‘कर्म’ के स्वभाव की अपेक्षा असंख्यात भेद हैं। अनन्तानन्त प्रदेशात्मक स्कन्धों के परिणमन की अपेक्षा कर्म के अनन्त भेद होते हैं। ज्ञानावरणादि अविभागी प्रतिच्छेदों की अपेक्षा भी अनन्त भेद कहे जाते हैं। इस कर्म की बन्ध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्त्व, उदय, उपशम, निधत्ति, निकाचना रूप दस कारणात्मक अवस्थाएँ पायी जाती हैं। बन्ध की परिभाषा की जा चुकी है। उत्कर्षण करण में कर्म के अनुभाग तथा स्थिति की वृद्धि होती है। अपकर्षण में इसके विपरीत बात होती है। संक्रमण करण में एक कर्मप्रकृति का अन्य प्रकृति रूप परिणमन किया जाता है। कर्मों को उदय काल के पूर्व उदयावली में लाना उदीरणा करण है। कर्मों का सत्ता में रहना सत्त्व है। फलदान उदय कहलाता है। उदयावली में न जाकर कर्मों की उपशान्त अवस्था उपशम है। कर्मों की ऐसी अवस्था, जिसमें उत्कृर्षण, अपकर्षण, अपकर्षण करण के सिवाय उदीरणा तथा संक्रमण नप हो सके, निधत्ति है। ऐसी कर्म—स्थिति, जिसमें उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण तथा अपकर्षण न हो सके, निकाचना कही जाती है। कर्मों की इन दस अवस्थाओं पर ध्यान देने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह जीव अपने परिणामों के अनुसार कर्मों को हीनशक्ति और महान् शक्ति युक्त बना सकता है। यह उदीरणा के द्वारा उदयकाल के पूर्व भी कर्मों को उदय अवस्था में लाकर निर्जीर्ण कर सकता है। कभी कर्म शक्तिहीन बनकर निर्जरा को प्राप्त होते हैं। सार बात यह है कि जीव अपने परिणामों के अनुसार कर्मों को भिन्न रूप में परिणत कर सकता है। कर्म का फल भोगना ही पड़ेगा—‘‘नाभुक्तं क्षीयते कर्म’’ यह बात जैन सिद्धान्त में सर्वथा रूप में सम्भव नहीं है। जब आत्मा में रत्नत्रय की ज्योति प्रदीप्त होती है, तब अनन्तानन्त कार्मणवर्गणाएँ बिना फल दिये हुए निर्जरा को प्राप्त हो जाती हें। केवली भगवान् को असाता प्रकृति कुछ भी बिना फल दिये हुए साता रूप में परिणत होकर निकल जाती है। इसलिए वीतराग शासन में केवली के असाता निमित्तक क्षुधा—तृषा आदि की पीड़ा का अभाव माना गया है।
बन्ध के प्रकार
कर्मबन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेश—ये चार भेद बताये गये हैं। ‘महाबन्ध’ के इस प्रथम खण्ड में प्रकृतिबन्ध का विविध अनुयोग—द्वारों से वर्णन किया गया है। प्रकृति शब्द का अर्थ है—स्वभाव, जैसे गुड़ की प्रकृति मधुरता है। ज्ञानावरण कर्म का स्वभाव ज्ञान का आवरण करना है। दर्शनावरण की प्रकृति दर्शन गुण को ढाँगना है। वेदनीय का स्वभाव सुख—दु:ख का अनुभवन कराना है। मोहनीय का स्वभाव आत्मा के दर्शन और चारित्र गुणों को विकृत करना है।यह आत्मा के सुख गुण को भी नष्ट करता है। मनुष्यादि के भवधारण का कारण आयु कर्म है। नर— नारकादि नाम से जीव संर्कीितत होता है। इसका कारण नाम की रचना विशेष है। उच्च या नीच शरीर में जीव को रखना गोत्र की प्रकृति है। दान—भोगादि में बाधा डालना अन्तराय कर्म की प्रकृति है। इन आठ कर्मों के नाम के अनुसार उनकी प्रकृति कही गयी है। इन कर्मों का स्वभाव समझाने के लिए जैन आचार्यों ने निम्नलिखित उदाहरण दिये हैं। ज्ञानावरण का उदाहरण परदा है। दर्शनावरण का द्वारपाल है, कारण उसके द्वारा इष्ट दर्शन का आचरण होता है। मधुलिप्त असिधारा के समान वेदनीय कर्म है। वह मधुरता के साथ जीभ कटने का सन्ताप पैदा करती है। मोहनीय मदिरा के समान जीव को आत्म—स्मृति नहीं होने देता है। आयु कर्म काष्ठ के खाण्डा—बन्धनाविशेष—द्वारा व्यक्ति को कैदी बनाने के समान है। नाम कर्म भिन्न—भिन्न शरीर आदि की रचना चित्रकार के समान किया करता है। गोत्रकर्म जीव को उच्च, नीव शरीरधारी बनाता है; जैसे कुम्भकार छोटे—बड़े बर्तन बनाता है। भण्डारी जिस प्रकार स्वामी—द्वारा स्वीकृत द्रव्य को देने में बाधा पैदा करता है, उसी प्रकार विघ्न करना अन्तराय का स्वभाव है। इन आठ कर्मों के १४८ भेद कहे गये हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय कर्म जीव के क्रमश: ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व तथा अनन्त वीर्यरूप अनुजीवी गुणों को घातने के कारण घातिया कहे जाते हैं। आयु, नाम, गोत्र तथा वेदनीय को अघातिया कर्म कहा है। ये जीव के अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व तथा अव्याबाधत्व नामक प्रतिजीवी गुणों को घातते हैं। स्थितिबन्ध उसे कहते हैं, जिसके कारण प्रत्येक कर्म के बन्ध की कालमर्यादा निश्चित होती है। कर्मों के रस प्रदान की सामथ्र्य को अनुभागबन्ध कहा है। कर्मवर्गणाओं के परमाणुओं की परिणगना को प्रदेशबन्ध कहते हैं। कहा भी है—
योग के कारण प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं। कषाय के कारण कर्मों में स्थिति और अनुभाग का बन्ध होता है।
कर्मकृत परिणमन पर वैज्ञानिक दृष्टि
