–डॉ. सुभाष चन्द्र जैन,मुम्बई
संक्षेप के योग में कार्मण स्कंध आत्मा के संयोग में आते हैं और कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों में परिवर्तित हो जाते हैं। कर्म मोह द्वारा निर्धारित समय तक निष्क्रिय रहते हैं। उसके बाद कर्म सक्रिय होकर मोह द्वारा निर्धारित अनुभाग के अनुसार कर्मफल प्रदान करने के पश्चात आत्मा से पृथक हो जाते हैं। कर्मफल आत्मा और भौतिक शरीर के गुणों को प्रभावित करते हैं। जो बदले में प्राणी की नवीन क्रिया को प्रभावित करते हैं। नवीन क्रिया द्वारा नए कर्म आत्मा संग बंध करते हैं और यह चक्र चलता रहता है। नए संलग्न कर्म पुरातन संलग्न कर्मों को संशोधित करते हैं। किस प्रकार के क्रियाफल और कर्मफल सिद्धांत द्वारा नियंत्रित होते है ? कर्म सिद्धांत की उपर्युक्त संक्षेप जानकारी से इस प्रश्न का उत्तर पाना कठिन है। इस प्रश्न का सीधा और सरल उत्तर वर्तमान ग्रंथों में भी उपलब्ध नहीं है। साधारण मनुष्य को इस प्रश्न का या तो अधूरा या गलत उत्तर मालूम है। इस प्रश्न का सही उत्तर कर्म सिद्धांत का लक्षण समझने पर उपलब्ध किया जा सकता है।
कर्म सिद्धांत की सार्थकता के लिए यह आवश्यक है कि यह सिद्धांत सर्वत्र और सदैव वैध हो। कर्मसिद्धान्त अर्थहीन हो जाएगा यदि यह सिद्धांत कुछ स्थान पर लागू होता हो और शेष स्थान पर नहीं। मिसाल के तौर पर, यदि यह माना जाए कि कर्मसिद्धांत केवल भारत देश में लागू होता है और शेष देशों में नहीं, तो मनुष्य भारत देश में अच्छी क्रिया करके और अन्य देशों में बुरी क्रिया करके कर्मसिद्धांत को निरर्थक बना देगा। इसी प्रकार कर्मसिद्धान्त अर्थहीन हो जायेगा यदि यह सिद्धान्त सदैव लागू न होता हो। मिसाल के तौर पर, यदि यह माना जाए कि कर्मसिद्धान्त केवल शनिवार, रविवार, सोमवार और मंगलवार को लागू होता है और शेष दिन यानी बुधवार, बृहस्पतिवार और शुक्रवार को नहीं , तो मनुष्य शनिवार, रविवार, सोमवार और मंगलवार को अच्छी क्रिया करके और बुधवार, बृहस्तपतिवार और शुक्रवार को बुरी क्रिया करके कर्म सिद्धांत को निरर्थक बना देगा। सर्वत्र और सदैव लागू होने वाले सिद्धांत को यूनिवर्सल (सार्विक) सिद्धांत कहते हैं, इसलिए कर्म सिद्धांत एक यूनिवर्सल सिद्धांत है। यदि कर्म सिद्धांत यूनिवर्सल है, तो कर्म सिद्धांत द्वारा नियंत्रित क्रिया के फल भी यूनिवर्सल होने चाहिएअर्थात् कर्मसिद्धांत द्वारा नियंत्रित क्रिया के फल केवल क्रिया पर निर्भर होना चाहिए, क्रिया के समय और स्थान पर नहीं चाहे विवक्षित क्रिया भारत या अमेरिका या लोक में कहीं पर भी किया जाए, उस विवक्षित क्रिया के कर्मसिद्धांत द्वारा नियंत्रित फल अभिन्न होते हैं। उसी प्रकार चाहे विवक्षित क्रिया कल की गई थी, या आज की गई है, या भविष्य में की जाएगी, उसी विवक्षित क्रिया के कर्मसिद्धांत द्वारा नियंत्रित फल भी अभिन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में कर्मसिद्धांत द्वारा नियंत्रित क्रिया के फल यूनिवर्सल होते है।
