श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम्।
जीयात्त्रैलोक्य नाथस्य शासनं जिनशासनम्।।
अनंतानंत आकाश के मध्य में ३४३ राजू प्रमाण पुरुषाकार लोकाकाश है जिसमें जीव, पुद्गल, धर्म अधर्म और काल ये द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों सहित अवलोकित किये जाते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं उसके परे सर्वत्र अलोकाकाश है। यह लोक अकृत्रिम है, अनादिनिधन है। अधोलोक, तिर्यग्लोक और ऊर्ध्वलोक इसके ऐसे तीन भेद हैं। इस लोक के मध्य में मध्यलोक असंख्यात द्वीप समुद्रों से सहित है। प्रारंभ में एक लाख योजन विस्तृत गोलाकार जंबूद्वीप है। उसको वेष्टित करके दो लाख योजन व्यास वाला लवण समुद्र है, इसके अनंतर धातकी खंडद्वीप,कालोदधि समुद्र आदि से अंत में स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत द्वीप- समुद्र एक दूसरे को वेष्टित करते हुये दूने-दूने प्रमाण वाले होते चले गये हैं।
इस जंबूद्वीप के बीचोंबीच में दश हजार योजन विस्तृत और एक लाख चालीस योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है अंत में इसका अग्रभाग चार योजन मात्र का रह गया है। इस जंबूद्वीप में हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी ऐसे छह पर्वत हैं। इनसे विभाजित भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत और ऐरावत ऐसे सात क्षेत्र हैं। सबसे प्रथम भरतक्षेत्र का विस्तार ५२६ (६/१९) योजन प्रमाण है आगे विदेह तक दूना-दूना होकर पुन: आधा-आधा हो गया है। विदेह के बीचोंबीच में सुमेरु के होने से विदेह के पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह ऐसे दो भेद एवं मेरु के दक्षिण में देवकुरु और उत्तर में उत्तरकुरु माने गये हैं। भरत, ऐरावत में कर्मभूमि, हैमवत, हैरण्यवत क्षेत्र में जघन्यभोगभूमि, हरि, रम्यक क्षेत्र में मध्यम भोग- भूमि और देवकुरु उत्तरकुरु में उत्तमभोगभूमि होती है। पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह में शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था है।
जीव, पुद्रगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं। ‘सद्द्रव्यलक्षणं’ द्रव्य का लक्षण सत् है और ‘‘उत्पादव्यय ध्रौव्य युक्तं सत्’’ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से सहित को सत् कहते हैं। ज्ञानदर्शन रूप चेतना लक्षण वाला जीव है। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, से सहित मूर्तिक द्रव्य पुद्गल है। जीव और पुद्गल को चलने में उदासीन रूप से सहायक धर्म द्रव्य है और इनको ठहरने में उदासीन रुप से सहायक अधर्म द्रव्य है। सभी द्रव्यों को अवकाश देने वाला आकाश द्रव्य है। प्रत्येक द्रव्य में परिणमन के लिये निमित्तभूत वर्तना लक्षण वाला काल द्रव्य है। कालद्रव्य-यह अत्यंत सूक्ष्म होने से परमाणु बराबर है और असंख्यात होने से लोकाकाश में सर्वत्र -एक प्रदेश पर स्थित है। घड़ी, घंटा आदि इस काल द्रव्य की पर्यायें हैं यही समय, आवली आदि व्यवहार काल है। उस व्यवहार काल के दो भेद हैं-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी । जिसमें मनुष्यों के आयु, बल आदि व्रâम से बढ़ते जावें वह उत्सर्पिणी है। जिसमें घटते जावें वह अवसर्पिणी है। उत्सर्पिणी दस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है और उतनी ही अवसर्पिणी होने से दोनों कालों को मिलकर बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है। इन दोनों कालों के छह-छह भेद होते हैं।
