प्रस्तुति- आर्यिका चंदनामती
संसार और मोक्ष की समस्त व्यवस्था कर्म के आधीन है। जिस सृष्टि की रचना में लोक परम्परानुसार ब्रह्माजी को कर्तारूप में माना जाता है, जैन सिद्धान्त के अनुसार वह ब्रह्मा और कोई नहीं, कर्म ही है।
आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने कहा भी है—
देहोदयेण सहिओ जीवो आहरदि कम्म णोकम्मं।
पडिसमयं सव्वंगं तत्तायसिंपडओव्व जलं।।
अर्थात् यह जीव औदारिक आदि शरीर नामकर्म के उदय से योग सहित होकर ज्ञानावरणादिक आठ कर्मरूप होने वाली कर्म वर्गणाओं को तथा औदारिक आदि चार शरीर रूप होने वाली नोकर्म वर्गणाओं को हर समय चारों तरफ से ग्रहण करता है। जैसे कि आग से तपा हुआ लोहे का गोला पानी को सब ओर से अपनी तरफ खींचता है।
(१) ज्ञानावरण,
(२) दर्शनावरण,
(३) वेदनीय,
(४) मोहनीय,
(५) आयु,
(६) नाम,
(७) गोत्र
(८) अन्तराय।
इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिया कर्म हैं क्योंकि जीव के अनुजीवी गुणों को घातते (नष्ट करते) हैं। आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय ये चार अघातिया कर्म कहलाते हैं क्योंकि जली हुई रस्सी की तरह इनके रहने से भी आत्मा के अनुजीवी गुणों का नाश नहीं होता है।
इन्हीं कर्मों के कारण संसारी आत्माएँ चौरासी लाख योनियों में अनादिकाल से परिभ्रमण कर रही हैं। सिद्धान्त ग्रन्थों के अनुसार इस कर्मव्यवस्था को जानकर भव्य प्राणियों को उनसे छूटने का सतत प्रयास करना चाहिए क्योंकि चाहे बालक हो या वृद्ध, अमीर हो या गरीब, सुप्त हो या जागृत, एकेन्द्रिय हो या पञ्चेंद्रिय सभी जीवों के प्रतिक्षण कर्मबन्ध चलता ही है।
उस ज्ञानावरण कर्म के पाँच भेद हैं—(१) मतिज्ञानावरण (२) श्रुतज्ञानावरण (३) अवधिज्ञानावरण (४) मनःपर्ययज्ञानावरण (५) केवलज्ञानावरण।
जो मतिज्ञान को नहीं होने देता उसे मतिज्ञानावरण कर्म कहते हैं। जो शास्त्रज्ञान को नहीं होने देता उसे श्रुतज्ञानावरण कर्म कहते हैं। जो अवधिज्ञान को नहीं होने देता उसे अवधिज्ञानावरण कर्म कहते हैं। जो मनःपर्ययज्ञान को नहीं होने देता उसे मनःपर्ययज्ञानावरण कर्म कहते हैं और जो केवलज्ञान को नहीं होने देता उसे केवलज्ञानावरण कर्म कहते हैं अर्थात् आत्मा के इन ज्ञानों को ढ़कने वाले आवरण ही पाँचरूप हैं जिनसे वास्तविक ज्ञान आच्छन्न हो रहा है।
मूलाचार ग्रन्थ में ज्ञानाचार के आठ भेद बतलाते हुए उनसे ज्ञान की शुद्धि का विधान किया है। जिसका सारांश यह है कि काल, विनय, उपधान, बहुमान और अनिन्हव सम्बन्धी तथा व्यञ्जन, अर्थ और उभयरूप आठ प्रकार की प्रवृत्तियों से अपने ज्ञान को सम्यग्ज्ञान बनाना चाहिए।
ज्ञानावरण कर्म के आस्रव के कारण—ज्ञानीजनों से ईर्ष्या करना, ज्ञानी के साधनों में विघ्न डालना, अपने ज्ञान को छिपाना, दूसरों को नहीं बताना, गुरु का नाम छिपाना, ज्ञान का गर्व करना इत्यादि कारणों से ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है।
आज से ढाई हजार वर्ष पुरानी एक घटना है कि एक कालसन्दीव नाम के मुनि ने उज्जयिनी नगरी में श्वेतसन्दीव नामक एक भव्य मनुष्य को मुनि दीक्षा प्रदान कर वहाँ से विहार कर दिया। पुनः कुछ दिनों पश्चात् विहार करके वहाँ राजगृह नगर के विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर के समवसरण में पहँुच गये।
उनमें से कालसन्दीव मुनि समवसरण में दिव्यध्वनि सुनने में मग्न हो गये, श्वेतसन्दीव समवसरण के बाहर आकर आतापनयोग में लीन हो गये। भगवान के दर्शन हेतु समवसरण में जा रहे महामण्डलीक राजा श्रेणिक ने बीच में उतरकर उन मुनीश्वर के दर्शन कर प्रश्न किया कि मुनीश्वर! आपने किनसे यह जिनदीक्षा ग्रहण की है ? आपके गुरु का क्या नाम है ? उत्तर में श्वेतसन्दीव मुनि ने कहा—राजन् ! मेरे गुरू महावीर भगवान हैं। इतना कहते ही उनका सारा शरीर काला हो गया। यह देखकर श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उन्होंने समवसरण में जाकर गौतम गणधर भगवान से यह सारी घटना सुनाकर मुनिराज के शरीर के काला पड़ने का कारण पूछा। तब गणधर ने बतलाया कि श्रेणिक ! उन श्वेतसन्दीव मुनि के असली गुरू कालसन्दीव मुनि हैं, जो कि समवसरण में बैठे हैं और उन अज्ञानी मुनि ने अपने गुरू का नाम छिपाकर निन्हव किया है, इसीलिए उनके शरीर का रंग तुरन्त काला हो गया है।
राजा श्रेणिक ने कुछ देर बाद वापस घर जाते समय रास्ते में श्वेतसन्दीव के पास रुककर उन्हें सम्बोधन प्रदान किया कि महाराज! आपके पद में ऐसा निन्हव शोभास्पद नहीं है, आप गुरू की विनय करते हुए उनके नाम को तथा उनसे प्राप्त ज्ञान को कभी मत छिपाइये अन्यथा आपके ज्ञान की वृद्धि नहीं हो सकती है …..इत्यादि।
राजा की इस शिक्षा का मुनि पर गहरा असर पड़ा और उन्होंने पश्चातापपूर्वक अपने पाप का प्रायश्चित्त किया पुनः तपस्या में लीन होकर धर्मध्यान से शुक्लध्यान की ऐसी परिणति में आ गये कि अन्तर्मुहूर्त में ही घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञानी बन गये। इस प्रकार अपनी गन्धकुटी में विराजमान केवली श्वेतसन्दीव ने संसार के प्राणियों को सम्बोधन प्रदान किया पुनः आयु के अन्त में अघातिया कर्मों को नष्ट करके सिद्धपद प्राप्त कर लिया।