गन्धक, शोरा, तेजाब आदि के मिलने पर रासायनिक प्रक्रिया प्रारम्भ होती है तथा भिन्न प्रकार के तत्त्वविशेष की उपलब्धि होती है; इसी प्रकार कर्मों का जीव के साथ सम्मेलन होने पर रासायनिक क्रिया प्रारम्भ होती है और उससे अनन्त प्रकार की विचित्रताएँ जीव के भावानुसार व्यक्त हुआ करती हैं। जीव के परिणामों में वह बीज विद्यमान है जो प्रस्फुटित तथा विकसित होकर अनन्तविध विचित्रताओं को विशाल वट वृक्ष के समान दिखाता है। कोई जीव मरकर कुत्ता होता है, तो श्वान पर्याय में उत्पन्न होने के पूर्व व्यक्ति की मनोवृत्ति में श्वान वृत्ति के बीज सार रूप में संगृहीत होंगे; जिनके प्रभाव से गृहीत कार्मण—वर्गणा श्वान सम्बन्धी सामग्री को प्राप्त करा देती या उस रूप परिणत होगी। आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, इसलिए उसे बाँधने वाली कार्मण वर्गणाओं का पुंज भी बहुत सूक्ष्म है। उस सूक्ष्म पुंज में अनन्त प्रकार के परिणमन प्रदर्शन की सामथ्र्य है। अणु बम में आकार की अपेक्षा अत्यन्त लघुता का दर्शन होता है, किन्तु शक्ति की अपेक्षा वह सहस्रों विशाल बमों से अधिक कार्य करता है। भौतिक विज्ञान प्रयत्न करे तो राई के दाने से भी छोटा बम बन सकता है जो संसार—भर को हिला दे। आत्मा के साथ मिली हुई कार्मण वर्गणाओं में अनन्तानन्त प्रदेश कहे गये हैं जो अभव्य जीवों से अनन्त गुणित हैं, फिर भी सूक्ष्म होने के कारण वे इन्द्रियों के अगोचर हैं। उनमें विद्यमान कर्मशक्ति अद्भुत खेल दिखाती है। किसी जीव को निगोद, अपर्याप्तक पर्यायवाला जीव बना एक श्वास में अठारह बार शरीर—निर्माण और ध्वंस—द्वाा जीवन—मरण को प्रर्दिशत करती है। वह आत्मा की अनन्त ज्ञान—शक्ति को ढाँककर अक्षर के अनन्तवें भाग बना देती है। ‘र्कातिकेयानुप्रेक्षा’ में कहा है—
पुद्गल कर्म की भी ऐसी अद्भुत सामथ्र्य है, जिसके कारण जीव का केवलज्ञान स्वभाव विनाश को प्राप्त हो गया है। उस कर्म शक्ति के कारण गाय, बैल, ऊँट आदि का आकार—प्रकार प्राप्त होता है। ऐसा कौन—सा काम है जो उस शक्ति की परिधि के बाहर हो। ज्ञानावरण के रूप में उसके द्वारा बुद्धि की हीनाधिकता का विचित्र दृश्य र्नििमत होता है, लेकिन जिस प्रकार नाटक का अभिनय कराने वाला सूत्रधार होता है, जिसके संकेत के अनुसार कार्य होता है, इसी प्रकार सूत्रधारक जीव के भाव हैं। उन भावों की हीनता, उच्चता, वक्रता, सरलता, समलता, विमलता आदि पर जिन बाह्य क्रियाओं का प्रभाव पड़ता है, उनसे भिन्न भिन्न प्रकार के कर्म बँधते हैं। उनका वर्णन जैन मर्हिषयों ने किया है जिनके अध्ययन से मानव इस बात की कल्पना कर सकता है कि उसका अतीत कैसा था, जिससे उसे वर्तमान सामग्री मिली और वर्तमान विकृत अथवा विमल जीवन के अनुसार वह अपने किस प्रकार के भविष्य का निर्माण कर सकता है। ==उदाहरणार्थ —== एक व्यक्ति अत्यन्त मन्द ज्ञानी है। इसका क्या कारण है ? शरीरशास्त्री तो शारीरिक कारणों के द्वारा मस्तिष्क के परमाणुओं की दुर्बलता को दोषी ठहराएगा; किन्तु कर्म सिद्धान्त का ज्ञाता कहेगा कि इस जीवद ने पूर्व में जब कि इसके वर्तमान जीवन का निर्माण हो रहा था, ज्ञान को ढाँकने वाली साधन सामग्री को संगृहीत किया था। इसी प्रकार अन्य प्रकार के बाह्य और आभ्यन्तर कार्यों के विषय में कर्म सिद्धान्त वाला समर्थन करेगा।
कर्मों के आगमन के कारणों का स्पष्टीकरण
ज्ञानावरण के कारण—ज्ञानावरण कर्म में विशेष कारण निम्नलिखित बातें बतायी गयी हैं; जैसे—निर्मल ज्ञान के प्रकाशित होने पर मन में दूषित भाव रखना, ज्ञान को छिपाना, योग्य व्यक्ति को दुर्भाववश ज्ञान प्रदान न करना, दूसरे की ज्ञान—साधना में बाधा डालना, वाणी अथवा प्रवृत्ति के द्वारा ज्ञानवान् के ज्ञान का निषेध करना, पवित्र ज्ञान में लांछन लगाना, निरादरपूर्वक ज्ञान का ग्रहण करना, ज्ञान का अभिमान तथा ज्ञानियों का अपमान, अन्याय पक्ष समर्थन में शक्ति लगाना, अनेकान्त विद्या को दूषित करने वाला कथन करना, आदि। इस प्रकार के कार्यों से जो जीव के मलिनभाव होते हैं, उनके द्वारा इस प्रकार का मलिन कर्मपुंज गृहीत होता है जो ज्ञान के प्रकाश को ढाँकता है।
दर्शनावरण के कारण
उपर्युक्त बातें दर्शन के विषय में करने से दर्शनावरण कर्म आता है। उसके अन्य भी कारण हैं; जैसे अधिक सोना, दिन में सोना, आँखों को फोड़ देना, निर्मल दृष्टि में दोष लगाना, मिथ्या मार्गवालों की प्रशंसा करना, आदि।
वेदनीय के कारण
जिस असातावेदनीय के कारण जीव कष्टमय जीवन बिताता है, उसके कारण ये हैं–स्व पर अथवा दोनों को पीड़ा पहुँचाना, शोकाकुल रहना, हृदय में दु:खी बने रहना, रुदन करना, प्राणघात करना, अनुकम्पा उत्पादक फूट—फूटकर रोना, अन्य की निन्दा और चुगली करना, जीवों पर दया न करना, अन्य को सन्ताप देना, दमन करना, विश्वासघात, कुटिल स्वभाव, हिंसापूर्ण आजीविका, साधुजनों की निन्दा करना, उन्हें सदाचार के मार्ग से डिगाना, जाल, पिंजरा आदि जीवघातक पदार्थों का निर्माण करना, आहिंसात्मक वृत्ति का विनाश करना आदि। जीव को आनन्दप्रद अवस्था प्राप्त कराने वाले सातावेदनीय के कारण ये हैं—जीवमात्र पर दया करना, सन्त जनों पर स्नेह रखना, उन्हें दोन देना, प्रेमपूर्वक संयम पालन करना, विवशता में शान्त भाव से कष्टों को सहना करना, क्रोधादि का त्याग करना, जिनेन्द्र भगवान् की पूजा, सत्पुरुषों की सेवा—परिचर्या, आदि।
मोहनीय के कारण