अवसर्पिणी के -सुषमा सुषमा, सुषमा, सुषमा दु:षमा, दु:षमा सुषमा, दु:षमा और दु:षमा दु:षमा। उत्सर्पिणी के-दु:षमा, सुषमा, दु:षमा सुषमा, सुषमा दु:षमा, सुषमा और सुषमा सुषमा । ये दोनों ही काल चक्रवत् चलते रहते हैं। यह काल परिवर्तन भरत और ऐरावत क्षेत्र में ही होता है, अन्यत्र नहीं।
जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र के मध्य में जो आर्यखंड है उसमें अवसर्पिणी का सुषमासुषमा नाम का प्रथम काल चल रहा था, उसका प्रमाण चार कोड़ा-कोड़ी सागर था। उस समय यहाँ देवकुरु सदृश उत्तम भोगभूमि की व्यवस्था थी, मनुष्यों की आयु तीन पल्य, शरीर की ऊँचाई छह हजार धनुष थी। वे मनुष्य उत्तम संहनन, संस्थान के धारक स्वर्ण सदृश वर्ण वाले थे तीन दिन के बाद कल्पवृक्षों से वदरी फल बराबर उत्तम भोजन ग्रहण करते थे। उनके मलमूत्र, पसीना, अकालमृत्यु आदि नहीं थे। कल्पवृक्षों के दस भेद-मद्यांग, तूर्यांग, भूषणांग, माल्यांग, ज्योतिरंग, दीपांग, गृहांग, भोजनांग, पात्रांग और वस्त्रांग। ये अपने नाम के अनुसार इच्छित फल देने वाले थे । ये मनुष्य युगल ही जन्म लेते हैं और युगल ही मरते हैं। आयु के अंत में पुरुष को जंभाई और स्त्री को छींक आने से मरकर स्वर्ग चले जाते हैं।
क्रम से मनुष्यों का बल, आयु घटते-घटते चार कोड़ाकोड़ी सागर काल के बीत जाने के बाद ‘‘सुषमा’’ नामक द्वितीय काल आता है। इसका प्रमाण तीन कोड़ाकोड़ी सागर है। इसमें मध्यम भोगभूमि की व्यवस्था होती है। मनुष्यों की आयु दो पल्य, शरीर की ऊँचाई चार हजार धनुष एवं चन्द्र सदृश वर्ण होता है। ये दो दिन बाद बहेड़े बराबर उत्तम भोजन कल्पवृक्ष से ग्रहण करते हैं।
क्रम से आयुबल के घटते-घटते दो कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण वाला ‘‘सुषमा दु:षमा’’ नाम का तृतीय काल आता है। यहाँ के मनुष्यों की आयु एक पल्य, शरीर दो हजार धनुष(एक कोश) ऊँचा और वर्ण हरित होता है, ये एक दिन के अंतर से आंवले के बराबर भोजन ग्रहण करते हैं। यहाँ जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है।
इस तृतीय काल में जब पल्य का आठवां भाग शेष रह गया तब कल्पवृक्षों की सामर्थ्य के घट जाने से ‘‘ज्योतिरंग’’ कल्पवृक्षों का प्रकाश अत्यंत मंद पड़ गया। पुन: किसी समय आषाढ़ सुदी पूर्णिमा के दिन सायंकाल में आकाश की पूर्वदिशा में उदित होता हुआ चन्द्र और पश्चिम दिशा में अस्त होता हुआ सूर्य दिखाई दिया उस समय वहाँ ‘‘प्रतिश्रुति’’ नाम के प्रसिद्ध प्रथम कुलकर विद्यमान थे वे सबसे अधिक तेजस्वी थे। उनकी आयु पल्य के दसवें भाग और ऊँचाई एक हजार आठ सौ धनुष थी।
जन्मान्तर के संस्कार से उन्हें अवधिज्ञान प्रगट हो गया था। सूर्य, चन्द्र को देखकर भयभीत हुये भोगभूमिज उनके पास आये। तब उन्होंने कहा कि हे भद्रपुरुषों! ये सूर्य, चन्द्र ग्रह हैं, ये महाकांतिमान् हमेशा आकाश में घूमते रहते हैं अभी तक इनका प्रकाश ज्योतिरंग कल्पवृक्ष से तिरोहित रहता था, अब कालदोष से कल्पवृक्षों का प्रभाव कम हो गया है अत: ये दिखाई देने लगे हैं प्रतिश्रुति कुलकर के इन वचनों को सुनकर सब लोग निर्भय हो गये। क्रम से समय व्यतीत हो जाने पर प्रतिश्रुति कुलकर के स्वर्गवास के बाद जब असंख्यात करोड़ वर्षों का अंतराल बीत गया तब ‘‘सन्मति’’ नामक द्वितीय कुलकर का जन्म हुआ। इनकी आयु ‘‘अमम’’ प्रमाण और शरीर की ऊँचाई एक हजार तीन सौ धनुष थी।