मुनि की इस रोमांचक कथा से यह निष्कर्ष निकलता है कि अपने गुरु आदि का नाम कभी नहीं छिपाना चाहिए क्योंकि गुरु ही स्वर्ग-मोक्ष को देने वाले हैं। इसी प्रकार ज्ञानीजनों को देखकर सदैव प्रसन्न भाव रखना चाहिए, ज्ञानी के पठन-पाठन में कभी विघ्न नहीं डालना चाहिए, अपने ज्ञान को यथाशक्ति दूसरों में वितरित करते रहना चाहिए, अपने ज्ञान का कभी घमण्ड नहीं करना चाहिए, इससे ज्ञान में वृद्धि होती है और ऐसा निर्दोष ज्ञान ही केवलज्ञान को प्राप्त कराने में सहयोगी बनता है।
कर्म एक बड़ा भारी समुद्र है क्योंकि जिस प्रकार समुद्र अनेक लहरियों से व्याप्त है उसी प्रकार यह कर्मरूपी समुद्र भी अनेक उदयरूप लहरियों से व्याप्त है तथा जिस प्रकार समुद्र में नाना प्रकार के भयंकर मगरमच्छादि होते हैं उसी प्रकार इस कर्मरूपी समुद्र में भी इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग आदि नाना प्रकार की आपत्तिरूप मगरमच्छादि विद्यमान हैं। जैसे समुद्र में बड़वानल भंवर हुआ करते हैं वैसे ही इस कर्मरूपी समुद्र में भी नाना प्रकार के जन्म-मरण आदि बड़वानल भंवर आते रहते हैं इसीलिए ऐसे भयंकर समुद्र में शक्तिहीन तथा अनादिकाल से सर्वत्र गोता खाता हुआ मनुष्य जब तक ज्ञानरूपी अनुकूल जहाज को प्राप्त नहीं करेगा तब तक कदापि पार नहीं हो सकता है। जब यह आत्मा उन कर्मों को मूल से नष्ट कर देता है उस समय अपने आप ही यह अपने स्वरूप को तथा दूसरे पदार्थों को जानने लग जाता है।
अब क्रमानुसार आठ कर्मों में से द्वितीय ‘‘दर्शनावरण’’ कर्म का वर्णन किया जा रहा है। आत्मा के दर्शन गुण को जो प्रगट नहीं होने देता उसे दर्शनावरण कर्म कहते हैं।
१. चक्षुदर्शनावरण
२. अचक्षुदर्शनावरण
३. अवधिदर्शनावरण
४. केवलदर्शनावरण
५. निद्रा
६. निद्रानिद्रा
७. प्रचला
८. प्रचलाप्रचला
९. स्त्यानगृद्ध
इनके लक्षण निम्न प्रकार हैं—
(१) जो कर्म चक्षु (नेत्र) इन्द्रिय से होने वाले सामान्य अवलोकन को नहीं होने देता उसे ‘‘चक्षुदर्शनावरण’’ कहते हैं।
(२) जो चक्षु इन्द्रिय के बिना शेष चार इन्द्रिय और उनसे होने वाले सामान्य अवलोकन को नहीं होने देता उसे ‘‘अचक्षुदर्शनावरण’’ कहते हैं।
(३) जिसके उदय से अवधिदर्शन का घात होता है। उसे ‘‘अवधिदर्शनावरण’’ कहते हैं।
(४) जिसके उदय से केवलदर्शन प्रगट नहीं होने पाता उसे ‘‘केवलदर्शनावरण’’ कहते हैं।
(५) जिस कर्म के उदय से निद्रा आती है उसे ‘‘निद्रादर्शनावरण’’ कहते हैं।
(६) जिसके उदय से नींद पर नींद आती है उसे ‘‘निद्रानिद्रा दर्शनावरण’’ कहते हैं।
(७) जिसके उदय से प्राणी कुछ जागता है कुछ सोता है उसे ‘‘प्रचला दर्शनावरण’’ कहते हैं।
(८) जिसके उदय से सोते समय मुख से लार बहती है और कुछ आंगोपांग भी चलते हैं उसे ‘‘प्रचलाप्रचला दर्शनावरण’’ कहते हैं।
(९) जिसके उदय से प्राणी सोते समय नाना प्रकार के भयंकर काम कर डालता है और जागने पर कुछ मालूम नहीं रहता कि मैंने क्या किया है उसे ‘‘स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण’’ कहते हैं।
दर्शनावरण के इन भेदों के नोकर्मों का वर्णन करते हुए गोम्मटसार जीवकाण्ड के टीकाकार ने लिखा है
पाँचों निद्राओं का नोकर्म भैंस का दही, लहसुन, खली इत्यादिक हैं क्योंकि ये निद्रा की अधिकता करने वाली वस्तुएँ हैं अर्थात् इन चीजों का सेवन करने से नींद अधिक आती है। इसी प्रकार चक्षु तथा अचक्षुदर्शन के रोकने वाले वस्त्र वगैरह द्रव्य चक्षुदर्शनावरण और अचक्षुदर्शनावरण कर्म के नोकर्म हैं।
अवधिदर्शन के घात करने का निमित्तकारण जो संक्लेशरूप (खेदरूप) परिणाम है उसको करने वाली जो बाह्य वस्तु है वह अवधिदर्शनावरण का नोकर्म है और केवलदर्शनावरण का नोकर्म द्रव्यकर्म कोई वस्तु नहीं है क्योंकि केवलदर्शन कर्मों के क्षय से प्रगट होता है। वहाँ संक्लेशरूप परिणाम नहीं हो सकता और इसीलिए केवलदर्शन का घात करने वाले संक्लेशरूप परिणामों को कोई भी वस्तु उत्पन्न ही नहीं कर सकती।
इस प्रकार इस दर्शनावरण कर्म की व्यवस्था को जानकर उसके आवरणों को दूर करना चाहिए। उसके लिए निम्न बातों का ध्यान भी रखना आवश्यक है—
(१) गरिष्ठ भोजन न करें,
(२) आवश्यकता से अधिक नींद न लें,
(३) किसी धर्मात्मा की निन्दा न करें,
(४) गुणीजनों को देखते ही प्रसन्न हों,
(५) अपने गुरु या उपकारी का कभी अपमान न करें बल्कि उनके उपकारों के प्रति सदैव कृतज्ञ रहें,
(६) जिस गुरु या ग्रन्थ से ज्ञान प्राप्त किया हो उसका नाम न छिपायें,
(७) किसी के ज्ञानाभ्यास में अथवा दानादि कार्यो में विघ्न न डालें,
(८) किसी निर्दोष व्यक्ति के प्रति शंकित होकर उसे झूठा दोष न लगायें इत्यादि नियमों का पालन करने से आत्मा का सहज स्वाभाविक दर्शन गुण प्रगट होता है।