मोहनीय कर्म के कारण मदोन्मत्त हो यह जीव न आत्मदर्शन कर पाता है और न सच्चे कल्याण के मार्ग में लगता है। दर्शनमोहनीय के कारण देव, गुरु, शास्त्र तथा तत्त्वों के विषय में यह सम्यक् श्रद्धा वंचित रहता है और वैज्ञानिक दृष्टि से श्रेष्ठ और पवित्र प्रकाश को नहीं प्राप्त करता। इसके कारण ये हैं—जिनेन्द्र देव, वीतराग वाणी तथा दिगम्बर मुनिराज के प्रति काल्पनिक दोष लगाकर संसार की दृष्टि में मलिन भाव उत्पन्न करना, धर्म तथा धर्म के फलरूप श्रेष्ठ आत्माओं में पाप प्रवृत्तियों के पोषण की सामग्री को बताकर भ्रम उत्पन्न करना, मिथ्या मार्ग का प्रचार करना, आदि। चारित्रमोहनीय के कारण यह जीव अपने निज स्वरूप में स्थित न रहकर क्रोधादि विकृत अवस्था को प्राप्त करता है। क्रोधादि के तीव्र वेगवश मलिन प्रचण्ड भावों का करना, तपस्वियों की निन्दा तथा धर्म का ध्वंस करना, संयमी पुरुषों के चित्त में चंचलता उत्पन्न करने का उपाय करने से कषायों का बन्ध होता है। अत्यन्त हास्य, बहुप्रलाप, दूसरे के उपहार के हास्य का पात्र बनता है। विचित्र रूप से क्रीड़ा करने से, औचित्य की सीमा का उल्लंघन करने से रति—वेदनीय का आगमन होता है। दूसरे के प्रति विद्वेष उत्पन्न करना, पाप प्रवृत्ति वालों का संसर्ग करना, निन्द्य प्रवृत्ति को प्रेरणा प्रदान करना, आदि अरति प्रकृति के कारण हैं। दूसरे को दु:खी करना और दूसरे के दु:खों को देख र्हिषत होना, शोक प्रकृति का कारण है। भय प्रकृति के द्वारा यह जीव भयभीत रहता है, उसका कारण भय के परिणाम रखना, दूसरों को डराना, सताना तथा निर्दयतापूर्ण प्रवृत्ति करना है। ग्लानिपूर्ण अवस्था का कारण जुगुप्सा प्रकृति है। पवित्र पुरुषों के योग्य आचरण की निन्दा करना, उनसे घृणा करना, आदि से यह बँधती है। स्त्रीत्व विशिष्ट स्त्रीवेद का कारण महान् क्रोधी स्वभाव रखना, तीव्र मान, ईष्र्या, मिथ्यावचन, तीव्रराग, परस्त्रीसेवन के प्रति विशेष आसक्ति रखना, स्त्री सम्बन्धी भावों के प्रति तीव्र अनुराग भाव है। पुरुषत्व सम्पन्न पुरुषवेद के कारण क्रोध की न्यूनता, कुटिल भावों का अभाव, लोभ तथा मान का त्याग, अल्प राग, स्वस्त्रीसन्तोष, ईष्र्या परिणाम की मन्दता, आभूषण आदि के प्रति उपेक्षा के भाव आदि हैं, जिसके उदय से नपुंसक वेद मिलता है। उसके कारण प्रचुर प्रमाण में क्रोध, मान, माया, लोभ से दूषित परिणामों का सद्भाव, परस्त्रीसेवन, अत्यन्त हीन आचरण, तीव्र राग, आदि हैं।
आयु के कारण
नरक आयु के कारण बहुत आरम्भ और अधिक परिग्रह, हिंसा के परिणाम, मिथ्यात्वपूर्ण आचरण, तीव्र मान तथा लोभ, दूसरे को सन्ताप पहुँचाना, सदाचार तथा शीलहीनता, काम, भोगसम्बन्धी अभिलाषा में वृद्धि, बध—बन्धन करने के भाव, मिथ्याभाषण, पापनिमित्तक आहार, सन्मार्ग में दूषण लगाना, कृष्ण लेश्या युक्त रौद्र ध्यानसहित मरण करना है। पशु पर्याय के कारण कुटिल तथा छलपूर्ण मनोवृत्ति तथा प्रवृत्ति, अधर्म प्रचार, विसंवाद उत्पन्न करना, जाति, कुल तथा शील में कलंक लगाना, नकली नाप तौल का सामान रखना, नकली सोना, मोती, घी, दूध, अगर, कपूर, कुंकुम आदि के द्वारा लोगों को ठगना, सद्गुणों का लोप करना, आत्र्तध्यान युक्त मरण करना, आदि हैं। मनुष्यायु के कारण अल्पारम्भ तथा अल्पपरिग्रह, मृदुल परिणाम, महान् पुरुषों का सम्मान, सन्तोष वृत्ति, दान में प्रवृत्ति, संक्लेश का अभाव, वाणी का संयम, भोगों के प्रति उदासीनता, पापपूर्ण कार्यों से निवृत्ति, अतिथि—संविभागशीलता आदि हैं। प्रेमपूर्वक पूर्ण तथा अल्प संयम का धारण करना, संकट आने पर शान्त भाव धारण करना, तत्त्वज्ञान शून्य तपश्चर्या, दयापूर्ण अन्त:करण आदि से देवायु की प्राप्ति होती है।
नाम के कारण
विकृत अंग—उपांग होना, शरीर सम्बन्धी दोषों का सद्भाव, अपयश आदि का कारण अशुभ नाम–कर्म है। वह मन, वचन, काय की कुटिलता, मिथ्याप्रचार, मिथ्यात्व, परनिन्दा, मिथ्या, कठोर तथा निरंकुश भाषण, महा आरम्भ और परिग्रह आभूषणों में आसक्ति, मिथ्यासाक्षी, नकली पदार्थों का देना, वन में आग लगाना, पापपूर्ण आजीविका करना, तीव्र क्रोध, मान, माया, लोभ के परिणाम, मन्दिर के धूप, गन्ध, माल्य आदि का अपहरण करना, अभिमान करना, अन्य के घातक यन्त्र आदि बनाना, दूसरे के द्रव्य का अपहरण करने से सम्पादित होता है। इस अशुभ नाम कर्म के कारण आज जगत् में शारीरिक विकृतियों की बहुलता दिखती है। शुभ नाम कर्म का कारण पूर्वोक्त प्रवृत्तियों में विपरीतपना है।
गोत्र के कारण
लोकानिन्दित कुलों में जन्म धारण करने का कारण नीच गोत्र है। वह जाति, कुल, रूप, बल, ऐश्वर्य आदि का मद, दूसरों का तिरस्कार अथवा अपवाद, सत्पुरुषों की निन्दा, यश का अपहरण करना, पूज्य पुरुषों का तिरस्कार करना, अपने को बड़ा बताना, दूसरों की हँसी उड़ाना आदि से प्राप्त होता है। श्रेष्ठ कुलों में उत्पन्न होकर लोकप्रतिष्ठा लाभ का कारण उच्च गोत्र कर्म है। यह मानरहितपना, सत्पुरुषों का आदर करना, जाति—कुल आदि का उत्कर्ष होते हुए उसका अभिमान नहीं करना, अन्य का तिरस्कार, निन्दा, उपहास न करना, अनुमपगुणभूषित होते हुए भी निरभिमानता, भस्म से ढँकी हुई अग्नि के समान अपनी महिमा को स्वयं प्रकाशित न करना, धर्म के साधनों का सम्मान करना, आदि से प्राप्त होता है।
अन्तराय के कारण
प्रत्येक कार्य में विघ्न उपस्थित करने वाला अन्तराय कर्म है। वह प्राणिवध, ज्ञान का निषेध करना, धर्म—कार्यों में विघ्न, उत्पन्न करना, देवता को र्अिपत नैवेद्य का प्रसादपूर्वक ग्रहण करना, भोजन—पान आदि में विघ्न करना, निर्दोष सामग्री का परित्याग, गुरु तथा देवपूजा का व्याघात करना, आदि के द्वारा सम्पन्न होता है। यह अन्तराय कर्म दान देना, पदार्थों की प्राप्ति, उनका भोग तथा उपभोग में बाधा उत्पन्न करता है। इसके ही कारण जीव शक्तिहीन होता है। उपर्युक्त कारणों से ज्ञानावरण आदि को विशेष अनुभाग मिलता है, कारण आयुकर्म को छोड़कर शेष कर्मों का निरन्तर बन्ध हुआ करता है। इसका तात्पर्य यह है कि किसी ने यदि ज्ञान के साधनों में बाधा उपस्थित की, तो उसके मोहनीय, अन्तराय आदि कर्मों का भी आस्रव होगां इतनी विशेषता होगी कि ज्ञानावरण को विशेष अनुराग मिलेगा, ज्ञानावरण के रस में प्रकर्षता होगी।
तत्त्वज्ञानी के बन्ध होता है या नहीं ?