एक समय रात्रि में तारागण दिखने लगे तब इन्होंने प्रजा का भय दूर किया था। इनके बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अंतराल बीत जाने पर इस भरत क्षेत्र में ‘‘क्षेमंकर’’ नाम के तीसरे मनु हुये। इनकी आयु ‘‘अटट’’ प्रमाण और शरीर की ऊँचाई आठ सौ धनुष थी। इन्होंने सिंह, व्याघ्र आदि पशुओं में प्रगट हुई विकारता से भयभीत भोगभूमिजों को इनकी संगति से बचने का आदेश दिया था । इनके बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अंतराल बीत जाने पर ‘‘क्षेमंधर’’ नाम के मनु हुये। इनकी आयु ‘‘तुटिक’’ प्रमाण और ऊँचाई ७७५ धनुष की थी। इन्होंने सिंह आदि के अतिक्रुद्ध हो जाने से डरे हुये मनुष्यों को इनसे लाठी आदि से रक्षा करने का उपदेश दिया था। इनकी आयु पूर्ण हो जाने पर असंख्यात करोड़ वर्षों का अतंराल बीत जाने पर ‘‘सीमंकर’’ नाम के कुलकर हुये । इनकी आयु ‘‘कमल’’ प्रमाण, ऊँचाई ७५० धनुष की थी ।
इनके समय में अल्प कल्पवृक्षों से अल्प फल मिलने से जनों में विवाद हुआ तब इन्होंने कल्पवृक्षों की सीमायें नियुक्त कर दी थीं। इनके बाद असंख्यात करोड़ वर्षों के अंतराल बीत जाने पर ‘‘सीमंधर’’ नामक छठे मनु उत्पन्न हुये। इनकी आयु ‘‘नलिन’’ प्रमाण, ऊँचाई ७२५ धनुष थी। इनके समय में कल्पवृक्ष कम हो गये तब आपस में कलह अधिक होने से इन्होंने कल्पवृक्ष की सीमाओं को अनेक वृक्ष, छोटी-छोटी झाड़ियों से चिन्हित कर दिया। इनके बाद पूर्वोक्त अंतराल के बीत जाने पर ‘‘विमलवाहन’’ नामक सातवें मनु हुये। इनकी आयु ‘पद्य’ प्रमाण, ऊँचाई ७०० धनुष की थी। इन्होनें हाथी, घोड़े आदि पर अकुंश, चाबुक आदि लगाकर सवारी करने का उपदेश दिया था। अनंतर असंख्यात करोड़ वर्षों बाद ‘‘चक्षुष्मान’’ नाम के आठवें कुलकर हुये इनकी आयु ‘‘पद्मांग’’ प्रमाण, ऊँचाई ६७५ धनुष की थी । इनके समय से पहले युगल के जन्म लेते ही माता पिता मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे, संतान का मुख नहीं देख पाते थे परंतु अब वे क्षण भर पुत्र का मुख देखकर मरने लगे। इस घटना से मनुष्यों को भयभीत देखकर इन्होंने उपदेश देकर भय दूर किया था। अनंतर पूर्ववत् अंतराल बीतने के बाद ‘‘यशस्वान् ’’ कुलकर हुये इनकी आयु ‘‘कुमुद’’ प्रमाण, ऊँचाई ६५० धनुष थी। इन्होंने भोगभूमिजों को संतान का मुख देखने के बाद आशीर्वाद देना सिखाया था। इनके बाद पूर्वोक्त अंतराल के अनंतर ‘‘अभिचन्द्र’’ नामक दसवें कुलकर उत्पन्न हुये इनकी आयु ‘‘कुमुदांग’’ प्रमाण, ऊँचाई ६२५ धनुष थी।
इन्होंने रात्रि में बालकों को चन्द्रमा दिखाकर विनोद करना सिखाया था। इनके बाद ‘‘चन्द्रभ’’ नाम के ग्यारहवेंं कुलकर हुये, इनकी आयु ‘‘नयुत’’ प्रमाण, ऊँचाई ६०० धनुष प्रमाण थी। इनके समय माता-पिता कुछ समय तक जीवित रहने लगे थे। तदनंतर अपने योग्य अंतराल के बाद ‘‘मरुदेव’’ कुलकर हुये, इनकी आयु ‘‘नयुतांग’’ प्रमाण, ऊँचाई ५७५ धनुष थी। इन्होंने जलाशयों में नाव चलाने का, पर्वतों पर सीढ़ियों से चढ़ने का उपदेश दिया था।
