इस विशाल जगत् और अपने जीवन में जब हम झांककर देखते हैं, तो हमें अनेक विविधता दिखाई पड़ती है। जगत् विविधताओं का केन्द्र है, तथा जीवन विषमताओं से घिरा है। जगत् में कोई सुखी, कोई दु:खी, कोई निर्धन, कोई धनवान, कोई ऊँच, कोई नीच, कोई पंडित, कोई मूर्ख, कोई सुंदर, कोई कुरूप, कोई दुर्बल, कोई बलवान, कोई उन्मत्त, कोई विद्वान, कहीं जीवन, कहीं मरण, कोई बड़ा, कोई छोटा आदि अनेक विविधताएँ पायी जाती हैं। सर्वत्र वैचित्र्य ही दिखता है तथा जीवन में भी अनेक विषमताएँ हैं। हमारा जीवन भी आशा-निराशा, सुख-दु:ख, प्रसन्नता-अप्रसन्नता, हर्ष-विषाद अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि अनेक परिस्थितियों से गुजरता हुआ व्यतीत होता है। जीवन में कहीं समरूपता नहीं है। जगत की इस विविधता और जीवन की विषमता का कोई न कोई तो हेतु होना ही चाहिए। वह हेतु है ‘कर्म’। कर्म ही जगत की विविधता और जीवन की विषमता का जनक है।
जो जैसा करता है, उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। सामान्त: कर्म सिद्धांत का यही अभिप्राय है। कर्म को सभी भारतीय दर्शन स्वीकार करते हैं (सिर्फ चार्वाक को छोड़कर, क्योंकि वहाँ तो आत्मा के अस्तित्व को ही नहीं स्वीकार करते) इस सिद्धांत में एक मत होते हुए भी कर्म के स्वरूप और उसके फल देने के संबंध में सबकी अपनी-अपनी मान्यताएँ हैं। ‘कर्म’ का शाब्दिक अर्थ ‘कार्य’, प्रवृत्ति अथवा क्रिया होता है, अर्थात् जो किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं। जैसे-हंसना, रोना, चलना, दौड़ना, खाना, पीना आदि। व्यवहार में काम-धंधे या व्यवसाय को ‘कर्म’ कहा जाता है। कर्मकांडी मीमांसक, यज्ञ आदि क्रियाओं को कर्म कहते हैं। मनुस्मृति में चार वर्ण और चार आश्रमों के योग्य कर्त्तव्यों को कर्म कहा गया है। पौराणिक लोग व्रत, नियम आदि धार्मिक क्रियाओं को कर्म मानते हैं। वैय्याकरण जो कर्त्ता के लिए इष्ट हो, उसे कर्म मानते हैं। न्याय शास्त्र में उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण तथा गमन रूप पाँच प्रकार की क्रियाओं के लिए ‘कर्म’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। योग-दर्शन में संस्कार को ‘अपूर्व वासना’ अथवा ‘कर्म’ कहा जाता है। बौद्धदर्शन में कर्म वासना रूप है। जैन दर्शन में कर्मविषयक मान्यता इन सबसे पृथक है। जैन सिद्धांत में जो कर्म सिद्धांत का विवेचन मिलता है वह अत्यंत विशद तथा अर्थपूर्ण है। जैन मान्यता के अनुसार कर्म का अर्थ कायिक क्रियाकांडों एवं अन्य प्रवृत्तियों से नहीं है। न ही बौद्धों और वैशेषिकों की तरह संस्कार मात्र है, अपितु कर्म भी एक पृथक् सत्ता भूत पदार्थ है।