इस बन्धतत्त्व के विषय में कुछ लोगों की ऐसी समझ है कि सम्यक्त्व की आत्मनिधि मिलने पर आत्मा की बन्ध—परम्परा नष्ट हो जाती है। वे कहते हैं—बन्ध का कारण अज्ञान चेतना है। सम्यग्दृष्टि के ज्ञानचेतना होती है, इसलिए वह बन्धन की व्यथा से मुक्त है। ज्ञान से मुक्ति लाभ का समर्थन सांख्य, बौद्ध, नैयायिक आदि भी करते हैं। यदि ज्ञान अथवा सम्यग्दर्शन के द्वारा कर्मों का अभाव हो जाये, तो रत्नत्रय मार्ग की मान्यता के साथ कैसे समन्वय होगा ? सम्यग्दृष्टि के बन्ध के विषय में अमृतचन्द्र सूरि लिखते हैं—‘‘ज्ञानी जीव आस्रव भावना के अभिप्राय के अभाववश निरास्रव है। वहाँ उसके भी द्रव्यप्रत्यय प्रत्येक समय अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों को बाँधते हैं। इसमें ज्ञान गुण का परिणमन कारण है।’’ यहाँ शंकाकार पूछता है—ज्ञान गुण का परिणमन बन्ध का हेतु किस प्रकार है ? इस पर मर्हिष कुन्दकुन्द कहते हैं—
‘‘जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि। अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो।।’’—समयसार, गा. १७१‘
यत: ज्ञानगुण जघन्य ज्ञानगुण से पुन: अन्यरूप परिणमन करता है, तत: वह ज्ञानगुण कर्म का बन्धक कहा गया है।’ इस प्रकार प्रकाश डालते हुए अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं—‘‘ज्ञानुणस्य यावज्जघन्यो भाव:, तावत् तस्यान्तर्मुहूर्तवि—परिणामित्वात् पुन: पुनरन्यतयास्तिस्त परिणम:। स तु यथाख्यातचारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यंभाविरागसद्भावात् बन्धहेतुरेव स्यात्’’ जब तक ज्ञानगुण का जघन्यभाव है—क्षायोपशमिक भाव है, तब तक उसका अन्तर्मुहूर्त में विपरिणमन होता है, इस कारण पुन: पुन: अन्यरूप परिणमन होता है। वह ज्ञान का परिणमन यथाख्यात चारित्ररूप अवस्था के नीचे निश्चय से रागसहित होने से बन्ध का ही कारण है।’ ‘सर्वार्थसिद्धि’ में कहा है; ‘‘यथाख्यात—विहारशुद्धि—संयता उपशान्तकषायादयोऽयोगकेवल्यन्ता:’’ (१,८, पृष्ठ १२)—यथाख्यात विहारशुद्धि संयमी उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान से अयोगी जिनपर्यन्त पाये जाते हैं। अत: कषायरहित जीवों के ही अबन्ध होता है। अध्यात्मशास्त्र में सम्यक्त्वी के अबन्धकपने का अर्थ यही है कि कषायरहित सम्यक्त्वी के बन्ध नहीं होता है; शेष के बन्ध होता है। जिसके कषाय है, उससे अवश्य बन्ध होता है। यदि ज्ञानगुण का जघन्य भावरूप परिणमन बन्ध का कारण है, तो ज्ञानी को कैसे निरास्रव कहा ? इस शंका के समाधान में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं—
‘‘दर्शन, ज्ञान, चारित्र का जघन्य भाव से परिणमन होता है, इससे ज्ञानी जीव अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों से बँधता है।’’ इस विषय पर विशेष प्रकाश डालते हुए टीकाकार जयसेनाचार्य लिखते हैं— ‘‘इस कारण भेदज्ञानी अपने गुणस्थानों के अनुसार परम्परा रूप से मुक्ति रूप से मुक्ति के कारण तीर्थंकर नामकर्म आदि प्रकृतिरूप पुद्गलात्मक अनेक पुण्यकर्मों से बँधता है।’’ (समयसार, पृ. २४५) शंका—कोई स्वाध्यायशील व्यक्ति पूछता है—यदि उपर्युक्त कथन ठीक है, तो उसका भगवत्कुन्दकुन्द के इस वचन से किस प्रकार समन्वय होगा— ‘‘रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स।।’’—समयसार, गा. १७७ ‘सम्यक्त्वी के राग, द्वेष, मोह रूप आस्रवों का अभाव है।’ इस गाथा के उत्तरार्ध में आचार्य लिखते हैं— ‘‘तम्हा आसवभावेण विण हेदू ण पच्चया होंति।’’ अर्थात् इस कारण आस्रवभाव के अभाव में द्रव्यप्रत्यय कर्मबन्ध के कारण नहीं होते हैं। समाधान—इस विषय में विरोध की कल्पना का निराकरण करते हुए जयसेनाचार्य लिखते हैं— ‘‘सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्वोदयजनित राग—द्वेष मोह नहीं हैं; अन्यथा वह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सरागसम्यक्त्वी नहीं हो सकेगा। अथवा अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभोदयजनित राग, द्वेष—मोह सम्यक्त्वी नहीं हो सकेगा। अथवा अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, क्रोध, मान, माया, लोभोदयजनित राग, द्वेष—मोह सम्यक्त्वी के नहीं पाये जाते हैं, कारण षष्ठ गुणस्थानरूप सरागचारित्र के अविनाभावी सरागसम्यक्त्व की अन्य प्रकार से उपपत्ति नहीं पायी जाती है।’’ इस सुव्यवस्थित तथा सुस्पष्ट निरूपण—द्वारा आचार्य महाराज ने यह समझा दिया है कि सम्यक्त्वी के बन्ध—अबन्ध का कथन एकान्तरूप से नहीं है। अविरत सम्यक्त्वी के मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी निमित्तक प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, किन्तु अन्य कषायादि निमित्तक प्रकृतियों का बन्ध होता है। मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी निमित्तक, प्रकृतियों के अभाव को मुख्य बना अविरत सम्यक्त्वी के अबन्ध का वर्णन सुसंगत है। इस विवक्षा को गौण बनाकर बन्ध को प्राप्त होने वाली प्रकृतियों की अपेक्षा बन्ध का कथन भी समीचीन है। शंका—सम्यक्त्वी के बन्धाभाव का एकान्तपक्ष वाले कहते हैं कि ‘अविरत सम्यक्त्वी के जो अप्रत्याख्यानावरण, वङ्कावृषभ संहनन, औदारिक शरीर आदि का बन्ध है, वह बन्ध नहीं के समान है।’ समाधान—इस कथन में तात्त्विक विचार का अभाव है। जब विरतसम्यक्त्वी के द्वारा बाँधे गये कर्मों में कषाय और योग के कारण प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग बन्ध होते हैं, तब उनको बिलकुल ही तुच्छ मानना और सर्वथा अबन्ध घोषित करना जैन दृष्टि—स्याद्वाद विचार शैली के अनुकूल नहीं कहा जा सकता। जयसेनाचार्य ने पूर्णतया विश्लेष्सण करके सम्यक्त्वी को कथंचित् बन्धक और कथंचित् अबन्धक प्रमाणित कर दिया है। आगम की आज्ञा—इस प्रसंग में ‘षट्खण्डागमसूत्र के दूसरे खण्ड क्षुद्रबन्ध में भूतबलि भट्टारक रचित महत्त्वपूर्ण सूत्र आया है। ‘षट्खण्डागम’ सूत्र का साक्षात् सम्बन्ध गणधर की वाणी से रहा है, अत: उस सूत्र का सर्वोपरि महत्त्व हो जाता है। वह सूत्र इस प्रकार है—‘सम्मादिट्ठी बंधा वि अत्थि, अबंधा वि अत्थि’’३६—सम्यक्त्वी के बन्ध होता है, अबन्ध भी होता है। इस पर धवला टीकाकार कहते हैं—‘‘कुदो ? सासवाणासवेसु सम्मद्दंसणुवलंभा’’—
प्रश्न—उपर्युक्त कथन क्यों किया गया ?