कर्मों के दोनों कारण (उपादान और निमित्त), यानी कार्मण स्कंध और अदृष्ट फल यूनिवर्सल हैं इसलिए कर्म भी यूनिवर्सल होते हैं अर्थात कर्म केवल क्रिया पर निर्भर होते हैं, क्रिया के स्थान और समय पर नहीं। क्रिया योग-एवं-मोह द्वारा परिचालित प्रक्रिया है। योग की तीव्रता कर्मों के प्रदेश और प्रकृतियाँ नियंत्रित करती हैं । मोह की तीव्रता कर्मों की स्थिति और अनुभाग नियंत्रित करती है इसलिए कर्म केवल क्रिया यानी योग एवं मोह पर निर्भर होते हैं, क्रिया के स्थान और समय पर नहीं। हम एक और क्रिया का उदाहरण देंगे जिसका कोई दृष्ट फल नहीं है, केवल अदृष्ट फल है। माना लो किसी ने अपने एक शत्रु की हत्या करने का निर्णय लिया। वह हत्या की योजना बनाने में कई दिवस व्यतीत करता है जिस दिन वह शत्रु की हत्या करने वाला था, उसे पता चला कि शत्रु देश छोड़कर कहीं चला गया है और वह उसकी हत्या नहीं कर पाया। क्या उसे हत्या योजना बनाने की क्रिया का फल मिलना चाहिए ? हत्या की योजना बनाना एक प्रकार की क्रिया है और इस क्रिया का भौतिक प्रमाण नहीं है इसलिए इस क्रिया के फल का मनुष्यकृत नियमों से कोई प्रयोजन नहीं है। इस प्रकार की क्रिया के कोई दृष्ट फल नहीं हैं ; इसके केवल अदृष्ट फल हैं जो कर्मों के रूप में आत्मा में बंध जाते हैं। हम यह मानकर दूसरों के बारे में बुरा-भला सोचते रहते हैं कि इन क्रियाओं का कोई फल नहीं है। परन्तु ऐसा सोचना गलत है; हर क्रिया के अदृष्ट फल अवश्य होते हैं जिन्हें हम भविष्य में भोगते हैं। हमें हर क्रिया को सोच-समझकर करना चाहिए।
तुम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का फल तुम्हारी आत्मा के ज्ञान गुण की पर्याय में परिवर्तन करता है और तुम्हारे द्वारा अध्यापक की वार्ता सुनने की क्रिया तुम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का फल नहीं है। तुम्हारी आत्मा की वर्तमान पर्याय ज्ञान से युक्त है। ज्ञान आत्मा का एक गुण है और यह ज्ञान आत्मा की पर्याय के साथ बदलता रहता है। वार्ता सुनने से पहले जो ज्ञान तुम्हारे पास था, तुम उसके बिना कंप्यूटर के बारे में ज्ञान अर्जित नहीं कर सकते थे और वह ज्ञान भी तुम्हारे ज्ञान में बदलाव का कारण है। इस उदाहरण में तुम्हारी आत्मा की दो पर्यायें सम्मिलित हैं; वार्ता सुनने से पहले की पर्याय, यानी पूर्व पर्याय और वार्ता सुनने के बाद पर्याय, यानी उत्तर पर्याय। आत्मा की इन दो पर्यायों में कार्य-कारण संबन्ध है। तुम्हारी पूर्व पर्याय तुम्हारी उत्तर पर्याय का एक कारण है। तुम्हारी उत्तर पर्याय तुम्हारी पूर्व पर्याय का एक कार्य है। तुम्हारी आत्मा की पर्याय में परिवर्तन के कार्य का कारण तुम्हारी पूर्व पर्याय है। तुम्हारी आत्मा की पूर्व पर्याय तुम्हारी आत्मा के ज्ञान में बदलाव का उपादान कारण है, क्योंकि तुम्हारी आत्मा की पूर्व पर्याय वार्ता सुनने के बाद तुम्हारी आत्मा की उत्तर पर्याय में बदल जाती है। तुम्हारी आत्मा के ज्ञान में बदलाव का निमित्त कारण तुम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का फलना है। इस उदाहरण में, उपादान कारण (तुम्हारी वार्ता सुनने से पहले की आत्मा की पर्याय) और निमित्त कारण (तुम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का फलना), दोनों का कारण वैयक्तिक हैं; वे केवल तुम्हें प्रभावित करते हैं, और किसी और को नहीं।