ज्ञानावरण कर्म के समान ही दर्शनावरण कर्म भी प्राणी के दर्शन गुण को ढककर दोषों में प्रवृत्त कर देता है। अनादिकाल से चले आ रहे इस कर्मबन्ध से छूटने के अनेक उपायों में से एक उपाय है कि हम सदैव दूसरों के गुणों पर दृष्टि रखें, पर के दोषों को देखने का स्वभाव छोड़ें। इस विषय में निम्न दृष्टान्त अवश्यमेव अनुकरणीय है –
एक बार नारायण श्रीकृष्ण भगवान् नेमिनाथ के दर्शन करने जा रहे थे। उनकी परीक्षा करने के लिए एक देव मरे हुए कुत्ते का रूप धारण कर मार्ग में आ पड़ा। कुत्ते के शरीर से तीव्र दुर्गन्ध भभक रही थी, सो पथिक भी परेशान होकर यत्र-तत्र गलियों से निकल रहे थे। उस असीम असहनीय दुर्गन्ध से श्रीकृष्ण के सब साथी भाग खड़े हुए।
उसी समय वही देव ब्राह्मण का एक दूसरा रूप बनाकर कृष्णजी के पास आ गया और उस कुत्ते की बुराई करने लगा—उसके शरीर के दोष दिखाने लगा। नारायण ने उसकी सब बातें सुनकर कहा—विप्रवर! देखिए, इस कुत्ते की दंतपंक्ति स्फटिक के समान कितनी स्वच्छ और सुन्दर है अर्थात् श्रीकृष्ण ने कुत्ते के अन्य शारीरिक दोषों एवं दुर्गन्धि पर ध्यान न देकर उसके सुन्दर दाँतों की प्रशंसा ही कर डाली, सो उनकी इस गुणग्राहकता को देखकर उस देव ने अपना असली रूप प्रगट कर नारायण का खूब मान-सम्मान किया और वापस अपने स्वर्ग को चला गया।
इसी प्रकार से समस्त भव्यात्माओं के लिए यही उचित है कि वे दूसरे के दोषों को छोड़कर सुख की प्राप्ति के लिए प्रेमपूर्वक उनके गुणों को ही ग्रहण करने का प्रयत्न करें जिससे गुणज्ञता और महानता का आत्मा में संचार होगा।
आत्मा और कर्म ये दोनों एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न स्वभाव वाले होते हुए भी अनादिकाल से चैतन्य एवं जड़ के संयोगरूप को प्रदर्शित कर रहे हैं।
आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने कहा भी है
पयडी सील सहावो जीवंगाणं अणाइ संबंधो।
कणयोवले मलं वा ताणत्थित्तं सयं सिद्धं।।
अर्थात् कारण के बिना वस्तु का जो स्वभाव सहजरूप से होता है उसको प्रकृति, शील अथवा स्वभाव कहते हैं। जैसे कि आग का स्वभाव ऊपर को जाना, पवन का तिरछा बहना और जल का स्वभाव नीचे को गमन करना है ……इत्यादि। प्रकृति में यह स्वभाव जीव तथा अंग (कर्म) का ही लेना चाहिए। इन दोनों में से जीव का स्वभाव रागादिरूप परिणमने का है और कर्म का स्वभाव रागादिरूप परिणमाने का है तथा इन दोनों का संबंध सुवर्णपाषाण में मिले हुए मल (मैल) की तरह अनादिकाल से है और इसीलिए जीव तथा कर्म का अस्तित्व भी स्वयं—ईश्वरादि कर्ता के बिना ही अपने आप सिद्ध है।
जैसे खान से निकला हुआ सोना अनादिकाल से ही किट्ट कालिमारूप मैल से मिला हुआ रहता है, वैसे ही जीव और कर्मों का अनादिकाल से स्वतः संबंध हो रहा है किसी ने इसका सम्बन्ध किया नहीं है। जीव का अस्तित्व तो ‘अहम्’ (मैं) ऐसी प्रतीति होने से सिद्ध होता है तथा कर्म का अस्तित्व जगत् में कोई दरिद्री (भिखारी) है तो कोई धनवान्, इत्यादि विचित्रपना प्रत्यक्ष देखने से सिद्ध होता है। इस कारण जीव और कर्म दोनों ही पदार्थ अनुभवसिद्ध हैं।
जिस कर्म के संयोग सम्बन्ध से यह जीव अनादिकाल से चतुर्गतियों में भ्रमण कर रहा है, उस कर्म के मूल में आठ भेद हैं—ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय
जिस कर्म के उदय से आत्मा में सुख-दुःख का वेदन होता है उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। उस वेदनीकर्म के दो भेद हैं—सातावेदनीय और असातावेदनीय।
१. सातावेदनीय—जिस कर्म के उदय से शारीरिक और मानसिक अनेक प्रकार की सुख सामग्री मिले या सुख मिले उसे सातावेदनीय कर्म कहते हैं।
२. असातावेदनीय—जिस कर्म के उदय से शारीरिक, मानसिक अथवा आगंतुक दुःखों की सामग्री प्राप्त हो या दुःख मिले वह असातावेदनीयकर्म कहलाता है। यह वेदनीय कर्म एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सभी जीवों को सुख-दुःख का वेदन—अनुभव कराता है और मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान तक इस वेदनीय कर्म की सत्ता पाई जाती है।
जैसा कि कहा भी है—
वैद्यो वदन्ति कफपित्तमरुद्विकारान्, ज्योतिर्विदो ग्रहगणं परिकल्पयन्ति।
भूतोपदृष्टि इव भूतविदो वदन्ति, प्राचीनकर्मबलवान् मुनयो वदन्ति।।
अर्थात् किसी मनुष्य की रुग्णावस्था में वैद्य, डाक्टर परीक्षण के आधार पर वात, पित्त, कफ की विकृति बताते हैं। ज्योतिष विद्या के ज्ञाता पण्डितजी शनि, मंगल आदि ग्रहों की बाधा बतलाकर उनका प्रतिकार करने की प्रेरणा देते हैं। भूत-प्रेत आदि तंत्र विद्या के जानकार कहते हैं कि तुझे भूत-पिशाच आदि सता रहे हैं, इन्हें भगाने हेतु मैं झाड़-पूँâक करूंगा किन्तु इन सब प्रयत्नों से थकने के बाद जब वह रोगी किसी वीतरागी सन्त-मुनि के पास जाता है जो उसे सम्बोधन प्राप्त होता है कि हे भव्य प्राणी ! तेरे असातावेदनीय कर्म के कारण तुझे शारीरिक व्याधि का कष्ट उठाना पड़ रहा है, सर्वप्रथम अपने शुभ कर्मों के द्वारा उस असाता को नष्ट कर, पुनः शरीर स्वयं स्वस्थ हो जाएगा।
सर्वप्रथम इस वेदनीय कर्म की व्यवस्था में हमें यह जानकारी प्राप्त करना है कि किन कारणों से असाता कर्म आता है तथा किन निमित्तों से साताकर्म का आगमन होता है ?