इनके बाद कर्मभूमि की स्थिति धीरे-धीरे पास आ रही थी तब ‘‘प्रसेनजित्’’ कुलकर हुये, उनकी आयु एक ‘‘पर्व’’ प्रमाण ,ऊँचाई ५०० धनुष की थी। इनके समय में बालकों की उत्पत्ति जरायु से लिपटी हुई होने लगी तब इन्होंने प्रजा को जरायु पटल से बालकों को निकालने का उपदेश दिया । इनके बाद ही ‘‘नाभिराज’’ कुलकर हुये थे, इनकी आयु ‘‘एक करोड़ पूर्व’’ वर्ष प्रमाण और ऊँचाई ५२५ धनुष थी, इन नाभिराज कुलकर के समय में उत्पन्न होने पर बालकों की नाभि में नाल दिखाई देने लगा था और इन्होंने उसे काटने की आज्ञा दी थी । इस प्रकार ये चौदह कुलकर माने गये हैं।
इन्हीं नाभिराज के समय काल के प्रभाव से पुद्गल परमाणु मेघ बनकर आकाश में मंडराने लगे, मेघगर्जन, इन्द्रधनुष, जलवृष्टि आदि होने से अनेकों अंकुर पैदा हो गये एवं कल्पवृक्षों का अभाव हो गया। उन धान्यों को देखकर अत्यंत व्याकुल प्रजा महाराज नाभिराज की शरण में आई।
‘‘जीवाम: कथमेवाद्य नाथानाथा बिना द्रुमै:।
कल्पदायिभिराकल्पम् विस्मायैरपुण्यका:।।१९३।।’’
हे नाथ! मनवांछित फल देने वाले तथा कल्पांत काल तक नहीं भुलाने के योग्य कल्पवृक्षों के बिना अब हम पुण्यहीन अनाथ लोग किस प्रकार जीवित रहें ? हे देव! इनमें क्या खाने योग्य है क्या नहीं ? इत्यादि प्रार्थना के अनंतर श्री नाभिराज ने कहा कि डरो मत! अब कल्पवृक्ष के नष्ट होने के बाद ये वृक्ष वैसे ही तुम्हारा उपकार करेंगे । ये विषवृक्ष हैं इनसे दूर रहो। ये औषधियाँ हैं। ये इक्षु के पेड़ हैं उनका दांतों से या यंंत्रों से रस निकालकर पीना चाहिये। इस प्रकार से बहुत सी बातों का उपदेश दिया। उस समय कल्पवृक्षों की व्यवस्था के नष्ट हो जाने से प्रजा के हित को करने वाले श्री नाभिराज कल्पवृक्ष के सदृश थे।
प्रतिश्रुति से लेकर श्री नाभिराज पर्यंत चौदह कुलकर अपने पूर्व भवों में विदेह क्षेत्रों में उच्चकुलीन महापृरुष थे । सम्यग्दर्शन से पहले मनुष्यायु का बंध कर लेने से यहाँ भोगभूमि में जन्मे हैं, वहाँ ये क्षायिक सम्यग्दृष्टी थे । इन चौदह में से कितने ही कुलकरों को जातिस्मण, कितने ही कुलकरों को अवधिज्ञान था इसलिए इन्होंने विचार कर प्रजा के लिए हित का उपदेश दिया था। ये सब कुलकर कुलधर, युगदिपुरुष, मनु आदि नामों से कहे जाते हैं। इन कुलकरों में से आदि के पाँच कुलकरों ने अपराधी मनुष्यों के लिये ‘‘हा’’ इस दण्ड की व्यवस्था की थी। उनके आगे के पाँच कुलकरों ने ‘‘हा’’ और ‘‘मा’’ इन दो प्रकार के दण्डों की व्यवस्था की थी, शेष कुलकरों ने ‘‘हा’’ ‘‘मा’’ और ‘‘धिक’’ ऐसे तीन दण्डों की व्यवस्था की थी अर्थात् खेद है, अब ऐसा नहीं करना, तुम्हें धिक्कार है जो रोकने पर भी ऐसा काम करते हो। भगवान वृषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे, वे भी पंद्रहवें मनु कहलाये एवं भरत चक्रवर्ती सोलहवें मनु कहलाये थे। भरतचक्री के समय लोग अधिक दोष करने लगे थे इसलिये उन्होंने वध बंधन आदि शारीरिक दण्ड देने की रीति चलाई थी।
इन कुलकरों की आयु के प्रमाण में जो ‘‘अटट’’ ‘‘अमम’’ आदि संख्यायें आई हैं उनका प्रमाण महापुराण में वर्णित है। शरीर की अवगाहना में जो धनुष का प्रमाण है, उसमें एक धनुष में चार हाथ माने गये हैं।
उन अंतिम कुलकर नाभिराज के मरुदेवी नाम की रानी थी। उनके पुण्य से प्रेरित इन्द्र ने एक नगरी की रचना की। उसका नाम ‘‘अयोध्या’’ था। इसके अन्य नाम साकेता, विनीता, सुकौशला भी प्रसिद्ध थे।अनंतर देवों ने ‘‘इन दोनों के ऋषभदेव पुत्र जन्म लेंगे’’, ऐसा समझकर इन दोनों की अभिषेकपूर्वक विशेष पूजा की थी।
षड्भिर्मासैरथैतस्मिन्, स्वर्गादवतरिष्यति।
रत्नवृष्टिं दिवो देवा: पातयामासुरादरात् ।।८४।।(महापु.)
