमा, दु:षमा सुषमा, सुषमा दु:षमा, सुषमा और सुषमा सुषमा । ये दोनों ही काल चक्रवत् चलते रहते हैं। यह काल परिवर्तन भरत और ऐरावत क्षेत्र में ही होता है, अन्यत्र नहीं।
जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र के मध्य में जो आर्यखंड है उसमें अवर्सिपणी का सुषमासुषमा नाम का प्रथम काल चल रहा था, उसका प्रमाण चार कोड़ा-कोड़ी सागर था। उस समय यहाँ देवकुरु सदृश उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था थी, मनुष्यों की आयु तीन पल्य, शरीर की ऊँचाई छह हजार धनुष थी। वे मनुष्य उत्तम संहनन, संस्थान के धारक स्वर्ण सदृश वर्ण वाले थे तीन दिन के बाद कल्पवृक्षों से वदरी फल बराबर उत्तम भोजन ग्रहण करते थे। उनके मलमूत्र, पसीना, अकालमृत्यु आदि नहीं थे। कल्पवृक्षों के दस भेद-मद्यांग, तूर्यांग, भूषणांग, माल्यांग, ज्योतिरंग, दीपांग, गृहांग, भोजनांग, पात्रांग और वस्त्रांग। ये अपने नाम के अनुसार इच्छित फल देने वाले थे । ये मनुष्य युगल ही जन्म लेते हैं और युगल ही मरते हैं। आयु के अंत में पुरुष को जंभाई और स्त्री को छींक आने से मरकर स्वर्ग चले जाते हैं।
क्रम से मनुष्यों का बल, आयु घटते-घटते चार कोड़ाकोड़ी सागर काल के बीत जाने के बाद ‘‘सुषमा’’ नामक द्वितीय काल आता है। इसका प्रमाण तीन कोड़ाकोड़ी सागर है। इसमें मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था होती है। मनुष्यों की आयु दो पल्य, शरीर की ऊँचाई चार हजार धनुष एवं चन्द्र सदृश वर्ण होता है। ये दो दिन बाद बहेड़े बराबर उत्तम भोजन कल्पवृक्ष से ग्रहण करते हैं।
क्रम से आयुबल के घटते-घटते दो कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण वाला ‘‘सुषमा दु:षमा’’ नाम का तृतीय काल आता है। यहाँ के मनुष्यों की आयु एक पल्य, शरीर दो हजार धनुष(एक कोश) ऊँचा और वर्ण हरित होता है, ये एक दिन के अंतर से आंवले के बराबर भोजन ग्रहण करते हैं। यहाँ जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है।
इस तृतीय काल में जब पल्य का आठवां भाग शेष रह गया तब कल्पवृक्षों की सामथ्र्य के घट जाने से ‘‘ज्योतिरंग’’ कल्पवृक्षों का प्रकाश अत्यंत मंद पड़ गया। पुन: किसी समय आषाढ़ सुदी पूर्णिमा के दिन सायंकाल में आकाश की पूर्वदिशा में उदित होता हुआ चन्द्र और पश्चिम दिशा में अस्त होता हुआ सूर्य दिखाई दिया उस समय वहाँ‘‘प्रतिश्रुति’’ नाम के प्रसिद्ध प्रथम कुलकर विद्यमान थे वे सबसे अधिक तेजस्वी थे। उनकी आयु पल्य के दसवें भाग और ऊँचाई एक हजार आठ सौ धनुष थी। जन्मान्तर के संस्कार से उन्हें अवधिज्ञान प्रगट हो गया था। सूर्य, चन्द्र को देखकर भयभीत हुये भोगभूमिज उनके पास आये। तब उन्होंने कहा कि हे भद्रपुरुषों! ये सूर्य, चन्द्र ग्रह हैं, ये महाकांतिमान् हमेशा आकाश में घूमते रहते हैं अभी तक इनका प्रकाश ज्योतिरंग कल्पवृक्ष से तिरोहित रहता था, अब कालदोष से कल्पवृक्षों का प्रभाव कम हो गया है अत: ये दिखाई देने लगे हैं प्रतिश्रुति कुलकर के इन वचनों को सुनकर सब लोग निर्भय हो गये। क्रम से समय व्यतीत हो जाने पर प्रतिश्रुति कुलकर के स्वर्गवास के बाद जब असंख्यात करोड़ वर्षों का अंतराल बीत गया तब ‘‘सन्मति’’ नामक द्वितीय कुलकर का जन्म हुआ। इनकी आयु ‘‘अमम’’ प्रमाण और शरीर की ऊँचाई एक हजार तीन सौ धनुष थी। एक समय रात्रि में तारागण दिखने लगे तब इन्होंने प्रजा का भय दूर किया था। इनके बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अंतराल बीत जाने पर इस भरत क्षेत्र में ‘‘क्षेमंकर’’ नाम के तीसरे मनु हुये। इनकी आयु ‘‘अटट’’ प्रमाण और शरीर की ऊँचाई आठ सौ धनुष थी। इन्होंने सिंह, व्याघ्र आदि पशुओं में प्रगट हुई विकारता से भयभीत भोगभूमिजों को इनकी संगति से बचने का आदेश दिया था । इनके बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अंतराल बीत जाने पर ‘‘क्षेमंधर’’ नाम के मनु हुये। इनकी आयु ‘‘तुटिक’’ प्रमाण और ऊँचाई ७७५ धनुष की थी। इन्होंने सिंह आदि के अतिकुर्ध्द हो जाने से डरे हुये मनुष्यों को इनसे लाठी आदि से रक्षा करने का उपदेश दिया था। इनकी आयु पूर्ण हो जाने पर असंख्यात करोड़ वर्षों का अतंराल बीत जाने पर ‘‘सीमंकर’’ नाम के कुलकर हुये । इनकी आयु ‘‘कमल’’ प्रमाण, ऊँचाई ७५० धनुष की थी । इनके समय में अल्प कल्पवृक्षों से अल्प फल मिलने से जनों में विवाद हुआ तब इन्होंने कल्पवृक्षों की सीमायें नियुक्त कर दी थीं। इनके बाद असंख्यात करोड़ वर्षों के अंतराल बीत जाने पर ‘‘सीमंधर’’ नामक छठे मनु उत्पन्न हुये। इनकी आयु ‘‘नलिन’’ प्रमाण, ऊँचाई ७२५ धनुष थी। इनके समय में कल्पवृक्ष कम हो गये तब आपस में कलह अधिक होने से इन्होंने कल्पवृक्ष की सीमाओं को अनेक वृक्ष, छोटी-छोटी झाड़ियों से चिन्हित कर दिया। इनके बाद पूर्वोक्त अंतराल के बीत जाने पर ‘‘विमलवाहन’’ नामक सातवें मनु हुये। इनकी आयु ‘पद्य’ प्रमाण, ऊँचाई ७०० धनुष की थी। इन्होनें हाथी, घोड़े आदि पर अकुंश, चाबुक आदि लगाकर सवारी करने का उपदेश दिया था। अनंतर