तत्त्वार्थसूत्र में श्री उमास्वामी आचार्य ने कहा भी है
‘‘दु:खशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्म परोभयस्थानान्यसद्वेद्यस्य’’
अर्थात् अपने और पर के दोनों के विषय में स्थित दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन ये असातावेदनीय कर्म के आस्रव के कारण हैं। यद्यपि ये शोक आदि दुःख के ही भेद हैं तथापि दुःख की जातियाँ बतलाने के लिए उन सबका ग्रहण किया है। ऐसे परिणामों से जो स्वयं दुखी होता है और दूसरों को भी दुखी करता है या दोनों को दुखी करता है उसके असातावेदनीय का आस्रव होता है।
पुनः सातावेदनीय के विषय में भी कहा है—
‘‘भूतव्रत्यनुवंपादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य’’
अर्थात् संसार के सामान्य प्राणी एवं व्रतियों के ऊपर दया करना, दान देना, सरागसंयम का पालन करना, योग धारण करना, क्षमा धर्म का पालन करना, शौचधर्म को पालना आदि क्रियाओं से सातावेदनीयकर्म का आस्रव होता है।
इन कारणों को जानकर सातावेदनीय से प्राप्त होने वाले सुखों की सामग्री के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए क्योंकि संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दुःख से डरता है।
छहढालाकार पण्डित दौलतराम जी ने भी कहा है
‘जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दुखतें भयवन्त।
तातें दुखहारी सुखकार, कहें सीख गुरु करुणाधार।।’’
अर्थात् दुःख को हरण करने वाली और सुख को प्रदान करने वाली शिक्षा हमारे सच्चे गुरू ही करुणाबुद्धि से संसारी प्राणियों को देते हैं, उसे स्थिर मन करके हम सभी को श्रवण करना चाहिए।
इस वेदनीय कर्म का उदय जब जिस जीव के जिस रूप में आ जाता है उसे उसका फल भोगना ही पड़ता है। जैसे कि सनत्कुमार चक्रवर्ती को मुनि अवस्था में कुष्ट रोग हो गया फिर भी वे शरीर से पूर्ण निस्पृह रहकर कठोर तपश्चर्या किया करते थे। उनके वैराग्य की प्रशंसा सुनकर सौधर्म स्वर्ग से एक मदनकेतु नामक देव उनकी परीक्षा करने आया। जंगल में पहँुचकर उसने एक वैद्य का रूप बनाया और मुनि महाराज के पास पहँुचकर उनसे औषधि ग्रहण कर कुष्ट रोग से छुटकारा पाने का निवेदन करने लगा।
तब श्री सनत्कुमार मुनिराज ने उस वैद्य से कहा—वैद्य जी! यह तो मेरे शरीर का एक तुच्छ सा रोग है अतः इसकी मुझे कोई परवाह नहीं है किन्तु मेरे एक बहुत भयंकर रोग लगा हुआ है आप यदि उसकी चिकित्सा कर सवें तो मैं आपको असली वैद्य समझूँगा। वैद्य वेषधारी देव बोला—अच्छा, आप बतलाइए तो सही कि वह कौन सा रोग है ? क्योंकि मेरी उत्कृष्ट औषधियों का अभी आपको पता नहीं है जो एक मिनट में रोगों का सफाया करती हैं। महामुनि ने कहा—सुनो, वह रोग है संसार का परिभ्रमण। यदि तुम मुझे उससे छुड़ा दोगे तो बहुत अच्छा होगा।
यह सुनकर देव बड़ा लज्जित हुआ और अपना असली रूप प्रकट कर मुनि से बोला—भगवन्! इस रोग को नष्ट करने में तो आपके सिवाय कोई भी समर्थ नहीं है। स्वामिन्! मैंने स्वर्ग में आपके गुणों की जैसी प्रशंसा सुनी थी वैसा ही आपको मैंने वैरागी पाया है। प्रभो ! आप धन्य हैं ……. इत्यादि प्रकार से स्तुति करके वह देव वापस स्वर्ग चला गया। आगे चलकर मुनिराज सनत्कुमार ने वैराग्य के बल पर शुक्लध्यान में स्थित होकर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।
आठ कर्मों में से चतुर्थ मोहनीय कर्म को सिद्धान्त ग्रन्थों में कर्मों का राजा कहकर उसे सांसारिक सुख-दुःखों में प्रमुख माना गया है। इस मोहकर्म के कारण ही प्राणी चौरासी लाख योनियों में अनादिकाल से परिभ्रमण कर रहा है। जैसा कि छहढ़ाला में भी कहा है ‘‘मोहमहामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि’’ अर्थात् मोहरूपी मदिरा को पीकर जीव अनादिकाल से अपने आत्मस्वरूप को भूला हुआ है।
आचार्य श्री पद्मनन्दि स्वामी ने कहा है-
हे आत्मन्! चेतन-अचेतन स्त्री, पुत्र, कलत्र, धन-धान्यादि बाह्य पदार्थों में मोह कर चिरकाल से मुझे नाना प्रकार के दुःख भी भोगने पड़े हैं ऐसा मुझे भलीभाँति ज्ञान है तो भी न जाने क्यों अब भी चित्तवृत्ति बाह्य पदार्थों में लगी हुई है इसलिए अब बाह्य पदार्थों से मोह छोड़कर तुझे अपने वास्तविक अनन्त विज्ञान आदि स्वरूप का चिन्तवन करना चाहिए।’’
मोहनीय कर्म के मूल में दो भेद हैं—दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय। इसमें दर्शनमोहनीय कर्म उसे कहते हैं जो आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घात करता है। उसके तीन भेद हैं— मिथ्यात्व, सम्यक््â मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति।
जिस कर्म के उदय से तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान नहीं होता, उसे मिथ्यात्व कहते हैं। जिस कर्म के उदय से दही और गुण के मिश्रित स्वाद के समान तत्त्वों का श्रद्धान और अश्रद्धान दोनों रूप से मिश्रित भाव होता है वह सम्यग्मिथ्यात्व कहलाता है। जिस कर्म के उदय से सम्यग्दर्शन में दोष उत्पन्न होता है वह सम्यक्त्व प्रकृति है।
चारित्रमोहनीय कर्म—जिस कर्म के उदय से आत्मा के चारित्र गुण का घात होता है उसे चारित्र मोहनीय कहते हैं।
इसके दो भेद हैं—कषायवेदनीय और अकषायवेदनीय।
जो आत्मा के गुण—शुभ या शुद्ध भाव को कषता है, नष्ट करता है उसे कषायवेदनीय कहते हैं। इसके सोलह भेद हैं—अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध, मान, गया, लोभ, संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ।
अब इन अनन्तानुबन्धी आदि कषायों की स्थिति का वर्णन किया जाता है-
अनन्तानुबन्धी — जो अनंत अर्थात् मिथ्यात्व के साथ-साथ बंधती है उसे अनन्तानुबन्धी कहते हैं अथवा जिसके उदय से सम्यक्त्व का घात हो वह अनंतानुबंधी है। उसके क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद होते हैं। अनन्त भवों तक संसार वृद्धि में यह कषाय कारण मानी जाती है इसीलिए इसका अनन्तानुबन्धी नाम सार्थक है।