जब इंद्र को मालूम हुआ कि छह महिने बाद भगवान् वृषभदेव स्वर्ग से यहाँ अवतार लेंगे तब इन्द्र की आज्ञा से देवों ने बड़े आदर से माता के आंगन में साढ़े सात करोड़ रत्नों की प्रतिदिन वर्षा की थी। अनंतर किसी दिन रात्रि के पिछले प्रहर में रानी मरुदेवी ने ऐरावती हाथी, शुभ्र बैल, हाथियोंं द्वारा स्वर्ण घटों से अभिषिक्त लक्ष्मी, पुष्पमालायें आदि सोलह स्वप्न देखे। प्रात: पतिदेव से स्वप्न का फल सुनकर अत्यंत हर्षित हुईं । उस समय अवसर्पिणी काल के सुषमा दु:षमा नामक तृतीय काल में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष के शेष रहने पर आषाढ कृष्णा द्वितीया के दिन उत्तराषाढ नक्षत्र में वङ्कानाभि अहमिंद्र देवायु का अंत होने पर सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुये। उस समय इन्द्र अपने यहाँ होने वाले चिन्हों से भगवान् के गर्भावतार को जानकर देवों सहित वहाँ आकर नगरी की प्रदक्षिणा देकर माता-पिता की पूजा, भक्ति, नमस्कार करके गर्भकल्याणक उत्सव मनाकर अपने-अपने स्थान को चले गये। उसी समय से लेकर इन्द्र की आज्ञा से श्री, ही आदि देवियां और दिक्कुमारियां माता की सेवा करते हुये काव्य गोष्ठी, सैद्धांतिक चर्चाओं से, गूढ प्रश्नों से माता का मन अनुरंजित करने लगीं।
अथातो नवमासानामत्यये सुषुवे विभुम् ।
देवदेवीभिरूक्ताभिर्यथास्वं परिवारिता ।।१।।
प्राचीव बंधुमब्जानां सा लेभे भास्वरं सुतम् ।
चैत्रे मास्यसिते पक्षे नवम्यामुदये रवे:।।२।।
(महापुराण पर्व १३)
अनंतर श्री, ही आदि देवियां जिनकी सेवा में तत्पर हैं ऐसी माता ने नव महीने व्यतीत होने पर भगवान ऋषभदेव को जन्म दिया। जिस प्रकार पूर्वदिशा कमलविकासी सूर्य को जन्म देती है वैसे ही माता मरुदेवी ने चैत्र कृष्णा नवमी के दिन सूर्योदय के समय उत्तराषाढ़ नक्षत्र और ब्रह्म नामक महायोग में मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञान से सहित तीनों लोकों के नाथ पुत्र को जन्म दिया। सारे विश्व में हर्ष की लहर दौड़ गई। इन्द्र का आसन कंपित होने से प्रभु का जन्म समझकर परोक्ष नमस्कार करने के लिये सभी देवों के मुकुट स्वयं झुक गये। सौधर्म इन्द्र-इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर चढ़कर नगरी की प्रदक्षिणा करके भगवान् को लेकर सुमेरुपर्वत पर पहुंचे और १००८ कलशों के द्वारा क्षीर समुद्र के जल से भगवान का जन्माभिषेक किया ।
अनंतर वस्राभरणों से अलंकृत करके ‘वृषभदेव’ यह नाम रखकर इंद्र अयोध्या में वापस आकर स्तुति, विनय, पूजा, तांडव नृत्य आदि करके महान् पुण्य संचय कर स्वस्थान को चले गये।
भगवान् के युवावस्था में प्रवेश करने पर महाराजा नाभिराज ने बड़े ही आदर से भगवान् की स्वीकृति प्राप्त कर इन्द्र की अनुमति से कच्छ, सुकच्छ राजाओं की बहनें यशस्वती और ‘सुनंदा’ के साथ श्री वृषभ देव का विवाह संबंध वâर दिया।