उत्तर—आस्रवयुक्त तथा आस्रवरहित जीवों में सम्यग्दर्शन का सद्भाव पाया जाता है। इस कथन से दो प्रकार के सम्यक्त्वी ज्ञात होते हैं। एक सम्यक्त्वी सास्रव है और दूसरा आस्रवरहित है। आस्रव के उत्तर क्षण में बन्ध होता है, अत: बन्धसहित भी सम्यक्त्वी होता है; यह सर्वज्ञ की प्ररूपणा शिरोधार्य करना श्रेयस्कर है। आस्रव का कारण योग है—‘‘काय वाङ्मन: कर्मयोग:, स अस्रव:’’। ऐसी स्थिति में सयोगकेवली को आस्रवयुक्त मानना होगा। आस्रवरहित अयोगकेवली माने गये हैं—‘‘णिरुद्धणिस्सेस—आस्रवो जीवो……गय जोगो केवली’’—जब केवली भगवान् के सयोगी होने पर कर्मबन्ध माना है, तब अविरत सम्यक्त्वी को सर्वथा बन्धरहित कहना उचित नहीं है। उसके आस्रव तथा बन्ध के चार कारण अविरति, प्रमाद, कषाय और योग पाये जाते हैं। बन्ध का लक्षण सूत्रकार ने इस प्रकार किया है—‘‘सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्ध:’’—(८/२) जीव सकषाय होने के कारण जो कर्मों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, उसे बन्ध कहते हैं। यह लक्षण अविरत सम्यक्त्वी आदि के द्वारा गृहीत कर्मों में र्गिभत होने से उनके पाया जाने वाला बन्ध काल्पनिक नहीं है। सम्यग्दर्शन की प्राथमिक दशा में अल्प मात्रा में निर्जरा होती है। अविरति आदि कारणों से कर्मों का निरन्तर बन्ध होता रहता है। अविरत दशावाला कर्मों की महान् निर्जरा करता है, उसके बन्ध नहीं होता, ऐसा साहित्य प्रचार में आता है; उससे प्रभावित चित्तवालों को पक्षमोह छोड़ना चाहिए।
महत्वपूर्ण कथन
गुणभद्र आचार्य का यह कथन ध्यान से मनन करने योग्य है। उन्होंने ‘उत्तरपुराण’ में विमलनाथ भगवान् के वैराग्यभाव का उल्लेख करते हुए कहा है कि भगवान् इस प्रकार सोचते हैं—जब तक संसार की अवधि है, तब तक इन उत्तम तीन ज्ञानों से क्या काम निकलता है और इस वीर्य से भी क्या लाभ है; यदि मैंने श्रेष्ठ विकास—मोक्ष को नहीं प्राप्त किया। भगवान् अपने चित्त में विचारते हैं—
‘‘चारित्रस्य न गन्धोऽपि प्रत्याख्यानोदयो यत:। बन्धश्चर्तुिवधोऽप्यस्ति बहुमोहपरिग्रह:।।
प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय होने से मेरे चारित्र की गन्ध तक नहीं है तथा बहुत मोह और परिग्रह जनित प्रकृति, प्रदेश, स्थिति तथा अनुभाग रूप चर्तुविध बन्ध हो रहा है। मेरे सभी प्रमाद पाये जाते हैं। मेरे कर्मों की निर्जरा भी अत्यन्त अल्प प्रमाण में होती है। अहो ! यह मोह की महिमा है, जो मैं (तीर्थंकर होते हुए भी) इस संसार में ही बैठा हूँ’’। भगवान् विमलनाथ के विचारों के माध्यम से चतुर्थ, पंचम गुणस्थावर्ती व्यक्ति की मनोदशा का यथार्थ स्वरूप समझा जा सकता है तथा इस प्रकाश में देखने पर यह प्रतीत होता है कि कुछ आध्यात्मिक कवियों, लेखकों तथा भजन—निर्माताओं ने जो अविरत सम्यक्त्वी के महत्त्व पर गहरा रंग भरा है और उसे अबन्धक कहा है, वह उनकी निजी वस्तु है। आगम तो यह मानता है कि अविरत दशा में अविरति आदि कारणों से बन्ध होता रहता है तथा पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा अत्यन्त अल्प मात्रा में होती है। प्रश्न—चौथे गुणस्थान से आगे के गुणस्थान चारित्र के विकास से सम्बन्ध रखते हैं। असली रत्न कहो, विधि कहो, वह तो सम्यक्त्व है। चारित्र का कोई विशेष महत्त्व नहीं है क्या ? समाधान—यह धारणा सर्वज्ञ प्रणीत देशना से विपरीत है। सम्यक्त्व का महत्त्व सर्वोपरि है, किन्तु बिना चारित्र के वह सम्यक्त्व मोक्ष का कारण नहीं हो सकता। सम्यक्त्वी जिस वीतरागता की चर्चा करता है, वह रागहितपाना चारित्र धारण किए बिना असम्भव है। राग चारित्रमोह का भेद है। जितना—जितना चारित्र का धारण होता है, उतना—उतना रागरहित भाव जागृत होता जाता है। सोमदेव सूरि ने बड़ी र्मािमक बात कही है—
सम्यक्त्व से मनुष्य तथा देवगति में जन्म प्राप्त होता है, ज्ञान के द्वारा र्कीित मिलती है तथा चारित्र के द्वारा पूज्यता प्राप्त होती है। तीनों के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है। सम्यक्चारित्र का महत्त्व—आचरण के बिना श्रद्धा शोभायमान नहीं होती। सम्यक् श्रद्धा तथा चारित्र का भोग मणि—कंचण योग सदृश है। कुन्दकुन्द स्वामी ने ‘रयणसार’ में कहा है—
ज्ञानी पुरुष ज्ञान के प्रभा से कर्मों का क्षय करता है, यह कथन करने वाला अज्ञानी है। मैं वैद्य हूँ, मैं औषधि को जानता हूँ, क्या इतने जानने मात्र से व्याधि दूर हो जाएगी ? केवल सम्यग्दर्शन से सुगति प्राप्त होती है तथा मिथ्यात्व से नियमत: कुगति मिलती है—यह कथन कुन्दकुन्द स्वामी को भी सम्मत है, इससे वे कहते हैं—
सम्यक्त्व के कारण सुगति तथा मिथ्यात्व से नियमत: दुर्गति होती है, ऐसा जानो। अधिक कहने से क्या प्रयोजन? जो तुझको रुचे, वह कर। ‘प्रवचनसार’ में कहा है—