अप्रत्याख्यानावरण — जिसके उदय से जीव एकदेशव्रत को भी धारण नहीं कर सके उसे अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। इस कषाय का वासना काल अधिक से अधिक छह माह रहता है और क्रोध, मान, माया, लोभरूप चार प्रकार की यह कषाय होती है।
प्रत्याख्यानावरण — जिसके उदय से जीव मुनियों के चारित्र को धारण नहीं कर सके वह प्रत्याख्यानावरण है। इसका वासनाकाल पन्द्रह दिन का है और क्रोध, मान, माया, लोभ के भेद से उसके भी चार भेद हैं।
संज्वलन — जिसके उदय से यथाख्यात चारित्र उत्पन्न न हो सके उसे संज्वलन कषाय कहते हैं। जल की रेखा के समान इसका वासनाकाल अन्तर्मुहूर्त है।
इसके भी क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद होते हैं।
जो क्रोधादि की तरह आत्मा के गुणों का पूर्ण घात नहीं करे किन्तु किंचित् घात करे अथवा कषाय के साथ-साथ अपना फल देवे वह अकषायवेदनीय है। उसके नौ भेद हैं—हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद।
हास्य : जिसके उदय से हंसी आती है उसे हास्य नोकर्म कहते हैं।
रति : जिसके उदय से इन्द्रिय के विषयों में राग उत्पन्न होवे वह रति नोकर्म कहलाता है।
अरति : जिसके उदय से इन्द्रिय के विषयों में द्वेष उत्पन्न होवे उसे अरति नोकर्म कहते हैं।
शोक : जिसके उदय से प्राणी शोक या चिन्ता करते हैं उसे शोक नोकर्म कहते हैं।
भय : जिसके उदय से डर या उद्वेग उत्पन्न होवे उसे भय नोकर्म कहते हैं।
जुगुप्सा : जिस कर्म के उदय से दूसरों के प्रति ग्लानि उत्पन्न होवे उसे जुगुप्सा नोकर्म कहते हैं।
स्त्रीवेद : जिस कर्म के उदय से पुरुष में रमने की इच्छा हो वह स्त्रीवेद कहलाता है।
पुरुषवेद : जिस कर्म के उदय से स्त्री में रमने की इच्छा हो उसे पुरुषवेद कहते हैं।
नपुंसकवेद : जिस कर्म के उदय से स्त्री-पुरुष दोनों में रमने की इच्छा होवे उसे नपुंसकवेद कहते हैं।
इस प्रकार मोहनीय कर्म के २८ भेदों का वर्णन हुआ, इनकी परिभाषाएँ जानकर मोहकर्म के बंध से छूटने का पुरुषार्थ करना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ की छठी अध्याय में श्री उमास्वामी आचार्य ने कहा है—केवलि-श्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य’ अर्थात् केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद करने से दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव होता है। यहाँ अवर्णवाद का तात्पर्य है गुणवानों में झूठे दोषों का आरोपण करना अर्थात् केवली भगवान खाने-पीने रूप भोजन का आहार ग्रहण नहीं करते हैं किन्तु उन्हें कवलाहारी कहना केवली अवर्णवाद कहलाता है। शास्त्र में माँस भक्षण करना लिखा है ऐसा कहना श्रुत का अवर्णवाद है। ये अशुद्ध हैं, मलिन हैं, नग्न हैं इत्यादि प्रकार से जैन मुनि के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करना संघ का अवर्णवाद है। जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे गये धर्म के प्रति अपशब्द बोलना धर्म का अवर्णवाद है। देव मदिरा पीते हैं, मांस खाते हैं, जीवों की बलि से प्रसन्न होते हैं आदि का कहना देव का अवर्णवाद है। इसी प्रकार से चारित्रमोहनीय कर्म के आस्रव के कारण बतलाते हुए
श्री उमास्वामी आचार्य ने कहा है—
‘‘कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य’’
अर्थात् कषाय के उदय से होने वाले तीव्र परिणामों के द्वारा चारित्रमोहनीय का आस्रव होता है जिससे जीव देशसंयम अथवा सकलसंयम को ग्रहण नहीं कर पाता है।
इस मोहनीय कर्म से छुटकारा पाने हेतु मनुष्यों को सच्चे देव, शास्त्र, गुरु पर अटल श्रद्धान करके अपनी प्रवृत्ति को जिनधर्म में लगाना चाहिए तथा जिनधर्म आदि का अवर्णवाद कभी नहीं करना चाहिए।
आदिपुराण में वर्णन आया है कि भगवान् ऋषभदेव अपने दशवें भव पूर्व जब विद्याधर राजा महाबल की पर्याय में थे, उस समय की घटना है—
किसी दिन राजा महाबल की जन्मगांठ का उत्सव चल रहा था। उस समय वे राजा चारों तरफ में बैठे हुए मंत्री, सेनापति, पुरोहित, सेठ तथा विद्याधर आदि जनों से घिरे हुए सभी को दान-मान आदि देकर सन्तुष्ट कर रहे थे। राजा को प्रसन्नचित्त देखकर उनके एक स्वयंबुद्ध मंत्री ने उन्हें अिंहसामयी सच्चे धर्म का उपदेश दिया। यह सुनकर महामति नाम के मिथ्यादृष्टि मंत्री ने कहा कि हे राजन्। इस जगत में आत्मा, धर्म और परलोक नाम की कोई चीज नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों के मिलने से ही चैतन्य की उत्पत्ति हो जाती है। जन्म लेने से पहले और मरने के पश्चात् आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है इसलिए आत्मा और परलोक की चिन्ता करना व्यर्थ है। जो लोग वर्तमान सुख को छोड़कर परलोक संबंधी सुख चाहते हैं, वे दोनों लोकों के सुख से वंचित होकर व्यर्थ के क्लेश उठाते हैं। इसके पश्चात् संभिन्नमति नामक तीसरा मंत्री क्षणिक मत को पुष्ट करते हुए कहने लगा कि हे राजन्! यह सारा जगत् एक विज्ञान मात्र है क्योंकि यह क्षणभंगुर है। क्षणभंगुर सभी पदार्थ ज्ञान के विकार ही माने हैं। ज्ञान से पृथक चेतन-अचेतन आदि कोई भी पदार्थ नहीं हैं। परलोक में सुखप्राप्ति हेतु धर्मकार्य का अनुष्ठान करना बिल्कुल ही व्यर्थ है।
इसके बाद शतमति मंत्री अपनी प्रशंसा करता हुआ नैरात्म्यवाद को पुष्ट करने लगा। उसने कहा कि यह समस्त जगत् शून्य रूप है, इसमें मनुष्य, पशु, पक्षी, घट-पट आदि जो भी चेतन-अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं वे सब मिथ्या हैं, जैसे कि इन्द्रजाल और स्वप्न में दिखने वाले पदार्थ मिथ्या ही हैं। आत्मा-परमात्मा तथा परलोक की कल्पना भी मिथ्या ही है अतः जो पुरुष परलोक के लिए तपश्चरण आदि अनुष्ठान करते हैं वे यथार्थ ज्ञान से रहित हैं। इस प्रकार राजा महाबल के तीन मंत्री मिथ्यादृष्टि थे और एक स्वयंबुद्ध मंत्री सम्यग्दृष्टि था। जब राजा महाबल पाँचवें भव में श्रीधर देव की पर्याय में थे उस समय प्रीतिंकर तीर्थंकर के पास जाकर पूछा कि—हे भगवन्! महाबल की पर्याय में जो मेरे तीन मंत्री मिथ्यादृष्टि थे, वे इस समय किस गति में हैं ?