असंख्यात करोड़ वर्षों बाद ‘‘चक्षुष्मान’’ नाम के आठवें कुलकर हुये इनकी आयु ‘‘पद्मांग’’ प्रमाण, ऊँचाई ६७५ धनुष की थी । इनके समय से पहले युगल के जन्म लेते ही माता पिता मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे, संतान का मुख नहीं देख पाते थे परंतु अब वे क्षण भर पुत्र का मुख देखकर मरने लगे। इस घटना से मनुष्यों को भयभीत देखकर इन्होंने उपदेश देकर भय दूर किया था। अनंतर पूर्ववत् अंतराल बीतने के बाद ‘‘यशस्वान् ’’ कुलकर हुये इनकी आयु ‘‘कुमुद’’ प्रमाण, ऊँचाई ६५० धनुष थी। इन्होंने भोगभूमिजों को संतान का मुख देखने के बाद आशीर्वाद देना सिखाया था। इनके बाद पूर्वोक्त अंतराल के अनंतर ‘‘अभिचन्द्र’’ नामक दसवें कुलकर उत्पन्न हुये इनकी आयु ‘‘कुमुदांग’’ प्रमाण, ऊँचाई ६२५ धनुष थी।
इन्होंने रात्रि में बालकों को चन्द्रमा दिखाकर विनोद करना सिखाया था। इनके बाद ‘‘चन्द्रभ’’ नाम के ग्यारहवेंं कुलकर हुये, इनकी आयु ‘‘नयुत’’ प्रमाण, ऊँचाई ६०० धनुष प्रमाण थी। इनके समय माता-पिता कुछ समय तक जीवित रहने लगे थे। तदनंतर अपने योग्य अंतराल के बाद ‘‘मरुदेव’’ कुलकर हुये, इनकी आयु ‘‘नयुतांग’’ प्रमाण, ऊँचाई ५७५ धनुष थी। इन्होंने जलाशयों में नाव चलाने का, पर्वतों पर सीढ़ियों से चढ़ने का उपदेश दिया था।
इनके बाद कर्मभूमि की स्थिति धीरे-धीरे पास आ रही थी तब ‘‘प्रसेनजित्’’ कुलकर हुये, उनकी आयु एक ‘‘पर्व’’ प्रमाण ,ऊँचाई ५०० धनुष की थी। इनके समय में बालकों की उत्पत्ति जरायु से लिपटी हुई होने लगी तब इन्होंने प्रजा को जरायु पटल से बालकों को निकालने का उपदेश दिया । इनके बाद ही ‘‘नाभिराज’’ कुलकर हुये थे, इनकी आयु ‘‘एक करोड़ पूर्व’’ वर्ष प्रमाण और ऊँचाई ५२५ धनुष थी, इन नाभिराज कुलकर के समय में उत्पन्न होने पर बालकों की नाभि में नाल दिखाई देने लगा था और इन्होंने उसे काटने की आज्ञा दी थी । इस प्रकार ये चौदह कुलकर माने गये हैं।
इन्हीं नाभिराज के समय काल के प्रभाव से पुद्गल परमाणु मेघ बनकर आकाश में मंडराने लगे, मेघगर्जन, इन्द्रधनुष, जलवृष्टि आदि होने से अनेकों अंकुर पैदा हो गये एवं कल्पवृक्षों का अभाव हो गया। उन धान्यों को देखकर अत्यंत व्याकुल प्रजा महाराज नाभिराज की शरण में आई।
‘‘जीवाम: कथमेवाद्य नाथानाथा बिना द्रुमै:।
कल्पदायिभिराकल्पम् विस्मायैरपुण्यका:।।१९३।।’’
हे नाथ! मनवांछित फल देने वाले तथा कल्पांत काल तक नहीं भुलाने के योग्य कल्पवृक्षों के बिना अब हम पुण्यहीन अनाथ लोग किस प्रकार जीवित रहें ? हे देव! इनमें क्या खाने योग्य है क्या नहीं ? इत्यादि प्रार्थना के अनंतर श्री नाभिराज ने कहा कि डरो मत! अब कल्पवृक्ष के नष्ट होने के बाद ये वृक्ष वैसे ही तुम्हारा उपकार करेंगे । ये विषवृक्ष हैं इनसे दूर रहो। ये औषधियाँ हैं। ये इक्षु के पेड़ हैं उनका दांतों से या यंंत्रों से रस निकालकर पीना चाहिये। इस प्रकार से बहुत सी बातों का उपदेश दिया। उस समय कल्पवृक्षों की व्यवस्था के नष्ट हो जाने से प्रजा के हित को करने वाले श्री नाभिराज कल्पवृक्ष के सदृश थे।
प्रतिश्रुति से लेकर श्री नाभिराज पर्यंत चौदह कुलकर अपने पूर्व भवों में विदेह क्षेत्रों में उच्चकुलीन महापृरुष थे । सम्यग्दर्शन से पहले मनुष्यायु का बंध कर लेने से यहाँ भोगभूमि में जन्मे हैं, वहाँ ये क्षायिक सम्यग्दृष्टी थे । इन चौदह में से कितने ही कुलकरों को जातिस्मण, कितने ही कुलकरों को अवधिज्ञान था इसलिए इन्होंने विचार कर प्रजा के लिए हित का उपदेश दिया था। ये सब कुलकर कुलधर, युगदिपुरुष, मनु आदि नामों से कहे जाते हैं। इन कुलकरों में से आदि के पाँच कुलकरों ने अपराधी मनुष्यों के लिये ‘‘हा’’ इस दण्ड की व्यवस्था की थी। उनके आगे के पाँच कुलकरों ने ‘‘हा’’ और ‘‘मा’’ इन दो प्रकार के दण्डों की व्यवस्था की थी, शेष कुलकरों ने ‘‘हा’’ ‘‘मा’’ और ‘‘धिक’’ ऐसे तीन दण्डों की व्यवस्था की थी अर्थात् खेद है, अब ऐसा नहीं करना, तुम्हें धिक्कार है जो रोकने पर भी ऐसा काम करते हो। भगवान वृषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे, वे भी पंद्रहवें मनु कहलाये एवं भरत चक्रवर्ती सोलहवें मनु कहलाये थे। भरतचक्री के समय लोग अधिक दोष करने लगे थे इसलिये उन्होंने वध बंधन आदि शारीरिक दण्ड देने की रीति चलाई थी।
इन कुलकरों की आयु के प्रमाण में जो ‘‘अटट’’ ‘‘अमम’’ आदि संख्यायें आई हैं उनका प्रमाण महापुराण में वर्णित है। शरीर की अवगाहना में जो धनुष का प्रमाण है, उसमें एक धनुष में चार हाथ माने गये हैं।
उन अंतिम कुलकर नाभिराज के मरुदेवी नाम की रानी थी। उनके पुण्य से प्रेरित इन्द्र ने एक नगरी की रचना की। उसका नाम ‘‘अयोध्या’’ था। इसके अन्य नाम साकेता, विनीता, सुकौशला भी प्रसिद्ध थे।अनंतर देवों ने ‘‘इन दोनों के ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे’’, ऐसा समझकर इन दोनों की अभिषेकपूर्वक विशेष पूजा की थी।
षड्भिर्मासैरथैतस्मिन्, स्वर्गादवतरिष्यति।
रत्नवृष्टिं दिवो देवा: पातयामासुरादरात् ।।८४।।(महापु.)