‘‘ण हि आगमेण सिज्झदि सद्दहणं जदि वि णत्थि अत्थेसु। सद्दहमाणो अत्थे असंजदो वा ण णिव्वादि।।’’
—प्रवचनसार, गा. २३७
यदि पदार्थों की सम्यक् श्रद्धा नहीं है, तो शास्त्रज्ञान के बल से मोक्ष नहीं होगा। कदाचित् पदार्थों की श्रद्धा भी है और संयम नहीं है, तो ऐसा असंयमी सम्यक्त्वी भी मोक्ष नहीं पाएगा। अत: अमृतचन्द्र सूरि कहते हैं—‘‘तत: संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धि:।’’ (पृ. ३२८)अयोगकेवली रूप सम्यक्त्वी के सर्वथा बन्ध का अभाव है। उपशान्त कषाय, क्षीण कषाय तथा सयोगी जिनके केवल सातावेदनीय का प्रकृति तथा प्रदेशबन्ध योग के कारण होता है। उससे नीचे चारों बन्ध होते हैं। सम्यक्त्वी ही कुछ प्रकृतियों का बन्धक—कर्मों में कुछ प्रकृतियाँ तो मिथ्यात्वी जीव बाँधता है और कुछ ऐसी प्रकृतियाँ जिनके लिए विशुद्धभाव कारण होने से सम्यक्त्वी ही बन्धक कहा गया है। इतना ही नहीं, शुक्लध्यानी, शुद्धोपयोगी मुनीन्द्र तक पुण्य कर्म रूप प्रकृतियों का बन्ध कहते हैं। जिनके क्रोध, मान तथा माया कषाय का अभाव हो चुका है, ऐसे सूक्ष्म लोभ गुणस्थान वाले मुनिराज के उच्चगोत्र, यश:र्कीित रूप पुण्यप्रकृतियाँ उत्कृष्ट अनुभागबन्ध युक्त बँधती हैं। ‘महाबंध’ में लिखा है—‘‘आहारसरीर—आहारसरीरंगोवंगाणं को बंधको ? को अबंधको ? अप्पमत्त–अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जभागं गंतूण बंधो वेच्छिज्जदि। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा’’—आहारकशरीर तथा आकारकशरीरांगोपांग का कौन बन्धक है, कौन अबन्धक है ? अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि तथा अपूर्वकरण के काल में संख्यातभाग व्यतीत होने पर बन्ध की व्युच्छित्ति होती है। उपर्युक्त गुणस्थान वाले बन्धक हैं; शेष अबन्धक हैं। ‘‘तित्थयरस्स को बंधको, को अबंधो ? असंजदसम्माइट्ठि याव अपुव्वकरण. बंधा.। अपुव्वकरणद्धाए संखेज्जभागं गंतूण बंधो वेच्छिज्जदि। एदे बंधा, अवसेसा अबंधा।—‘‘तीर्थंकर प्रकृति का कौन बन्धक है, कौन अबन्धक है ? असंयतसम्यग्दृष्टि लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त बन्धक है। अपर्वूकरण के काल के संख्यातभाग व्यतीत होने तक बन्ध होता है। आगे बन्ध की व्युच्छित्ति हो जाती है। अत: पूर्वोक्त बन्धक है तथा शेष अबन्धक हैं। (‘महाबन्ध’ प्रकृतिबन्ध, भाग १, ताम्र पत्र प्रति, पृ. ५) जीव के भावों की विचित्रता का रहस्य सर्वज्ञ ज्ञानगम्य है। सकल संयम के धारक शुक्लध्यान में निमग्न शुद्धोपयोग की उच्च स्थिति को प्राप्त व्यक्ति के जब पुण्य प्रकृतियों का बन्ध होता है, तब नीचे की अवस्था वाले अविरत सम्यक्त्वी को बन्धरहित कहना सोचना, समझना तथा समझाना परमागम की देशना के विपरीत कथन करना है। क्या सम्यक्त्वी के ज्ञानचेतना ही होती है ?— शंका—सम्यक्त्वी के बन्धाभाव का समर्थन शंकाकार अन्य प्रकार से करता हुआ करता है। सम्यक्त्वी के ज्ञानचेतना होती है, इससे उस बन्ध का अभाव आगमाविरुद्ध है। समाधान—मिथ्यात्वी के ज्ञान चेतना का अभाव सबको इष्ट है। सम्यक्त्वी के ज्ञान चेतना ही होती है, ऐसी बात नहीं है। चेतना के स्वरूप पर विशेष प्रकाश डालते हुए अमृतचन्द्रसूरि ‘समयसार’ की टीका में (पृ. ४८१) लिखते हैं—‘‘ज्ञान से अन्यत्र मैं ‘यह’ हूँ; इस प्रकार का चिन्तन अज्ञानचेतना हैं वह कर्मचेतना, कर्मफल चेतना के भेद से दो प्रकार की है। ज्ञान से पृथक् मैं ‘यह करता हूँ, य िचन्तिन कर्म चेतना है। ज्ञान से अन्य मैं यह अनुभव करता हूँ, इस प्रकार चिन्तन कर्मफल चेतना है। दोनों चेतनाएँ समान रसवाली हैं तथा संसार की कारण हैंं संसार का बीज अष्टविध कर्मों के बीजरूप होता है। अत: मुमुक्षु को उचित है कि वह अज्ञान चेतना को दूर करने के लिए सम्पूर्ण कर्मों के त्याग की भावना तथा सम्पूर्ण कर्मफल त्याग की भावना को नृत्य कराकर आत्मस्वरूपवाली भगवती ज्ञान चेतना को ही नित्य नृत्य करावे।’’ इस विषय को अधिक स्पष्ट करते हुए जयसेनाचार्य लिखते हैं—‘‘मेरा कर्म है, मेरे द्वारा किया गया है, इस प्रकार अज्ञान भाव से मन—वचन—काय की क्रिया करना कर्म चेतना है। आत्मस्वभाव से रहित अज्ञानभाव द्वारा इष्ट अनिष्ट विकल्परूप से हर्ष, विषाद, सुख—दु:ख का जो अनुभवन करना है, वह कर्मफल चेतना है। (पृ. ४९०) कुन्दकुन्द स्वामी ‘प्रवचनसार’ में कहते हैं—
‘चेतना की ज्ञानरूप परिणति ज्ञानचेतना है, कर्मरूप परिणति कर्म—चेतना तथा फलरूप परिणति कर्मफल—चेतना है।’ इससे यह प्रकट होता है कि ज्ञानचेतना में ज्ञातृत्व भाव है, कर्मचेतना में कर्तृत्व परिणति है और कर्मफल चेतना में भोक्तृत्व भाव है। सम्यक्त्वी के कर्म तथा कर्मफल चेतना का सद्भाव— सम्यक्त्वी के ज्ञान चेतना ही पायी जाती है, इस भ्रम का निवारण करते हुए पंचाध्यायीकार कहते हैं—