जैन दर्शन में कर्म को पुद्गल-परमाणुओं का पिंड माना गया है। तद्नुसार यह लोक तेईस प्रकार की पुद्गल-वर्गणाओं से व्याप्त है। उनमें से कुछ पुद्गल-परमाणु कर्म रूप से परिणत होते हैं, उन्हें कर्म वर्गणा कहते हैं। कुछ शरीर रूप से परिणत होते हैं वे नोकर्म-वर्गणा कहलाते हैं। लोक इन दोनों प्रकार के परमाणुओं से पूर्ण है। जीव अपने मन, वचन और काय की प्रवृत्तियों से इन्हें ग्रहण करता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव के साथ कर्म संबद्ध हो, तथा जीव के साथ कर्म तभी संबद्ध होते हैं, जब मन, वचन या काय की प्रवृत्ति हो। इस प्रकार कर्म से प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति से कर्म की परम्परा अनादि से चली आ रही है। कर्म और प्रवृत्ति के इस कार्यकारण भाव को दृष्टिगत रखते हुए पुद्गल परमाणुओं के पिंड रूप कर्म को ‘द्रव्य कर्म’ तथा रागद्वेषादि रूप प्रवृत्तियों को ‘भाव कर्म’ कहा गया है। द्रव्य कर्म और भाव कर्म का कार्य-कारण संबंध वृक्ष और बीज के समान अनादि है।
जगत की विविधता का कारण उक्त द्रव्य-कर्म ही है, तथा राग-द्वेषादि मनोविकार रूप भाव-कर्म ही जीवन में विषमता उत्पन्न करते हैं।
इस प्रसंग में यह जिज्ञासा सहज ही हो जाती है कि जीव चेतनावान, अमूर्त पदार्थ है तथा कर्म पौद्गलिक पिंड। तब मूर्त का अमूर्त आत्मा से बंध वैâसे होता है? मूर्तिक का मूर्तिक से संबंध तो उचित है, किन्तु मूर्तिक का अमूर्तिक से संबंध कैसे होता है?
इस प्रश्न का समाधान जैनाचार्यों ने अनेकांतात्मक शैली में दिया है। जैन दर्शन में संसारी आत्मा को आकाश की तरह सर्वथा अमूर्त नहीं माना गया है। उसे अनादि बंधन-बद्ध होने के कारण मूर्तिक भी माना गया है। बंध पर्याय में एकत्व नहीं के कारण आत्मा को मूर्तिक मानकर भी वह अपने ज्ञान आदि स्वभाव का परित्याग नहीं करता, इस अपेक्षा से उसे अमूर्तिक कहा गया है। इसी कारण अनादि बंधन-बद्धता होने से उसका मूर्त कर्मों के साथ बंध हो जाता है।
जिस प्रकार घी (नामक पदार्थ) मूलत: दूध से उत्पन्न होता है, परन्तु एक बार घी बन जाने के बाद उसे पुन: दूध रूप में परिणत करना असंभव है, अथवा जिस प्रकार स्वर्ण नामक पदार्थ मूलत: पाषाण में पाया जाता है परन्तु एक बार स्वर्ण बन जाने पर उसे किट्टिमा के साथ मिला पाना असंभव है। उसी प्रकार जीव भी सदा ही मूलत; कर्मबद्ध (सशरीरी) उपलब्ध होता है, परन्तु एक बार कर्मों से संबंध छूट जाने पर पुन: इसका शरीर के साथ संबंध हो पाना असंभव है। जीव मूलत: अमूर्तिक या कर्म रहित नहीं है, बल्कि कर्मों से संयुक्त रहने के कारण वह अपने स्वभाव से च्युत उपलब्ध होता है। इस कारण वह मूलत: अमूर्तिक न होकर, कथंचित् मूर्तिक है। ऐसा स्वीकार कर लेने पर उसका मूर्त कर्मों के साथ बंध हो जाना, विरोध को प्राप्त नहीं होता। हां, एक बार मुक्त हो जाने पर वह सर्वथा अमूर्तिक अवश्य हो जाता है और तब कर्म के साथ उसके बंध होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