जब इंद्र को मालूम हुआ कि छह महिने बाद भगवान् वृषभदेव स्वर्ग से यहाँ अवतार लेंगे तब इन्द्र की आज्ञा से देवों ने बड़े आदर से माता के आंगन में साढ़े सात करोड़ रत्नों की प्रतिदिन वर्षा की थी। अनंतर किसी दिन रात्रि के पिछले प्रहर में रानी मरुदेवी ने ऐरावती हाथी, शुभ्र बैल, हाथियोंं द्वारा स्वर्ण घटों से अभिषिक्त लक्ष्मी, पुष्पमालायें आदि सोलह स्वप्न देखे। प्रात: पतिदेव से स्वप्न का फल सुनकर अत्यंत हर्षित हुर्इं । उस समय अवर्सिपणी काल के सुषमा दु:षमा नामक तृतीय काल में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष के शेष रहने पर आषाढ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ नक्षत्र में वङ्कानाभि अहमिंद्र देवायु का अंत होने पर सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुये। उस समय इन्द्र अपने यहाँ होने वाले चिन्हों से भगवान् के गर्भावतार को जानकर देवों सहित वहाँ आकर नगरी की प्रदक्षिणा देकर माता-पिता की पूजा, भक्ति, नमस्कार करके गर्भकल्याणक उत्सव मनाकर अपने-अपने स्थान को चले गये। उसी समय से लेकर इन्द्र की आज्ञा से श्री, ही आदि देवियां और दिक्कुमारियां माता की सेवा करते हुये काव्य गोष्ठी, सैद्धांतिक चर्चाओं से, गूढ प्रश्नों से माता का मन अनुरंजित करने लगीं।
अथातो नवमासानामत्यये सुषुवे विभुम् ।
देवदेवीभिरूक्ताभिर्यथास्वं परिवारिता ।।१।।
प्राचीव बंधुमब्जानां सा लेभे भास्वरं सुतम् ।
चैत्रे मास्यसिते पक्षे नवम्यामुदये रवे:।।२।।
(महापुराण पर्व १३)
अनंतर श्री, ही आदि देवियां जिनकी सेवा में तत्पर हैं ऐसी माता ने नव महीने व्यतीत होने पर भगवान ऋषभदेव को जन्म दिया। जिस प्रकार पूर्वदिशा कमलविकासी सूर्य को जन्म देती है वैसे ही माता मरुदेवी ने चैत्र कृष्णा नवमी के दिन सूर्योदय के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र और ब्रह्म नामक महायोग में मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञान से सहित तीनों लोकों के नाथ पुत्र को जन्म दिया। सारे विश्व में हर्ष की लहर दौड़ गई। इन्द्र का आसन वंâपित होने से प्रभु का जन्म समझकर परोक्ष नमस्कार करने के लिये सभी देवों के मुकुट स्वयं झुक गये। सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर चढ़कर नगरी की प्रदक्षिणा करके भगवान् को लेकर सुमेरुपर्वत पर पहुंचे और १००८ कलशों के द्वारा क्षीर समुद्र के जल से भगवान का जन्माभिषेक किया ।
अनंतर वस्राभरणों से अलंकृत करके ‘वृषभदेव’ यह नाम रखकर इंद्र अयोध्या में वापस आकर स्तुति, विनय, पूजा, तांडव नृत्य आदि करके महान् पुण्य संचय कर स्वस्थान को चले गये।
भगवान् का विवाहोत्सव
भगवान् के युवावस्था में प्रवेश करने पर महाराजा नाभिराज ने बड़े ही आदर से भगवान् की स्वीकृति प्राप्त कर इन्द्र की अनुमति से कच्छ, सुकच्छ राजाओं की बहनें यशस्वती और ‘सुनंदा’ के साथ श्री वृषभ देव का विवाह संबंध कर दिया।
भरतचक्रवर्ती आदि का जन्म
किसी समय यशस्वती देवी ने चैत्र कृष्णा नवमी के दिन भरत चक्रवर्ती को जन्म दिया तथा क्रमश: निन्यानवे पुत्र एवं ब्राह्मी कन्या को जन्म दिया। वृषभदेव की सुनंदा महादेवी ने कामदेव भगवान् बाहुबली और सुंदरी नाम की कन्या को जन्म दिया। इस प्रकार एक सौ तीन पुत्र-पुत्रियों सहित भगवान् वृषभदेव देवों द्वारा लाये गये भोग पदार्थों का अनुभव करते हुये सुख से गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत कर रहे थे। भगवान् वृषभदेव त्रिज्ञानधारी होने से स्वयं गुरु थे। किसी समय ब्राह्मी और सुंदरी को बड़े प्रेम से गोद में लेकर उन्हें आशीर्वाद देकर चित्त में स्थित श्रुतदेवता को सुवर्ण पट्ट पर स्थापित किया । पुन: ‘सिद्धं नम:’ मंगलाचरणपूर्वक दाहिने हाथ से ‘अ आ’ आदि वर्णमाला लिखकर ब्राह्मी कुमारी को लिपि लिखने का एवं बायें हाथ से सुंदरी को अनुक्रम के द्वारा इकाई, दहाई आदि अंक विद्या को लिखने का उपदेश दिया था। इस प्रकार भगवान् से ब्राह्मी, सुंदरी कन्याओं ने समस्त वाङ्मय का अध्ययन किया था । जगतगुरु भगवान् ऋषभदेव ने इसी प्रकार अपने भरत आदि पुत्रों को सभी विद्याओं का अध्ययन कराया था। इस प्रकार सुख पूर्वक भगवान् का ‘‘बीस लाख पूर्व’’ वर्षों का काल व्यतीत हो गया।
असि, मषि आदि षट् क्रियाओं का उपदेश
इसी बीच काल प्रभाव से कल्पवृक्ष के शक्तिहीन हो जाने पर एवं बिना बोए धान्य के भी कुछ-कुछ ही रह जाने पर प्रजा अनेकों बाधाओं से व्याकुल हो नाभिराज के पास गई ।अनंतर नाभिराज की आज्ञा से प्रजा भगवान् वृषभदेव के समीप आकर नमस्कार करके विनयपूर्वक रक्षा की याचना करने लगी।