किसी समय यशस्वती देवी ने चैत्र कृष्णा नवमी के दिन भरत चक्रवर्ती को जन्म दिया तथा क्रमश: निन्यानवे पुत्र एवं ब्राह्मी कन्या को जन्म दिया। वृषभदेव की सुनंदा महादेवी ने कामदेव भगवान् बाहुबली और सुंदरी नाम की कन्या को जन्म दिया। इस प्रकार एक सौ तीन पुत्र-पुत्रियों सहित भगवान् वृषभदेव देवों द्वारा लाये गये भोग पदार्थों का अनुभव करते हुये सुख से गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत कर रहे थे। भगवान् वृषभदेव त्रिज्ञानधारी होने से स्वयं गुरु थे।
किसी समय ब्राह्मी और सुंदरी को बड़े प्रेम से गोद में लेकर उन्हें आशीर्वाद देकर चित्त में स्थित श्रुतदेवता को सुवर्ण पट्ट पर स्थापित किया । पुन: ‘सिद्धं नम:’ मंगलाचरणपूर्वक दाहिने हाथ से ‘अ आ’ आदि वर्णमाला लिखकर ब्राह्मी कुमारी को लिपि लिखने का एवं बायें हाथ से सुंदरी को अनुक्रम के द्वारा इकाई, दहाई आदि अंक विद्या को लिखने का उपदेश दिया था। इस प्रकार भगवान् से ब्राह्मी, सुंदरी कन्याओं ने समस्त वाङ्मय का अध्ययन किया था । जगतगुरु भगवान् ऋषभदेव ने इसी प्रकार अपने भरत आदि पुत्रों को सभी विद्याओं का अध्ययन कराया था। इस प्रकार सुख पूर्वक भगवान् का ‘‘बीस लाख पूर्व’’ वर्षों का काल व्यतीत हो गया।
इसी बीच काल प्रभाव से कल्पवृक्ष के शक्तिहीन हो जाने पर एवं बिना बोए धान्य के भी कुछ-कुछ ही रह जाने पर प्रजा अनेकों बाधाओं से व्याकुल हो नाभिराज के पास गई ।अनंतर नाभिराज की आज्ञा से प्रजा भगवान् वृषभदेव के समीप आकर नमस्कार करके विनयपूर्वक रक्षा की याचना करने लगी।
श्रुत्वेति तद्वचो दीनं करुणाप्रेरिताशय: ।
मन: प्रणिदधावेवं भगवानादि पूरुष:।।१४२।।
पूर्वापर विदेहेषु या स्थिति: समवस्थिता ।
साद्य प्रवर्तनीयात्र ततो जीवन्यम्: प्रजा:।।१४३।। (महापु.पर्व१६)
प्रजा के दीन वचनों को सुनकर आदिनाथ भगवान् अपने मन में सोचने लगे कि पूर्व और पश्चिम विदेह में जो स्थिति वर्तमान है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है। उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जैसे असि, मषि आदि षट्कर्म हैं, क्षत्रिय आदि वर्ण व्यवस्था, ग्राम नगर आदि की रचना है वैसे ही यहाँ भी होना चाहिये। अथानंतर भगवान् ने इंद्र का स्मरण किया और स्मरण मात्र से इन्द्र ने आकर अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंदिर की रचना करके चारों दिशाओं में जिनमंदिर बनाये। कौशल, अंग, बंग आदि देश, नगर, ग्राम आदि बनाकर प्रजा को बसाकर प्रभु की आज्ञा से स्वर्ग को चला गया। भगवान् ने प्रजा को असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों का उपदेश दिया । उस समय भगवान् सरागी थे, युगादि पुरुष, ब्रह्मा, विश्वकर्मा, स्रष्टा, कृतयुग विधाता और प्रजापति आदि कहलाये। कुछ समय बाद इंद्र ने भगवान् का साम्राज्य पद पर अभिषेक किया ।
किसी समय नीलाञ्जना के नृत्य को देखते हुये बीच में उसकी आयु के समाप्त होने से भगवान् वृषभदेव को वैराग्य हो गया। उसी समय ब्रह्मलोक से लौकांतिक देव आकर भगवान् की पूजा, स्तुति करने लगे। भगवान् ने भरत का राज्याभिषेक करके इस पृथ्वी को ‘भारत’ इस नाम से सनाथ किया और बाहुबलि को युवराज पद पर स्थापित किया। महाराज नाभिराज आदि को पूछकर इन्द्र द्वारा लाई गई ‘‘सुदर्शना’’ नाम की पालकी पर आरुढ़ हो ‘‘सिद्धार्थक’ नामक वन में पहुंचे और ‘‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’’ मंत्र का उच्चारण कर केशलोंच करके सर्व परिग्रह रहित दिगंबर मुनि हो गये। उसी समय भगवान् ने छह महीने का योग ले लिया। भगवान् के साथ आये हुए चार हजार राजाओं ने भी भक्तिवश नग्न मुद्रा धारण कर ली।