उस समय सर्वज्ञदेव ने कहा कि हे भव्य ! उन तीनों में से महामति और संभिन्नमति ये दो मंत्री तो निगोद पर्याय को प्राप्त हो चुके हैं। जहाँ मात्र सघन अज्ञान अन्धकार ही व्याप्त है। वहां निगोद पर्याय में यह जीव एक श्वांस में अठारह बार जन्म—मरण करता रहता है। वहां से निकलकर त्रस पर्याय पाना उसी तरह दुर्लभ है जैसे समुद्र में डाला गया एक राई का दाना ढूँढ़ना अत्यन्त कठिन है तथा शतमति मंत्री मिथ्यात्व के कारण द्वितीय नरक में चला गया है।
उस समय प्रीतिंकर गुरुदेव के वचनों से अत्यन्त तृप्त हुआ वह श्रीधर देव सोचने लगा—अहो! निगोद पर्याय में जाकर संबोधा भी नहीं जा सकता है। देखो, मिथ्यात्व से मोहित होकर यह जीव निगोद जैसी दुर्गति को प्राप्त हो जाते हैं। पुनः श्रीधर देव ने द्वितीय नरक में जाकर शतमति मंत्री को संबोधन प्रदान कर सम्यक्त्व ग्रहण कराया। इस प्रकार मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का यह प्रत्यक्ष फल जानकर समस्त भव्य प्राणियों को दर्शनमोहनीय कर्म के बन्ध से भयभीत होकर सम्यक्त्ववर्धिनी क्रियाएं ही करनी चाहिए।
अब आयु एवं नामकर्म के बारे में बताया जा रहा है-
नारक आदि भव धारण के लिए गमन करना आयु है। आयुकर्म के चार भेद हैं—नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु।
नरकायु — जिस कर्म के उदय से प्राणी नारकी के शरीर में टिका रहता है उसे नरकायु कहते हैं।
तिर्यंचायु — जिस कर्म के उदय से प्राण्ी तिर्यंच के शरीर में टिका रहता है उसे तिर्यंचायु कहते हैं।
मनुष्यायु — जिस कर्म के उदय से प्राणी मनुष्य के शरीर में टिका रहता है उसे मनुष्यायु कहते हैं।
देवायु — जिस कर्म के उदय से प्राणी देव के शरीर में टिका रहता है उसे देवायु कहते हैं।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड में सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री नेमिचन्द्र आचार्य ने आयु कर्म का कार्य बताया है कि—
आयु कर्म का उदय कर्म के द्वारा किए गए और अज्ञान, असंयम तथा मिथ्यात्व के द्वारा वृद्धि को प्राप्त हुए अनादि संसार की चार गतियों में जीव को उसी प्रकार रोके रहता है जैसे एक विशेष प्रकार का काष्ठ अपने छिद्र में पैर डालने वाले व्यक्ति को रोके रहता है।’’
आयु कर्म का स्वरूप दृष्टान्त देते हुए बताया है कि—जो नवीन भव धारण करने में निमित्त है वह आयु है। जैसे सांकल या काठ आदि का फंदा मनुष्य को नियत स्थान में रोके रखता है वैसे ही आयुकर्म भी जीव को अमुक भव में रोके रखने में निमित्त होता है।
गोम्मटसार ग्रंथ में आयु कर्म के अन्तर्गत कदलीघातमरण (अकालमरण) का लक्षण बताया है
विसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहण संकिलेसेिंह।
उस्सासाहाराणं, णिरोहदो छिज्जदे आऊ।।
विष वेदना, रक्तक्षय, भय, शस्त्रघात, संक्लेश, उच्छ्वास का रुकना या आहार का न मिलना आदि कारणों से आयु का छेद होने को कदलीघात कहते हैं।
अब तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ के आधार से चारों आयु के आस्रव का कारण बताते हैं—
नरक आयु का आस्रव — ‘‘बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुष:’’ अर्थात् बहुत आरम्भ और परिग्रह का होना नरक आयु के आस्रव का कारण है।
तिर्यंच आयु का आस्रव — ‘‘मायातैर्यग्योनस्य’’ अर्थात् माया (छल कपट) करने से तिर्यंच आयु का आस्रव होता है।
मनुष्य आयु का आस्रव — ‘अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य’ थोड़ा आरम्भ और थोड़ा परिग्रह का होना मनुष्य आयु के आस्रव में कारण है और ‘‘स्वभाव मार्दवं च’’ स्वभाव से ही सरल परिणामी होना भी मनुष्य आयु का आस्रव है।
देवायु का आस्रव —देवायु का आस्रव‘‘सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य’’ सरागसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये देव आयु के आस्रव हैं।
सब आयु का आस्रव —‘‘निःशीलव्रतत्वं च सर्वेषाम्’’ अर्थात् दिग्व्रतादि ७ शील और अिंहसादि पाँच व्रतों का अभाव भी समस्त आयु कर्मों का आस्रव कराता है।
इस प्रकार समस्त आयु कर्मों के आस्रव के कारणों को जान करके बहुत आरम्भ और परिग्रह से बचना चाहिए और छल कपट से दूर रहना चाहिए तभी मनुष्य और देव आयु की प्राप्ति होगी।
आयु का बंध होने पर छूटता नहीं है ऐसा सैद्धान्तिक नियम है, जैसे—
राजा श्रेणिक ने मुनििंहसारूप तीव्र परिणामों से सातवें नरक की आयु का बंध कर लिया था पुनः उन्होंने अनेक प्रयासों से सातवें नरक की आयु को पहले नरक की आयु में परिणत कर लिया था किन्तु उन्हें नरक में तो जाना ही पड़ा। इसी प्रकार अब छठे कर्म ‘‘ नामकर्म ’’ का वर्णन किया जाता है—
‘‘जिससे शरीर और अंगोपांग आदि की रचना होती है उसे नामकर्म कहते हैं।’’
नामकर्म का आस्रव कैसे होता है ?