किसी सम्यक्त्वी के कर्म तथा कर्मचेतना भी पायी जाती हैं। किन्तु परमार्थ से सम्यक्त्वी के ज्ञान चेतना पायी जाती है।’’ यहाँ पूर्ण ज्ञान विशिष्ट सम्यक्त्वी को लक्ष्य में रखकर उसके ज्ञानचेतना का परमार्थ रूप से सद्भाव प्रतिपादित किया है। अपूर्ण ज्ञानी की अपेक्षा कर्मचेतना तथा कर्मफल चेतना भी कही है। इस दृष्टि का स्पष्टीकरण निम्नलिखित पद्य से होता है—
६कर्म तथा कर्मफलचेतना का फल बन्ध कहा है। उस सम्यक्त्वी के राग का अभाव होने से बन्ध नहीं है। अत: उसके ज्ञानचेतना है।’ यहाँ रागाभाव होने से बन्ध का अभाव कहा है। यह रागाभाव उपशान्तकषायादि गुणस्थान में होगा, अत: उसके पूर्व रागभाव का सद्भाव होने से बन्ध का होना स्वीकार करना होगा। यथार्थ ज्ञानचेतना केवलज्ञानी के होगी जिनके अज्ञान का अभाव हो गया है और छद्मस्थ अवस्था से अतीत हो गये हैं कुन्दकुन्द स्वामी की यह गाथा इस विषय में बहुत उपयोगी है।
‘‘सम्पूर्ण स्थावर जीवों के कर्मफल चेतना है। त्रस जीवों में कर्मफल के सिवाय कर्मचेतना भी पायी जाती है। प्राणी इस व्यपदेश को अतिक्रान्त—जीवन्मुक्त ज्ञानचेतना का अनुभवन करते हैं। यहाँ ‘जीवन्मुक्त’ शब्द का अर्थ अविरत सम्यक्त्वी नहीं, किन्तु केवली भगवान् हैं; कारण टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है कि सम्पूर्ण मोह कलंक के नाशक, ज्ञानावरण दर्शनावरण ध्वंस करने वाले, वीर्यान्तराय के क्षय से अनन्तवीर्य को प्राप्त करने वाले अत्यन्त कृतकृत्य केवली भगवान् ज्ञान चेतना को ही अनुभव करते हैं। ‘पंचास्तिकाय’ टीका के ये शब्द महत्त्वपूर्ण हैं—‘‘तत्र स्थावरा: कर्मफलं चेतयन्ते। त्रसा: कार्यं चेतयन्ते। केवलज्ञानिनो ज्ञानं चेतयन्ते (पंचास्तिकाय, टीका, पृ. १२) स्थावर जीव कर्मफलचेतना का अनुभवन करते हैं। त्रस जीव कर्मचेतना का अनुभव करते हैं। केवलज्ञानी ज्ञानचेतना का अनुभवन करते हैं। ‘अनगारधर्मामृत’ की संस्कृत टीका (पृ. १०७ में पण्डितप्रवर आशाधरजी लिखते हैं—‘‘जीवन्मुक्तास्तु मुख्यभावेन ज्ञानम्। गौणतया त्वन्यदपि।….सा चोभय्यपि जीवन्मुक्तेर्गौणी बुद्धिपूर्वक कर्तृत्व—भोत्तृत्वयोरुच्छेदात्’’ जीवन्मुक्तों के मुख्यता से ज्ञान चेतना है। गौण रूप से उनके अन्य भी चेतनाएँ हैंं वे कर्म और कर्मफल चेतनाएँ जीवन्मुक्त में मुख्य नहीं, किन्तु गौणरूप से हैं; कारण उनमें बुद्धिपूर्वक कर्तृत्व और भोक्तृत्व का अभाव हो चुका है। इस विवेचन से यह विदित हो जाता है कि केवली भगवान् से नीचे के गुणस्थानवर्ती सम्यक्त्वी जीवों में कर्म और कर्मफल चेतनाएँ भी पायी जाती हैं। अविरत सम्यक्त्वी के विचित्र कार्यों को बन्धरहित बताना और उसे सदा सजग ज्ञानचेतना का ही स्वामी कहना बड़ी आवश्चर्यप्रद बात है। क्षायिक सम्यक्त्वी श्रेणिक महाराज ने आत्मघात करके प्राण परित्याग किये। परम र्धािमक सीता के प्रतीन्द्र पर्याय के जीवन ने तपश्चर्या में निमग्न महामुनि रामचन्द्र को धर्म से डिगाने का मोहवश प्रयत्न किया, ताकि राजचन्द्रजी का सीता के स्वर्ग में ही उत्पाद हो जाए। ये क्रियाएँ शुद्धचेतना के प्रकाश को नहीं बताती हैं। इन पर कर्म, कर्मफल चेतनाओं का प्रभाव स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है। चारित्रमोहादयवश ये क्रियाएँ हुआ करती हैं। ‘सदन—निवासी, तदपि उदासी तातें आस्रव छटपटी सी यह सम्यक्त्वी के जघन्य अवस्था में ज्ञानचेतना के सिवाय कर्म और कर्मफल चेतनाएँ भी पायी जाती हैं। उनके कारण वह किन्हीं प्रकृतियों का बन्ध नहीं करता है और किन्हीं कर्म—प्रकृतियों का बन्ध भी करता है; इस प्रकार का स्याद्वाद है।
ग्रंथ का विषय
‘महाबन्ध’ के इस ‘पयडिबन्धाहियार’ प्रकृतिबन्धाधिकार नामक खण्ड में प्रकृतिसमुत्कीर्तन, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध उत्कृष्बन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रवबन्ध, अध्रुवबन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, बन्धकाल, बन्ध—अन्तर, बन्धसन्निकर्ष, भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव तथा अल्पबहुत्व—इन चौबीस अनुयोग द्वारों से प्रकृति बन्ध पर प्रकाश डाला गया है। इस कर्मबन्धन के कारण अनन्त ज्ञान—आनन्द शक्ति, आदि का अधिपति यह आत्मा दीनतापूर्ण जीवन बिता कष्ट उठाता है। इस आत्मा का यथार्थ कल्याण आत्मीय दोषों के निर्मूल करने में है। समाधि की प्रचण्ड अग्नि द्वारा इस दोष—पुंज का अविलम्ब क्षय होता है। संवर और निर्जरा रूप परिणति से उस स्वरूप की उपलब्धि हो जाती है, जिसको परम निर्वाण कहते हैं। इस पद का प्रधान कारण भेदज्ञान की प्राप्ति है। मेरा आत्मा एक है, ज्ञान—दर्शनमय है; शेष सर्व अनात्म भाव है। इस विद्या के प्रभाव से सिद्धत्व की अभिव्यक्ति होती है। बन्ध की विपत्ति से बचने के लिए योगीन्द्रदेव कहते हैं—