श्रुत्वेति तद्वचो दीनं करुणाप्रेरिताशय: ।
मन: प्रणिदधावेवं भगवानादि पूरुष:।।१४२।।
पूर्वापर विदेहेषु या स्थिति: समवस्थिता ।
साद्य प्रवर्तनीयात्र ततो जीवन्यम्: प्रजा:।।१४३।।
(महापु.पर्व१६)
प्रजा के दीन वचनों को सुनकर आदिनाथ भगवान् अपने मन में सोचने लगे कि पूर्व और पश्चिम विदेह में जो स्थिति वर्तमान है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है। उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जैसे असि, मषि आदि षट्कर्म हैं, क्षत्रिय आदि वर्ण व्यवस्था, ग्राम नगर आदि की रचना है वैसे ही यहाँ भी होना चाहिये। अथानंतर भगवान् ने इंद्र का स्मरण किया और स्मरण मात्र से इन्द्र ने आकर अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंदिर की रचना करके चारों दिशाओं में जिनमंदिर बनाये। कौशल, अंग, बंग आदि देश, नगर, ग्राम आदि बनाकर प्रजा को बसाकर प्रभु की आज्ञा से स्वर्ग को चला गया। भगवान् ने प्रजा को असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों का उपदेश दिया । उस समय भगवान् सरागी थे, युगादि पुरुष, ब्रह्मा, विश्वकर्मा, स्रष्टा, कृतयुग विधाता और प्रजापति आदि कहलाये। कुछ समय बाद इंद्र ने भगवान् का साम्राज्य पद पर अभिषेक किया ।
किसी समय नीलाञ्जना के नृत्य को देखते हुये बीच में उसकी आयु के समाप्त होने से भगवान् वृषभदेव को वैराग्य हो गया। उसी समय ब्रह्मलोक से लौकांतिक देव आकर भगवान् की पूजा, स्तुति करने लगे। भगवान् ने भरत का राज्याभिषेक करके इस पृथ्वी को ‘भारत’ इस नाम से सनाथ किया और बाहुबलि को युवराज पद पर स्थापित किया। महाराज नाभिराज आदि को पूछकर इन्द्र द्वारा लाई गई ‘‘सुदर्शना’’ नाम की पालकी पर आरुढ़ हो ‘‘सिद्धार्थक’ नामक वन में पहुंचे और ‘‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’’ मंत्र का उच्चारण कर केशलोंच करके सर्व परिग्रह रहित दिगंबर मुनि हो गये। उसी समय भगवान् ने छह महीने का योग ले लिया। भगवान् के साथ आये हुए चार हजार राजाओं ने भी भक्तिवश नग्न मुद्रा धारण कर ली।
पाखण्ड मत की उत्पत्ति
भगवान के साथ दीक्षित हुये राजा लोग दो, तीन महीने में ही क्षुधा तृषा आदि से पीड़ित होकर अपने हाथ से ही वन के फलादि ग्रहण करने लगे, इनकी क्रियाओं को देख वनदेवताओं ने कहा कि-हे मूर्खों! यह दिगम्बर वेष सर्वश्रेष्ठ अरहंत, चक्रवर्ती आदि के द्वारा धारण करने योग्य है, इस वेष में तुम अनर्गल प्रवृत्ति मत करो। ऐसे वचन सुनकर उन लोगों ने दिगंबर मुद्रा में वैसा करने से डरकर भ्रष्ट तपस्वियों के अनेकों रुप बना लिये। वल्कल, चीवर, जटा दण्ड आदि धारण करके पारिव्राजक आदि बन गये। भगवान् वृषभदेव के पौत्र मरीचि कुमार भी इनमें अग्रणी गुरु बनकर पाखण्ड मत प्रवर्तक बन गया। ये मरीचिकुमार आगे चलकर अंतिम तीर्थंकर महावीर हुये हैं।
भगवान का आहार ग्रहण
जगद्गुरु भगवान् छह महीने वाद आहार के लिये निकले परंतु मुनिचर्या विधि किसी को मालूम न होने से छह महीने और व्यतीत हो गये। एक वर्ष पूर्ण होने पर भगवान् कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में पहुंचे। भगवान को आते देख राजा सोमप्रभ और श्रेयांस को पूर्व भवों का स्मरण हो गया। विधिवत् पड़गाहन आदि करके इक्षुरस का आहारदान दिया। वह दिन वैशाख सुदी तृतीया का था जो आज भी अक्षयतृतीया के नाम से प्रसिद्ध है।
अनंतर तपश्चरण करते हुये भगवान् को ध्यान के द्वारा फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने १२ योजन प्रमाण समवसरण की रचना की। समवसरण में बारह सभाओं में क्रम से सप्तद्र्धि समन्वित गणधर देव और मुनिजन, कल्पवासी देवियां, आर्यिकायें और श्राविकायें, भवनवासी देवियां, व्यंतर देवियां, ज्योतिष्क देवियां, भवनवासी देव, व्यंतर देव, ज्योतिष्क देव, कल्पवासी देव, मनुष्य और तिर्यंच बैठकर उपदेश सुनते थे। पुरिमताल नगर के राजा श्री वृषभदेव के पुत्र वृषभसेन प्रथम गणधर थे एवं ब्राह्मी आर्यिकाओं की गणिनी थी। भगवान् के समवसरण में ८४ गणधर, ८४००० मुनि, ३५०००० आर्यिकायें, ३००००० श्रावक, ५००००० श्राविकायें, असंख्यातों देवगण और संख्यातों तिर्यंच शोभायमान थे। भगवान् ने एक हजार वर्ष चौदह दिन कम एक लाख पूर्व वर्ष तक आर्यखंड में विहार किया था।
जब भगवान् की आयु चौदह दिन शेष रही तब वे योगों का निरोध कर वैâलाशपर्वत पर जाकर विराजमान हो गये। माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के समय भगवान् पूर्व दिशा की ओर मुख करके अनेक मुनियों के साथ चतुर्थ शुक्लध्यान शेष अघाति का नाशकर एक समय में सिद्धलोक में जाकर विराजमान हो गये।