मन, वचन, काय को सरल रखना, धर्मात्मा से विसंवाद नहीं करना, षोडशकारण भावना आदि से शुभ नामकर्म का आस्रव होता है। इससे उल्टे कुटिलभाव, झगड़ा, कलह आदि से अशुभ नामकर्म का आस्रव होता है।
नामकर्म के ९३ भेद हैं—गति ४, जाति ५, शरीर ५, अंगोपांग ३, निर्माण १, बंधन ५, संघात ५, संस्थान ६, संहनन ६, स्पर्श ८, रस ५, गंध २, वर्ण ५, आनुपूर्वी ४, अगुरुलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, प्रत्येक, साधारण, त्रस, स्थावर, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनादेय, यश:कीर्ति, अयश:कीर्ति और तीर्थंकर ये ९३ प्रकृतियाँ हैं।
गति—जिस कर्म के उदय से प्राणी दूसरे भव या पर्याय में जाता है वह गति है। उसके नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव के भेद से चार प्रकार होते हैं।
जाति—जिसके उदय से अनेक प्राणियों में अविरोधी समान अवस्था प्राप्त होती है उसे जाति कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं—एकेन्द्रिय जाति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति और पंचेन्द्रिय जाति। जिस कर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय जाति में पैदा हो वह एकेन्द्रिय जाति है इत्यादि।
शरीर—जिस कर्म के उदय से प्राणी की शरीर रचना होती है वह शरीर है। इसके पाँच भेद हैं—औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस और कार्मण।
१. औदारिक शरीर—जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीर की रचना होती है। मनुष्य और तिर्यंच के स्थूल शरीर को औदारिक शरीर कहते हैं।
२. वैक्रियकशरीर—जिसके उदय से शरीर में स्थूल, सूक्ष्म, हल्का, भारी आदि अनेक प्रकार से होने की योग्यता है।
३. आहारक शरीर—आहारक ऋद्धि वाले छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के मस्तक से एक हाथ का पुतला निकलता है।
४. तैजस शरीर—जिसके उदय से शरीर में तेज रहता है।
५. कार्मण शरीर—ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के समूह को कार्मण शरीर कहते हैं।
आंगोपांग— जिस कर्म के उदय से अंग और उपांगों की रचना होती है, उसे आंगोपांग कहते हैं। इसके तीन भेद हैं—औदारिक शरीर आंगोपांग, वैक्रियक शरीर आंगोपांग और आहारक शरीर आंगोपांग। दो हाथ, दो पांव, नितंब, पेट, वक्षस्थल और मस्तक ये आठ अंग हैं तथा अंगुलि, मुँह, कान आदि उपांग हैं।
निर्माण— जिस कर्म के उदय से आंगोपांग की यथास्थल और यथाप्रमाण रचना होती है, वह निर्माण नामकर्म है।
बंधन — शरीर नामकर्म के उदय से ग्रहण किए गए पुद्गल स्कन्धों का परस्पर मिलन जिस कर्म के उदय से होता है उसे बंधन नामकर्म कहते हैं। इसके पाँच भेद हैं—औदारिक बंधन, वैक्रियकबंधन, आहारकबंधन, तैजसबंधन और कार्मणबंधन।
संघात — जिस कर्म के उदय से औदारिक आदि शरीर के प्रदेशों का परस्पर छिद्ररहित एकमेकपना होता है वह संघात है। इसके पाँच भेद हैं—औदारिकसंघात, वैक्रियकसंघात, आहारकसंघात, तैजससंघात और कार्मणसंघात।
संस्थान — जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार बनता है, वह संस्थान है। इसके छह भेद हैं—समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, स्वातिसंस्थान, कुब्जकसंस्थान, वामनसंस्थान और हुण्डकसंस्थान।
१. समचतुरस्र—जिस कर्म के उदय से शरीर की लम्बाई-चौड़ाई सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार ठीक-ठीक बनी हो, उसे समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं।
२. न्यग्रोधपरिमंडल—जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार वटवृक्ष की तरह नाभि के नीचे पतला और ऊपर मोटा हो।
३. स्वाति—जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार सर्प की वामी की तरह ऊपर पतला और नीचे मोटा हो।
४. कुब्जक—जिस कर्म के उदय से शरीर कुबड़ा हो।
५. वामन—जिस कर्म के उदय से शरीर बौना हो।
६. हुण्डक संस्थान—जिस कर्म के उदय से शरीर का आकार किसी खास शक्ल का न हो, प्रत्युत् बेडौल हो।
संहनन—जिस कर्म के उदय से हड्डियों में विशेषता हो, वह संहनन है। इसके छह भेद हैं—वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलित और संप्राप्तसृपाटिका संहनन।
१. वज्रवृषभनाराच—जिस कर्म के उदय से वृषभ (नसों की हड्डियों का बंधन), नाराच (कील), संहनन (हड्डियाँ) वज्र के समान अभेद्य हों।
२. वज्रनाराच—जिस कर्म के उदय से वज्र की हड्डियाँ और वज्र की कीली हों परन्तु नसों में जाल वज्र के समान नहीं हो।
३. नाराच—जिस कर्म के उदय से हड्डियाँ तथा संधियों में कीलें तो हों परन्तु वज्र के समान कठोर न हों और नसजाल भी वज्र के समान कठोर न हों।
४. अर्धनाराच—जिसके उदय से हड्डियों की कीलियाँ अर्धकीलित हों, एक तरफ कीलें हों दूसरी तरफ न हों।
५. कीलित—जिसके उदय से हड्डियाँ परस्पर कीलित हों।
६. असंप्राप्तसृपाटिका—जिस कर्म के उदय से हड्डियों की संधियाँ नसों से बंधी होती हैं परन्तु परस्पर में कीलित नहीं होती हैं।
स्पर्श — जिसके उदय से शरीर में स्पर्श हो। इसके आठ भेद हैं—कोमल, कठोर, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष।
रस — जिसके उदय से शरीर में रस हो। इसके पाँच भेद हैं—तिक्त (चरपरा), कटुक (कडुवा), कषाय (कषायला), आम्ल (खट्टा) और मधुर (मीठा)।
गंध — जिस कर्म के उदय से शरीर में गंध हो। इसके दो भेद हैं—सुगंध और दुर्गध।
वर्ण — जिस कर्म के उदय से शरीर में रूप हो। इसके पाँच भेद हैं—नील, शुक्ल, कृष्ण, रक्त और पीत।
आनुपूर्वी — जिस कर्म के उदय से अन्य गति को जाते हुए प्राणी का आकार विग्रहगति में पूर्व शरीर के आकार का रहता है। इसके चार भेद हैं—नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी।
नरकगत्यानुपूर्वी — जिस समय कोई मनुष्य मरकर नरकगति की ओर जाता है वहाँ पहँुचने तक बीच में (विग्रहगति में) उसके आत्मा के प्रदेशों का पूर्ण शरीर का आकार बना रहता है, उसे नरकगत्यानुपूर्वी कहते हैं। ऐसे ही शेष सभी में समझना।
अगुरुलघु — जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर लोहे की तरह भारी और आक की रुई की तरह हल्का नहीं होवे, वह अगुरुलघु है।
उपघात — जिससे अपने ही घातक आंगोपांग होते हैं।
परघात — जिसके उदय से पर के घातक आंगोपांग होते हैं।
आतप — जिस कर्म के उदय से आतपकारी शरीर होता है। इसका उदय सूर्य के विमान में स्थित बादर पृथ्वीकायिक जीवों के होता है।