एक प्रश्न उठता है तुम्हारे ज्ञान के बदलाव में अध्यापक की वार्ता सुनने की क्रिया का क्या योगदान है ? इस प्रश्न का उत्तर ज्ञानावरणीय कर्म की पर्याय में परिवर्तन के उपादान और निमित्त कारण पहचानने पर मिल सकता है। हर द्रव्य की पर्याय के समान कर्मों की पूर्व पर्याय का हर क्षण व्यय और उत्तर पर्याय का हर क्षण उत्पाद होता रहता है। कर्मों के फल देने से पहले की पर्याय फल देने के बाद की पर्याय से भिन्न होती है। तुम्हारे द्वारा ज्ञानावरणीय कर्म की पर्याय में परिवर्तन का उपादान कारण तुम्हारा ज्ञानावरणीय कर्म है और निमित्त कारण तुम्हारे द्वारा अध्यापक की वार्ता सुनने की क्रिया है। तुम्हारे द्वारा अध्यापक की वार्ता सुनने की क्रिया तुम्हारे ज्ञानावणीय कर्म के फलन के द्वारा तुम्हारी आत्मा के ज्ञान को परोक्ष रूप में प्रभावित करती है। कर्म का फलना न केवल कर्म पर निर्भर करता है, बल्कि कर्म के फलन के निमित्त कारण पर भी। कर्म के फलन के निमित्त कारण के बदलने के साथ कर्मफल भी बदलता है, जैसा कि निम्नलिखित उदाहरण के साथ समझाया गया है। मान लो कि तुम कंप्यूटर की कक्षा में वार्ता सुनने की क्रिया के बजाय एक अध्यात्मिक पुस्तक पढ़ने की क्रिया करते हो। पुस्तक पढ़ने की क्रिया से तुम्हारे ज्ञान में बदलाव आता है, परन्तु तुम्हारे ज्ञान में बदलाव कंप्यूटर की कक्षा में वार्ता सुनने की क्रिया से भिन्न है। कक्षा में जाने या पुस्तक पढ़ने से पहले की दोनों परिस्थितियों में तुम्हारी आत्मा की पूर्व-पर्याय और ज्ञानावरणीय कर्म की पूर्व-पर्याय समान है, फिर भी तुम अपने ज्ञान में भिन्न बदलाव अनुभव करते हो। जब तुम कम्प्यूटर की कक्षा में वार्ता के बजाय पुस्तक पढ़ते हो तुम्हारे ज्ञानावरणीय कर्म का पूर्व का फल भिन्न है। निमित्त कारण एक परिस्थिति में कंप्यूटर पर वार्ता सुनने की क्रिया है और दूसरी परिस्थिति में आध्यात्मिक पुस्तक पढ़ने की क्रिया। तुम्हारी आत्मा की उत्तर पर्याय दो परिस्थितियों में एक दूसरे से भिन्न है। इस भिन्नता का कारण निमित्त कारण में भिन्नता है। प्रत्येक क्रिया के साथ न केवल आत्मा और भौतिक शरीर की पर्याय में परिवर्तन होता है, कार्मण शरीर की पर्याय में भी परिवर्तन होता है। प्रत्येक क्रिया के साथ कार्मण शरीर से हर क्षण उदय में आए पूर्व कर्म अलग होते रहते हैं और नवीन कर्म जुड़ते रहते हैं। जीव क्रिया और कार्मण शरीर की पूर्व पर्याय द्वारा कार्मण शरीर की उत्तर पर्याय निर्धारित होती है। कार्मण शरीर की उत्तर पर्याय का उपादान कारण कार्मण शरीर की पूर्व पर्याय है और निमित्त कारण जीव की क्रिया है।