त्रेसठ शलाका पुरुष
इस चतुर्थ काल में २४ तीर्थंकर , १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण और ९ प्रतिनारायण ऐसे त्रेसठ महापुरुष होते हैं। इनमें से भरत चक्रवर्ती प्रथम चक्रवर्ती हुये हैं।
२४ तीर्थंकर-वृषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपाश्र्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु, अर,मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और महावीर।
१२ चक्रवर्ती- भरत, सगर, मधवा, सनत्कुमार, शांतिनाथ, वुंâथुनाथ, अरनाथ, सुभौम, पद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त।
९ बलभद्र-विजय, अचल, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नंदी, नंदिमित्र, रामचंद्र और पद्म।
९ नारायण-त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषपुंडरीक, दत्त, लक्ष्मण और श्री कृष्ण।
९ प्रतिनारायण-अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधुवैâटभ, निशुंभ, बलि, प्रहरण, रावण और जरासंध ।
अन्य तीर्थंकरों का क्रम
भगवान् वृषभदेव के मोक्ष चले जाने के बाद पचास लाख करोड़ सागर बीत जाने पर अयोध्या नगरी के राजा जितशत्रु की रानी विजया से द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ का जन्म हुआ। इनकी आयु भी इसी अंतराल में सम्मिलित थी। इनकी आयु बहत्तर लाख पूर्व और शरीर की ऊँचाई ४५० धनुष थी । इन तीर्थंकर के भी गर्भकल्याणक, जन्मकल्याणक, राज्याभिषेक, तपकल्याणक, केवलज्ञानकल्याणक, समवसरण रचना, दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश, मोक्षकल्याणक आदि प्रसंगों में देवों के द्वारा पूर्ववत् उत्सव किये गये थे। सभी तीर्थंकरों के समय पूर्ववत् उत्सव होते हैं।
द्वितीय तीर्थंकर के बाद तीस लाख करोड़ सागर व्यतीत हो जाने पर श्रावस्ती नगरी के राजा दृढरथ की रानी सुषेणा से श्री संभवनाथ तीर्थंकर ने जन्म लिया था। इनकी आयु साठ लाख पूर्व की और ऊँचाई ४०० धनुष प्रमाण थी।
तृतीय तीर्थंकर के बाद दस लाख करोड़ सागर का अंतराल बीत जाने पर अयोध्या के राजा स्वयंवर की रानी सिद्धार्था से अभिनंदननाथ का जन्म हुआ। इनकी आयु पचास लाख पूर्व और ऊँचाई ३५० धनुष प्रमाण थी।
अभिनंदननाथ के बाद नौ लाख करोड़ सागर के बीत जाने पर अयोध्या नगरी के राजा मेघरथ की रानी मंगलावती से सुमतिनाथ का जन्म हुआ। इनकी आयु चालीस लाख पूर्व और ऊँचाई ३०० धनुष थी ।
सुमतिनाथ की तीर्थ परंपरा के नब्बे हजार करोड़ सागर बीत जाने पर कौशाम्बी नगरी के राजा धरणराज की रानी सुसीमा से श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र का जन्म हुआ। इनकी आयु तीस लाख पूर्व एवं ऊँचाई २५० धनुष की थी।
इसी प्रकार से चौबीस तीर्थंकरों का अंतराल, जन्मनगर, माता, पिता, पंचकल्याणक तिथि, शरीर की अवगाहना और आयु का प्रमाण निम्नलिखित चार्ट में स्पष्ट किया गया है।
तीर्थंकर के वर्ण- पद्मप्रभ, वासुपूज्य रक्त वर्ण के हैं, चंद्रप्रभु, पुष्पदंत श्वेत वर्ण के ,सुपाश्र्व , पाश्र्व नीलवर्ण के , नेमि, मुनिसुव्रत कृष्णवर्ण के एवं शेष सोलह स्वर्ण वर्ण के हैं। वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ और वद्र्धमान ये पाँच तीर्थंकर बालब्रह्मचारी रहे हैं, शेष उन्नीस तीर्थंकर विवाहित होकर राज्य करके दीक्षित हुए हैं।
वंश-वीर प्रभु नाथवंशी, पार्श्वजिन उग्रवंशी, मुनिसुव्रत और नेमि हरिवंशी, धर्मनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ कुरुवंशी और शेष १७ तीर्थंकर इक्ष्वाकुवंशी में हुये हैं। चार्ट नं. २
चौबीस१ तीर्थंकर
१ २ ३ ४ ५ ६
नाम कहाँ से गर्भ गर्भकल्याण गर्भनक्षत्र जन्मनगरी पिता माता में आये तिथि
१. वृषभ सर्वार्थसिद्धि आषाढ़ कृ. २ रोहिणी अयोध्या नाभिराय मरुदेवी
२. अजित विजय ज्येष्ठ कृ. अमा. रोहिणी अयोध्या जितशत्रु विजया
३. संभव अधोग्रैवेयक फाल्गुन शु. ८ मृगशिरा श्रावस्ती जितारि सुसेना
४. अभिनन्दन विजय वैशाख शु. ६ पुनर्वसु अयोध्या संवर सिद्धार्था
५. सुमति जयन्त श्रावण शु. २ मघा अयोध्या मेघप्रभ मंगला
६. पद्म उपरिम ग्रैवेयक माघ कृ. ६ चित्रा कौशाम्बी धरण सुसीमा
७. सुपाश्र्व मध्य ग्रैवेयक भाद्रपद शु. ६ विशाखा वाराणसी सुप्रतिष्ठ पृथिवी
८. चन्द्रप्रभ वैजयन्त चैत्र कृ. ५ ? चन्द्रपुरी महासेन लक्ष्मीमती
९. पुष्पदन्त आरण फाल्गुण कृ. ९ मूल कावंâदी सुग्रीव रामा
१०. शीतल अच्युत चैत्र कृ. ८ पूर्वाषाढा भद्रिल दृढ़रथ नन्दा
११. श्रेयान् पुष्पोत्तर ज्येष्ठ कृ. ६ श्रवण सिंहपुर विष्णु वेणुदेवी