जैसे-स्वर्ण-पाषाण को खदान से निकालने पर वह कालिका और किट्टिमा रूप विकृति-युक्त होता है। उसे रासायनिक प्रयोगों से पृथव्â कर शुद्ध किया जाता है। उसी तरह संसारी जीवों का कर्मों से अनादि-कालीन संबंध है। साधना और तपश्चर्या के बल पर कर्मों को अलग कर आत्मा से परमात्मा बना जा सकता है। जैन मान्यता के अनुसार संसार में रहने वाला प्रत्येक जीव कर्मों से बंधा हुआ है। जीव कभी शुद्ध था फिर अशुद्ध हुआ हो, ऐसी बात नहीं है, क्योंकि यदि वह शुद्ध था तो फिर उसके अशुद्ध होने का कोई कारण ही बनता। यदि फिर भी वह अशुद्ध होता है, तब तो मुक्ति के उपाय की बात ही निरर्थक हो जाती है।
इसी बात का समाधान करते हुए जैनाचार्यों ने कहा है कि ‘‘जीव और कर्म का अनादि से संबंध है इन कर्मों के कारण ही संसार की नाना योनियों में भटकता हुआ यह जीव सदा से दु:खों का भार उठाता आ रहा है।’’ कर्म बंध और संसार परिभ्रमण को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुंद-कुन्द स्वामी ने अपने ‘पंचास्तिकाय’ में कहा है कि-
जो खलु संसारत्थो जीवो तत्तो दुहोदि परिणामो।
परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदि सु गदि।।
गदि मधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायंते।
तेहिं दु विसयगहणं तत्तो दु रागो व दोसो वा।।
जायदि जीवस्सेवं भावं संसार चक्क वालम्मि।
इदि जिणवरेंहिं भणिदं अणादि णिहणों सणिहणों वा।।
संसार में जितने भी जीव हैं, उनमें राग-द्वेष रूप परिणाम होते हैं। उन परिणामों से कर्म बंधते हैं। कर्मों से चार गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेने से शरीर मिलता है तथा शरीर में इंद्रियां होती हैं, इनसे विषयों का ग्रहण होता है तथा विषयों के ग्रहण से राग-द्वेष होते हैंं। इस प्रकार संसाररूपी चक्र में भ्रमण करते हुए जीव के भावों से कर्मों का बंध तथा कर्म बंध से जीव के भाव, संतति की अपेक्षा अनादि से चला आ रहा है। यह चक्र अभव्य जीवों की अपेक्षा अनंत है तथा भव्य जीवों की अपेक्षा अनादिसांत।
ऐसा नहीं है कि इस अनादि कर्म-बंध का अंत असंभव ही हो। इस विवेचन में यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि कर्म-चक्र राग-द्वेष के निमित्त से घड़ी यंत्र की भांति सतत् चलता रहता है, तथा जब तक राग-द्वेष और मोह के वेग में कमी नहीं आती तब तक यह कर्मचक्र निर्बाध रूप से चलता रहता है। राग-द्वेष के अभाव में क्रियाएँ कर्म-बंध नहीं करातीं। इस बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी ने ‘समयसार’ में कहा है कि कोई व्यक्ति अपने शरीर को तेल से लिप्त कर धूली-पूर्ण स्थान में जाकर शस्त्र संचालन करता है, और ताड़, केला, बांस आदि के वृक्षों का छेदन करता है, उस समय वह धूल उड़कर उसके शरीर से चिपक जाती है। वस्तुत: देखा जाए तो उस व्यक्ति का शस्त्र-संचालन शरीर में धूल चिपकाने का कारण नहीं है। वास्तविक कारण तो तेल का लेप ही है, जिससे धूल का संबंध होता है। यही कारण है कि जब व्यक्ति बिना तेल लगाए पूर्वोक्त क्रियाएँ करता है तो धूल नहीं लगती। इसी प्रकार राग-द्वेष रूपी तेल से लिप्त आत्मा में कर्म-रज आकर चिपकती है और आत्मा को मलिन बनाकर इतना पराधीन कर देती है कि अनंतर-शक्ति संपन्न जीवात्मा, कठपुतली की तरह, कर्मों के इशारे पर नाचा करता है।