इस तथ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि यद्यपि कर्म यूनिवर्सल होते हैं, कर्मफल नहीं। कर्मफल कर्म के अतिरिक्त क्रिया की प्रकृति पर भी निर्भर करते हैं और क्रिया मूल और गौण साधन द्वारा निर्धारित होती है। यह सत्य है कि हमारी वर्तमान क्रिया हमारे पूर्वकृत कर्म नियंत्रित करते हैं, परन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है, अपूर्ण सत्य है। प्रश्न उठता है कि क्या क्रिया की प्रकृति भी पूर्वकृत कर्म नियंत्रित करते हैं? तुम इस लेख का पढ़ने की क्रिया कर रहे हो। तुम्हारे इस लेख पढ़ने की क्रिया की प्रकृति इस क्रिया के मूल साधन पर यानी इस लेख पर और गौण साधनों (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) पर निर्भर करती है। क्या तुम्हारे द्वारा इस लेख का इस जगह और इस समय पढ़ना भी तुम्हारे पूर्वकृत कर्म द्वारा नियंत्रित था ? क्या तुम्हारे पूर्वकृत कर्म में यह जानकारी संचित थी कि तुम्हारी क्रिया के ये ही साधन बनेंगे, यानी तुम इस लेख को इस जगह और इस समय पढोगे? यदि इस प्रश्न का उत्तर हाँ माना जाए, तो यह भी मानना पड़ेगा कि तुम्हारे इस समय मनुष्यगति में होने की जानकारी तुम्हारे पूर्वकृत कर्म में संचित थी। परन्तु यह जानकारी कि तुम इस भव में मनुष्य होंगे तुम्हारी पिछले भव की आयु के दो-तिहाई भाग बीतने के बाद ही कार्मण शरीर में संचित होती है, इससे पहले नहीं। इसलिए इससे पहले के पूर्वकृत कर्मों को आत्मा के साथ बंधते समय यह जानकारी नहीं थी कि तुम्हारी क्रिया के ये ही साधन बनेंगे इसलिए यह मानना कि क्रिया के साधन की जानकारी पूर्वकृत कर्म संचित रहती है तर्कसंगत नहीं है। तुम अपने पुरुषार्थ द्वारा कर्म फलन के साधन को चुनने में सक्षम हो। कुछ व्यक्तियों की यह मान्यता है कि प्रत्येक द्रव्य की पर्याय सुनिश्चित है, इसलिए साधन को पुरुषार्थ द्वारा चुना नहीं जाता, साधन (निमित्त) स्वयमेव उपस्थित हो जाते हैं। इस मान्यता के अनुसार पुरुषार्थ की मनुष्य जीवन की दैनिक क्रियाओं में कोई भूमिका नहीं है।
यह संभव है कि कुछ व्यक्ति इस निष्कर्ष से कि दृष्ट फल कर्म सिद्धांत द्वारा नियंत्रित कर्मों के फल नहीं है पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हो क्योंकि यह निष्कर्ष इस मान्यता पर आधारित है कि कर्मफल केवल आत्मा और जीवित मैटर के गुणों की पर्याय में परिवर्तन करते हैं। उन व्यक्तियों का मानना है कि धन-दौलत, सुख-दु:ख के साधन, भौतिक सामग्री और उच्च-नीच कुल कर्म सिद्धांत द्वारा नियंत्रित कर्मों के फल हैं। उनके ऐसा मानने से अनेकअनुत्तरित प्रश्न उत्पन्न हो जाते हैं। उनमें से कुछ प्रश्न निम्नलिखित हैं। १. कर्म तो हर समय उदय में आते रहते हैं पर भौतिक सामग्री और उच्च-नीच कुल तो बहुत समय तक विद्यमान रहते हैं। भौतिक सामग्री और उच्च-नीच कुल कौन से कर्म के उदय का कारण मानी जाए ? २. यदि भौतिक सामग्री एक ही व्यक्ति को कभी अनुकूल और कभी प्रतिकूल प्रतीत होती है, तो वह भौतिक सामग्री किस कर्म के उदय का कारण मानी जाए ? ३. यदि मनुष्य का अच्छा आचरण उसके अच्छे कर्मों का फल माना जाए, तो सब अच्छे आचरण वाले मनुष्य धन-दौलत से सम्पन्न होने चाहिए। परन्तु ऐसा नहीं है, क्यों ? इस तरह के और अनेक प्रश्न हैं जिनका तर्कसंगत उत्तर केवल इस तथ्य के आधार पर दिया जा सकता है कि दृष्ट फल कर्मसिद्धांत द्वारा नियंत्रित कर्मों के फल नहीं हैं।1