१२. वासुपूज्य महाशुक्र आषाढ़ कृ. ६ शतभिषा चंपापुर वसुपूज्य विजया
१३. विमल शतार ज्येष्ठ कृ. १० उ. भाद्रपदा वंâपिलापुरी कृतवर्मा जयश्यामा
१४. अनन्त पुष्पोत्तर कार्तिक कृ. १ रेवती अयोध्या सिंहसेन सर्वयशा
१५. धर्म सर्वार्थसिद्धि वैशाख शु. १३ रेवती रत्नपुरी भानु सुव्रता
१६. शान्ति सर्वार्थसिद्धि भाद्रपद कृ. ७ भरणी हस्तिनापुर विश्वसेन ऐरा
१७. वुंâथु सर्वार्थसिद्धि श्रावण कृ. १० कृत्तिका हस्तिनापुर शूरसेन श्रीमती
१८. अर अपराजित फाल्गुन शु. ३ रेवती हस्तिनापुर सुदर्शन मित्रा
१९. मल्लि अपराजित चैत्र शु. १ अश्विनी मिथिला कुम्भ प्रभावती
२०. मुनिसुव्रत आनत श्रावण कृ. २ श्रवण राजगृह सुमित्र पद्मा
२१. नमि अपराजित आश्विन कृ. २ अश्विनी मिथिलापुरी विजय वप्रिला
२२. नेमि अपराजित कार्तिक कृ. ६ उत्तराषाढा शौरीपुर समुद्र विजय शिवादेवी
२३. पाश्र्व प्राणत वैशाख कृ. २ विशाखा वाराणसी अश्वसेन वर्मिला
२४. वर्धमान पुष्पोत्तर आषाढ़ शु. ६ उत्तराषाढा कुण्डलपुर सिद्धार्थ प्रियकारिणी
७ ८ ९ १० ११
तीर्थ. जन्मतिथि जन्म नक्षत्र वंश आयु कुमार काल
१. चैत्र कृ. ९ उत्तराषाढा इक्ष्वाकु ८४ लाख पूर्व २० लाख वर्ष पूर्व
२. माघ शु. १० रोहिणी इक्ष्वाकु ७२ लाख पूर्व १८ लाख वर्ष पूर्व
३. कार्तिक शु. १५ ज्येष्ठा इक्ष्वाकु ६० लाख पूर्व १५ लाख वर्ष पूर्व
४. माघ शु. १२ पुनर्वसु इक्ष्वाकु ५० लाख पूर्व १२ (१/२) लाख वर्ष पूर्व
५. चैत्र शु. ११ मघा इक्ष्वाकु ४० लाख पूर्व १० लाख वर्ष पूर्व
६. कार्तिक कृ. १३ चित्रा इक्ष्वाकु ३० लाख पूर्व ७(१/२) लाख वर्ष पूर्व
७. ज्येष्ठ शु. १२ विशाखा इक्ष्वाकु २० लाख पूर्व ५ लाख वर्ष पूर्व
८. पौष कृ. ११ अनुराधा इक्ष्वाकु १० लाख पूर्व २(१/२) लाख वर्ष पूर्व
९. मगसिर शु. १ मूल इक्ष्वाकु २ लाख पूर्व १/२ लाख वर्ष पूर्व
१०. माघ शु. १२ पूर्वाषाढा इक्ष्वाकु १ लाख पूर्व १/४ लाख वर्ष पूर्व
११. फाल्गुन कृ. ११ श्रवण इक्ष्वाकु ८४ लाख वर्ष २१ लाख वर्ष
१२. फाल्गुन कृ० १४ विशाखा इक्ष्वाकु ७२ लाख वर्ष १८ लाख वर्ष
१३. माघ शुु. ४ पूर्व भाद्रपदा इक्ष्वाकु ६० लाख वर्ष १५ लाख वर्ष
१४. ज्येष्ठ कृ. १२ रेवती इक्ष्वाकु ३० लाख वर्ष ७५०००० वर्ष
१५. माघ शु. १३ पुष्य कुरु १० लाख वर्ष २५०००० वर्ष
१६. ज्येष्ठ कृ. १४ भरणी इक्ष्वाकु १ लाख वर्ष २५००० वर्ष
१७. वैशाख शु. १ कृत्तिका कुरु ९५००० वर्ष २३७५० वर्ष
१८. मगसिर शु. १४ रोहिणी कुरु ८४००० वर्ष २१००० वर्ष
१९. मगसिर शु. ११ अश्विनी इक्ष्वाकु ५५००० वर्ष १०००० वर्ष
२०. वैशाख कृ. १२ श्रवण यादव ३०००० वर्ष ७५०० वर्ष
२१. आषाढ़ कृ. १० अश्विनी इक्ष्वाकु १०००० वर्ष २५०० वर्ष
२२. श्रावण शु. ६ चित्रा यादव १००० वर्ष ३०० वर्ष
२३. पौष कृ. ११ विशाखा उग्र १०० वर्ष ३० वर्ष
२४. चैत्र शु. १३ उ.फाल्गुनी नाथ ७२ वर्ष ३० वर्ष
१२ १३ १४ १५ १६
तीर्थ. उत्सेध शरीर वर्ण राज्यकाल चिन्ह वैराग्यकारण
१. ५०० धनुष सुवर्ण ६३ लाख पूर्व वृषभ नीलांजना मरण
२. ४५० धनुष सुवर्ण ५३ लाख १ पूर्वांग गज उल्कापात
३. ४०० धनुष सुवर्ण ४४ लाख ४ पूर्वांग अश्व मेघ विनाश
४. ३५० धनुष सुवर्ण ३६(१/२) लाख ८ पूर्वांग बन्दर गन्धर्व नगर नाश
५. ३०० धनुष सुवर्ण २९ लाख १२ पूर्वांग चकवा जातिस्मरण
६. २५० धनुष विद्रुम वर्ण २१(१/२) लाख १६ पूर्वांग पद्म जातिस्मरण
७. २०० धनुष हरित १४ लाख २० पूर्वांग नंद्यावर्त वसन्त-वन-लक्ष्मीनाश (स्वस्तिक)
८. १५० धनुष शुक्ल ६(१/२) लाख २४ पूर्वांग अर्धचन्द्र अधु्रवादि भावना
९. १०० धनुष शुक्ल १/२ लाख २८ पूर्वांग मगर उल्कापात
१०. ९० धनुष सुवर्ण १/२ लाख कल्पवृक्ष१ हिम नाश
११. ८० धनुष सुवर्ण ४२ लाख वर्ष गेंडा वसन्तवन लक्ष्मीनाश
१२. ७० धनुष विद्रुम राज्य नहीं किया भैंसा जातिस्मरण
१३. ६० धनुष सुवर्ण ३०००००० वर्ष शूकर मेघनाश
१४. ५० धनुष सुवर्ण १५००००० वर्ष सेही उल्कापात
१५. ४५ धनुष सुवर्ण ५००००० वर्ष वङ्का उल्कापात
१६. ४० धनुष सुवर्ण ५०००० वर्ष हरिण जातिस्मरण
१७. ३५ धनुष सुवर्ण ४७५०० वर्ष छाग जातिस्मरण (बकरा)
१८. ३० धनुष सुवर्ण ४२००० वर्ष मछली२ मेघ-विनाश
१९. २५ धनुष सुवर्ण राज्य नहीं किया कलश अधु्रवादि भावना
२०. २० धनुष नील १५००० वर्ष कछवा जातिस्मरण
२१. १५ धनुष सुवर्ण ५००० वर्ष नील कमल जातिस्मरण
२२. १० धनुष नील राज्य नहीं किया शंख जातिस्मरण
२३. ९ हाथ हरित राज्य नहीं किया सर्प जातिस्मरण
२४. ७ हाथ सुवर्ण राज्य नहीं किया सिंह जातिस्मरण
१७ १८ १९ २० २१
तीर्थ. दीक्षा तिथि दीक्षा नक्षत्र दीक्षावन दीक्षोपवास दीक्षाकाल
१. चैत्र कृ. ९ उत्तराषाढा सिद्धार्थ षष्ठोपवास अपरान्ह
२. माघ शु. ९ रोहिणी सहेतुक अष्टम भक्त अपरान्ह