जीव और कर्म के संबंध को संतति की अपेक्षा अनादि मानते हुए भी पर्याय की दृष्टि से सादि-संबंध माना गया है। बीज और वृक्ष के संबंध पर दृष्टि डालें, तो संतति की अपेक्षा उनका कारण-कार्य भव अनादि होगा। जैसे अपने सामने लगे आम के वृक्ष का कारण हम उस बीज को कहेंगे, यदि हमारी दृष्टि प्रतिनियत आम के पेड़ तक ही जाती है तो हम उसे उस बीज से उत्पन्न कहकर सादि-संबंध सूचित करेंगे। किन्तु इस बीज के उत्पादक अन्य वृक्ष तथा अन्य वृक्ष के जनक अन्य बीज की परंपरा पर दृष्टि डालें तो इस दृष्टि से यह संबंध अनादि मानना होगा। कुछ दार्शनिकों का मानना है कि जो अनादि है उसका अंत नहीं हो सकता, किन्तु वस्तु स्थिति ऐसा नहीं है। यह कोई अनिवार्य नहीं है कि अनादि वस्तु अनंत ही है। वह अनंत भी हो सकता है तथा विरोधी कारण के आ जाने पर अनंत होने वाले संबंध का मूलोच्छेद भी किया जा सकता है, कहा भी है-
दग्धे बीजे यथात्यन्ते प्रादुर्भवति नाङ्कुर:।
कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्कुर:।।
अर्थात् बीज के जल जाने पर पुन: नवीन वृक्ष से निमित्त बनने वाला अंकुर उत्पन्न नहीं होता। उसी प्रकार कर्म बीज के भस्म हो जाने पर भवरूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता।
इस प्रकार बीज और वृक्ष की संतति की तरह जीव और कर्मों का परस्पर निमित्त-नैमेत्तिक संबंध है। जीव के अशुद्ध परिणामों के निमित्त से पुद्गल-वर्गणाएँ कर्म रूप परिणत हो जाती हैं तथा पुद्गल कर्मों के निमित्त से जीव के अशुद्ध परिणाम होते हैं। फिर भी जीव कर्म-रूप नहीं होता तथा कर्म जीव-रूप नहीं होता। दोनों के निमित्त से संसार चक्र चलता रहता है।
जैन दर्शनानुसार लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहाँ कर्म योग्य पुद्गल परमाणु नहीं हो। जीव के मन, वचन और काय के निमित्त से अर्थात् जीव के मानसिक, वाचनिक और कायिक प्रवृत्ति के कारण कर्म योग्य परमाणु चारों ओर से आकृष्ट हो जाते हैं तथा कषायों के कारण जीवात्मा से चिपक जाते हैं। इस प्रकार कर्म-बंध के दो ही कारण माने गए हैं-योग और कषाय। शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति को योग कहते हैं तथा क्रोधादिक-विकार कषाय के अंतर्गत है। वैसे कषायों के अनेक भेद हो सकते हैं, किन्तु स्थूल रूप से दो भेद किए गए हैं-‘राग और द्वेष’। राग-द्वेष युक्त शारीरिक, वाचनिक और मानसिक प्रवृत्ति ही कर्म-बंध का कारण है। वैसे तो सभी क्रियाएँ कर्मोपार्जन का हेतु बनती हैं किन्तु जो क्रियाएँ कषाय-युक्त होती हैं उनसे होने वाला बंध बलवान होता है, जबकि कषायरहित क्रियाओं से होने वाला बंध निर्बल और अल्पायु होता है। इसे नष्ट करने में अल्प शक्ति एवं अल्प समय लगता है। इस प्रकार योग एवं कषाय कर्म बंध के प्रमुख कारण हैं।