कर्मयोगी
मनुष्य जीवन कर्मों के चक्र से जुड़ा है। यदि पूर्व जन्म के कर्म अच्छे नहीं रहे हों तो उनका फल भी इसी जन्म में भोगना पड़ता है। हमारी पूरी पृष्ठभूमि उन्हीं कर्मों के आधार पर निर्धारित होती है। इसे प्रारब्ध की संज्ञा मिली है। कर्मफल की दूसरी श्रेणी संचित कर्मों की है। इसमें पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार मनुष्य की मनोवृत्ति और विचार बनते हैं, जो उसे इस जन्म में कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं। अंत में आता है कर्मफल जो इस जन्म में किए जा रहे कर्मों के आधार पर तय होगा
चूंकि प्रारब्ध को बदला नहीं जा सकता तो मनुष्य को सहर्ष ही उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। बेहतर यही है कि संचित कर्मों के फल को पूरा करने के लिए मनुष्य को कर्मयोग का मार्ग अपनाना चाहिए। इस मार्ग में मनुष्य प्रत्येक जीव में ईश्वर को देखते हुए अपना कर्म करता है । इस प्रकार वह संचित कर्मफल से मुक्ति पाता हुआ अपने आगामी कर्मों के फल से भी मुक्त हो जाता है।
ईश्वर प्राप्ति के लिए ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग बताए गए हैं। निष्काम कर्म को कर्मयोग माना जाता है। जिस प्रकार भक्ति द्वारा भगवान की पूजा की जाती है, उसी प्रकार कर्मयोगी अपने कर्मफल को भगवान को अर्पण कर अपनी श्रद्धा प्रकट करता है। इसके द्वारा मनुष्य आगामी कर्मफल से मुक्त होकर संचित कर्मफल पर भी विजय प्राप्त कर लेता है, क्योंकि संचित कर्म पूर्व जन्म के कर्मफल के अनुसार बने उसके विचारों द्वारा किए जाते हैं। कर्मयोग द्वारा वह अपनी दूषित मनोवृत्ति पर भी विजय प्राप्त कर लेता है। गीता में भी कर्मयोगी को सर्वश्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि नियत कर्म प्रत्येक मनुष्य के लिए आवश्यक है। नियत कर्म ने करने से मनुष्य अपने दायित्वों से विमुख हो जाता है। इसलिए कर्मयोग द्वारा मोक्ष भी प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को कर्मयोगी बनकर अपनी मुक्ति सुनिश्चित करने का प्रयास करना चाहिए।