भगवान के साथ दीक्षित हुये राजा लोग दो, तीन महीने में ही क्षुधा तृषा आदि से पीड़ित होकर अपने हाथ से ही वन के फलादि ग्रहण करने लगे, इनकी क्रियाओं को देख वनदेवताओं ने कहा कि-हे मूर्खों! यह दिगम्बर वेष सर्वश्रेष्ठ अरहंत, चक्रवर्ती आदि के द्वारा धारण करने योग्य है, इस वेष में तुम अनर्गल प्रवृत्ति मत करो। ऐसे वचन सुनकर उन लोगों ने दिगंबर मुद्रा में वैसा करने से डरकर भ्रष्ट तपस्वियों के अनेकों रुप बना लिये। वल्कल, चीवर, जटा दण्ड आदि धारण करके पारिव्राजक आदि बन गये। भगवान् वृषभदेव के पौत्र मरीचि कुमार भी इनमें अग्रणी गुरु बनकर पाखण्ड मत प्रवर्तक बन गया। ये मरीचिकुमार आगे चलकर अंतिम तीर्थंकर महावीर हुये हैं।
जगद्गुरु भगवान् छह महीने वाद आहार के लिये निकले परंतु मुनिचर्या विधि किसी को मालूम न होने से छह महीने और व्यतीत हो गये। एक वर्ष पूर्ण होने पर भगवान् कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में पहुंचे। भगवान को आते देख राजा सोमप्रभ और श्रेयांस को पूर्व भवों का स्मरण हो गया। विधिवत् पड़गाहन आदि करके इक्षुरस का आहारदान दिया। वह दिन वैशाख सुदी तृतीया का था जो आज भी अक्षयतृतीया के नाम से प्रसिद्ध है।
अनंतर तपश्चरण करते हुये भगवान् को ध्यान के द्वारा फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने १२ योजन प्रमाण समवसरण की रचना की। समवसरण में बारह सभाओं में क्रम से सप्तर्द्धि समन्वित गणधर देव और मुनिजन, कल्पवासी देवियां, आर्यिकायें और श्राविकायें, भवनवासी देवियां, व्यंतर देवियां, ज्योतिष्क देवियां, भवनवासी देव, व्यंतर देव, ज्योतिष्क देव, कल्पवासी देव, मनुष्य और तिर्यंच बैठकर उपदेश सुनते थे। पुरिमताल नगर के राजा श्री वृषभदेव के पुत्र वृषभसेन प्रथम गणधर थे एवं ब्राह्मी आर्यिकाओं की गणिनी थी। भगवान् के समवसरण में ८४ गणधर, ८४००० मुनि, ३५०००० आर्यिकायें, ३००००० श्रावक, ५००००० श्राविकायें, असंख्यातों देवगण और संख्यातों तिर्यंच शोभायमान थे। भगवान् ने एक हजार वर्ष चौदह दिन कम एक लाख पूर्व वर्ष तक आर्यखंड में विहार किया था।
जब भगवान् की आयु चौदह दिन शेष रही तब वे योगों का निरोध कर वैâलाशपर्वत पर जाकर विराजमान हो गये। माघ कृष्णा चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के समय भगवान् पूर्व दिशा की ओर मुख करके अनेक मुनियों के साथ चतुर्थ शुक्लध्यान शेष अघाति का नाशकर एक समय में सिद्धलोक में जाकर विराजमान हो गये।
इस चतुर्थ काल में
२४ तीर्थंकर ,
१२ चक्रवर्ती,
९ बलभद्र,
९ नारायण और
९ प्रतिनारायण
ऐसे त्रेसठ महापुरुष होते हैं। इनमें से भरत चक्रवर्ती प्रथम चक्रवर्ती हुये हैं।
२४ तीर्थंकर-वृषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु, अर,मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और महावीर।