‘‘अण्णु जि तित्थु जाहि जिय, अण्णु जि गुरुउ म सेवि। अण्णु जि देउ म चिति तुहुं, अप्पा विमलु मुएवि।।’’
—परमात्मप्रकाश, अ. १, दो. ९५‘
‘हे आत्मन् ! तू देसरे तीर्थों को मत जा; अन्य गुरु की शरण में मत पहुँच, अन्य देव का चिन्तवन मत कर। अपनी निर्मल आत्मा को छोड़कर अन्य का चिन्तन मत कर।’’ जब आत्मा यह समझ लेता है कि मैं कर्मों के बन्ध में बद्ध हो गया हूँ; किन्तु मैं इससे भिन्न स्वरूपवाला हूँ, तब उसे सच्चा प्रकाश प्राप्त हो जाता है। तत्त्व की बात तो इतनी है—
‘‘भेदविज्ञानत: सिद्धा: सिद्धा ये किल केचन। तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।।’’
जो जीव सिद्ध हुए हैं, वे सब अभेदरत्नत्रय स्वरूप भेद—विज्ञान से सिद्ध हुए हैं। जो अब तक संसार में बद्ध हैं, वे उस र्नििवकल्पज्ञान के अभाव से बँधे हैं।
भेदविज्ञान की लोकोत्तरता
भेदविज्ञान की उपलब्धि सरल कार्य नहीं है। उसके लिए ही सर्व उद्योग मुमुक्षु पुरुष किया करते हैं। विश्व के अतुलनीय साम्राज्य और विभूति का त्याग करके भी उसकी प्राप्ति दुर्लभ रहती है। भेदविज्ञान के पश्चात् अद्वैत भावना के अभ्यास द्वारा र्नििवकल्प समाधि को प्राप्त करके जब जीव एकत्व वितर्वâ नाम के द्वितीय शुक्लध्यान को प्राप्त कता है, तब कर्मों का राजा मोहनीय क्षय को प्राप्त होता है। उस समय क्षण मात्र में आत्मा अर्हन्त बनकर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख तथा अनन्तवीर्य रूप अनन्त चतुष्टय से समलंकृत होता है। उस प्राप्तव्य परम पदवी के लिए उपायरूप मार्गदर्शन गुणभद्राचार्य के इन शब्दों द्वारा प्राप्त होता है—
हे भद्र ! :अकिंचनोऽहं’ मेरा कुछ नहीं है’, इस भावना के साथ स्थित हो। ऐसा करने से तू त्रिलोकीनाथ बन जाएगा। मैंने यह तुझको परमात्मा का रहस्य कहा है जो योगियों के ही अनुभवगम्य है। सत्यपथ—इस अकिंचनपने की भावना के साथ संयमशील पुनीत जीवन भी आवश्यक है। वे मुनीश्वर यह र्मािमक बात कहते हैं—
यह मनुष्य पर्याय दुर्लभ, अशुद्ध, सुखरहित है। इस पर्याय में आगामी मरण कब होगा, यह अविदित है। अन्य पर्यायों की तुलना में आयु भी थोड़ी है। यह विशेष बात है कि तप:साधना इसी पर्याय में सम्भव है। कर्मक्षयरूप मुक्ति उसी तप से प्राप्त होती है। इससे तप का आचरण भी करना चाहिए। आचार्य वादीभिंसहसूरि ‘क्षत्रचूड़ामणि’ में कहते हैं—
‘‘हे आत्मन् ! तू अपने कर्म के उदय से नाटक के नट के समान जगत् में भ्रमण करता है। पाप के उदय से तिर्यंच और नरक पर्याय पाता है। पुण्य के उदय से देव होता है तथा पाप और पुण्य के संयुक्त उदय से मनुष्य पर्याय पाता है।’’
‘‘त्वमेव कर्मणां कर्ता भोक्ता च फलसन्तते:। भोक्ता च तात किं मुक्तौ स्वाधीनायां न चेष्टसे।।’’
—क्षत्रचूडामणि, ११, ४५
हे आत्मन् ! तू ही अपने कर्मों का बन्ध करता है और उसकी फलपरम्परा का भोक्ता भी हू है। तू ही कर्मों का क्षय करने में समर्थ है। हे तात! मुक्ति तेरे स्वाधीन है, उसके लिए क्यों नहीं उद्योग करता है ? कवि कर्मों के कुचक्र से बचने के हेतु आत्मा का सचेत करता हुआ है—भद्र ! तू इन कर्माष्ट के दुष्कृत्यों पर दृष्टि देकर उनके विषय में धोखा मत खा। इन कर्मों का ढंग बड़ा अद्भुत है। क्षणभर में ये तुझे सिंहासन का अधिपति बनाकर दूसरे काल में तुझे भिखारी भी बना सकते हैं। इन पर विश्वास मत कर—
आठन की करतूति विचारहू कौन—कौन से करते हाल।
कबहूँ सिर पर छत्र फिरावें, कबहूँ रूप करें बेहाल।।
देवलोक सुख कबहूँ भुगते, कबहूँ रंक नाज को काल।
ये करतूति करें कर्मादिक चेतन रूप तू आप सम्हाल।।’’
सार की बात
मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थी मानव को आत्मा और अनात्मा का पूर्णतया स्पष्ट अवबोध आवश्यक है। इसके पश्चात् जीव परम—यथाख्यात चारित्र के द्वारा कर्म—शैल के ध्वंस करने में समर्थ होता है। आचार्य कुन्दकुन्द की यह अमृतवाणी अमृत पथ को इन सारर्गिभत शब्दों–द्वारा स्पष्ट करती है—
‘‘बंधाणं च सहावं वियाणिदुं अप्प्पणो सहावं च। बंधेसु जो विरज्जदि सो कम्म—विमोक्खणं कुणदि।।’’
—समयसारग गा. २९३
जो विवेकी बन्ध का तथा आत्मा का स्वभाव सम्यक् प्रकार से अवगत कर बन्ध से विरक्त होता है, वह कर्मों का पूर्णतया क्षय करता है। ‘त्त्त्वानुशासन’ की तत्त्वदेशना अभिवन्दनीय है—
मेरा आत्मा सम्पूर्ण कर्मजनित भावों से सर्वदा भिन्न है तथा वह ज्ञान स्वभाव एवं उदासीनरूप (राग—द्वेषरहित) है, ऐसा अपनी आत्मा के द्वारा आत्मा का दर्शन करे।