३. मगशिर शु. १५ ज्येष्ठा सहेतुक तृ. उपवास अपरान्ह
४. माघ शु. १२ पुनर्वसु उग्र तृ. उपवास पूर्वान्ह
५. वैशाख शु. ९ मघा सहेतुक तृ. उपवास पूर्वान्ह
६. कात्र्तिक कृ. १३ चित्रा मनोहर तृ. भक्त अपरान्ह
७. ज्येष्ठ शु. १२ विशाखा सहेतुक तृ. भक्त पूर्वान्ह
८. पौष कृ. ११ अनुराधा सर्वार्थ तृ. उपवास अपरान्ह
९. मगसिर शु. १ अनुराधा पुष्प तृ. भक्त अपरान्ह
१०. माघ कृ. १२ मूल सहेतुक तृ. उपवास अपरान्ह
११. फाल्गुन कृ. ११ श्रवण मनोहर तृ. भक्त पूर्वान्ह
१२. फाल्गुन कृ० १४ विशाखा मनोहर एक उपवास अपरान्ह
१३. माघ शु. ४ उ. भाद्रपदा सहेतुक तृ. उपवास अपरान्ह
१४. ज्येष्ठ कृ. १२ रेवती सहेतुक तृ. भक्त अपरान्ह
१५. माघ शु. १३ पुष्य शालि तृ. भक्त अपरान्ह
१६. ज्येष्ठ कृ. १४ भरणी आम्र तृ. उपवास अपरान्ह
१७. वैशाख शु. १ कृत्तिका सहेतुक तृ. भक्त अपरान्ह
१८. मगसिर शु. १० रेवती सहेतुक तृ. भक्त अपरान्ह
१९. मगसिर शु. ११ अश्विनी शालि षष्ठ भक्त पूर्वान्ह
२०. वैशाख कृ. १० श्रवण नील तृ. उपवास अपरान्ह
२१. आषाढ़ कृ. १० अश्विनी चैत्र तृ. भक्त अपरान्ह
२२. श्रावण शु. ६ चित्रा सहकार तृ. भक्त अपरान्ह
२३. पौष कृ. ११ विशाखा अश्वत्थ षष्ठ भक्त पूर्वान्ह
२४. मगसिर कृ. १० उत्तरा नाथ तृ. भक्त अपरान्ह
२२ २३ २४ २५ २६ २७
तीर्थ. सहदीक्षित छद्मस्थकाल केवलतिथि केवलोत्पत्तिकाल केवलस्थान केवल नक्षत्र
१. ४००० १००० वर्ष फाल्गुन कृ. ११ पूर्वान्ह पुरिमताल नगर उत्तराषाढा (प्रयाग)
२. १००० १२ वर्ष पौष शु. ११ अपरान्ह सहेतुक वन रोहिणी
३. १००० १४ वर्ष कार्तिक कृ. ४ अपरान्ह सहेतुक वन ज्येष्ठा
४. १००० १८ वर्ष पौष शु. १४ अपरान्ह उग्रवन पुनर्वसु
५. १००० २० वर्ष चैत्र शु. ११ अपरान्ह सहेतुक हस्त
६. १००० ६ मास चैत्र शु. १५ अपरान्ह मनोहर चित्रा
७. १००० ९ वर्ष फाल्गुन कृ. ६ अपरान्ह सहेतुक विशाखा
८. १००० ३ मास फाल्गुन कृ. ७ अपरान्ह सर्वार्थ अनुराधा
९. १००० ४ वर्ष कार्तिक शु. २ अपरान्ह पुष्पवन मूल
१०. १००० ३ वर्ष पौष कृ. १४ अपरान्ह सहेतुक पूर्वाषाढा
११. १००० २ वर्ष माघ कृ. अमावस अपरान्ह मनोहर श्रवण
१२. ६७६ १ वर्ष माघ शु. २ अपरान्ह मनोहर विशाखा
१३. १००० ३ वर्ष माघ शु. ६ अपरान्ह सहेतुक उत्तराषाढा
१४. १००० २ वर्ष चैत्र कृ. अमावस अपरान्ह सहेतुक रेवती
१५. १००० १ वर्ष पौष शु. पूर्णिमा अपरान्ह सहेतुक पुष्य
१६. १००० १६ वर्ष पौष शु. १० अपरान्ह आम्रवन भरणी
१७. १००० १६ वर्ष चैत्र शु. ३ अपरान्ह सहेतुक कृत्तिका
१८. १००० १६ वर्ष कार्तिक शु. १२ अपरान्ह सहेतुक रेवती
१९. ३०० ६ दिन पौष शु. २ अपरान्ह मनोहर अश्विनी
२०. १००० ११ मास वैशाख कृ. ९ पूर्वान्ह नीलवन श्रवण
२१. १००० ९ मास मगसिर शु. ११ अपरान्ह चैत्रवन अश्विनी
२२. १००० ५६ मास आश्विन शु. १ पूर्वान्ह ऊर्जयन्त चित्रा
२३. ३०० ४ मास चैत्र कृ. १४ पूर्वान्ह शक्रपुर विशाखा (अहिच्छत्र)
२४. एकाकी १२ वर्ष वैशाख शु. १० पूर्वान्ह ऋजुवूâलातीर मघा
२८ २९ ३० ३१ ३२
तीर्थ. समवसरण अशोक वृक्ष यक्ष यक्षिणी केवलीकाल
भूमि (केवल वृक्ष)
१. १२ योजन न्यग्रोध गोवदन चव्रेâश्वरी १ लाख पूर्व-१००० वर्ष २. ११(१/२) योजन सप्तपर्ण महायक्ष रोहिणी १ लाख पूर्व- (१ पूर्वांङ्ग १२ वर्ष)
३. ११ योजन शाल त्रिमुख प्रज्ञप्ति १ लाख पूर्व- (४ पूर्वांङ्ग १४ वर्ष)
४. १०(१/२) योजन सरल यक्षेश्वर वङ्काशृंखला १ लाख पूर्व- (८ पूर्वांङ्ग १८ वर्ष)
५. १० योजन प्रियंगु तुम्बुरु वङ्काांकुशा १ लाख पूर्व- (१२ पूर्वांङ्ग २० वर्ष)
६. ९(१/२) योजन प्रियंगु मातंग अप्रति चव्रेâश्वरी १ लाख पूर्व-(१६ पूर्वांङ्ग ६ मास)
७. ९ योजन शिरीष विजय पुरुषदत्ता १ लाख पूर्व-(२० पूर्वांङ्ग ९ मास)
८. ८(१/२) योजन नाग अजित मनोवेगा १ लाख पूर्व-(२४ पूर्वांङ्ग ३ मास)
९. ८ योजन बहेडा ब्रह्म काली १ लाख पूर्व-(२८पूर्वांङ्ग ४ मास)
१०. ७ (१/२) योजन धूली पलाश ब्रह्मेश्वर ज्वालामालिनी २५००० पूर्व-३ वर्ष
११. ७ योजन तेंदू कुमार महाकाली २०९९९९८ वर्ष
१२. ६ (१/२) योजन पाटल षण्मुख गौरी ५३९९९९९ वर्ष
१३. ६ योजन जम्बू पाताल गांधारी १४९९९९७ वर्ष
१४. ५ (१/२) योजन पीपल किन्नर वैरोटी ७४९९९८ वर्ष
१५. ५ योजन दधिपर्ण किम्पुरुष अनन्तमती २४९९९९ वर्ष
१६. ४(१/२) योजन नन्दी गरुड़ मानसी २४९८४ वर्ष
१७. ४ योजन तिलक गंधर्व महामानसी २३७३४ वर्ष
१८. ३(१/२) योजन आम्र कुबेर जया २०९८४ वर्ष
१९. ३ योजन अशोक वरुण विजया ५४८९९ वर्ष ११ मास २४ दिन
२०. २(१/२) योजन चंपक भृकुटी अपराजिता ७४९९ वर्ष १ मास
२१. २ योजन बकुल गोमेध बहुरूपिणी २४९१ वर्ष
२२. १(१/२) योजन मेघ शृङ्ग पाश्र्व कुष्मांडी ६९९ वर्ष १० मास ४ दिन