१२ चक्रवर्ती- भरत, सगर, मधवा, सनत्कुमार, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, सुभौम, पद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त।
९ बलभद्र-विजय, अचल, धर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नंदी, नंदिमित्र, रामचंद्र और पद्म।
९ नारायण-त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुषपुंडरीक, दत्त, लक्ष्मण और श्री कृष्ण।
९ प्रतिनारायण-अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधुवैâटभ, निशुंभ, बलि, प्रहरण, रावण और जरासंध ।
भगवान् वृषभदेव के मोक्ष चले जाने के बाद पचास लाख करोड़ सागर बीत जाने पर अयोध्या नगरी के राजा जितशत्रु की रानी विजया से द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ का जन्म हुआ। इनकी आयु भी इसी अंतराल में सम्मिलित थी। इनकी आयु बहत्तर लाख पूर्व और शरीर की ऊँचाई ४५० धनुष थी ।
इन तीर्थंकर के भी गर्भकल्याणक, जन्मकल्याणक, राज्याभिषेक, तपकल्याणक, केवलज्ञानकल्याणक, समवसरण रचना, दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश, मोक्षकल्याणक आदि प्रसंगों में देवों के द्वारा पूर्ववत् उत्सव किये गये थे। सभी तीर्थंकरों के समय पूर्ववत् उत्सव होते हैं।
द्वितीय तीर्थंकर के बाद तीस लाख करोड़ सागर व्यतीत हो जाने पर श्रावस्ती नगरी के राजा दृढरथ की रानी सुषेणा से श्री संभवनाथ तीर्थंकर ने जन्म लिया था। इनकी आयु साठ लाख पूर्व की और ऊँचाई ४०० धनुष प्रमाण थी।
तृतीय तीर्थंकर के बाद दस लाख करोड़ सागर का अंतराल बीत जाने पर अयोध्या के राजा स्वयंवर की रानी सिद्धार्था से अभिनंदननाथ का जन्म हुआ। इनकी आयु पचास लाख पूर्व और ऊँचाई ३५० धनुष प्रमाण थी।
अभिनंदननाथ के बाद नौ लाख करोड़ सागर के बीत जाने पर अयोध्या नगरी के राजा मेघरथ की रानी मंगलावती से सुमतिनाथ का जन्म हुआ। इनकी आयु चालीस लाख पूर्व और ऊँचाई ३०० धनुष थी ।
सुमतिनाथ की तीर्थ परंपरा के नब्बे हजार करोड़ सागर बीत जाने पर कौशाम्बी नगरी के राजा धरणराज की रानी सुसीमा से श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र का जन्म हुआ। इनकी आयु तीस लाख पूर्व एवं ऊँचाई २५० धनुष की थी।
इसी प्रकार से चौबीस तीर्थंकरों का अंतराल, जन्मनगर, माता, पिता, पंचकल्याणक तिथि, शरीर की अवगाहना और आयु का प्रमाण निम्नलिखित चार्ट में स्पष्ट किया गया है।
तीर्थंकर के वर्ण- पद्मप्रभ, वासुपूज्य रक्त वर्ण के हैं, चंद्रप्रभु, पुष्पदंत श्वेत वर्ण के ,सुपार्श्व , पार्श्व नीलवर्ण के , नेमि, मुनिसुव्रत कृष्णवर्ण के एवं शेष सोलह स्वर्ण वर्ण के हैं।
वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्द्धमान ये पाँच तीर्थंकर बालब्रह्मचारी रहे हैं, शेष उन्नीस तीर्थंकर विवाहित होकर राज्य करके दीक्षित हुए हैं।
वंश-वीर प्रभु नाथवंशी, पार्श्च जिन उग्रवंशी, मुनिसुव्रत और नेमि हरिवंशी, धर्मनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ कुरुवंशी और शेष १७ तीर्थंकर इच्छ्वाकुवंश में हुये हैं।