उद्योत — जिस कर्म के उदय से उद्योत रूप शरीर हो। इसका उदय चन्द्रमा के विमान में स्थित पृथ्वीकायिक जीवों के तथा जुगनू आदि जीवों के होता है।
विहायोगति — जिस कर्म के उदय से आकाश में गमन होता है। इसके दो भेद हैं—प्रशस्तविहायोगति और अप्रशस्तविहायोगति।
प्रत्येक शरीर — जिस कर्म के उदय से एक शरीर का स्वामी एक ही जीव होता है।
साधारण — जिसके उदय से एक शरीर के स्वामी अनेक जीव होते हैं।
त्रस — जिसके उदय से द्वीन्द्रिय आदि जीवों में जन्म हो।
स्थावर — जिसके उदय से एकेन्द्रिय जीवों में जन्म हो।
सुभग — जिसके उदय से दूसरों को अपने से प्रीति होती है।
दुर्भग — जिस कर्म के उदय से रूपादि गुणों से युक्त होने पर भी दूसरों को अपने से अप्रीति होती है।
सुस्वर — जिस कर्म के उदय से अच्छा स्वर हो।
दुःस्वर — जिस कर्म के उदय से खराब स्वर हो।
शुभ — जिसके उदय से मस्तक आदि अवयव सुन्दर मालूम हों।
अशुभ — जिस कर्म के उदय से शरीर के अवयव मनोहर नहीं मालूम हों।
सूक्ष्म — जिस कर्म के उदय से दूसरों को नहीं रोकने वाला और दूसरों से नहीं रुकने वाला शरीर प्राप्त हो।
बादर — जिस कर्म के उदय से दूसरों को रोकने और दूसरों से रुकने वाला शरीर प्राप्त हो।
पर्याप्ति — जिस कर्म के उदय से अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जावें।
अपर्याप्ति — जिस कर्म के उदय से पर्याप्तियों की पूर्णता न हो, बीच में ही मरण हो जावे।
स्थिर — जिस कर्म के उदय से शरीर के रस आदि धातु तथा वात—पित्तादि उपधातु अपने-अपने स्थान में ठीक रहें। अनेक व्रत-उपवास आदि से भी शिथिलता न आवे।
अस्थिर — जिस कर्म के उदय से शरीर की धातु-उपधातु अपने स्थान में स्थिर नहीं रहें, किंचित् उपवास आदि से शरीर अस्वस्थ हो जावे।
आदेय — जिस कर्म के उदय से शरीर में प्रभा रहती है।
अनादेय — जिस कर्म के उदय से शरीर में कांति नहीं होती है।
यशःकीर्ति — जिस कर्म के उदय से अपना पुण्य गुण जगत में प्रकट हो अर्थात् संसार में अपनी प्रशंसा होवे।
अयशःर्कीित — जिसके उदय से जीव की िंनदा होती है।
तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म—जिस कर्म के उदय से तीर्थंकर पद की प्राप्ति होती है।
जिससे जीव उच्च अथवा नीच कुल में पैदा होता है उसे गोत्र कर्म कहते हैं। उस गोत्रकर्म के दो भेद हैं—१. उच्च गोत्र, २. नीच गोत्र
उच्च गोत्र — जिसके उदय से जीव लोकमान्य उच्च कुल में जन्म लेता है उसे उच्च गोत्र कहते हैं।
नीच गोत्र —जिसके उदय से जीव निम्न कुल में जन्म लेता है उसे नीच गोत्र कहते हैं।
जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थ में इन कर्मों के आस्रव प्रकरण में कहा भी है कि—‘‘दूसरे की निन्दा करना, अपनी प्रशंसा करना तथा दूसरों के मौजूद गुणों के छिपाने और अपने अप्रगट गुणों को प्रगट करने से नीचगोत्र कर्म का आस्रव होता है।
इससे विपरीत पर की प्रशंसा करना, आत्मनिन्दा करना और नम्रवृत्ति का धारण करना तथा अहंकार के अभाव से उच्चगोत्र कर्म का आस्रव होता है। जैसा कि आगम में वर्णन आता है कि मेढ़क जैसे पामर तिर्यंच प्राणी ने भी यदि जिनेन्द्र भक्ति का आश्रय लिया तो मरकर देवता हो गया तथा यमपाल चाण्डाल जैसे निम्न कुल में जन्म लेने वाले मनुष्य ने भी िंहसक प्रवृत्तिरूप कर्म का त्याग करके स्वर्ग में देवपद प्राप्त किया। ऐसे अनेकों उदाहरण पुराणों में भरे पड़े हैं तथा परनिन्दा और आत्मप्रशंसा से नीचकुल में जन्म लेने वालों में अनेक महापुरुषों के नाम प्रसिद्ध हैं।
जो दान, लाभ आदि में विघ्न डालता है उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। उस अन्तराय कर्म के पाँच भेद हैं—
१. दानान्तराय, २. लाभान्तराय, ३. भोगान्तराय, ४. उपभोगान्तराय और ५. वीर्यान्तराय।
१. दानान्तराय कर्म — जिस कर्म के उदय से दान की इच्छा रखता हुआ भी दान नहीं दे सके, वह दानान्तराय कर्म है।
२. लाभान्तराय कर्म — जिस कर्म के उदय से लाभ की इच्छा होते हुए भी लाभ की प्राप्ति न हो सके, उसे लाभान्तराय कर्म कहते हैं।
३. भोगान्तराय कर्म — जिस कर्म के उदय से अन्नादि भोगरूप वस्तु को भोगना चाहता हुआ भी भोग न सके वह भोगान्तराय कर्म कहलाता है।
४.उपभोगान्तराय कर्म — जिसके उदय से वस्त्रादि उपभोग्य वस्तु को उपभोग करने का इच्छुक भी उपभोग न कर सके, उसे उपभोगान्तराय कर्म कहते हैं।
५.वीर्यान्तराय कर्म — जिस कर्म के उदय से अपनी शक्ति प्रगट करना चाहता हुआ भी प्रगट न कर सके बल्कि उस विषय में सामथ्र्यहीन, कायर और अनुत्साहित ही रहे वह वीर्यान्तराय कर्म कहा जाता है।
अन्तराय कर्म के आस्रव के कारण—दान देने वाले को रोक देना, आश्रितों को धर्मसाधन नहीं करने देना, देव द्रव्य—मन्दिर के द्रव्य को हड़प जाना, दूसरों की भोगादि वस्तु या शक्ति में विघ्न डालना आदि से अंतराय का आस्रव होता है।
इन कारणों से आए हुए कर्म पुद्गल परमाणु आत्मा के साथ एकमेक हो जाते हैं उसी का नाम बंध है इसीलिए ये सभी कारण कर्मबन्ध के भी कारण हो जाते हैं।
तीव्र, मन्द आदि भावों से होने वाला आस्रव योग और कषाय आदि के निमित्त से १०८ भेदरूप भी माना गया है।
समरंभ, समारंभ, आरंभ तीन, मन, वचन, काय ये तीन, कृत, कारित, अनुमोदना ये तीन और क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय। इनका परस्पर गुणा करने से १०८ भेद हो जाते हैं। जैसे— समरंभ आदि तीनों में मन आदि तीन का गुणा करने से ९, पुनः कृत आदि तीन से गुणा करने से ९ ² ३ · २७, पुनः चार कषाय से गुणा करने से २७ ² ४ · १०८ भेद हो जाते हैं। इनके निमित्त से जीव कर्मों का संचय करता रहता है।
इस प्रकार से आठों कर्मों की व्यवस्था प्रतिपादित की गयी है। इन आठ कर्मों में भी घातिया— अघातिया के भेद से दो भेद होते हैं। जो जीव के गुणों का घात करते हैं वे घातिया कर्म हैं। जो पूर्णतया गुणों का घात न कर सवें वे अघातिया कर्म हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार घातिया कर्म हैं, शेष चार अघातिया कर्म हैं। इनमें से घातिया कर्मों का नाश कर अरिहंत भगवान केवली बनते हैं पुनः वे ही आयु के अन्त में अघातिया कर्मों का नाश कर सिद्ध परमात्मा बन जाते हैं और उसके पश्चात् अनंतकाल तक वे सिद्धशिला पर विराजमान रहकर अनन्त सुख का अनुभव करते हैं तथा संसार में फिर कभी वापस जन्म धारण नहीं करते हैं यही जैनधर्म का अटल सिद्धान्त है अतः हम सभी को इन कर्मों से मुक्त होने का सतत प्रयास करना चाहिए।