२३. १(१/४) योजन धव मातंग पद्मावती ६९ वर्ष ८ मास
२४. १ योजन शाल गुह्यक सिद्धायनी ३० वर्ष
३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८
तीर्थ. गणधर मुख्य ऋषि संख्या पूर्वधर शिक्षक अवधिज्ञानी
संख्या गणधर
१. ८४ वृषभसेन ८४००० ४७५० ४१५० ९०००
२. ९० सिंहसेन १००००० ३७५० २१६०० ९४००
३. १०५ चारुदत्त २००००० २१५० १२९३०० ९६००
४. १०३ वङ्काचमर ३००००० २५०० २३००५० ९८००
५. ११६ वङ्का ३२०००० २४०० २५४३५० ११०००
६. १११ चमर ३३०००० २३०० २६९००० १००००
७. ९५ बलदत्त ३००००० २०३० २४४९२० ९०००
८. ९३ वैदर्भ २५०००० ४००० २१०४०० २०००
९. ८८ नाग २००००० १५०० १५५५०० ८४००
१०. ८७ कुंथु १००००० १४०० ५९२०० ७२००
११. ७७ धर्म ८४००० १३०० ४८२०० ६०००
१२. ६६ मंदिर ७२००० १२०० ३९२०० ५४००
१३. ५५ जय ६८००० ११०० ३८५०० ४८००
१४. ५० अरिष्ट ६६००० १००० ३९५०० ४३००
१५. ४३ सेन ६४००० ९०० ४०७०० ३६००
१६. ३६ चक्रायुध ६२००० ८०० ४१८०० ३०००
१७. ३५ स्वयंभु ६०००० ७०० ४३१५० २५००
१८. ३० कुंभ ५०००० ६१० ३५८३५ २८००
१९. २८ विशाख ४०००० ५५० २९००० २२००
२०. १८ मल्लि ३०००० ५०० २१००० १८००
२१. १७ सुप्रभ २०००० ४५० १२६०० १६००
२२. ११ वरदत्त १८००० ४०० ११८०० १५००
२३. १० स्वयंभु १६००० ३५० १०९०० १४००
२४. ११ इन्द्रभूति १४००० ३०० ९९०० १३००
३३ ३४ ३५ ३६ ३७ ३८
तीर्थ. गणधर मुख्य ऋषि संख्या पूर्वधर शिक्षक अवधिज्ञानी
संख्या गणधर
१. ८४ वृषभसेन ८४००० ४७५० ४१५० ९०००
२. ९० सिंहसेन १००००० ३७५० २१६०० ९४००
३. १०५ चारुदत्त २००००० २१५० १२९३०० ९६००
४. १०३ वङ्काचमर ३००००० २५०० २३००५० ९८००
५. ११६ वङ्का ३२०००० २४०० २५४३५० ११०००
६. १११ चमर ३३०००० २३०० २६९००० १००००
७. ९५ बलदत्त ३००००० २०३० २४४९२० ९०००
८. ९३ वैदर्भ २५०००० ४००० २१०४०० २०००
९. ८८ नाग २००००० १५०० १५५५०० ८४००
१०. ८७ कुंथु १००००० १४०० ५९२०० ७२००
११. ७७ धर्म ८४००० १३०० ४८२०० ६०००
१२. ६६ मंदिर ७२००० १२०० ३९२०० ५४००
१३. ५५ जय ६८००० ११०० ३८५०० ४८००
१४. ५० अरिष्ट ६६००० १००० ३९५०० ४३००
१५. ४३ सेन ६४००० ९०० ४०७०० ३६००
१६. ३६ चक्रायुध ६२००० ८०० ४१८०० ३०००
१७. ३५ स्वयंभु ६०००० ७०० ४३१५० २५००
१८. ३० कुंभ ५०००० ६१० ३५८३५ २८००
१९. २८ विशाख ४०००० ५५० २९००० २२००
२०. १८ मल्लि ३०००० ५०० २१००० १८००
२१. १७ सुप्रभ २०००० ४५० १२६०० १६००
२२. ११ वरदत्त १८००० ४०० ११८०० १५००
२३. १० स्वयंभु १६००० ३५० १०९०० १४००
२४. ११ इन्द्रभूति १४००० ३०० ९९०० १३००
३९ ४० ४१ ४२ ४३
तीर्थ. केवली विक्रियाधारी विपुलमति वादी आर्यिका
१. २०००० २०६०० १२७५० १२७५० ३५००००
२. २०००० २०४०० १२४५० १२४०० ३२००००
३. १५००० १९८०० १२१५० १२००० ३३००००
४. १६००० १९००० २१६५० १००० ३३०६००
५. १३००० १८४०० १०४०० १०४५० ३३००००
६. १२००० १६८०० १०३०० ९६०० ४२००००
७. ११००० १५३०० ९१५० ८६०० ३३००००
८. १८००० ६०० ८००० ७००० ३८००००
९. ७५०० १३००० ७५०० ६६०० ३८००००
१०. ७००० १२००० ७५०० ५७०० ३८००००
११. ६५०० ११००० ६००० ५००० १३००००
१२. ६००० १०००० ६००० ४२०० १०६०००
१३. ५५०० ९००० ५५०० ३६०० १०३०००
१४. ५००० ८००० ५००० ३२०० १०८०००
१५. ४५०० ७००० ४५०० २८०० ६२४००
१६. ४००० ६००० ४००० २४०० ६०३००
१७. ३२०० ५१०० ३३५० २००० ६०३५०
१८. २८०० ४३०० २०५५ १६०० ६००००
१९. २२०० २९०० १७५० १४०० ५५०००
२०. १८०० २२०० १५०० १२०० ५००००
२१. १६०० १५०० १२५० १००० ४५०००
२२. १५०० ११०० ९०० ८०० ४००००
२३. १००० १००० ७५० ६०० ३८०००
२४. ७०० ९०० ५०० ४०० ३६०००
४४ ४५ ४६ ४७
तीर्थ. मुख्य आर्यिका श्रावक श्राविका मोक्षतिथि
१. ब्राह्मी ३००००० ५००००० माघ कृ. १४
२. प्रकुब्जा ३००००० ५००००० चैत्र शु. ५
३. धर्मश्री ३००००० ५००००० चैत्र शु. ६
४. मेरुषेणा ३००००० ५००००० वैशाख शु. ६
५. अनन्ता ३००००० ५००००० चैत्र शु. ११
६. रतिषेणा ३००००० ५००००० फाल्गुन कृ. ४
७. मीना ३००००० ५००००० फाल्गुन कृ. ७
८. वरुणा ३००००० ५००००० फाल्गुन शु. ७
९. घोषा २००००० ४००००० भाद्रपद शु. ८
१०. धरणा २००००० ४००००० आश्विन शु. ८
११. चारणा २००००० ४००००० श्रावण शु. १५
१२. वरसेना २००००० ४००००० भाद्रपद शु. १४
१३. पद्मा २००००० ४००००० आषाढ़ कृ. ८
१४. सर्वश्री २००००० ४००००० चैत्र कृ. अमावस्या
१५. सुव्रता २००००० ४००००० ज्येष्ठ शु. ४
१६. हरिषेणा २००००० ४००००० ज्येष्ठ कृ. १४
१७. भाविता १००००० ३००००० वैशाख शु. १
१८. कुंथुसेना १००००० ३००००० चैत्र कृ. अमावस्या
१९. मधुसेना १००००० ३००००० फाल्गुन शु. ५
२०. पूर्वदत्ता १००००० ३००००० फाल्गुन कृ. १२
२१. मार्गिणी १००००० ३००००० वैशाख कृ. १४
२२. यक्षी १००००० ३००००० आषाढ़ शु. ७
२३. सुलोका १००००० ३००००० श्रावण शु. ७
२४. चन्दना १००००० ३००००० कार्तिक कृ. अमा.